मनका पाप

mind india buddha

एक संत थे। विचित्र जीवन था उनका। वे हरेकसे अपनेको अधम समझते और हरेकको अपनेसे उत्तम । घूमते-फिरते एक दिन वे नदीके तीरपर जा पहुँचे। सुनसान एकान्त स्थान था परम रमणीय। उन्होंने दूरसे देखा–नदीके तटपर स्वच्छ सुकोमल बालूपर एक प्रौढ़ उम्रका मनुष्य बैठा है, बहुत उल्लासमें है वह। पासही पंद्रह-सोलह सालको एक सुन्दरी युवती बैठी है। उसके हाथमें काँचका एक गिलास है। गिलासमें जल जैसा कोई द्रव पदार्थ है। दोनों हँस-हँसकर बातें कर रहे हैं बेधड़क इस दृश्यको देखकर संत मन-ही मन सोचने लगे – ‘इस प्रकार निर्जन स्थानमें परस्पर हँसी-मजाक करनेवाले ये स्त्री-पुरुष जरूर कोई पाप ‘चर्चा ही करते होंगे और गिलासमें जरूर शराब होगी। व्यभिचार और शराबका तो चोलीदामनका सम्बन्ध है। तो क्या मैं इनसे भी अधम हूँ? मैं तो कभी किसी स्त्रीसे एकान्तमें मिलतातक नहीं। न मैंने कभी शराब ही पी है!’

संत इस तरह विचार कर ही रहे थे कि उन्हें नदीकी भीषण तरङ्गोंके थपेड़ोंसे घायल एक छोटी सी नाव डूबती दिखलायी दी। नाव उलट चुकी थी। यात्री पानीमें इधर-उधर हाथ मार रहे थे। सबकी जान खतरे में थी। संत हाय! हाय! पुकार उठे। इसी बीचमें बिजलीकी तरह वह मनुष्य दौड़कर नदीमें कूद पड़ा और बड़ी बहादुरीके साथ बात की बातमें नौ मनुष्योंको बचाकर निकाल लाया! इतनेमें संत भी उसके पास जा पहुँचे। इस तरह—अपने प्राणोंकी परवा न कर दूसरोंके प्राण बचानेके लिये मौतके मुँहमें कूद पड़ना और सफलताके साथ बाहर निकल आना देखकर संतका मन बहुत कुछ बदल गया था। वे दुविधामें पड़े उसके मुखकी ओर चकित से होकर ताक रहे थे। उसने मुसकराकर कहा— ‘महात्माजी! भगवान्ने इस नगण्यको निमित्त बनाकर नौ प्राणियोंको तो बचा लिया है, एक अभी रह गया है, उसे आप बचाइये।’ संत तैरना नहीं जानते थे, उनकी कूदनेकी हिम्मत नहीं हुई। कोई जवाब भी नहीं बन आया।

तब उसने कहा- ‘महात्माजी! अपनेको नीचा और दूसरोंको ऊँचा माननेका आपका भाव तो बहुत ही सुन्दर है, परंतु असलमें अभीतक दूसरोंको ऊँचा देखनेका यथार्थ भाव आपमें पैदा नहीं हो पाया है। नीचा समझकर ऊँचा मानना – अपने में यह अभिमान उत्पन्न करता है कि मैं अपनेसे नीचोंको भी ऊँचा मानता हूँ। जिस दिन आप दूसरोंको वस्तुतः ऊँचा देख पायेंगे, उसी दिन आप यथार्थमें ऊँचा मान भी सकेंगे। भगवान् यदि मूर्खके रूपमें आपके सामने आयें और आप उन्हें पहचान लें तो फिर मूर्खका-सा बर्ताव देखकर भी क्या आप उनको मूर्ख ही मानेंगे ? जो साधक सबमें श्रीभगवान्‌को पहचानता है, वह किसीको अपनेसे नीचा नहीं मान सकता। दूसरी एक बात यह है कि अभीतक आपके मनसे पूर्वके अनुभव किये हुए पाप-संस्कारोंका पूर्णतया नाश नहीं हुआ है। अपने ही मनके दोष दूसरोंपर आरोपित होते हैं। व्यभिचारीको सारा जगत् व्यभिचारी और चोरको सब चोर दीखते हैं। आपने अपनी भावनासे ही हमलोगोंपर दोषकी कल्पना कर ली। देखिये यह जो लड़की बैठी है मेरी बेटी है। इसके हाथमें जो गिलास है, वह इसी नदीके निर्मल जलसे भरा है। यह बहुत दिनों बाद आज ही ससुरालसे लौटकर आयी है। इसका मन देखकर हमलोग नदी किनारे आ गये थे। बहुत दिनों बाद मिलनेके कारण दोनोंके मनमें बड़ा आनन्द था, इसीसे हमलोग हँसते हुए बातें कर रहे थे। फिर बाप बेटीमें संकोच भी कैसा? असलमें मैं तो भगवान्की प्रेरणासे आपके भावकी परीक्षाके लिये ही यहाँ आया था।’

उसकी ये बातें सुनकर संतका बचा खुचा अभिमान और पापके सारे संस्कार नष्ट हो गये। संतने समझा- ‘मेरे प्रभुने ही दया करके इनके द्वारा मुझको यह उपदेश दिलवाया है।’ संत उसके चरणोंपर गिर पड़े। इतनेमें वह डूबा हुआ एक आदमी भी भगवान्की कृपाशक्तिसे नदीमेंसे निकल आया।

तबसे संतको किसीमें भी दोष नहीं दीखते थे। वे किसीको भी अपनेसे नीचा नहीं मानते और किसीसे भी अपनेको ऊँचा नहीं देखते थे।

एक संत थे। विचित्र जीवन था उनका। वे हरेकसे अपनेको अधम समझते और हरेकको अपनेसे उत्तम । घूमते-फिरते एक दिन वे नदीके तीरपर जा पहुँचे। सुनसान एकान्त स्थान था परम रमणीय। उन्होंने दूरसे देखा-नदीके तटपर स्वच्छ सुकोमल बालूपर एक प्रौढ़ उम्रका मनुष्य बैठा है, बहुत उल्लासमें है वह। पासही पंद्रह-सोलह सालको एक सुन्दरी युवती बैठी है। उसके हाथमें काँचका एक गिलास है। गिलासमें जल जैसा कोई द्रव पदार्थ है। दोनों हँस-हँसकर बातें कर रहे हैं बेधड़क इस दृश्यको देखकर संत मन-ही मन सोचने लगे – ‘इस प्रकार निर्जन स्थानमें परस्पर हँसी-मजाक करनेवाले ये स्त्री-पुरुष जरूर कोई पाप ‘चर्चा ही करते होंगे और गिलासमें जरूर शराब होगी। व्यभिचार और शराबका तो चोलीदामनका सम्बन्ध है। तो क्या मैं इनसे भी अधम हूँ? मैं तो कभी किसी स्त्रीसे एकान्तमें मिलतातक नहीं। न मैंने कभी शराब ही पी है!’
संत इस तरह विचार कर ही रहे थे कि उन्हें नदीकी भीषण तरङ्गोंके थपेड़ोंसे घायल एक छोटी सी नाव डूबती दिखलायी दी। नाव उलट चुकी थी। यात्री पानीमें इधर-उधर हाथ मार रहे थे। सबकी जान खतरे में थी। संत हाय! हाय! पुकार उठे। इसी बीचमें बिजलीकी तरह वह मनुष्य दौड़कर नदीमें कूद पड़ा और बड़ी बहादुरीके साथ बात की बातमें नौ मनुष्योंको बचाकर निकाल लाया! इतनेमें संत भी उसके पास जा पहुँचे। इस तरह—अपने प्राणोंकी परवा न कर दूसरोंके प्राण बचानेके लिये मौतके मुँहमें कूद पड़ना और सफलताके साथ बाहर निकल आना देखकर संतका मन बहुत कुछ बदल गया था। वे दुविधामें पड़े उसके मुखकी ओर चकित से होकर ताक रहे थे। उसने मुसकराकर कहा— ‘महात्माजी! भगवान्ने इस नगण्यको निमित्त बनाकर नौ प्राणियोंको तो बचा लिया है, एक अभी रह गया है, उसे आप बचाइये।’ संत तैरना नहीं जानते थे, उनकी कूदनेकी हिम्मत नहीं हुई। कोई जवाब भी नहीं बन आया।
तब उसने कहा- ‘महात्माजी! अपनेको नीचा और दूसरोंको ऊँचा माननेका आपका भाव तो बहुत ही सुन्दर है, परंतु असलमें अभीतक दूसरोंको ऊँचा देखनेका यथार्थ भाव आपमें पैदा नहीं हो पाया है। नीचा समझकर ऊँचा मानना – अपने में यह अभिमान उत्पन्न करता है कि मैं अपनेसे नीचोंको भी ऊँचा मानता हूँ। जिस दिन आप दूसरोंको वस्तुतः ऊँचा देख पायेंगे, उसी दिन आप यथार्थमें ऊँचा मान भी सकेंगे। भगवान् यदि मूर्खके रूपमें आपके सामने आयें और आप उन्हें पहचान लें तो फिर मूर्खका-सा बर्ताव देखकर भी क्या आप उनको मूर्ख ही मानेंगे ? जो साधक सबमें श्रीभगवान्‌को पहचानता है, वह किसीको अपनेसे नीचा नहीं मान सकता। दूसरी एक बात यह है कि अभीतक आपके मनसे पूर्वके अनुभव किये हुए पाप-संस्कारोंका पूर्णतया नाश नहीं हुआ है। अपने ही मनके दोष दूसरोंपर आरोपित होते हैं। व्यभिचारीको सारा जगत् व्यभिचारी और चोरको सब चोर दीखते हैं। आपने अपनी भावनासे ही हमलोगोंपर दोषकी कल्पना कर ली। देखिये यह जो लड़की बैठी है मेरी बेटी है। इसके हाथमें जो गिलास है, वह इसी नदीके निर्मल जलसे भरा है। यह बहुत दिनों बाद आज ही ससुरालसे लौटकर आयी है। इसका मन देखकर हमलोग नदी किनारे आ गये थे। बहुत दिनों बाद मिलनेके कारण दोनोंके मनमें बड़ा आनन्द था, इसीसे हमलोग हँसते हुए बातें कर रहे थे। फिर बाप बेटीमें संकोच भी कैसा? असलमें मैं तो भगवान्की प्रेरणासे आपके भावकी परीक्षाके लिये ही यहाँ आया था।’
उसकी ये बातें सुनकर संतका बचा खुचा अभिमान और पापके सारे संस्कार नष्ट हो गये। संतने समझा- ‘मेरे प्रभुने ही दया करके इनके द्वारा मुझको यह उपदेश दिलवाया है।’ संत उसके चरणोंपर गिर पड़े। इतनेमें वह डूबा हुआ एक आदमी भी भगवान्की कृपाशक्तिसे नदीमेंसे निकल आया।
तबसे संतको किसीमें भी दोष नहीं दीखते थे। वे किसीको भी अपनेसे नीचा नहीं मानते और किसीसे भी अपनेको ऊँचा नहीं देखते थे।

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