सन्तोंकी अवहेलना और सेवाका फल
एक बार नारदजीने धर्मराज युधिष्ठिरसे अपने पूर्वजन्मके बारेमें बताते हुए कहा कि पूर्वजन्ममें इसके पहलेके महाकल्पमें मैं एक गन्धर्व था। मेरा नाम था उपबर्हण और गन्धर्वोंमें मेरा बड़ा सम्मान था। मेरी सुन्दरता, सुकुमारता और मधुरता अपूर्व थी। मेरे शरीरमेंसे सुगन्धि निकला करती और देखनेमें में बहुत अच्छा लगता। स्त्रियाँ मुझसे बहुत प्रेम करतीं और मैं सदा प्रमादमें ही रहता। मैं अत्यन्त विलासी था। एक बार देवताओंके यहाँ ज्ञानसत्र हुआ। उसमें बड़े-बड़े सन्त आये थे। भगवान्की लीलाका गायन करनेके लिये उन लोगोंने गन्धर्व और अप्सराओंको बुलाया। मैं जानता था कि वह सन्तोंका समाज है और वहाँ भगवान्की लीलाका ही गायन होता है। फिर भी मैं स्त्रियोंके साथ लौकिक गीतोंका गायन करता हुआ उन्मत्तकी तरह वहाँ जा पहुँचा। देवताओंने देखा कि यह तो हमलोगोंका अनादर कर रहा है। उन्होंने अपनी शक्तिसे मुझे शाप दे दिया कि ‘तुमने हमलोगोंकी अवहेलना की है, इसलिये तुम्हारी सारी सौन्दर्य सम्पत्ति नष्ट हो जाय और तुम शीघ्र ही शूद्र हो जाओ।’ उनके शापसे मैं दासीका पुत्र हुआ। किंतु उस शूद्रजीवनमें किये हुए महात्माओंके सत्संग और सेवा-शुश्रूषाके प्रभावसे मैं दूसरे जन्ममें ब्रह्माजीका पुत्र हुआ। सन्तोंकी अवहेलना और सेवाका यह मेरा प्रत्यक्ष अनुभव है। [ श्रीमद्भागवत ]
Defiance of saints and the result of service
Once Naradji told Dharmaraj Yudhishthira about his previous birth and said that in the previous birth I was a Gandharva in the previous Mahakalpa. My name was Upabarhana and I had great respect among the Gandharvas. My beauty, delicacy and sweetness were unique. Fragrance used to come out of my body and I used to feel very good to see. Women used to love me a lot and I was always in a daze. I was very luxurious. Once there was a session of knowledge at the place of the deities. Big saints came in it. They called Gandharva and Apsaras to sing the pastimes of the Lord. I knew that it is a society of saints and only God’s pastimes are sung there. Still I reached there like a maniac singing worldly songs with women. The gods saw that he was disrespecting us. He cursed me with his power that ‘You have disrespected us, so all your beauty and property should be destroyed and you will soon become a Shudra’. Due to his curse, I became the son of a maidservant. But due to the influence of the satsang of the Mahatma’s and the service and shrushusha done in that Shudra life, I became the son of Brahmaji in my second birth. This is my direct experience of disregarding and serving saints. [Shrimad Bhagwat]