आज से लगभग ५० वर्ष पूर्व वृन्दावन के परिक्रमा मार्ग पर वाराहघाट से आगे एक बगीचे के भीतर छतरी में बाबा सन्तदासजी रहा करते थे। वे जम्मू के रहनेवाले थे। राधावल्लभ सम्प्रदाय में गोस्वामी राधालालजी से दीक्षित थे और श्रीहित स्वामिनीशरणजी के भेक-शिष्य थे।
बड़े सन्त-सेवी थे वे। नित्य ब्रज के दस-बारह गाँवों में आटे की भिक्षा करते। अपने हाथसे रसोई बनाकर ठाकुर को भोग लगाते और सन्तों को पवाते। सन्त-सेवा के पश्चात् सन्ध्या-समय स्वयं भोजन करते। जो भी साधु उनकी कुटिया पर आता, वह भूखा न जाता।
चित्रकूटके करवी स्थान के महन्त श्रीजगदेवदासजी भी बड़े सन्त सेवी थे। वे वहुत वैभव-सम्पन्न थे। अपने सारे वैभव की सार्थकता सन्त सेवा में मानते हुए दिन-रात उनकी सेवा में जुटे रहते थे। एक बार कुछ सन्त वृन्दावन में सन्तदासजी के स्थान पर कुछ दिन रहने के पश्चात् घूमते–फिरते चित्रकूट पहुँच। जगदेवदासजी से उन्होंने सन्तदासजीकी सन्त-सेवा की बड़ी प्रशंसा की।
जगदेवदासजी एक बार वृन्दावन पधारे। सन्तदास बाबा के दर्शन की लालसा से पूछते-पूछते मदनटेर पहुँचे। वहाँ जाकर देखा कि एक दीर्घकाय, गौरवर्ण बाबाजी, जिनके दाहिने कन्धेपर एक बाँस के दोनों सिरों पर दो पोटलयाँ लटक रही हैं और सिर पर मटठे की हंड़िया रखी है, बायें हाथ से रस्सी से बंधा लकड़ी का एक गट्टर खींचते चले आ रहे हैं।
‘यहाँ सन्तदास बाबा कहाँ रहते हैं ?’ उन्होंने उनसे पूछा।
‘यहीं पास में रहते हैं, आइये मैं आपको वहाँ ले चलता हूँ उन्होंने विनम्रतापूर्वक कहा।
जगदेवदासजी उनके पीछे हो लिये। थोड़ी दूर जाकर वाराहघाट की एक छतरी के सामने बाबा ने अपना सामान रखा। जगदेवदासजी से कहा-‘थोड़ा यहाँ विश्राम करें। फिर मैं आपको सन्तदासजीमे मिला दूँगा।’
जगदेवदासजी वहाँ वैठ गये। बाबा के पारिचय पूछने पर उन्होंने अपना परिचय दिया। सुने ही उन्होंने साष्टांग दण्डवत् की और वोले-‘अहो भाग्य महाराज ! आपकी सन्त-निष्ठा और सन्त-सेवा की बड़ी प्रशंसा सुनी थी। आज आपके दर्शन कर कृतार्थ हुआ। अब आपको ऐसे नहीं जाने दूँगा। आप विश्राम करें। इतने में मैं रसोई बनाकर ठाकुर को भोग लगाता हूँ। आप प्रसाद पा लें, तब सन्तदासजी के पास ले चलूँगा।’
‘नहीं बाबा, मैं प्रसाद नहीं पाऊँगा। पहले सन्तदासजी के दर्शन करूँगा’ कहते हुए महन्तजी उठ खड़े हुए।
पर बाबा कब माननेवाले थे। हाथ पकड़कर बलपूर्वक बैठाते हुए उन्होंने विनम्रभाव से कहा, ‘महाराज ऐसा न करें। न जाने मेरे कौन-से पुण्य के सहसा उदय होनेपर अपने दर्शन दिये। अब यदि मेरी सेवा ग्रहण किये विना ही चले जायेंगे तो मुझे अपार दुःख होगा। मैं ऐसे न जाने दूँगा।
महन्तजी व्या करते। उन्हें रुक जाना पड़ा। प्रसाद भी ग्रहण करना पड़ा।
प्रसाद ले चुकने के पश्चात् उन्हें एक और विनयपूर्ण आग्रह का सामना करना पड़ा।
‘अब आप कुछ पल लेट जायें। मैं आपकी चरणमेवा कर दूँ। संतदास बाबा तो मिले ही समझिये। वे कहीं दूर थोड़े ही हैं बाबा ने छतरी के निकट एक वृक्ष के नीचे उनके लिए खटिया बिछाते हुए कहा।
महन्तजी बाबा के प्रेम और सेवाभाव से इतना अभिभूत हो चुके थे कि उनका आग्रह टालने का प्रश्न ही नहीं उठता था। वे खटिया पर लेट गये और बाबा उनके चरण दबाने लगे।
थोड़ो देर में एक-एक कर और भी कई सन्त वहाँ पहुँचे। बाबा को एक नये साधु की चरण-सेवा करते देखे एक ने कौतूहलवश पूछा-
‘ये महात्मा कौन हैं, बाबा ?
‘आप चित्रकूट के करवी स्थान के महन्त श्रीजगदेवदासजी हैं।
‘यहाँ कैसे पधारे हैं ?’
महन्तजी ने स्वयं उत्तर देते हुए कहा-‘ वृन्दावन दर्शन करने आया था। सन्तदास बाबा की महिमा सुन रखी थी। सोचा उनके दर्शन करता चलूँ। पूछता-पूछता यहाँ आया, तो इन बाबाजी के प्रेम-जाल में फँस गया। अब इनके जाल से निकल पाऊँ तो उनके दर्शन करूँ।’
सन्त ने मुस्कराते हुए एक बार बाबा की ओर देखा, एक बार महन्तजी की ओर। बाबा ने ओंठ दबाकर फूटती हुई हँसी छिपाने की चेष्टा की। यह देख महन्तजी कुछ कहने जा रहे थे, उसके पूर्व ही सन्त ने कहा-
‘बाबा सन्तदासजी ही तो आपकी चरणसेवा कर रहे हैं। लगता है, इन्होंने आपके साथ कुछ छल किया है।’
यह सुन महन्तजीने झट उठकर बाबा को हृदयसे लगा लिया। उनके नेत्र सजल हो गये। वे कहने लगे-
‘बाबा, मैंने आपको जैसा सुना था, वैसा पाया। आपके दर्शन कर धन्य हुआ। आप-जैसा सन्तसेवी मैंने दूसरा नहीं देखा।
‘यह तो आप दैन्यवश कह रहे हैं। सच्चे सन्तसेवी तो आप हैं। आप जितनी सन्तसेवा करते हैं उसके एक अंश का अंश भी तो मैं नहीं कर पाता।” बाबा ने नम्रतापूर्वक कहा।
‘मेरी सेवा केवल धन से होती है, आपकी तन और मन से होती है। मैं अपने आश्रितों द्वारा सेवा करता हूँ, आप स्वयं करते हैं। इतना कह महन्तजी एक पल चुप रहे। फिर थोड़ा मुस्कराते हुए बोले-
‘आपकी सेवा की एक विशेषता और है। आप सन्तसेवा में छल-बल का भी प्रयोग करना जानते हैं, जो मुझे नहीं आता।’
‘वह आपको कैसे आयेगा ? उसे सीखने के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम राघवेन्द्रका आश्रय छोड़ छलिया नन्दनन्दन का दासत्व जो स्वीकार करना होगा। राघवेन्द्र को कब आती हैं वह सब कलाएँ, जो नन्दनन्दन को उनकी स्वभावगत सम्पत्ति के रूप में सहज ही प्राप्त हैं।’
इस प्रकार के कुछ हास्य-विनोद के पश्चात महन्तजी विदा हुए और लेते गये अपने साथ सन्तदास की सन्त सेवा वृत्ति की अमिट छाप।
सन्तदासजी सन्त-सेवी तो थे ही, साहित्य-सेवी भी थे उन्होंने राधावल्लभ सम्प्रदाय के साहित्य की बड़ी सेवा की। श्रीहीरालाल व्यासकृत राधासुधानिधि की रसकुल्या टीका, और चाचा वृन्दावनदास के १०८ ग्रन्थों सहित समस्त राधावल्लभीय साहित्य की लिपियाँ तैयार कर उन्होंने उनका जीर्णोद्धार किया।
आज से लगभग ५० वर्ष पूर्व वृन्दावन के परिक्रमा मार्ग पर वाराहघाट से आगे एक बगीचे के भीतर छतरी में बाबा सन्तदासजी रहा करते थे। वे जम्मू के रहनेवाले थे। राधावल्लभ सम्प्रदाय में गोस्वामी राधालालजी से दीक्षित थे और श्रीहित स्वामिनीशरणजी के भेक-शिष्य थे। बड़े सन्त-सेवी थे वे। नित्य ब्रज के दस-बारह गाँवों में आटे की भिक्षा करते। अपने हाथसे रसोई बनाकर ठाकुर को भोग लगाते और सन्तों को पवाते। सन्त-सेवा के पश्चात् सन्ध्या-समय स्वयं भोजन करते। जो भी साधु उनकी कुटिया पर आता, वह भूखा न जाता। चित्रकूटके करवी स्थान के महन्त श्रीजगदेवदासजी भी बड़े सन्त सेवी थे। वे वहुत वैभव-सम्पन्न थे। अपने सारे वैभव की सार्थकता सन्त सेवा में मानते हुए दिन-रात उनकी सेवा में जुटे रहते थे। एक बार कुछ सन्त वृन्दावन में सन्तदासजी के स्थान पर कुछ दिन रहने के पश्चात् घूमते–फिरते चित्रकूट पहुँच। जगदेवदासजी से उन्होंने सन्तदासजीकी सन्त-सेवा की बड़ी प्रशंसा की। जगदेवदासजी एक बार वृन्दावन पधारे। सन्तदास बाबा के दर्शन की लालसा से पूछते-पूछते मदनटेर पहुँचे। वहाँ जाकर देखा कि एक दीर्घकाय, गौरवर्ण बाबाजी, जिनके दाहिने कन्धेपर एक बाँस के दोनों सिरों पर दो पोटलयाँ लटक रही हैं और सिर पर मटठे की हंड़िया रखी है, बायें हाथ से रस्सी से बंधा लकड़ी का एक गट्टर खींचते चले आ रहे हैं। ‘यहाँ सन्तदास बाबा कहाँ रहते हैं ?’ उन्होंने उनसे पूछा। ‘यहीं पास में रहते हैं, आइये मैं आपको वहाँ ले चलता हूँ उन्होंने विनम्रतापूर्वक कहा। जगदेवदासजी उनके पीछे हो लिये। थोड़ी दूर जाकर वाराहघाट की एक छतरी के सामने बाबा ने अपना सामान रखा। जगदेवदासजी से कहा-‘थोड़ा यहाँ विश्राम करें। फिर मैं आपको सन्तदासजीमे मिला दूँगा।’ जगदेवदासजी वहाँ वैठ गये। बाबा के पारिचय पूछने पर उन्होंने अपना परिचय दिया। सुने ही उन्होंने साष्टांग दण्डवत् की और वोले-‘अहो भाग्य महाराज ! आपकी सन्त-निष्ठा और सन्त-सेवा की बड़ी प्रशंसा सुनी थी। आज आपके दर्शन कर कृतार्थ हुआ। अब आपको ऐसे नहीं जाने दूँगा। आप विश्राम करें। इतने में मैं रसोई बनाकर ठाकुर को भोग लगाता हूँ। आप प्रसाद पा लें, तब सन्तदासजी के पास ले चलूँगा।’ ‘नहीं बाबा, मैं प्रसाद नहीं पाऊँगा। पहले सन्तदासजी के दर्शन करूँगा’ कहते हुए महन्तजी उठ खड़े हुए। पर बाबा कब माननेवाले थे। हाथ पकड़कर बलपूर्वक बैठाते हुए उन्होंने विनम्रभाव से कहा, ‘महाराज ऐसा न करें। न जाने मेरे कौन-से पुण्य के सहसा उदय होनेपर अपने दर्शन दिये। अब यदि मेरी सेवा ग्रहण किये विना ही चले जायेंगे तो मुझे अपार दुःख होगा। मैं ऐसे न जाने दूँगा। महन्तजी व्या करते। उन्हें रुक जाना पड़ा। प्रसाद भी ग्रहण करना पड़ा। प्रसाद ले चुकने के पश्चात् उन्हें एक और विनयपूर्ण आग्रह का सामना करना पड़ा। ‘अब आप कुछ पल लेट जायें। मैं आपकी चरणमेवा कर दूँ। संतदास बाबा तो मिले ही समझिये। वे कहीं दूर थोड़े ही हैं बाबा ने छतरी के निकट एक वृक्ष के नीचे उनके लिए खटिया बिछाते हुए कहा। महन्तजी बाबा के प्रेम और सेवाभाव से इतना अभिभूत हो चुके थे कि उनका आग्रह टालने का प्रश्न ही नहीं उठता था। वे खटिया पर लेट गये और बाबा उनके चरण दबाने लगे। थोड़ो देर में एक-एक कर और भी कई सन्त वहाँ पहुँचे। बाबा को एक नये साधु की चरण-सेवा करते देखे एक ने कौतूहलवश पूछा- ‘ये महात्मा कौन हैं, बाबा ? ‘आप चित्रकूट के करवी स्थान के महन्त श्रीजगदेवदासजी हैं। ‘यहाँ कैसे पधारे हैं ?’ महन्तजी ने स्वयं उत्तर देते हुए कहा-‘ वृन्दावन दर्शन करने आया था। सन्तदास बाबा की महिमा सुन रखी थी। सोचा उनके दर्शन करता चलूँ। पूछता-पूछता यहाँ आया, तो इन बाबाजी के प्रेम-जाल में फँस गया। अब इनके जाल से निकल पाऊँ तो उनके दर्शन करूँ।’ सन्त ने मुस्कराते हुए एक बार बाबा की ओर देखा, एक बार महन्तजी की ओर। बाबा ने ओंठ दबाकर फूटती हुई हँसी छिपाने की चेष्टा की। यह देख महन्तजी कुछ कहने जा रहे थे, उसके पूर्व ही सन्त ने कहा- ‘बाबा सन्तदासजी ही तो आपकी चरणसेवा कर रहे हैं। लगता है, इन्होंने आपके साथ कुछ छल किया है।’ यह सुन महन्तजीने झट उठकर बाबा को हृदयसे लगा लिया। उनके नेत्र सजल हो गये। वे कहने लगे- ‘बाबा, मैंने आपको जैसा सुना था, वैसा पाया। आपके दर्शन कर धन्य हुआ। आप-जैसा सन्तसेवी मैंने दूसरा नहीं देखा। ‘यह तो आप दैन्यवश कह रहे हैं। सच्चे सन्तसेवी तो आप हैं। आप जितनी सन्तसेवा करते हैं उसके एक अंश का अंश भी तो मैं नहीं कर पाता।” बाबा ने नम्रतापूर्वक कहा। ‘मेरी सेवा केवल धन से होती है, आपकी तन और मन से होती है। मैं अपने आश्रितों द्वारा सेवा करता हूँ, आप स्वयं करते हैं। इतना कह महन्तजी एक पल चुप रहे। फिर थोड़ा मुस्कराते हुए बोले- ‘आपकी सेवा की एक विशेषता और है। आप सन्तसेवा में छल-बल का भी प्रयोग करना जानते हैं, जो मुझे नहीं आता।’ ‘वह आपको कैसे आयेगा ? उसे सीखने के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम राघवेन्द्रका आश्रय छोड़ छलिया नन्दनन्दन का दासत्व जो स्वीकार करना होगा। राघवेन्द्र को कब आती हैं वह सब कलाएँ, जो नन्दनन्दन को उनकी स्वभावगत सम्पत्ति के रूप में सहज ही प्राप्त हैं।’ इस प्रकार के कुछ हास्य-विनोद के पश्चात महन्तजी विदा हुए और लेते गये अपने साथ सन्तदास की सन्त सेवा वृत्ति की अमिट छाप। सन्तदासजी सन्त-सेवी तो थे ही, साहित्य-सेवी भी थे उन्होंने राधावल्लभ सम्प्रदाय के साहित्य की बड़ी सेवा की। श्रीहीरालाल व्यासकृत राधासुधानिधि की रसकुल्या टीका, और चाचा वृन्दावनदास के १०८ ग्रन्थों सहित समस्त राधावल्लभीय साहित्य की लिपियाँ तैयार कर उन्होंने उनका जीर्णोद्धार किया।
One Response
Its like you read my mind! You seem to grasp a lot approximately this, like you wrote the ebook in it or something. I feel that you just can do with a few to pressure the message house a little bit, but instead of that, this is excellent blog. An excellent read. I’ll certainly be back.