कल कल करती हुई कालिंदी बह रहीं थीं। घना कुँज था फूल खिले थे उसमे से निकलती मादक सुगन्ध सम्पूर्ण वन प्रदेश को डालने आगोश में ले रहीं थी चन्द्रमा की किरणें छिटक रहीं थी यमुना की बालुका ऐसे लग रही थी
जैसे ये बालुका न हो कपूर को पीस कर बिखेर दिया गया हो।
कमल खिले हैं कुमुदनी प्रसन्न है उसमें भौरों का झुण्ड ऐसे गुनगुना रहा हैजैसे अपनें प्रियतम के लिये ये भी गीत गा रहे होंबेला, मोगरा , गुलाब इनकी तो भरमार ही थी।
ऐसी दिव्य प्रेमस्थली में, मैं कैसे पहुँचा था मुझे पता नही।
मेरी आँखें बन्द हो गयीं जब खुलीं तब मेरे सामनें एक महात्मा थे बड़े प्रसन्न मुखमण्डल वाले महात्मा।
मैने उठते ही उनके चरणों में प्रणाम किया।
उनके रोम रोम से श्रीराधा श्रीराधा श्री राधा ये प्रकट हो रहा था ।
उनकी आँखें चढ़ी हुयी थीं जैसे कोई पीकर मत्त हो हाँ ये मत्त ही तो थे तभी तो कदम्ब और तमाल वृक्ष से लिपट कर रोये जा रहे थे रोनें में दुःख या विषाद नही था आल्हाद था आनन्द था।
मैने उनकी गुप्त बातें सुननी चाहीं मैं अपनें ध्यानासन से उठा और उनकी बातों में अपनें कान लगानें शुरू किये।
विचित्र बात बोल रहे थे ये महात्मा जी तो ।
कह रहे थे नही, मुझे तुम्हारा मिलन नही चाहिये प्यारे मुझे ये बताओ कि तुम्हारे वियोग का दर्द कब मिलेगा।
तुम्हारे मिलन में कहाँ सुख है सुख तो तेरे लिए रोने में है तेरे लिए तड़फनें में है तू मत मिल अब तू जा मैं तेरे लिये अब रोना चाहता हूँ मैं तेरे विरह की टीस अपनें सीने में सहेजना चाहता हूँ तू जा जा तू ।
ये क्या महात्मा जी के इतना कहते ही
तू गया ? तू गया ? कहाँ गया ? हे प्यारे कहाँ ?
वो महात्मा दहाड़ मार कर धड़ाम से गिर गए उस भूमि पर
मैं गया मैने देखा उनके पसीनें निकल रहे थे पर उन पसीनों से भी गुलाब की सुगन्ध आरही थी।
मैं उन्हें देखता रहा फिर जल्दी गया अपनें चादर को गीला किया यमुना जल से उस चादर से महात्मा जी के मुखारविन्द को पोंछा “श्रीराधा श्रीराधा श्रीराधा“यही नाम उनके रोम रोम से फिर प्रकट होनें लगा था।
वत्स साधना की सनातन दो ही धाराएं हैं और ये अनादिकाल से चली आरही धाराएं हैं
वो उठकर बैठ गए थे उन्हें मैं ही ले आया था देह भाव में ।
उठते ही उन्होंने इधर उधर देखा फिर मेरी ओर उनकी कृपा दृष्टि पड़ी मैं हाथ जोड़े खड़ा था।
वो मुस्कुरायेउनका कण्ठ सूख गया थामैं तुरन्त दौड़ा यमुना जी गया एक बड़ा सा कमल खिला था, उसके ही पत्ते में मैने जमुना जल भरा और ला कर उन महात्मा जी को पिला दिया।
वो जानें लगे तो मैं भी उनके पीछे पीछे चल दिया।
तुम कहाँ आरहे हो वत्स
उनकी वाणी अत्यन्त ओजपूर्ण, पर प्रेम से पगी हुयी थी ।
मुझे कुछ तो प्रसाद मिले
मैनें अपनी झोली फैला दी ।
वो हँसे मैं पढ़ा लिखा तो हूँ नही ?
न पण्डित हूँ न शास्त्र का ज्ञाता मैं क्या प्रसाद दूँ ?
उनकी वाणी कितनी आत्मीयता से भरी थी ।
आप नें जो पाया हैउसे ही बता दीजिये मैने प्रार्थना की ।
उन्होंने लम्बी साँस ली फिर कुछ देर शून्य में तांकते रहे ।
वत्स साधना की सनातन दो ही धाराएं हैं
एक धारा है अहम् की यानि “मैं” की और दूसरी धारा है उस “मैं” को समर्पित करनें की
मेरा मंगल हो मेरा कल्याण हो मेरा शुभ हो इसी धारा में जो साधना चलती है वो अहंम को साधना है ।
पर एक दूसरी धारा है साधना की वो बड़ी गुप्त है उसे सब लोग नही जान पाते
क्यों नही जान पाते महात्मन् ? मैने प्रश्न किया ।
क्यों की उसे जाननें के लिये अपना “अहम्” ही विसर्जित करना पड़ता है“मैं” को समाप्त करना पड़ता है महाकाल भगवान शंकर जो विश्व् गुरु हैंजगद्गुरु हैंवो भी इस रहस्य को नही जान पाये तो उन्हें भी सबसे पहले अपना “अहम्” ही विसर्जित करना पड़ा यानि वो गोपी बनेपुरुष का चोला उतार फेंका तब जाकर उस रहस्य को उन्होंने समझा।
ये प्रेम की अद्भुत धारा हैपरवो महात्मा जी हँसेये ऐसी धारा है जो जहाँ से निकलती है उसी ओर ही बहनें लग जाती है ।
तभी तो इस धारा का नाम धारा न होकर राधा है ।
जहाँ पूर्ण अहम् का विसर्जन है जहाँ ” मैं” नामक कोई वस्तु है ही नही है तो बस तू ही तू ।
त्याग, समर्पण , प्रेम करुणा की एक निरन्तर चिर बहनें वाली सनातन धारा का नाम है राधा राधा राधा राधा
वो इससे आगे कुछ बोल नही पा रहे थे ।
काहे टिटिया रहे हो ?
मैं चौंक गया ये मुझे कह रहे हैं ।
हाँ हाँ सीधे सीधे “श्रीराधा रानी” पर कुछ क्यों नही लिखते ?
ये आज्ञा थी उनकी मैने उनकी आँखों में देखा ।
मैं लिख लूंगा ? मेरे जैसा प्रेमशून्य व्यक्ति उन “आल्हादिनी श्रीराधा रानी” के ऊपर लिख लेगा ? जिनका नाम लेते ही भागवतकार श्रीशुकदेव जी की वाणी रुक जाती हैऐसी “श्रीकृष्णप्रेममयी श्रीराधा” पर मैं लिख लूंगा ? मैं कहाँ कामी, क्रोधी , कपटी लोभी क्या दुर्गुण नही हैं मुझ में ऐसा व्यक्ति लिख लेगा उन “श्रीकृष्ण प्रिया श्रीराधा” के ऊपर ?
वो महात्मा जी उठे मेरे पास में आये
और बिना कुछ बोले मेरे नेत्रों के मध्य भाग को अपनें अंगूठे से छू दिया ओह ये क्या
दिव्य निकुञ्ज दिव्याति दिव्य नित्य निकुञ्ज मेरे नेत्रों के सामनें प्रकट हो गया था ।
जहाँ चारों ओर सुख और आनन्द की वर्षा हो रही थी प्रेम निमग्ना सहस्त्र सखी संसेव्य श्रीराधा माधव उस दिव्य सिंहासन में विराजमान थेउन श्रीराधा रानी की चरण छटा से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड प्रकाशित हो रहा थाउनकी घुंघरू की आवाज से ऊँ प्रणव का प्राकट्य है वो पूर्णब्रह्म श्रीकृष्ण अपनी आल्हादिनी के रूप में राधा को अपनें वाम भाग में विराजमान करके प्रेम सिन्धु में अवगाहन कर रहे थे ।
मैने दर्शन किये नित्य निकुञ्ज के
अब तुम लिखो।
वो महात्मा जी खो गए थे उसी निकुञ्ज में ।
“यमुना जी जाना नही है ‘पाँच बज गए हैं ।
सुबह पाँच बजे मुझे उठा दिया मेरे घर वालों नें ।
ओह ये सब सपना था ?
मुझे आज्ञा मिली हैकि मैं श्रीराधाचरितामृतम् लिखूँ मुझे ये नाम भी उन्हीं दिव्य महात्मा जी नें सपनें में ही दिया है।
पर कैसे ? कैसे लिखूँ ? “श्रीराधारानी” के चरित्र पर लिखना साधारण कार्य नही है मैनें अपना सिर पकड़ लिया।
फिर एकाएक मन में विचार आया कन्हैया की इच्छा है वो अपनी प्रिया के बारें में सुनना चाहता है
ओह तो मैं सुनाऊंगा प्रमाण मत माँगना क्यों की “श्रीराधा” पर लिखना ही अपनें आप में धन्यता है और लेखनी की सार्थकता भी इसी में है।
प्रेम की साक्षात् मूर्ति श्री राधा रानी के चरणों में प्रणाम करते हुए।
कृष्ण प्रेममयी राधा, राधा प्रेममयो हरिः
क्रमश:
(पूजनीय हरिशरण उपाध्याय जी)
Kalindi was flowing like yesterday and tomorrow. There was a dense grove, flowers were in bloom, the intoxicating fragrance emanating from it was engulfing the entire forest area, the rays of the moon were sprinkling, the sand of Yamuna looked like this
As if this is not sand but camphor has been ground and scattered. The lotus has bloomed, the lilies are happy, a flock of bumblebees are humming in it as if they are singing a song for their beloved, there was an abundance of bella, mogra, roses.
I don’t know how I reached such a divine place of love. My eyes were closed and when they opened, there was a Mahatma in front of me, a Mahatma with a very happy face.
As soon as I got up, I bowed at his feet. Shriradha Shriradha Shri Radha was visible from every pore of him. Their eyes were welled up like someone who is drunk after drinking. Yes, they were drunk, that is why Kadamba and Tamal were crying hugging the tree. There was no sadness or sadness in their crying, they were happy, there was joy.
I wanted to hear his secret talks, I got up from my meditation and started listening to his talks. This Mahatma ji was saying strange things. He was saying, no, I don’t want to meet you, dear, tell me when will I get over the pain of your separation.
Where is the happiness in meeting you, happiness lies in crying for you, I am in pain for you, don’t meet me, now go, I want to cry for you now, I want to save the pain of your separation in my chest, you go, go. What is this as soon as Mahatma ji says this?
did you go? did you go? Where did he go ? O dear, where? That Mahatma roared and fell with a thud on that ground. I went and saw that he was sweating but the fragrance of roses was also emanating from that sweat. I kept looking at them, then quickly went and wetted my sheet with Yamuna water and wiped the face of Mahatma ji with that sheet. “Shriradha Shriradha Shriradha” this name again started appearing in every pore of his body.
There are only two eternal streams of Vatsa Sadhana and these are the streams that have been going on since time immemorial. He got up and sat down, it was I who had brought him in the body. As soon as he got up, he looked here and there, then his kind glance fell on me, I was standing with folded hands.
He smiled, his throat had become dry, I immediately ran to Yamuna ji, a big lotus had bloomed, I filled Yamuna water in its leaf and brought it and gave it to Mahatma ji to drink.
When he started talking, I also followed him. where are you coming vats His voice was very energetic, but filled with love. I got some Prasad
I spread my bag. He laughed, am I educated? I am neither a scholar nor a connoisseur of the scriptures, what should I offer? His voice was so full of intimacy.
Please tell me what you have found, I prayed. He took a deep breath and then kept staring into the void for some time. There are only two eternal streams of Vatsa Sadhana.
One stream is of ego i.e. “I” and the other stream is of surrender to that “I”. May there be good for me, may there be welfare for me, may there be auspiciousness. The sadhana that goes on in this stream is the sadhana of the ego. But there is another stream of sadhana which is very secret and not everyone knows it.
Why can’t the great man know? I asked the question.
Because to know it, one has to dissolve one’s “ego”, one has to eliminate the “I”. Mahakaal Lord Shankar, who is the world guru and Jagadguru, is also not able to know this secret, then he should also dissolve his “ego” first of all. That means he took off the cloak of the man who became a Gopi and then he understood the secret.
This is a wonderful stream of love, but Mahatma ji laughed, it is such a stream that wherever it originates, sisters join in it. That is why the name of this stream is not Dhara but Radha. Where there is complete dissolution of ego, where there is no such thing as “I”, then there is only you, you. The name of the eternal stream of sacrifice, dedication and love-compassion is Radha Radha Radha Radha. He was not able to say anything beyond this.
Why are you titillating?
I was shocked that he was telling me this. Yes yes, why don’t you write something directly on “Shri Radha Rani”? This was his order, I looked into his eyes.
I will write? Will a loveless person like me write on that “Alhadini Shriradha Rani”? Whose name Bhagwatkar Shri Shukdev ji’s speech stops, will I write on such “Shri Krishnapremmayi Shri Radha”? I am not lustful, angry, deceitful, greedy, what are the bad qualities in me, such a person will write on them “Shri Krishna Priya Shri Radha”?
That Mahatma got up and came to me. And without saying anything he touched the middle part of my eyes with his thumb, oh what is this?
Divya Nikunj Divyaati Divya Nitya Nikunj had appeared before my eyes. Where there was rain of happiness and joy all around, Prem Nigmana, thousands of friends, Sansevya Shri Radha Madhav was sitting in that divine throne, the entire universe was being illuminated by the sound of the feet of that Shri Radha Rani, Om Pranav is manifested by the sound of her Ghunghru, that Purnabraham Shri Krishna in his eternal day. In this form, with Radha seated on his left side, he was gazing at Prem Sindhu.
I visited Nikunj daily Now you write. That Mahatma ji was lost in the same Nikunj.
“Yamuna ji, I don’t want to go, it’s five o’clock. My family woke me up at five in the morning. Oh was this all a dream? I have received permission to write Shriradhacharitamritam. This name has also been given to me by the same divine Mahatma ji in my dreams.
But how ? How to write? Writing on the character of “Shri Radharani” is not an easy task, I held my head. Then suddenly a thought came to my mind that Kanhaiya wanted to hear about his beloved.
Oh then I will tell you, do not ask for proof because writing on “Shri Radha” is a blessing in itself and the significance of writing also lies in this. Paying obeisance at the feet of Shri Radha Rani, the embodiment of love.
Krishna is Radha in love, Radha is Hari in love
respectively
(Respected Harisharan Upadhyay ji)