“श्री बिहारिन देव जू”

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(कालावधि 1504-1602,)
स्वामी हरिदास जी महाराज की भजन रीति को पानी के द्वारा ‘श्री बिहारिन देव जू’ ने रसिकों के लिए प्रगट किया दिल्ली नगर के समीप इंद्रप्रस्थ के रहने वाले थे। पिता जी का नाम मित्रसेन था जो दीवान पद पर नियुक्त थे। माता जी का नाम गोदावरी देवी था। 33 वर्ष की अवस्था में गृह त्याग करके श्री धाम वृंदावन आगमन हुआ। नित्य विहार की लीलाओं में ऐसे डूब जाते की दातुन करते-करते शाम हो जाती है लेकिन ब्रहादशा शून्य ही रहती।
बादशाह ने सभी अधिकारियों से कहा, कल सभी अपने मस्तक से तिलक उतार कर आएंगे। सभी तिलक विहीन सभा में उपस्थित हुए। श्री बिहारिन देव जी तिलक को नाक तक उतारकर सभा में आए। बादशाह के पूछने पर आप ही ने कहा कि तिलक उतार कर आना। पहले मस्तक पर लगाते थे अब नीचे उतारकर नाक तक कर दिया। स्वामी जी के अनुयाई गुरुदेव नाम से पुकारते है।
चरित्र
रसिक अनन्य नृपति श्री स्वामी हरिदास महाराज जी की परंपरा में अनन्य मुकुटमणि श्री स्वामी बिहारिन देव जी का नाम अग्रगण्य है। यह श्री स्वामी विट्ठल विपुल जी के शिष्य थे अर्थात् स्वामी हरिदास जी महाराज के प्रशिष्य थे। इनके पिता इंद्रप्रस्थ निवासी मित्रसेन सूरध्वज ब्राह्मण थे और दिल्ली के बादशाह के यहां दीवान पद पर नियुक्त थे। इनकी माता जी का नाम गोदावरी देवी था।
श्री मित्रसेन जी को संसार के सारे सुख प्राप्त थे। फिर भी कभी -कभी अधिक उदास हो जाते थे, कारण था पुत्र का न होना। जप, तप, पूजा- पाठ हवन- यज्ञ आदि सभी उपाय किए लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। एक दिन मंत्री और उनके मित्र श्री चतुर्भुज दास जी ने उन को दुखी देखकर कहा -“मित्र ! वृंदावन के मध्य निधिवन में परम वीतराग रसिक अनन्य शिरोमणि श्री स्वामी हरिदास जी महाराज विराजते हैं। उनकी कृपा से मेरे घर में एक पुत्र का जन्म हुआ है। मैंने तुम्हारे बारे में भी प्रार्थना की थी तो स्वामी जी ने कहा था कि पाँच वर्ष बाद लेकर आना। तो समय पूरा हो गया है आप अपनी पत्नी को साथ लेकर मेरे साथ श्री धाम वृंदावन चले।” श्री मित्र सेन जी बहुत प्रसन्न हुए और पत्नी को साथ ले कर श्री चतुर्भुजदास जी के संग श्री वृंदावन धाम पधारे। स्वामी जी का दर्शन का लाभ प्राप्त हुआ। स्वामी जी महाराज ने आशीर्वाद देकर मथुरा वास करने की आज्ञा प्रदान की।
एक वर्ष पश्चात सन 1504 श्रावण शुक्ला तीज को श्री गोदावरी देवी ने एक सुंदर परम तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया एक साल बीतने पर मित्र सेन जी अपने पुत्र एवं पत्नी को साथ लेकर स्वामी जी के पास निधिवन आए। स्वामी जी ने बालक के मस्तक पर प्रेम से हाथ फेरा और प्रसादी वस्त्र देकर गले में कंठी बाँध दी। मस्तक पर तिलक अंकित कर दिया और बालक का नाम रखा “बिहारिनदास”। कहते हैं उसी समय बिहारिन दास में घुटनों के बल चलकर श्री स्वामी जी महाराज का “करुवा” पकड़ लिया, तो स्वामी जी ने मंद मुस्कुरा कर कहा।
“बिहारिनदास ! अबई नायँ, फिर आयकै लीजियो”।
श्री बिहारी दास जी बड़े रूप गुण युक्त और प्रतिभाशाली थे। उनके स्वभाव और गुणों का अवलोकन कर सभी अति प्रसन्न होते थे। पिता के देहावसान के बाद बादशाह ने इन्हें पिताजी के रिक्त स्थान दीवान पद पर नियुक्त कर दिया। अपनी शूरवीरता और प्रखर बुद्धि के द्वारा कुछ ही समय में बादशाह को प्रभावित कर लिया। संपूर्ण वैभव होने के बाद भी बिहारिन दास जी संसारिक सुख से जल में कमलवत् रहते थे।
एक बार बादशाह के आदेश से बिहारिन दास जी को एक युद्ध में जाना पड़ा। विपक्षी राजा का मंत्री हनुमान जी का भक्त था। हनुमान जी के संकेत से मंत्री नम्रतापूर्वक बिहारिन दास जी की शरण में आ गया तो बिहारिन दास जी ने उसे अभय कर दिया था। विपक्षी राजा की सेना बहुत मात्रा में एवं वीर थी। उनको जीतना हंसी खेल नहीं था। बहुत दिनों तक युद्ध चला लेकिन हार जीत का फैसला ना हो सका। तब मुगल सेनापति की प्रार्थना पर बिहारिन दास ने मंत्री को अपने पास बुलाया और सेनापति के साथ बात करके दोनों पक्षों पर संधि करा दी। दोनो तरफ युद्ध बंद हो गया। लेकिन सेनापति ने संधि के पश्चात धोखे से मंत्री को जहर पिलवा करवा दिया इस घटना से बिहारिनदास जी के हृदय में अत्यंत ग्लानि हुई। इस घटना का कारण स्वयं को मानकर जिस हाथ से मंत्री को अभय प्रधान किया था उस हाथ को काट कर सब छोड़कर श्री धाम वृंदावन निधिवन आ गए। और निधिवन राज में आकर स्वामी जी महाराज को प्रणाम करके बोले –
इक हथियां हरिदास कौ, नमन बिहारिनदास।
स्वामी जी महाराज को प्रणाम करते ही इधर तो स्वामी जी की कृपा से बिहारिन दास जी का हाथ यथावत हो गया। और उधर मंत्री जीवित हो उठा। स्वामी जी अपना करकमल बिहारिन दास जी के सिर पर रखा मानो चंद्रिका धारण करा कर आकर श्री नित्य बिहारिणी जू के सखी पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। स्वामी जी महाराज जी की आज्ञा से श्री स्वामी जी विट्ठल विपुल जी ने उन्हें मंत्र दीक्षा प्रदान की। स्वामी जी की उपासना रीति को उनकी रहनी- सहनी को भलीभांति ह्रदयगम करके श्री बिहारिन देव जी ने अपनी वाणी के द्वारा समस्त अनुयायियों को बोधगम्य बनाया और भविष्य के लिए साधकों को मार्गदर्शक का कार्य किया। बिहारिनदेव जी सदा भाव राज्य में डूबे रहते थे। स्वामी जी के प्रति अति अनन्य थे।
हौ तो और स्वरुप पिछानौ नही, हरिदास बिना हरि को है कहाँ को।।
स्वामी हरिदास जी महाराज के निकुंज गमन के पश्चात विट्ठल विपुल देव जी अपने गुरु के वियोग में केवल 7 दिन में ही उनके अनुगामी हो गए तब उस नित्य बिहार की उपासना की धुरी को बिहारिन देव जी ने संभाला। स्वामी बिहारिन देव जी ने बहुत वाणियों की रचना की उनके साहित्य को दो भागों में विभाजित किया गया।
सिद्धांत साहित्य रस साहित्य
एक बार आप यमुना स्नान के लिए गए वहां यमुना पुलिन पर दिव्य लीला के दर्शन करते हुए अपने देह सुध को भूल कर निज सखी स्वरूप में, प्रिया लाल जी को पद गा कर सुनाने लगे-
“विहरत लाल- बिहारिन दोऊ श्री यमुना के तीरै -तीरै……..”
इस तुक को गाते हुए ही आपको निराहार जमुना तट पर तीन दिन व्यतीत हो गए और इधर निधिवन राज में विराजमान बिहारी जी की सेवा ही नहीं हुई। ऐसी लीलाओं में निरंतर डूबे रहते थे। तब सेवा में व्यवधान जानकर बिहारी जी की सेवा अन्य को प्रदान की। तब बिहारी जी की सेवा भली-भांति होने लगी श्री बिहारिन देव जी ने वृंदावन रस का अनुपम वर्णन किया है।
एक बार सुहावनी शरद ऋतु का समय था निधिवन का सौंदर्य सीमा को तोड़ रहा था। नित्य केलि रस के मत मधुप श्री बिहारिन देवजी नेत्र मूंदकर प्रिया प्रीतम की कुंज क्रीडा के अवलोकन में निमग्न हो रहे थे। उसी समय अपने सखाओं के साथ खेलते हुए त्रिभुवन मोहन श्याम सुंदर वहां आ पहुंचे। सभी सखाओं ने स्वामी बिहारिन देव जी को इस प्रकार नयन बंद किए देखा तो उनका कोतूहल जागृत हो उठा। श्री कृष्ण से पूछा ही बैठे –
“अरे कन्हैया ! देख तो वु कौन बाबाजी आंख मीच के बैठयौ ऐ?”
श्याम सुंदर ने उन्हें कोई प्रोत्साहन न देते हुए कहा- “रहन दे, तोय का परी।” अपनौ भजन करन दै। अब तो सारे सखा मिलकर पीछे ही पड़ गये-
“नायँ भैया ! नैक चल तो सई। जाते कछु बातचीत करिगे।”
सखाओं के हठ के आगे भला नंदनंदन की क्या चलती ? उन्हें स्वामी बिहारिन देव जी के पास आना ही पड़ा। आकर आवाज लगायी- “ओ बाबा ! नैक आँख तो खोल।” दो तीन आवाजों का तो कुछ पता ही नहीं चला, जब सब ने मिलकर जोर से पुकारा तो आपका ध्यान इधर आकर्षित हुआ। पर नेत्र बंद किए ही बोले- “कौन हो ? क्या बात है भाई ? श्री नंदनंदन बोले- “मैं बुई हूं, जाय सब लोग, माखन चोर, चितचोर, गोपीजन वल्लभ कहै हैं।” स्वामी बिहारिन देव जी बोले- “तो तिहारे संग हमारे स्वामी जी हुँ है का ?” श्यामसुंदर बोले- “बु तो है नाय पर सबरे सखा मेरे संग हैं।” स्वामी बिहारिन देव जी बोले- “तो आप जिनके चित वित को ब्रज में नित हरण करौ तहाँई जाऔ। हम तो श्री हरिदासी के अंक में विराजवे वारे। जुगल के रस के अनन्य है। वाके बिना हम काहूँ को नाय देखै। इन्है ही जानै।
श्री स्वामी बिहारिन देव जी लगभग 98 वर्ष की आयु में नित्य निकुंज – क्रीड़ा का आनंद लेते हुए स्वामी जी महाराज के नित्य सानिध्य को प्राप्त किया। संप्रदाय में इनको श्री जी का स्वरुप बताते हैं। जिस प्रकार स्वामी जी ने श्यामा-श्याम को लाड लगाया श्यामा जू को प्रधान मान कर। उसी प्रकार स्वामी जी को लाड लड़ाने के लिए श्रीजी स्वयं श्री बिहारिन देव के रूप में प्रकट हुई और लाड लडाया।

“जय जय श्री राधे”



(कालावधि 1504-1602,) स्वामी हरिदास जी महाराज की भजन रीति को पानी के द्वारा ‘श्री बिहारिन देव जू’ ने रसिकों के लिए प्रगट किया दिल्ली नगर के समीप इंद्रप्रस्थ के रहने वाले थे। पिता जी का नाम मित्रसेन था जो दीवान पद पर नियुक्त थे। माता जी का नाम गोदावरी देवी था। 33 वर्ष की अवस्था में गृह त्याग करके श्री धाम वृंदावन आगमन हुआ। नित्य विहार की लीलाओं में ऐसे डूब जाते की दातुन करते-करते शाम हो जाती है लेकिन ब्रहादशा शून्य ही रहती। बादशाह ने सभी अधिकारियों से कहा, कल सभी अपने मस्तक से तिलक उतार कर आएंगे। सभी तिलक विहीन सभा में उपस्थित हुए। श्री बिहारिन देव जी तिलक को नाक तक उतारकर सभा में आए। बादशाह के पूछने पर आप ही ने कहा कि तिलक उतार कर आना। पहले मस्तक पर लगाते थे अब नीचे उतारकर नाक तक कर दिया। स्वामी जी के अनुयाई गुरुदेव नाम से पुकारते है। चरित्र रसिक अनन्य नृपति श्री स्वामी हरिदास महाराज जी की परंपरा में अनन्य मुकुटमणि श्री स्वामी बिहारिन देव जी का नाम अग्रगण्य है। यह श्री स्वामी विट्ठल विपुल जी के शिष्य थे अर्थात् स्वामी हरिदास जी महाराज के प्रशिष्य थे। इनके पिता इंद्रप्रस्थ निवासी मित्रसेन सूरध्वज ब्राह्मण थे और दिल्ली के बादशाह के यहां दीवान पद पर नियुक्त थे। इनकी माता जी का नाम गोदावरी देवी था। श्री मित्रसेन जी को संसार के सारे सुख प्राप्त थे। फिर भी कभी -कभी अधिक उदास हो जाते थे, कारण था पुत्र का न होना। जप, तप, पूजा- पाठ हवन- यज्ञ आदि सभी उपाय किए लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। एक दिन मंत्री और उनके मित्र श्री चतुर्भुज दास जी ने उन को दुखी देखकर कहा -“मित्र ! वृंदावन के मध्य निधिवन में परम वीतराग रसिक अनन्य शिरोमणि श्री स्वामी हरिदास जी महाराज विराजते हैं। उनकी कृपा से मेरे घर में एक पुत्र का जन्म हुआ है। मैंने तुम्हारे बारे में भी प्रार्थना की थी तो स्वामी जी ने कहा था कि पाँच वर्ष बाद लेकर आना। तो समय पूरा हो गया है आप अपनी पत्नी को साथ लेकर मेरे साथ श्री धाम वृंदावन चले।” श्री मित्र सेन जी बहुत प्रसन्न हुए और पत्नी को साथ ले कर श्री चतुर्भुजदास जी के संग श्री वृंदावन धाम पधारे। स्वामी जी का दर्शन का लाभ प्राप्त हुआ। स्वामी जी महाराज ने आशीर्वाद देकर मथुरा वास करने की आज्ञा प्रदान की। एक वर्ष पश्चात सन 1504 श्रावण शुक्ला तीज को श्री गोदावरी देवी ने एक सुंदर परम तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया एक साल बीतने पर मित्र सेन जी अपने पुत्र एवं पत्नी को साथ लेकर स्वामी जी के पास निधिवन आए। स्वामी जी ने बालक के मस्तक पर प्रेम से हाथ फेरा और प्रसादी वस्त्र देकर गले में कंठी बाँध दी। मस्तक पर तिलक अंकित कर दिया और बालक का नाम रखा “बिहारिनदास”। कहते हैं उसी समय बिहारिन दास में घुटनों के बल चलकर श्री स्वामी जी महाराज का “करुवा” पकड़ लिया, तो स्वामी जी ने मंद मुस्कुरा कर कहा। “बिहारिनदास ! अबई नायँ, फिर आयकै लीजियो”। श्री बिहारी दास जी बड़े रूप गुण युक्त और प्रतिभाशाली थे। उनके स्वभाव और गुणों का अवलोकन कर सभी अति प्रसन्न होते थे। पिता के देहावसान के बाद बादशाह ने इन्हें पिताजी के रिक्त स्थान दीवान पद पर नियुक्त कर दिया। अपनी शूरवीरता और प्रखर बुद्धि के द्वारा कुछ ही समय में बादशाह को प्रभावित कर लिया। संपूर्ण वैभव होने के बाद भी बिहारिन दास जी संसारिक सुख से जल में कमलवत् रहते थे। एक बार बादशाह के आदेश से बिहारिन दास जी को एक युद्ध में जाना पड़ा। विपक्षी राजा का मंत्री हनुमान जी का भक्त था। हनुमान जी के संकेत से मंत्री नम्रतापूर्वक बिहारिन दास जी की शरण में आ गया तो बिहारिन दास जी ने उसे अभय कर दिया था। विपक्षी राजा की सेना बहुत मात्रा में एवं वीर थी। उनको जीतना हंसी खेल नहीं था। बहुत दिनों तक युद्ध चला लेकिन हार जीत का फैसला ना हो सका। तब मुगल सेनापति की प्रार्थना पर बिहारिन दास ने मंत्री को अपने पास बुलाया और सेनापति के साथ बात करके दोनों पक्षों पर संधि करा दी। दोनो तरफ युद्ध बंद हो गया। लेकिन सेनापति ने संधि के पश्चात धोखे से मंत्री को जहर पिलवा करवा दिया इस घटना से बिहारिनदास जी के हृदय में अत्यंत ग्लानि हुई। इस घटना का कारण स्वयं को मानकर जिस हाथ से मंत्री को अभय प्रधान किया था उस हाथ को काट कर सब छोड़कर श्री धाम वृंदावन निधिवन आ गए। और निधिवन राज में आकर स्वामी जी महाराज को प्रणाम करके बोले – इक हथियां हरिदास कौ, नमन बिहारिनदास। स्वामी जी महाराज को प्रणाम करते ही इधर तो स्वामी जी की कृपा से बिहारिन दास जी का हाथ यथावत हो गया। और उधर मंत्री जीवित हो उठा। स्वामी जी अपना करकमल बिहारिन दास जी के सिर पर रखा मानो चंद्रिका धारण करा कर आकर श्री नित्य बिहारिणी जू के सखी पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। स्वामी जी महाराज जी की आज्ञा से श्री स्वामी जी विट्ठल विपुल जी ने उन्हें मंत्र दीक्षा प्रदान की। स्वामी जी की उपासना रीति को उनकी रहनी- सहनी को भलीभांति ह्रदयगम करके श्री बिहारिन देव जी ने अपनी वाणी के द्वारा समस्त अनुयायियों को बोधगम्य बनाया और भविष्य के लिए साधकों को मार्गदर्शक का कार्य किया। बिहारिनदेव जी सदा भाव राज्य में डूबे रहते थे। स्वामी जी के प्रति अति अनन्य थे। हौ तो और स्वरुप पिछानौ नही, हरिदास बिना हरि को है कहाँ को।। स्वामी हरिदास जी महाराज के निकुंज गमन के पश्चात विट्ठल विपुल देव जी अपने गुरु के वियोग में केवल 7 दिन में ही उनके अनुगामी हो गए तब उस नित्य बिहार की उपासना की धुरी को बिहारिन देव जी ने संभाला। स्वामी बिहारिन देव जी ने बहुत वाणियों की रचना की उनके साहित्य को दो भागों में विभाजित किया गया। सिद्धांत साहित्य रस साहित्य एक बार आप यमुना स्नान के लिए गए वहां यमुना पुलिन पर दिव्य लीला के दर्शन करते हुए अपने देह सुध को भूल कर निज सखी स्वरूप में, प्रिया लाल जी को पद गा कर सुनाने लगे- “विहरत लाल- बिहारिन दोऊ श्री यमुना के तीरै -तीरै……..” इस तुक को गाते हुए ही आपको निराहार जमुना तट पर तीन दिन व्यतीत हो गए और इधर निधिवन राज में विराजमान बिहारी जी की सेवा ही नहीं हुई। ऐसी लीलाओं में निरंतर डूबे रहते थे। तब सेवा में व्यवधान जानकर बिहारी जी की सेवा अन्य को प्रदान की। तब बिहारी जी की सेवा भली-भांति होने लगी श्री बिहारिन देव जी ने वृंदावन रस का अनुपम वर्णन किया है। एक बार सुहावनी शरद ऋतु का समय था निधिवन का सौंदर्य सीमा को तोड़ रहा था। नित्य केलि रस के मत मधुप श्री बिहारिन देवजी नेत्र मूंदकर प्रिया प्रीतम की कुंज क्रीडा के अवलोकन में निमग्न हो रहे थे। उसी समय अपने सखाओं के साथ खेलते हुए त्रिभुवन मोहन श्याम सुंदर वहां आ पहुंचे। सभी सखाओं ने स्वामी बिहारिन देव जी को इस प्रकार नयन बंद किए देखा तो उनका कोतूहल जागृत हो उठा। श्री कृष्ण से पूछा ही बैठे – “अरे कन्हैया ! देख तो वु कौन बाबाजी आंख मीच के बैठयौ ऐ?” श्याम सुंदर ने उन्हें कोई प्रोत्साहन न देते हुए कहा- “रहन दे, तोय का परी।” अपनौ भजन करन दै। अब तो सारे सखा मिलकर पीछे ही पड़ गये- “नायँ भैया ! नैक चल तो सई। जाते कछु बातचीत करिगे।” सखाओं के हठ के आगे भला नंदनंदन की क्या चलती ? उन्हें स्वामी बिहारिन देव जी के पास आना ही पड़ा। आकर आवाज लगायी- “ओ बाबा ! नैक आँख तो खोल।” दो तीन आवाजों का तो कुछ पता ही नहीं चला, जब सब ने मिलकर जोर से पुकारा तो आपका ध्यान इधर आकर्षित हुआ। पर नेत्र बंद किए ही बोले- “कौन हो ? क्या बात है भाई ? श्री नंदनंदन बोले- “मैं बुई हूं, जाय सब लोग, माखन चोर, चितचोर, गोपीजन वल्लभ कहै हैं।” स्वामी बिहारिन देव जी बोले- “तो तिहारे संग हमारे स्वामी जी हुँ है का ?” श्यामसुंदर बोले- “बु तो है नाय पर सबरे सखा मेरे संग हैं।” स्वामी बिहारिन देव जी बोले- “तो आप जिनके चित वित को ब्रज में नित हरण करौ तहाँई जाऔ। हम तो श्री हरिदासी के अंक में विराजवे वारे। जुगल के रस के अनन्य है। वाके बिना हम काहूँ को नाय देखै। इन्है ही जानै। श्री स्वामी बिहारिन देव जी लगभग 98 वर्ष की आयु में नित्य निकुंज – क्रीड़ा का आनंद लेते हुए स्वामी जी महाराज के नित्य सानिध्य को प्राप्त किया। संप्रदाय में इनको श्री जी का स्वरुप बताते हैं। जिस प्रकार स्वामी जी ने श्यामा-श्याम को लाड लगाया श्यामा जू को प्रधान मान कर। उसी प्रकार स्वामी जी को लाड लड़ाने के लिए श्रीजी स्वयं श्री बिहारिन देव के रूप में प्रकट हुई और लाड लडाया।

“Jai Jai Shree Radhe”

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