पिताके सत्यकी रक्षा

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जापानके सामन्तराज सातोमी बड़ी कठिनाईमें पड़ गये थे। शत्रु-सेनाने उनके दुर्गको तीन महीनेसे घेर रखा था। यह ठीक था कि पर्वतपर बना और गहरी खाईसे घिरा दृढ़ दुर्ग शत्रुके प्रबल आक्रमणोंके सम्मुख श्री मस्तक उठाये खड़ा था; किंतु दुर्गवासियोंका भोजन समाप्त हो रहा था। भूखों मरनेका अवसर आ गया था। अन्तमें सातोमीने घोषणा की— ‘शत्रुके सेनापतिका सिर जो काट लायेगा, उसे वह अपनी एकमात्र पुत्री ब्याह देगा।’

पहाड़ीपर शीतकालकी सूचना देनेवाले ‘प्लाम’ पुष्प खिलने लगे। एक दिन शामसे ही हिमपात प्रारम्भ हो गया। सामन्तराज उस रात विशेष चिन्तित हो उठे। उनका प्यारा कुत्ता जात सुबूसा कहीं दीख नहीं रहा था। वह शिकारी जातिका ऊँचा, बलवान् और स्वामिभक्त जानवर पता नहीं कहाँ चला गया था। कहीं हिमपातमें बाहर रह गया तो बरफ उसे जमा ही देगी और शत्रुकी दृष्टिमें वह पड़ गया तो गोलीसे भून दिया जायगा। परंतु कुत्ता उस रात मिला नहीं। दूसरे दिन सबेरे भी नहीं मिला।

दूसरे दिन सामन्तराजने अपने सब मित्र और नायक एकत्र किये। उनमें मन्त्रणा प्रारम्भ हुई कि अब युद्धके विषयमें क्या करना चाहिये। इसी समयसातोमीका कुत्ता सुबूसा वहाँ आ पहुँचा। उस कुत्तेके मुखमें रक्तसे लथपथ लंबे बालोंवाला एक मानव-सिर था। देखनेपर निश्चय हो गया कि वह शत्रुके सेनापतिका ही मस्तक है।

सामन्तराज सातोमीके दुर्गमें आनन्दकी जय-ध्वनि गूँज उठी। उनके सैनिक दुर्गका द्वार खोलकर शत्रु सेनापर टूट पड़े। सेनापतिहीन शत्रुसेना छिन्न-भिन्न हो गयी। उसके कुछ सैनिक मारे गये और कुछ भाग गये। सातोमीकी विजय हुई, विपत्ति कट गयी। किंतु जिसके द्वारा यह सब कार्य हुआ, वही कुत्ता अब सातोमीको अपना परम शत्रु जान पड़ने लगा। जापानके सामुराईके वचनका मूल्य होता है। भारतके राजपूतके समान वह दृढ़प्रतिज्ञ माना जाता है। सातोमीको अपनी प्रतिज्ञा स्मरण आती और वे ग्लानिसे भर उठते- ‘छिः ! उनकी प्रतिज्ञा पूरी करके कुत्ता उनकी पुत्रीका अधिकारी हो गया है। कितना अभागा दिन था, जब उन्होंने वह प्रतिज्ञा की!’

इस ग्लानिका परिणाम यह हुआ कि कुत्तेके प्रति उनके मनमें घृणा और द्वेषके भाव प्रबल हो गये। वह स्वामिभक्त कुत्ता अब पास आता तो उसे वे तत्काल | मारकर भगा देते। सामन्तराजके सेवक भी अपने स्वामीकी देखा-देखी कुत्तेको मारने तथा भगाने लगे।उसे भोजन देना एकदम बंद कर दिया गया। लोग चाहते थे कि भूख और अपमानसे पीड़ित होकर वह स्वयं कहीं भाग जाय

सामन्तराज सातोमीकी एकमात्र संतान थी उनकी पुत्री। उस उदार राजकुमारीको कुत्तेके प्रति लोगोंके वर्तमान व्यवहारको देखकर बड़ा खेद हुआ। उसने सोचा- ‘मेरे पिता और पूरे राज्यको बचानेवाले इस उपकारी प्राणीकी रक्षा और सेवा हमारा कर्तव्य होना चाहिये। फिर पिताकी प्रतिज्ञाकी रक्षा करना संतानका धर्म है। मेरे पिताने प्रतिज्ञा कर दी और अब मेरे मोहके कारण इस उपकारी पशुका तिरस्कार करते हैं; ऐसी दशामें पिताके सत्यकी रक्षाके लिये इस कुत्तेका पालन मुझे करना चाहिये।’

राजकन्या जानती थी कि उसके विचारोंका कोई समर्थन नहीं करेगा। भय यह था कि उसके विचार प्रकट होनेपर लोग उस उपकारी कुत्तेकी हत्या ही न कर दें; इसलिये कुत्तेको साथ लेकर वह रात्रिमें दुर्गसे निकल गयी। सबेरे जब कुत्ता और राजकुमारी दुर्गमें नहीं मिले; तब कुहराम मच गया। सामन्तराज पुत्रीके वियोगमें व्याकुल हो उठे। चारों ओर सैनिक भेजे गये; किंतु कहीं राजकन्याका पता नहीं लगा।

राजकन्या वनके मार्गसे भटकती, नदी-नाले पार करती एक घने वनमें पहुँची। उसने एक पर्वतकी गुफाको घर बनाया। राजसुखमें पली वह देवी तपस्विनीबनी। कुत्ता अब छायाके समान उसके साथ लगा रहता था। दिनमें वह राजकन्याके साथ घूमता था वनों में और रात्रिमें उसकी चौकीदारी करता था।

राजकुमारी अब अपना निर्वाह करती थी भिक्षा माँगकर । उसका समय अब उपासनामें व्यतीत होता था और उसकी प्रार्थना थी तथागतके चरणोंमें ‘प्रभो! इस स्वामिभक्त प्राणीको अपने चरणोंमें स्वीकार करो। जन्म – मृत्युके पाशसे इसे मुक्त करो।’

अपने लिये राजकुमारीको कोई कामना नहीं रह गयी थी। वह अपने साथ धर्मग्रन्थ ले आयी थी और उसीका पाठ किया करती थी। इस प्रकार दिन-पर दिन बीतते चले गये। अचानक एक दिन सामन्तराज सातोमीका एक सैनिक आखेट करता हुआ उस वनमें पहुँच गया। उसने दूरसे जात- सुबूसाको देखा। अपने स्वामीके कुत्तेको देखते ही वह पहचान गया और पहचानते ही उसने बंदूक सीधी की – ‘इस दुष्ट कुत्तेके कारण ही राजकन्या कहीं चली गयीं और हमारे स्वामी पुत्रीके शोकमें व्यथित रहते हैं।’

सैनिककी बंदूक तड़प उठी और कुत्ता भूमिपर लुढ़ककर छटपटाने लगा। एक सुकुमार कण्ठसे उसी समय चीत्कार निकली। सैनिक दौड़कर पास आया तो उसने देखा कि कुत्तेकी आड़में ही राजकुमारी प्रार्थना करने बैठी थी और बंदूककी गोली कुत्तेके साथ उन्हें भी समाप्त कर चुकी है।

-सु0 सिं0

जापानके सामन्तराज सातोमी बड़ी कठिनाईमें पड़ गये थे। शत्रु-सेनाने उनके दुर्गको तीन महीनेसे घेर रखा था। यह ठीक था कि पर्वतपर बना और गहरी खाईसे घिरा दृढ़ दुर्ग शत्रुके प्रबल आक्रमणोंके सम्मुख श्री मस्तक उठाये खड़ा था; किंतु दुर्गवासियोंका भोजन समाप्त हो रहा था। भूखों मरनेका अवसर आ गया था। अन्तमें सातोमीने घोषणा की— ‘शत्रुके सेनापतिका सिर जो काट लायेगा, उसे वह अपनी एकमात्र पुत्री ब्याह देगा।’
पहाड़ीपर शीतकालकी सूचना देनेवाले ‘प्लाम’ पुष्प खिलने लगे। एक दिन शामसे ही हिमपात प्रारम्भ हो गया। सामन्तराज उस रात विशेष चिन्तित हो उठे। उनका प्यारा कुत्ता जात सुबूसा कहीं दीख नहीं रहा था। वह शिकारी जातिका ऊँचा, बलवान् और स्वामिभक्त जानवर पता नहीं कहाँ चला गया था। कहीं हिमपातमें बाहर रह गया तो बरफ उसे जमा ही देगी और शत्रुकी दृष्टिमें वह पड़ गया तो गोलीसे भून दिया जायगा। परंतु कुत्ता उस रात मिला नहीं। दूसरे दिन सबेरे भी नहीं मिला।
दूसरे दिन सामन्तराजने अपने सब मित्र और नायक एकत्र किये। उनमें मन्त्रणा प्रारम्भ हुई कि अब युद्धके विषयमें क्या करना चाहिये। इसी समयसातोमीका कुत्ता सुबूसा वहाँ आ पहुँचा। उस कुत्तेके मुखमें रक्तसे लथपथ लंबे बालोंवाला एक मानव-सिर था। देखनेपर निश्चय हो गया कि वह शत्रुके सेनापतिका ही मस्तक है।
सामन्तराज सातोमीके दुर्गमें आनन्दकी जय-ध्वनि गूँज उठी। उनके सैनिक दुर्गका द्वार खोलकर शत्रु सेनापर टूट पड़े। सेनापतिहीन शत्रुसेना छिन्न-भिन्न हो गयी। उसके कुछ सैनिक मारे गये और कुछ भाग गये। सातोमीकी विजय हुई, विपत्ति कट गयी। किंतु जिसके द्वारा यह सब कार्य हुआ, वही कुत्ता अब सातोमीको अपना परम शत्रु जान पड़ने लगा। जापानके सामुराईके वचनका मूल्य होता है। भारतके राजपूतके समान वह दृढ़प्रतिज्ञ माना जाता है। सातोमीको अपनी प्रतिज्ञा स्मरण आती और वे ग्लानिसे भर उठते- ‘छिः ! उनकी प्रतिज्ञा पूरी करके कुत्ता उनकी पुत्रीका अधिकारी हो गया है। कितना अभागा दिन था, जब उन्होंने वह प्रतिज्ञा की!’
इस ग्लानिका परिणाम यह हुआ कि कुत्तेके प्रति उनके मनमें घृणा और द्वेषके भाव प्रबल हो गये। वह स्वामिभक्त कुत्ता अब पास आता तो उसे वे तत्काल | मारकर भगा देते। सामन्तराजके सेवक भी अपने स्वामीकी देखा-देखी कुत्तेको मारने तथा भगाने लगे।उसे भोजन देना एकदम बंद कर दिया गया। लोग चाहते थे कि भूख और अपमानसे पीड़ित होकर वह स्वयं कहीं भाग जाय
सामन्तराज सातोमीकी एकमात्र संतान थी उनकी पुत्री। उस उदार राजकुमारीको कुत्तेके प्रति लोगोंके वर्तमान व्यवहारको देखकर बड़ा खेद हुआ। उसने सोचा- ‘मेरे पिता और पूरे राज्यको बचानेवाले इस उपकारी प्राणीकी रक्षा और सेवा हमारा कर्तव्य होना चाहिये। फिर पिताकी प्रतिज्ञाकी रक्षा करना संतानका धर्म है। मेरे पिताने प्रतिज्ञा कर दी और अब मेरे मोहके कारण इस उपकारी पशुका तिरस्कार करते हैं; ऐसी दशामें पिताके सत्यकी रक्षाके लिये इस कुत्तेका पालन मुझे करना चाहिये।’
राजकन्या जानती थी कि उसके विचारोंका कोई समर्थन नहीं करेगा। भय यह था कि उसके विचार प्रकट होनेपर लोग उस उपकारी कुत्तेकी हत्या ही न कर दें; इसलिये कुत्तेको साथ लेकर वह रात्रिमें दुर्गसे निकल गयी। सबेरे जब कुत्ता और राजकुमारी दुर्गमें नहीं मिले; तब कुहराम मच गया। सामन्तराज पुत्रीके वियोगमें व्याकुल हो उठे। चारों ओर सैनिक भेजे गये; किंतु कहीं राजकन्याका पता नहीं लगा।
राजकन्या वनके मार्गसे भटकती, नदी-नाले पार करती एक घने वनमें पहुँची। उसने एक पर्वतकी गुफाको घर बनाया। राजसुखमें पली वह देवी तपस्विनीबनी। कुत्ता अब छायाके समान उसके साथ लगा रहता था। दिनमें वह राजकन्याके साथ घूमता था वनों में और रात्रिमें उसकी चौकीदारी करता था।
राजकुमारी अब अपना निर्वाह करती थी भिक्षा माँगकर । उसका समय अब उपासनामें व्यतीत होता था और उसकी प्रार्थना थी तथागतके चरणोंमें ‘प्रभो! इस स्वामिभक्त प्राणीको अपने चरणोंमें स्वीकार करो। जन्म – मृत्युके पाशसे इसे मुक्त करो।’
अपने लिये राजकुमारीको कोई कामना नहीं रह गयी थी। वह अपने साथ धर्मग्रन्थ ले आयी थी और उसीका पाठ किया करती थी। इस प्रकार दिन-पर दिन बीतते चले गये। अचानक एक दिन सामन्तराज सातोमीका एक सैनिक आखेट करता हुआ उस वनमें पहुँच गया। उसने दूरसे जात- सुबूसाको देखा। अपने स्वामीके कुत्तेको देखते ही वह पहचान गया और पहचानते ही उसने बंदूक सीधी की – ‘इस दुष्ट कुत्तेके कारण ही राजकन्या कहीं चली गयीं और हमारे स्वामी पुत्रीके शोकमें व्यथित रहते हैं।’
सैनिककी बंदूक तड़प उठी और कुत्ता भूमिपर लुढ़ककर छटपटाने लगा। एक सुकुमार कण्ठसे उसी समय चीत्कार निकली। सैनिक दौड़कर पास आया तो उसने देखा कि कुत्तेकी आड़में ही राजकुमारी प्रार्थना करने बैठी थी और बंदूककी गोली कुत्तेके साथ उन्हें भी समाप्त कर चुकी है।
-सु0 सिं0

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