महाभारत युद्धके 10 वें दिन भीष्मपितामहके ही बतलाये मार्गसे शिखण्डीकी आड़ लेकर अर्जुनने उन्हें घायल कर दिया और अन्ततोगत्वा उन्हें रथसे गिरा दिया। उस समय सूर्य अस्त हो रहे थे और उस दिन पौष कृष्ण पञ्चमी थी। तबतक सूर्य दक्षिणायन ही थे । भीष्मजीके शरीरमें सभी ओरसे बाण बिंधे हुए थे। इसलिये गिरनेपर भी वे उन बाणोंके ऊपर ही टँग गये। धरतीसे उनका स्पर्श न हो सका। तबतक उनमें दिव्य भावका आवेश हो गया और उन्हें यह पता चल गया कि यह दक्षिणायन काल मरनेके उपयुक्त नहीं है। इसलिये उन्होंने अपने होश-हवाश ठीक रखे तथा प्राणोंका भी त्याग नहीं किया। तबतक आकाशमें दिव्य वाणी हुई कि – ‘समस्त शास्त्रोंके वेत्ता भीष्मजीने अपनी मृत्यु दक्षिणायनमें कैसे स्वीकार कर ली ?’
भीष्मजीने कहा -‘मैं अभी जीवित हूँ और उत्तरायण आनेतक अपने प्राणोंको रोक रखूँगा।’ जब उनकी माता भगवती भागीरथी गङ्गाको मालूम हुआ, तब उन्होंनेमहर्षियोंको हंसके रूपमें उनके पास भेजा। तदनन्तर मानसरोवरवासी शीघ्रगामी हंस भीष्मपितामहके दर्शनके लिये वहाँ आये जहाँ रणस्थलमें वे शरशय्यापर पड़े थे। हंसरूपधारी मुनियोंने उनकी प्रदक्षिणा की। वहाँ उन हंसोंने आपसमें कुछ आमन्त्रणा – विचार-विमर्श किया और कहने लगे- ‘भीष्मजी तो बड़े महात्मा हैं। भला ये दक्षिणायनमें शरीरत्याग क्योंकर करेंगे ?’ ऐसा कहकर वे चलने लगे। भीष्मजी उन हंसोंको पहचान गये। वे बोले – ‘हंसगण! मैं दक्षिणायन सूर्यमें कभी भी परलोक-यात्रा नहीं करता। इसका आप पूर्ण विश्वास रखें। मैंने उत्तरायण सूर्यमें परलोक जानेकी बात मनमें पहलेसे ही निश्चित कर रखी है। पिताके वरदानसे मृत्यु मेरे अधीन है। अतएव तबतक प्राण धारण करनेमें मुझे कोई कठिनाई या बाधा नहीं उपस्थित होगी।’
ऐसा कहकर वे शरशय्यापर सो रहे और हंसगण उड़ते हुए दक्षिण दिशाकी ओर चले गये।
(महा0 भीष्मपर्व, अध्याय 119)
On the 10th day of the Mahabharata war, Arjuna injured him by taking the guise of Shikhandi from the path told by Bhishmapitamah and finally threw him from the chariot. At that time the sun was setting and that day was Pausha Krishna Panchami. Till then the sun was in south direction only. Arrows were tied in Bhishmaji’s body from all sides. That’s why even after falling, he hung on those arrows. He could not touch the earth. By then he was overwhelmed with divine emotion and he came to know that this Dakshinayan period is not suitable for death. That’s why he kept his senses right and did not even sacrifice his life. Till then there was a divine voice in the sky that – ‘How did Bhishmaji, the master of all the scriptures, accept his death in Dakshinayan?’
Bhishmaji said – ‘I am still alive and will hold my life till Uttarayan comes.’ When his mother Bhagwati Bhagirathi Ganga came to know, then she sent sages to him in the form of swans. After that, the people of Mansarovar came quickly to see Bhishmapitamah, where he was lying on his bed in the battlefield. Hansrupdhari sages visited him. There those swans discussed some invitations among themselves and started saying – ‘Bhishmaji is a great Mahatma. Why would he sacrifice his body in Dakshinayan?’ Saying this they started walking. Bhishmaji recognized those swans. They said – ‘ Hansgan! I never travel to the other world in the Dakshinayan Sun. Have full faith in this. I have already made up my mind about going to the other world in the Uttarayan Sun. Death is under my control by the blessing of my father. Therefore, till then I will not face any difficulty or obstacle in taking life.’
Having said this, he fell asleep on the bed and the swans flew away and went towards the south.
(Maha Bhishmaparva, Chapter 119)