बड़ोंका अभिवादन करनेसे दीर्घायुष्यकी प्राप्ति
प्राचीन कल्पकी बात है; मृकण्डु नामसे विख्यात एक मुनि थे, जो महर्षि भृगुके पुत्र थे। वे महाभाग मुनि अपनी पत्नीके साथ वनमें रहकर तपस्या करते थे। वनमें रहते समय ही उनके एक पुत्र हुआ। धीरे-धीरे उसकी अवस्था पाँच वर्षकी हुई। वह बालक होनेपर भी गुणोंमें बहुत बढ़ा-चढ़ा था। एक दिन जब वह बालक आँगनमें घूम रहा था, किसी सिद्ध ज्ञानीने उसकी ओर देखा और बहुत देरतक ठहरकर उसके जीवनके विषयमें विचार किया। बालकके पिताने पूछा- ‘मेरे पुत्रकी कितनी आयु है ?’ सिद्ध बोला- ‘मुनीश्वर ! विधाताने तुम्हारे पुत्रकी जो आयु निश्चित की है, उसमें अब केवल छः महीने और शेष रह गये हैं। मैंने यह सच्ची बात बतायी है; इसके लिये आपको शोक नहीं करना चाहिये।’
उस सिद्ध ज्ञानीकी बात सुनकर बालकके पिताने उसका उपनयन संस्कार कर दिया और कहा- ‘बेटा! तुम जिस किसी मुनिको देखो, प्रणाम करो।’ पिताके ऐसा कहने पर वह बालक अत्यन्त हर्षमें भरकर सबको प्रणाम करने लगा। धीरे-धीरे पाँच महीने, पचीस दिन और बीत गये। तदनन्तर निर्मल स्वभाववाले सप्तर्षिगण उस मार्गसे पधारे। बालकने उन्हें देखकर उन सबको प्रणाम किया। सप्तर्षियोंने उस बालकको ‘आयुष्मान् भव, सौम्य ।’ कहकर दीर्घायु होनेका आशीर्वाद दिया।
इतना कहनेके बाद जब उन्होंने उसकी आयुपर विचार किया, तब पाँच ही दिनकी आयु शेष जानकर उन्हें बड़ा असमंजस हुआ। वे उस बालकको लेकर ब्रह्माजीके पास गये और उसे उनके सामने उपस्थितकर उन्होंने ब्रह्माजीको प्रणाम किया। बालकने भी ब्रह्माजीके चरणोंमें मस्तक झुकाया। तब ब्रह्माजीने ऋषियोंके समीप ही उसे चिरायु होनेका आशीर्वाद दिया। पितामहका वचन सुनकर ऋषियोंको बड़ी प्रसन्नता हुई। तत्पश्चात् ब्रह्माजीने उनसे पूछा—’तुमलोग किस कामसे यहाँ आये हो तथा यह बालक कौन है ? बताओ।’
ऋषियोंने कहा—’यह बालक मृकण्डुका पुत्र है, इसकी आयु क्षीण हो चुकी है। इसका सबको प्रणाम करनेका स्वभाव हो गया है। एक दिन दैवात् तीर्थयात्राके प्रसंगसे हमलोग उधर जा निकले। यह पृथ्वीपर घूम रहा था। हमने इसकी ओर देखा और इसने हम सब लोगोंको प्रणाम किया। उस समय हमलोगोंके मुखसे बालकके प्रति यह वाक्य निकल गया- ‘चिरायुर्भव, पुत्र! (बेटा ! चिरजीवी होओ।) ‘ आपने भी ऐसा ही कहा है। अतः देव! आपके साथ हमलोग झूठे क्यों बनें ?’
ब्रह्माजीने कहा—ऋषियो! यह बालक मार्कण्डेय आयुमें मेरे समान होगा। यह कल्पके आदि और अन्तमें भी श्रेष्ठ मुनियोंसे घिरा हुआ सदा जीवित रहेगा।
इस प्रकार सप्तर्षियोंने ब्रह्माजीसे वरदान दिलवाकर उस बालकको पुनः पृथ्वी तलपर भेज दिया और स्वयं तीर्थयात्राके लिये चले गये। उनके चले जानेपर मार्कण्डेय अपने घर आये और पितासे इस प्रकार बोले- ‘तात! मुझे ब्रह्मवादी मुनिलोग ब्रह्मलोकमें ले गये थे। वहाँ ब्रह्माजीने मुझे दीर्घायु बना दिया। इसके बाद ऋषियोंने बहुत से वरदान देकर मुझे यहाँ भेज दिया। अतः आपके लिये जो चिन्ताका कारण था, वह अब दूर हो गया। मैं लोककर्ता ब्रह्माजीकी कृपासे कल्पके आदि और अन्तमें तथा आगे आनेवाले कल्पमें भी जीवित रहूँगा। इस पृथ्वीपर पुष्करतीर्थ ब्रह्मलोकके समान है; अतः अब मैं वहीं जाऊँगा।’
मार्कण्डेयजीके वचन सुनकर मुनिश्रेष्ठ मृकण्डुको बड़ा हर्ष हुआ। वे एक क्षणतक चुपचाप आनन्दकी साँस लेते रहे। इसके बाद मनके द्वारा धैर्य धारणकर इस प्रकार बोले- ‘बेटा! आज मेरा जन्म सफल हो गया तथा आज ही मेरा जीवन धन्य हुआ है; क्योंकि तुम्हें सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि करनेवाले भगवान् ब्रह्माजीका दर्शन प्राप्त हुआ। तुम जैसे वंशधर पुत्रको पाकर वास्तवमें मैं पुत्रवान् हुआ हूँ। वत्स! जाओ, पुष्करमें विराजमान देवेश्वर ब्रह्माजीका दर्शन करो। उन जगदीश्वरका दर्शन कर लेनेपर मनुष्योंको बुढ़ापा और मृत्युका द्वार नहीं देखना पड़ता। उन्हें सभी प्रकारके सुख प्राप्त होते हैं तथा उनका तप और ऐश्वर्य भी अक्षय हो जाते हैं। तात! जिस कार्यको मैं भी न कर सका, मेरे किसी कर्मसे जिसकी सिद्धि न हो सकी, उसे तुमने बिना यत्नके ही सिद्ध कर लिया। सबके प्राण लेनेवाली मृत्युको भी जीत लिया। अतः दूसरा कोई मनुष्य इस पृथ्वीपर तुम्हारी समानता नहीं कर सकता। पाँच वर्षकी अवस्थामें ही तुमने मुझे पूर्ण सन्तुष्ट कर दिया; अतः मेरे वरदानके प्रभावसे तुम चिरजीवी महात्माओंके आदर्श माने जाओगे, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। मेरा तो ऐसा आशीर्वाद है ही, तुम्हारे लिये और सब लोग भी यही कहते हैं। कि ‘तुम अपनी इच्छाके अनुसार उत्तम लोकोंमें जाओगे।’
बड़ोंका अभिवादन करनेसे दीर्घायुष्यकी प्राप्ति
प्राचीन कल्पकी बात है; मृकण्डु नामसे विख्यात एक मुनि थे, जो महर्षि भृगुके पुत्र थे। वे महाभाग मुनि अपनी पत्नीके साथ वनमें रहकर तपस्या करते थे। वनमें रहते समय ही उनके एक पुत्र हुआ। धीरे-धीरे उसकी अवस्था पाँच वर्षकी हुई। वह बालक होनेपर भी गुणोंमें बहुत बढ़ा-चढ़ा था। एक दिन जब वह बालक आँगनमें घूम रहा था, किसी सिद्ध ज्ञानीने उसकी ओर देखा और बहुत देरतक ठहरकर उसके जीवनके विषयमें विचार किया। बालकके पिताने पूछा- ‘मेरे पुत्रकी कितनी आयु है ?’ सिद्ध बोला- ‘मुनीश्वर ! विधाताने तुम्हारे पुत्रकी जो आयु निश्चित की है, उसमें अब केवल छः महीने और शेष रह गये हैं। मैंने यह सच्ची बात बतायी है; इसके लिये आपको शोक नहीं करना चाहिये।’
उस सिद्ध ज्ञानीकी बात सुनकर बालकके पिताने उसका उपनयन संस्कार कर दिया और कहा- ‘बेटा! तुम जिस किसी मुनिको देखो, प्रणाम करो।’ पिताके ऐसा कहने पर वह बालक अत्यन्त हर्षमें भरकर सबको प्रणाम करने लगा। धीरे-धीरे पाँच महीने, पचीस दिन और बीत गये। तदनन्तर निर्मल स्वभाववाले सप्तर्षिगण उस मार्गसे पधारे। बालकने उन्हें देखकर उन सबको प्रणाम किया। सप्तर्षियोंने उस बालकको ‘आयुष्मान् भव, सौम्य ।’ कहकर दीर्घायु होनेका आशीर्वाद दिया।
इतना कहनेके बाद जब उन्होंने उसकी आयुपर विचार किया, तब पाँच ही दिनकी आयु शेष जानकर उन्हें बड़ा असमंजस हुआ। वे उस बालकको लेकर ब्रह्माजीके पास गये और उसे उनके सामने उपस्थितकर उन्होंने ब्रह्माजीको प्रणाम किया। बालकने भी ब्रह्माजीके चरणोंमें मस्तक झुकाया। तब ब्रह्माजीने ऋषियोंके समीप ही उसे चिरायु होनेका आशीर्वाद दिया। पितामहका वचन सुनकर ऋषियोंको बड़ी प्रसन्नता हुई। तत्पश्चात् ब्रह्माजीने उनसे पूछा—’तुमलोग किस कामसे यहाँ आये हो तथा यह बालक कौन है ? बताओ।’
ऋषियोंने कहा—’यह बालक मृकण्डुका पुत्र है, इसकी आयु क्षीण हो चुकी है। इसका सबको प्रणाम करनेका स्वभाव हो गया है। एक दिन दैवात् तीर्थयात्राके प्रसंगसे हमलोग उधर जा निकले। यह पृथ्वीपर घूम रहा था। हमने इसकी ओर देखा और इसने हम सब लोगोंको प्रणाम किया। उस समय हमलोगोंके मुखसे बालकके प्रति यह वाक्य निकल गया- ‘चिरायुर्भव, पुत्र! (बेटा ! चिरजीवी होओ।) ‘ आपने भी ऐसा ही कहा है। अतः देव! आपके साथ हमलोग झूठे क्यों बनें ?’
ब्रह्माजीने कहा—ऋषियो! यह बालक मार्कण्डेय आयुमें मेरे समान होगा। यह कल्पके आदि और अन्तमें भी श्रेष्ठ मुनियोंसे घिरा हुआ सदा जीवित रहेगा।
इस प्रकार सप्तर्षियोंने ब्रह्माजीसे वरदान दिलवाकर उस बालकको पुनः पृथ्वी तलपर भेज दिया और स्वयं तीर्थयात्राके लिये चले गये। उनके चले जानेपर मार्कण्डेय अपने घर आये और पितासे इस प्रकार बोले- ‘तात! मुझे ब्रह्मवादी मुनिलोग ब्रह्मलोकमें ले गये थे। वहाँ ब्रह्माजीने मुझे दीर्घायु बना दिया। इसके बाद ऋषियोंने बहुत से वरदान देकर मुझे यहाँ भेज दिया। अतः आपके लिये जो चिन्ताका कारण था, वह अब दूर हो गया। मैं लोककर्ता ब्रह्माजीकी कृपासे कल्पके आदि और अन्तमें तथा आगे आनेवाले कल्पमें भी जीवित रहूँगा। इस पृथ्वीपर पुष्करतीर्थ ब्रह्मलोकके समान है; अतः अब मैं वहीं जाऊँगा।’
मार्कण्डेयजीके वचन सुनकर मुनिश्रेष्ठ मृकण्डुको बड़ा हर्ष हुआ। वे एक क्षणतक चुपचाप आनन्दकी साँस लेते रहे। इसके बाद मनके द्वारा धैर्य धारणकर इस प्रकार बोले- ‘बेटा! आज मेरा जन्म सफल हो गया तथा आज ही मेरा जीवन धन्य हुआ है; क्योंकि तुम्हें सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि करनेवाले भगवान् ब्रह्माजीका दर्शन प्राप्त हुआ। तुम जैसे वंशधर पुत्रको पाकर वास्तवमें मैं पुत्रवान् हुआ हूँ। वत्स! जाओ, पुष्करमें विराजमान देवेश्वर ब्रह्माजीका दर्शन करो। उन जगदीश्वरका दर्शन कर लेनेपर मनुष्योंको बुढ़ापा और मृत्युका द्वार नहीं देखना पड़ता। उन्हें सभी प्रकारके सुख प्राप्त होते हैं तथा उनका तप और ऐश्वर्य भी अक्षय हो जाते हैं। तात! जिस कार्यको मैं भी न कर सका, मेरे किसी कर्मसे जिसकी सिद्धि न हो सकी, उसे तुमने बिना यत्नके ही सिद्ध कर लिया। सबके प्राण लेनेवाली मृत्युको भी जीत लिया। अतः दूसरा कोई मनुष्य इस पृथ्वीपर तुम्हारी समानता नहीं कर सकता। पाँच वर्षकी अवस्थामें ही तुमने मुझे पूर्ण सन्तुष्ट कर दिया; अतः मेरे वरदानके प्रभावसे तुम चिरजीवी महात्माओंके आदर्श माने जाओगे, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। मेरा तो ऐसा आशीर्वाद है ही, तुम्हारे लिये और सब लोग भी यही कहते हैं। कि ‘तुम अपनी इच्छाके अनुसार उत्तम लोकोंमें जाओगे।’