आज का प्रभु संकीर्तन।जब तक किसी भक्त में प्रेम की प्यास गोपी की तरह नही होगी,तब तक भक्त को श्री हरि के चरणों का सुख नही मिल पाता।
गोपी-प्रेम बड़ा ही पवित्र है, इसमें अपना सर्वस्व अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के चरणों में न्यौछावर कर देना पड़ता है।
मोक्ष की इच्छा या नरक के भय का इस प्रेम में कोई स्थान नहीं है। इस प्रेम का स्वरूप है ‘तत्सुख सुखित्व’ अर्थात् उनके सुख में सुखी होना।
मेरे द्वारा मेरा प्रियतम सुखी हो, इसी में मैं सुखी होऊँ–यही गोपी-भाव है। गोपियों के सम्बन्ध में श्रीचैतन्यचरितामृत में कहा गया है।गोपियों का सब कुछ भगवान श्रीकृष्ण के लिए ही है। अर्थात् गोपियां अपने शरीर की रक्षा इसलिए करती हैं
कि वह श्रीकृष्ण की सेवा के लिए है। इच्छा न होते हुए भी वे अपने शरीर को सजाती हैं,
संवारती हैं और विरहजन्य असह्य तीव्रताप को सहन करते हुए भी इसलिए अपने प्राणों को धारण करती हैं,कि वह श्रीकृष्ण का है।
भगवान श्रीकृष्ण इसलिए यह कहते हैं कि गोपियों से बढ़कर मेरा निगूढ़ प्रेमपात्र और कोई भी नहीं है।गोपी-प्रेम की प्राप्ति का उपाय……….
गोपी-प्रेम में देवताओं का भी अधिकार नहीं है। वे भक्त ही इस रस का पान किया करते हैं ,
जो व्रजरस के प्रेमी, व व्रजभाव के रसिक हैं। गोपी-प्रेम ‘सर्वसमर्पण’ का भाव है।
इस गोपी-प्रेम की प्राप्ति का बस यही उपाय है कि श्रीकृष्ण में अपना चित्त जोड़ दो,
उनके नाम और रूप पर आसक्त हो जाओ, उस रसिकेश्वर त्रिभंगी श्रीकृष्ण का सर्वत्र दर्शन करो,
उनके चरणकमलों में सर्वस्व निछावर कर दो, उनकी सेवा में अपना तन, मन, धन सब लगा दो,उनकी एक रूपमाधुरी पर सदा के लिए अपना सम्पूर्ण आत्मसमर्पण कर दो ।
गोपी-भाव में खास बात है रस की अनुभूति। भक्त का हृदय जब भगवानको सचमुच अपना ‘प्रियतम’ और ‘प्राणनाथ’ मान लेता है ।
तब स्वाभाविक ही उनको इस तरह सम्बोधित करते हुए उसके हृदय में एक गुदगुदी-सी होती है,
आनन्द की एक रस-लहरी-सी छलकती है, क्योंकि हमारे सब कुछ के एकमात्र स्वामी–आत्मा के भी आत्मा केवल श्रीकृष्ण ही हैं।समर्पण ही इसका साधन है। परन्तु गोपी-भाव की प्राप्ति किसी साधन से नहीं वरन् श्रीकृष्ण की कृपा से ही मिलती है।जय जय श्री राधे कृष्णा जी।श्री हरि आपका कल्याण करें।
Today’s Lord Sankirtana. Unless the thirst of love in a devotee is like that of a gopi, then the devotee cannot get the pleasure of the feet of Shri Hari. Gopi-love is very pure, in this one has to sacrifice everything at the feet of his beloved Shri Krishna. The desire for salvation or the fear of hell has no place in this love. The nature of this love is ‘tatsukh sukhitva’ i.e. to be happy in their happiness. May my beloved be happy through me, in this I should be happy – this is gopi-bhava. Regarding the gopis, it is said in the Sri Chaitanyacharitamrita. Everything of the gopis is for Lord Krishna only. That is why the gopis protect their bodies. That it is for the service of Shri Krishna. Despite not wanting, they decorate their bodies, She adorns herself and, in spite of tolerating the unbearable intensity of Virahjanya, holds her life because it belongs to Shri Krishna. That is why Lord Shri Krishna says that there is no one more dear to me than the Gopis. Even deities have no right in the love of gopis. Only those devotees drink this juice. Who is the lover of Vrajaras, and the lover of Vrajbhava. Gopi-love is the feeling of ‘all-surrender’. The only way to get this gopi-love is to connect your mind in Shri Krishna, Get attached to his name and form, see that Rasikeshwar Tribhangi Shri Krishna everywhere, Lay everything at His lotus feet, devote all your body, mind, wealth to His service, surrender your whole being to His one form and sweetness forever. The special thing in gopi-bhava is the feeling of rasa. When the heart of the devotee really accepts the Lord as his ‘beloved’ and ‘prananath’. Then naturally while addressing them like this, there is a tickle in his heart, A juiciness of joy emanates like a ripple, because even the sole owner of our everything – the soul of the soul is Krishna only. Surrender is the only means of this. But the attainment of gopi-bhava is not achieved by any means but by the grace of Shri Krishna. Jai Jai Shri Radhe Krishna ji. May Shri Hari bless you.
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