बादशाह अलाउद्दीनके दरबार में एक मंगोल सरदार था। बादशाह उसकी शूरता तथा ईमानदारीसे बहुत संतुष्ट थे; किंतु निरंकुश लोगोंकी समीपता प्रायः भयप्रद होती है। वह सरदार बादशाहका मुँहलगा हो गया था। एक दिन उससे कोई साधारण भूल हो गयी; किंतु बादशाह इतने अप्रसन्न हो गये कि उन्होंने उस सरदारको प्राणदण्डकी आज्ञा दे दी। सरदार किसी प्रकार दिल्लीसे बचकर निकल भागा। परंतु बादशाहके अपराधीको शरण देकर विपत्ति कौन मोल ले ? अनेक स्थानोंपर भटकनेपर भी किसीने उसे अपने यहाँ रहने नहीं दिया। विपत्तिका मारा सरदार रणथम्भौर पहुँचा। वहाँ उस समय सिंहासनपर थे राणा हमीर। उन्होंने उस यवन सरदारका स्वागत किया और कहा-‘शरणागतकी रक्षा राजपूतका प्रथम कर्तव्य है। अतः आप यहाँ सुखपूर्वक निवास करें।’
उधर दिल्ली समाचार पहुँचा तो अलाउद्दीन क्रोधसे तिलमिला उठा। उसने संदेश भेजा—’राज्यके अपराधीको शरण देना तख्तकी तौहीन करना है। हमारा कैदी हमें दे दो, नहीं तो ईंट से ईंट बजा दी जायगी।’
राणा हमीरने उस दूतको यह उत्तर देकर लौटा दिया- ‘एक आर्त मनुष्य प्राणरक्षाकी पुकार करता राजपूतके पास आयेगा तो राजपूत उसे शरण नहीं देगा, ऐसा हो नहीं सकता। हमने अपने धर्मका पालन किया। है। राज्यके विनाश या प्राणके भयसे हम शरणागतका त्याग नहीं करेंगे।’
कुछ सरदारोंने राणाको समझाया भी ‘बादशाहसे शत्रुता मोल लेना उचित नहीं। यह मंगोल सरदार भी मुसलमान ही है। यह अन्तमें अपने लोगों में मिल जायगा। आप जान-बूझकर विनाशको क्यों आमन्त्रित करते हैं।’
परंतु राणा हमीरका निश्चय अटल था। उन्होंने स्पष्ट कह दिया- ‘शरणागत कौन है, किस धर्म या जातिका है, उसने क्या किया है आदि देखना मेरा काम नहीं है। मैं लोभ या भयसे अपने कर्तव्यका त्याग नहीं करूँगा।’राणाका उत्तर दिल्ली पहुँचते ही बादशाहने रणथम्भौरपर चढ़ाई करनेके लिये सेना भेज दो; किंतु रणथम्भौरका दुर्ग कोई खिलौना नहीं था, जिसे खेल खेलमें ढहा दिया जाता शाही सेनाके छक्के छूट गये। बार-बारके आक्रमणोंमें सदा उसे मुँहकी खानी पड़ी। अन्तमें दुर्गपर घेरा डालकर शाही सेना जम गयी। पूरे पाँच वर्षतक शाही सेना रणथम्भौरको घेरे पड़ी रही।
इस पाँच वर्षके दीर्घकालमें दोनों पक्षोंकी भारी क्षति हुई। सैकड़ों सैनिक मारे गये; किंतु शाही सेनाको बराबर सहायता मिलती गयी। उधर रणथम्भौरके दुर्गमें सैनिक घटते गये, भोजन समाप्त हो गया। उपवास करके कबतक युद्ध चलता। उस मंगोल सरदारने राणासे प्रार्थना की- महाराज! आपने मेरे लिये जो कष्ट उठाया, जो हानि सही, उसे मैं कभी भूल नहीं सकता लेकिन मेरे लिये पूरे राज्यका विनाश अब मुझसे देखा नहीं जाता। मैं अपने-आप अलाउद्दीनके पास चला जाता हूँ।’
राणा हमीरने कहा- ‘आप ऐसी बात मुखसे फिर न निकालें। एक राजपूतने आपको शरण दी है। जबतक मैं जीवित हूँ, अलाउद्दीनके पास आपको नहीं जाने दूँगा।”
दुर्गमें अन्न समाप्त हो जानेपर जब दूसरा कोई उपाय नहीं रहा तो एक भारी चिता बनायी गयी। सब नारियाँ प्रसन्नतापूर्वक चिताकी लपटोंमें कूदकर सती हो गयीं। सब पुरुषोंने केसरिया वस्त्र पहने और दुर्गका द्वार खोलकर वे निकल पड़े। युद्ध करते हुए वे शूर मारे गये। राणा हमीरने मृत्युके अन्तिम क्षणतक उस सरदारकी रक्षा की। वह सरदार भी राणाके पक्षमें युद्ध करते हुए पकड़ा गया। अलाउद्दीनके सामने जब वही बंदी बनाकर उपस्थित किया गया, तब बादशाहने उससे पूछा-‘तुम्हें छोड़ दिया जाय तो क्या करोगे ?’
सरदारने निर्भीकतापूर्वक कहा-‘ हमीरको संतानको दिल्लीके तख्तपर बैठानेके लिये जिंदगीभर तुमसे लड़ता रहूँगा।’ इतना उदार नहीं था अलाउद्दीन कि उस शूरको क्षमा कर दे। उसने उसे मरवा डाला।
-सु0 सिं0
बादशाह अलाउद्दीनके दरबार में एक मंगोल सरदार था। बादशाह उसकी शूरता तथा ईमानदारीसे बहुत संतुष्ट थे; किंतु निरंकुश लोगोंकी समीपता प्रायः भयप्रद होती है। वह सरदार बादशाहका मुँहलगा हो गया था। एक दिन उससे कोई साधारण भूल हो गयी; किंतु बादशाह इतने अप्रसन्न हो गये कि उन्होंने उस सरदारको प्राणदण्डकी आज्ञा दे दी। सरदार किसी प्रकार दिल्लीसे बचकर निकल भागा। परंतु बादशाहके अपराधीको शरण देकर विपत्ति कौन मोल ले ? अनेक स्थानोंपर भटकनेपर भी किसीने उसे अपने यहाँ रहने नहीं दिया। विपत्तिका मारा सरदार रणथम्भौर पहुँचा। वहाँ उस समय सिंहासनपर थे राणा हमीर। उन्होंने उस यवन सरदारका स्वागत किया और कहा-‘शरणागतकी रक्षा राजपूतका प्रथम कर्तव्य है। अतः आप यहाँ सुखपूर्वक निवास करें।’
उधर दिल्ली समाचार पहुँचा तो अलाउद्दीन क्रोधसे तिलमिला उठा। उसने संदेश भेजा—’राज्यके अपराधीको शरण देना तख्तकी तौहीन करना है। हमारा कैदी हमें दे दो, नहीं तो ईंट से ईंट बजा दी जायगी।’
राणा हमीरने उस दूतको यह उत्तर देकर लौटा दिया- ‘एक आर्त मनुष्य प्राणरक्षाकी पुकार करता राजपूतके पास आयेगा तो राजपूत उसे शरण नहीं देगा, ऐसा हो नहीं सकता। हमने अपने धर्मका पालन किया। है। राज्यके विनाश या प्राणके भयसे हम शरणागतका त्याग नहीं करेंगे।’
कुछ सरदारोंने राणाको समझाया भी ‘बादशाहसे शत्रुता मोल लेना उचित नहीं। यह मंगोल सरदार भी मुसलमान ही है। यह अन्तमें अपने लोगों में मिल जायगा। आप जान-बूझकर विनाशको क्यों आमन्त्रित करते हैं।’
परंतु राणा हमीरका निश्चय अटल था। उन्होंने स्पष्ट कह दिया- ‘शरणागत कौन है, किस धर्म या जातिका है, उसने क्या किया है आदि देखना मेरा काम नहीं है। मैं लोभ या भयसे अपने कर्तव्यका त्याग नहीं करूँगा।’राणाका उत्तर दिल्ली पहुँचते ही बादशाहने रणथम्भौरपर चढ़ाई करनेके लिये सेना भेज दो; किंतु रणथम्भौरका दुर्ग कोई खिलौना नहीं था, जिसे खेल खेलमें ढहा दिया जाता शाही सेनाके छक्के छूट गये। बार-बारके आक्रमणोंमें सदा उसे मुँहकी खानी पड़ी। अन्तमें दुर्गपर घेरा डालकर शाही सेना जम गयी। पूरे पाँच वर्षतक शाही सेना रणथम्भौरको घेरे पड़ी रही।
इस पाँच वर्षके दीर्घकालमें दोनों पक्षोंकी भारी क्षति हुई। सैकड़ों सैनिक मारे गये; किंतु शाही सेनाको बराबर सहायता मिलती गयी। उधर रणथम्भौरके दुर्गमें सैनिक घटते गये, भोजन समाप्त हो गया। उपवास करके कबतक युद्ध चलता। उस मंगोल सरदारने राणासे प्रार्थना की- महाराज! आपने मेरे लिये जो कष्ट उठाया, जो हानि सही, उसे मैं कभी भूल नहीं सकता लेकिन मेरे लिये पूरे राज्यका विनाश अब मुझसे देखा नहीं जाता। मैं अपने-आप अलाउद्दीनके पास चला जाता हूँ।’
राणा हमीरने कहा- ‘आप ऐसी बात मुखसे फिर न निकालें। एक राजपूतने आपको शरण दी है। जबतक मैं जीवित हूँ, अलाउद्दीनके पास आपको नहीं जाने दूँगा।”
दुर्गमें अन्न समाप्त हो जानेपर जब दूसरा कोई उपाय नहीं रहा तो एक भारी चिता बनायी गयी। सब नारियाँ प्रसन्नतापूर्वक चिताकी लपटोंमें कूदकर सती हो गयीं। सब पुरुषोंने केसरिया वस्त्र पहने और दुर्गका द्वार खोलकर वे निकल पड़े। युद्ध करते हुए वे शूर मारे गये। राणा हमीरने मृत्युके अन्तिम क्षणतक उस सरदारकी रक्षा की। वह सरदार भी राणाके पक्षमें युद्ध करते हुए पकड़ा गया। अलाउद्दीनके सामने जब वही बंदी बनाकर उपस्थित किया गया, तब बादशाहने उससे पूछा-‘तुम्हें छोड़ दिया जाय तो क्या करोगे ?’
सरदारने निर्भीकतापूर्वक कहा-‘ हमीरको संतानको दिल्लीके तख्तपर बैठानेके लिये जिंदगीभर तुमसे लड़ता रहूँगा।’ इतना उदार नहीं था अलाउद्दीन कि उस शूरको क्षमा कर दे। उसने उसे मरवा डाला।
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