मीरा चरित भाग- 86

इस घर की बाईसा हुकुम उस घर की बहू हैं।उन्होंने यह बात श्री जी से अर्ज कर दी थी।जान समझकर ही श्री जी ने यह सम्बन्ध स्वीकार किया।अब भक्ति छुड़ाने के लिए इतने अत्याचार क्यों? क्षमा करें हुजूर, छोटे मुँह बड़ी बात अर्ज कर रही हूँ, किंतु इसमें तनिक भी झूठ नहीं है कि चित्तौड़ के भाग्य से ऐसा संयोग बना था कि एक साथ सबका उद्धार हो जाता, पर ऐसा दुर्भाग्य जागा कि कहा नहीं जाता।दूर दूर से लोगसुनकर दौड़ेआते हैं और यहाँ आँखों देखी का भी इन्हें विश्वास नहीं आता।आप किसी प्रकार बाईसा हुकुम को छुड़वा दीजिए।हम मेड़ते चले जायेगें।’
‘क्यों? मेड़ते क्यों? यहीं रहो सिसोदिये यहाँ लाये हैं जीवन भर के लिए, आधी आयु के लिए नहीं।ये बात बाद में करेगें।मैं जाकर खोज करूँगा।सफल होता हूँ या नहीं, यह भगवान एकलिंग के हाथ में है।अपनी ओर से प्राणों के मूल्य पर भी मेड़तणी जी सा को यहाँ पधरा सका तो स्वयं को धन्य मानूँगा।वे जिस अवस्था में भी होगीं यहाँ इसमहल में पहुँचा दूँगा।’

‘भूत महल की चाबियाँ बख्शे सरकार’- सलुम्बर बाबाजी ने महाराणा विक्रमादित्य से निवेदन किया।
‘क्यों? किसलिये?’
‘कुँवराणी मेड़तणी जी सा अपने महल में नहीं हैं।सुना है कि सभी रानियों के साथ वे भी भूत महल में पधारीं थीं।वहाँ से लौटकर महल में नहीं पधारीं।आज पाचँ छ: दिन हो गये।उस महल के लोग खाना पीना भूल गये हैं।यदि उन्हें कुछ हो गया तो भगवान क्या करेगें सो तो भगवान ही जानें, पर इतिहास हमें क्षमा नहीं करेगा।एक बार भूत महल में देख लिया जाये, कहीं भूल से उसी के किसी कक्ष में न रह गईं हो।सुना है कि चार पाँच दिन पूर्व भूत महल के पिछवाड़े से होकर एक गायरी अपनी खोई हुई भेड़ ढूँढ़ने निकला तो उसे भूत महल से गीत के स्वर सुनाई दिये।’
‘भाभी म्हाँरा महलों में नहीं है, यह बात मुझे तो किसी ने नहीं कही और आपको उतनी दूर कौन अर्ज करने दौड़ा आया?’
‘कौन आया और कौन नही आया, यह विवाद कुछ समय पश्चात भी हो सकता है सरकार।आपके सामने छोटी मोटी बात निवेदन करने की छाती ही किसकी है?’- रावतजी नहीं चाहते थे कि महाराणा चिढ़ जायें।इसलिए अपना और उनका सम्मान बचाते हुये काम की बात कर लेना चाहते थे।
‘और किसी की छाती हो न हो, आपकी तो है’- महाराणा ने हँसकर कहा।
‘सो तो आपकी कृपा है हुजूर। समझ में नहीं आता कि घर में से मनुष्य लोप हो जाये और हमें ज्ञात नहीं होता, बाहर का तो रामही धणी है।’
‘ज्ञात तो सब कुछ है काकाजी।पर हम नाम नहीं लेते।भक्तों की बात कौन करे? हमारी तो पहले ही बहुत बदनामी हो चुकी है।स्त्रियों का कहना है कि लौटते समय पोल पर ही भाभी म्हाँरा लोप हो गईं।खोजबीन करता कराता तो लोग माथे आये फिरते कि हमें तंग करते हैं।बताईये कि अब हम क्या करें?’
‘ज्ञात क्यों न होगा? सुना है कि सरकार स्वयं पधारें थे वहाँ।जो भी हुआ होगा सरकार की नजरों से ही गुजर कर हुआ होगा।चाबियाँ बख्शें तो एक बार जाँच कर लें।लोप हो गईं हों तो बड़ी ख़ुशी की बात है, अन्यथा जीवित मृत जैसी भी होगीं, मिल ही जायेगीं।’
‘आप क्यों कष्ट करते हैं? मैं स्वयं जाकर देख लेता हूँ’- महाराणा ने कहा।
‘ऐसा क्यों फरमाते हैं सरकार।हम तो सेवक हैं।आधी रात को भी याद फरमायेगें तो सिर के बल दौड़े आयेगें।यदि पधारने की सरकार की इच्छा हो तो अवश्य पधारें।भूत महल के नाम से यों ही पिंडलियाँ काँपतीं हैं।एक से अधिक हो तो हृदय में बल रहेगा, पधारना हो।’- रावतजी उठ खड़े हुए।
महाराणा ने चाबियाँ फेंक दीं उनके सामने।किसी ओर थाह न पाकर उन्होंने कहा- ‘लो ये चाबियाँ।सचमुच कहीं भीतर रह गई होगीं तो सब मेरे माथे आ जायेगें।’
‘नहीं हुकुम, माथे आने की क्या बात है? डेढ़ सौ स्त्रियों के झुंड में एकाध कहीं रह जाये तो इसमें हुजूर को क्या दूषण है?’

भूत महल के धूल भरे कक्ष में पद्मासन लगाये नेत्र बंद किए मीरा विराजित थीं।उनके तेज से वह अँधेरा कक्ष दैदिप्यमान हो दप दप कर रहा था।द्वार खोलते ही रावतजी के साथ आये हुये सेवक चौंककर चार पद पीछे हट गये।सबकी आँखे फटी की फटी रह गईं।उन्होंने कभी मीरा को खुले मुँह नहीं देखा था।आज यह आलौकिक रूप राशि और तेज देखकर उनके नेत्र और मुख खुले के खुले रह गये।कुछ क्षण पश्चात रावतजी ने अपना आपा सम्हाँल कर उनमें से एक आदमी मीरा के महल की ओर दौड़ाया दासियों को रथ लाने के लिए।उनके पीछे लोग खुसर पुसर करने लगे- ‘कितने दिन हो गये बिना जल जीमण के, पर देखो न, मुख कमल तनिक भी कुम्हलाया नहीं, भक्ति का प्रताप है भीई।’
अपनी स्वामिनी को इस अवस्था में, ऐसे स्थान पर देखकर दासियों की आँखों से आँसू झरने लगे।रावतजी के धैर्य देने पर उन्होंने ध्यानमग्ना मीरा को उठाकर रथ पर विराजित किया।दो दासियाँ मंगला और चम्पा रथमें बैठकर उन्हें थामें रहीं।रथ के पर्दे गिरा दिये गये।बाकी दासियाँ औरसेवक साथ चले।एकाएक रावतजी के कंठ से फूटा- ‘कुँवराणी सी की जय’ ‘भक्त शिरोमणि मेड़तणी जी की जय’
जय ध्वनि सुनते ही अचकचाकर महाराणा अपनी तलवार की मूठ पर हाथ रखकर उठ खड़े हुये।

सास बहू की स्नेहासिक्त बातचीत……

‘बीनणी इतने दिनों तक तुम खाये पिये कैसे रह सकीं?’- राजमाता पुँवारजी सा ने एक दिन मीरा के महल में पधार कर पूछा।
‘मनुष्य का मन जिस ओर लगा होता है उसे वही बात सूझती है हुकुम’
‘भूख तो फिर भी मनुष्य काट ले बीनणी, पर प्यास तो किसी प्रकार सही नहीं जा सकती।’
‘बहुत बार किसी काम में लगे होने पर मनुष्य को चोट लग जाती है हुकम, किन्तु मन काम में लगा होने के कारण उस पीड़ा का ज्ञान उसे होता ही नहीं। बाद में चोट का स्थान देखकर वह विचार करता है कि यह चोट उसे कब और कहाँ लगी, पर स्मरण नहीं आता क्योंकि जब चोट लगी, तब उसका मन पूर्णतः दूसरी ओर लगा था। इसी प्रकार मन को देह की ओर से हटाकर दूसरी ओर लगा लिया जाय तो देह के साथ क्या हो रहा है, यह हमें तनिक भी ज्ञात नहीं होगा।’
क्रमशः

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