समुद्रतटके किसी नगरमें एक धनवान् वैश्यके पुत्रोंने एक कौआ पाल रखा था। वे उस कौएको बराबर अपने भोजनसे बचा अन्न देते थे। उनकी जूठन खानेवाला वह कौआ स्वादिष्ट तथा पुरिकर भोजन खाकर खूब मोटा हो गया था। इससे उसका अहंकार बहुत बढ़ गया। वह अपनेसे श्रेष्ठ पक्षियोंको भी तुच्छ समझने और उनका अपमान करने लगा।
एक दिन समुद्रतटपर कहींसे उड़ते हुए आकर कुछ हंस उतरे। वैश्यके पुत्र उन हंसोंकी प्रशंसा कर रहे थे, यह बात कौएसे सही नहीं गयी। वह उन हंसोंके पास गया और उसे उनमें जो सर्वश्रेष्ठ हंस प्रतीत हुआ, उससे बोला-‘मैं तुम्हारे साथ प्रतियोगिता करके उड़ना चाहता हूँ।’
हंसोंने उसे समझाया- ‘भैया! हम तो दूर-दूर उड़नेवाले हैं। हमारा निवास मानसरोवर यहाँसे बहुत दूर है। हमारे साथ प्रतियोगिता करनेसे तुम्हें क्या लाभ होगा। तुम हंसोंके साथ कैसे उड़ सकते हो ?’
कौएने गर्वमें आकर कहा-‘मैं उड़नेकी सौ गतियाँ जानता हूँ और प्रत्येकसे सौ योजनतक उड़ सकता हूँ।’ उड्डीन, अवडीन, प्रदोन, डीन आदि अनेक गतियोंके नाम गिनाकर वह बकवादी कौआ बोला ‘बतलाओ, इनमेंसे तुम किस गतिसे उड़ना चाहते हो?”
तब श्रेष्ठ हंसने कहा-‘काक तुम तो बड़े निपुण हो परंतु मैं तो एक ही गति जानता हूँ, जिसे सब पक्षी जानते हैं। मैं उसी गति से उड़ेगा।’
गर्वित कौएका गर्व और बढ़ गया। वह बोला ‘अच्छी बात तुम जो गति जानते हो उसीसे उड़ो।’ उस समय कुछ पक्षी वहाँ और आ गये थे। उनकेसामने ही हंस और कौआ दोनों समुद्रकी ओर उड़े। समुद्रके ऊपर आकाशमें वह कौआ नाना प्रकारकी कलाबाजियाँ दिखाता पूरी शक्तिसे उड़ा और हंससे कुछ आगे निकल गया। हंस अपनी स्वाभाविक मन्द गतिसे उड़ रहा था। यह देखकर दूसरे कौए प्रसन्नता प्रकट करने लगे।
थोड़ी देरमें ही कौएके पंख थकने लगे। वह विश्रामके लिये इधर-उधर वृक्षयुक्त द्वीपोंकी खोज करने लगा। परंतु उसे उस अनन्त सागरके अतिरिक्त कुछ दीख नहीं पड़ता था। इतने समयमें हंस उड़ता हुआ उससे आगे निकल गया था। कौएकी गति मन्द हो गयी। वह अत्यन्त थक गया और ऊँची तरंगोंवाले भयंकर जीवोंसे भरे समुद्रकी लहरोंके पास गिरनेकी दशामें पहुँच गया।
हंसने देखा कि कौआ बहुत पीछे रह गया है तो रुक गया। उसने कौएके समीप आकर पूछा- ‘काक! तुम्हारी चोंच और पंख बार-बार पानीमें डूब रही हैं। यह तुम्हारी कौन-सी गति है ?”
हंसकी व्यंगभरी बात सुनकर कौआ बड़ी दीनतासे बोला- ‘हंस! हम कौए केवल काँव-काँव करना जानते हैं। हमें भला दूरतक उड़ना क्या आये। मुझे अपनी मूर्खताका दण्ड मिल गया। कृपा करके अब मेरे प्राण बचा लो।’
जलसे भीगे, अचेत और अधमरे कौएपर हंसको दया आ गयी। पैरोंसे उसे उठाकर हंसने पीठपर रख लिया और उसे लादे हुए उड़कर वहाँ आया जहाँसे दोनों उड़े थे। हंसने कौएको उसके स्थानपर छोड़ दिया। (महाभारत0, कर्ण0 4)
समुद्रतटके किसी नगरमें एक धनवान् वैश्यके पुत्रोंने एक कौआ पाल रखा था। वे उस कौएको बराबर अपने भोजनसे बचा अन्न देते थे। उनकी जूठन खानेवाला वह कौआ स्वादिष्ट तथा पुरिकर भोजन खाकर खूब मोटा हो गया था। इससे उसका अहंकार बहुत बढ़ गया। वह अपनेसे श्रेष्ठ पक्षियोंको भी तुच्छ समझने और उनका अपमान करने लगा।
एक दिन समुद्रतटपर कहींसे उड़ते हुए आकर कुछ हंस उतरे। वैश्यके पुत्र उन हंसोंकी प्रशंसा कर रहे थे, यह बात कौएसे सही नहीं गयी। वह उन हंसोंके पास गया और उसे उनमें जो सर्वश्रेष्ठ हंस प्रतीत हुआ, उससे बोला-‘मैं तुम्हारे साथ प्रतियोगिता करके उड़ना चाहता हूँ।’
हंसोंने उसे समझाया- ‘भैया! हम तो दूर-दूर उड़नेवाले हैं। हमारा निवास मानसरोवर यहाँसे बहुत दूर है। हमारे साथ प्रतियोगिता करनेसे तुम्हें क्या लाभ होगा। तुम हंसोंके साथ कैसे उड़ सकते हो ?’
कौएने गर्वमें आकर कहा-‘मैं उड़नेकी सौ गतियाँ जानता हूँ और प्रत्येकसे सौ योजनतक उड़ सकता हूँ।’ उड्डीन, अवडीन, प्रदोन, डीन आदि अनेक गतियोंके नाम गिनाकर वह बकवादी कौआ बोला ‘बतलाओ, इनमेंसे तुम किस गतिसे उड़ना चाहते हो?”
तब श्रेष्ठ हंसने कहा-‘काक तुम तो बड़े निपुण हो परंतु मैं तो एक ही गति जानता हूँ, जिसे सब पक्षी जानते हैं। मैं उसी गति से उड़ेगा।’
गर्वित कौएका गर्व और बढ़ गया। वह बोला ‘अच्छी बात तुम जो गति जानते हो उसीसे उड़ो।’ उस समय कुछ पक्षी वहाँ और आ गये थे। उनकेसामने ही हंस और कौआ दोनों समुद्रकी ओर उड़े। समुद्रके ऊपर आकाशमें वह कौआ नाना प्रकारकी कलाबाजियाँ दिखाता पूरी शक्तिसे उड़ा और हंससे कुछ आगे निकल गया। हंस अपनी स्वाभाविक मन्द गतिसे उड़ रहा था। यह देखकर दूसरे कौए प्रसन्नता प्रकट करने लगे।
थोड़ी देरमें ही कौएके पंख थकने लगे। वह विश्रामके लिये इधर-उधर वृक्षयुक्त द्वीपोंकी खोज करने लगा। परंतु उसे उस अनन्त सागरके अतिरिक्त कुछ दीख नहीं पड़ता था। इतने समयमें हंस उड़ता हुआ उससे आगे निकल गया था। कौएकी गति मन्द हो गयी। वह अत्यन्त थक गया और ऊँची तरंगोंवाले भयंकर जीवोंसे भरे समुद्रकी लहरोंके पास गिरनेकी दशामें पहुँच गया।
हंसने देखा कि कौआ बहुत पीछे रह गया है तो रुक गया। उसने कौएके समीप आकर पूछा- ‘काक! तुम्हारी चोंच और पंख बार-बार पानीमें डूब रही हैं। यह तुम्हारी कौन-सी गति है ?”
हंसकी व्यंगभरी बात सुनकर कौआ बड़ी दीनतासे बोला- ‘हंस! हम कौए केवल काँव-काँव करना जानते हैं। हमें भला दूरतक उड़ना क्या आये। मुझे अपनी मूर्खताका दण्ड मिल गया। कृपा करके अब मेरे प्राण बचा लो।’
जलसे भीगे, अचेत और अधमरे कौएपर हंसको दया आ गयी। पैरोंसे उसे उठाकर हंसने पीठपर रख लिया और उसे लादे हुए उड़कर वहाँ आया जहाँसे दोनों उड़े थे। हंसने कौएको उसके स्थानपर छोड़ दिया। (महाभारत0, कर्ण0 4)