रामदुलाल सरकार कलकत्ता हटखोलाके दत्तबाबुओंके यहाँ नौकरी करते। वेतन था पाँच रुपये मासिक । वे अपने मालिकोंके बड़े कृपापात्र थे। एक दिन गङ्गाजी में एक जहाज डूब गया। उसका माल नीलाम होनेको था। जहाजमें चने भरे थे। नीचेके चने सब भीग गये थे। ऊपर अच्छे थे। नीलामकी डाक पड़ने लगी। रामदुलाल भी नीलाममें डाक लगा रहे थे। रामदुलालने बड़ी दक्षताके साथ चने बहुत सस्ते दामोंमें डाक लिये। कुछ ही देर बाद एक व्यापारीने वे सब चने एक लाख रुपये नकद मुनाफेमें देकर रामदुलालसे खरीद लिये। एक ही घंटेमें यह सब हो गया। बिना किसी खर्चके एक लाख रुपये नकद लेकर रामदुलाल मालिकोंके पास आये और उन्हें सब हाल सुनाया। मालिकोंको कुछ पता ही नहीं था। मालिकोंने सब बातें सुनकर कहा-‘रामदुलाल !इन रुपयोंपर तो तुम्हारा ही हक है। तुमने अपने बुद्धिकौशलसे ये रुपये कमाये हैं। हम इसमें कुछ भी हिस्सा नहीं लेना चाहते। भगवान्ने कृपा करके तुम्हें ये रुपये दिये हैं। इनके मालिक तुम्हीं हो। हमलोग बड़ी ही प्रसन्नतासे तुम्हें ये रुपये लेनेके लिये कह रहे हैं।’
उस समयके लाख रुपये आजके करोड़के बराबर थे। रामदुलालने बहुत प्रयत्न किया। कहा, मेरा कोई हक नहीं है। परंतु मालिकोंने नहीं माना। धन्य है पाँच रुपयेका नौकर रामदुलाल और वैसे ही धन्य हैं उसके निःस्वार्थ मालिक। रामदुलालका भाग जागा, उनके पास लाखों रुपये हुए। पर वे अन्ततक मालिकोंसे पाँच रुपये मासिक लेते रहे और सदाके नौकरकी भाँति ही आचरण भी करते रहे। रामदुलालके देहान्तके बाद उनके पुत्र भी वे ही पाँच रुपये मासिक लेकर अपनेको धन्य मानते थे।
Ramdulal Sarkar used to work at Dattababu’s place in Calcutta Hatkhola. The salary was five rupees per month. They were very pleased with their owners. One day a ship sank in Gangaji. His goods were about to be auctioned. The ship was full of gram. The gram below was all wet. The above were good. Auction postage started. Ramdulal was also putting stamps in the auction. Ramdulal very efficiently bought dak at very cheap prices. After some time, a businessman bought all those gram from Ramdulal by giving a cash profit of one lakh rupees. All this happened in one hour. Ramdulal came to the owners with one lakh rupees in cash without any expense and told them everything. The owners didn’t know anything. The owners heard everything and said – ‘Ramdulal! You have the right on these rupees. You have earned this money with your intelligence. We don’t want to take any part in this. God has graciously given you this money. You are their owner. We are very happy asking you to take this money.’
Lakhs of rupees at that time were equivalent to today’s crores. Ramdulal tried a lot. Said, I have no right. But the owners did not agree. Blessed is Ramdulal, the servant of five rupees and equally blessed is his selfless master. Ramdulalka ran away, he got lakhs of rupees. But he kept on taking five rupees monthly from the owners till the end and also behaved like a regular servant. After Ramdulal’s death, his sons also considered themselves blessed by taking the same five rupees a month.