आत्महत्याका विचार उचित नहीं
पूर्वकालमें काश्यप नामका एक तपस्वी व्यक्ति था । उसे धनके मदमें चूर किसी वैश्यने अपने रथके धक्केसे गिरा दिया। गिरनेसे वह बहुत दुखी हुआ और क्रोधवश आपेसे बाहर होकर कहने लगा, ‘दुनियामें निर्धन मनुष्यका जीवन व्यर्थ है, इसलिये अब मैं आत्मघात कर लूँगा।’ उसे इस प्रकार क्षुब्धचित्त होकर आत्महत्याका प्रयत्न करते देखकर इन्द्र इसके पास गीदड़का रूप धारण करके आये और कहने लगे, ‘महोदय। मनुष्ययोनि पानेके लिये तो सभी प्राणी उत्सुक रहते हैं। उसकी प्रशंसा तो सभीने की है। आप तो मनुष्य है, और शास्त्रज्ञ भी हैं। ऐसा दुर्लभ शरीर पाकर आपको उसमें दोषानुसन्धान नहीं करना चाहिये। अजी! जिन्हें भगवान्ने हाथ दिये हैं, उनके तो मानो सभी मनोरथ सिद्ध हो गये हैं। इस समय आपको जैसे धनकी लालसा है, उसी प्रकार मैं तो केवल हाथ पानेके लिये ही उत्सुक हूँ। मेरी दृष्टिमें हाथ मिलनेसे बढ़कर संसारमें कोई भी लाभ नहीं है। देखिये, मेरे शरीरमें काँटे लगे हुए हैं, किंतु हाथ न होनेसे मैं उन्हें निकाल नहीं सकता। किंतु जिन्हें भगवान्से दो हाथ मिले हैं, वे वर्षा, शीत और घामसे अपनी रक्षा कर सकते हैं। जो दुःख बिना हाथके दीन, दुर्बल और बेजुबान प्राणी सहते हैं, सौभाग्यवश वे तो आपको नहीं सहने पड़ते। भगवान्की बड़ी कृपा है कि आप गीदड़, कीड़ा, चूहा, साँप, मेढक या किसी दूसरी योनिमें उत्पन्न नहीं हुए। आपको तो इतने ही लाभसे सन्तुष्ट रहना चाहिये। इससे अधिक और क्या चाहिये ? आप मेरी ही दशा देखिये, मुझे ये कीड़े काट रहे हैं, किंतु हाथ न होनेके कारण इनसे छुटकारा पानेकी मेरेमें शक्ति नहीं है। आत्महत्या करना बड़ा पाप है, यह सोचकर ही मैं ऐसा नहीं करता, जिससे मैं इससे भी नीच योनिमें न गिरूँ। इस समय मैं श्रृंगाल-योनिमें हूँ, यह बहुत नीच योनि है, परंतु इसकी अपेक्षा कई योनियाँ और भी अधिक नीच हैं।
देखिये, मायाका चक्र तो ऐसा है कि जो नीचतर प्राणी हैं, वे भी अपनी योनियोंमें प्रसन्न रहते हैं, वे भी अपना शरीर नहीं छोड़ना चाहते। यही नहीं, आप लंगड़े लूले और पक्षाघातादि रोगोंसे पीड़ित मनुष्योंको देखिये, वे भी अपना शरीर नहीं छोड़ना चाहते हैं। फिर आपका शरीर नीरोग और पूर्णांग है तथा लोकमें आपको कोई बुरा भी नहीं कहता। आपको तो प्राणत्यागका विचार कभी भी नहीं करना चाहिये। अपने पूर्वजन्ममें मैं एक पण्डित था। उस समय थोथी तर्क-विद्यापर ही मेरा विशेष प्रेम था। मैं सभाओं में तरह-तरहके कुतर्क करता था और जो लोग सद्विचारमें लगे रहते थे, उन्हें बुरा-भला कहकर बढ़ बढ़कर बातें बनाया करता था। मूर्ख होनेपर भी अपनेको बड़ा पण्डित मानता था। विप्रवर। यह शृगाल-योनि मेरे उस कुकर्मका ही परिणाम है। अब मैं रात-दिन कोई ऐसा साधन करना चाहता हूँ, जिससे फिर मनुष्य योनि प्राप्त कर सकूँ। उस योनिमें मैं सन्तुष्ट और सावधान रहूँ; जाननेयोग्य वस्तुको जान सकूँ और त्याज्यको त्याग सकूँ।’
तब काश्यपने आश्चर्यचकित होकर कहा, ‘अहो! तुम तो बड़े कुशल और बुद्धिमान् हो।’ ऐसा कहकर ज्ञानदृष्टिसे देखा तो उसे मालूम हुआ कि यह तो शचीपति इन्द्र हैं। यह जानकर उसने इन्द्रकी पूजा की और उनकी आज्ञा पाकर अपने घर लौट आया।
इस प्रकार इस आख्यानसे यह सिद्ध होता है कि मनुष्य शरीर पाकर किसी भी परिस्थितिमें आत्महत्यानहीं करनी चाहिये। [महाभारत]
आत्महत्याका विचार उचित नहीं
पूर्वकालमें काश्यप नामका एक तपस्वी व्यक्ति था । उसे धनके मदमें चूर किसी वैश्यने अपने रथके धक्केसे गिरा दिया। गिरनेसे वह बहुत दुखी हुआ और क्रोधवश आपेसे बाहर होकर कहने लगा, ‘दुनियामें निर्धन मनुष्यका जीवन व्यर्थ है, इसलिये अब मैं आत्मघात कर लूँगा।’ उसे इस प्रकार क्षुब्धचित्त होकर आत्महत्याका प्रयत्न करते देखकर इन्द्र इसके पास गीदड़का रूप धारण करके आये और कहने लगे, ‘महोदय। मनुष्ययोनि पानेके लिये तो सभी प्राणी उत्सुक रहते हैं। उसकी प्रशंसा तो सभीने की है। आप तो मनुष्य है, और शास्त्रज्ञ भी हैं। ऐसा दुर्लभ शरीर पाकर आपको उसमें दोषानुसन्धान नहीं करना चाहिये। अजी! जिन्हें भगवान्ने हाथ दिये हैं, उनके तो मानो सभी मनोरथ सिद्ध हो गये हैं। इस समय आपको जैसे धनकी लालसा है, उसी प्रकार मैं तो केवल हाथ पानेके लिये ही उत्सुक हूँ। मेरी दृष्टिमें हाथ मिलनेसे बढ़कर संसारमें कोई भी लाभ नहीं है। देखिये, मेरे शरीरमें काँटे लगे हुए हैं, किंतु हाथ न होनेसे मैं उन्हें निकाल नहीं सकता। किंतु जिन्हें भगवान्से दो हाथ मिले हैं, वे वर्षा, शीत और घामसे अपनी रक्षा कर सकते हैं। जो दुःख बिना हाथके दीन, दुर्बल और बेजुबान प्राणी सहते हैं, सौभाग्यवश वे तो आपको नहीं सहने पड़ते। भगवान्की बड़ी कृपा है कि आप गीदड़, कीड़ा, चूहा, साँप, मेढक या किसी दूसरी योनिमें उत्पन्न नहीं हुए। आपको तो इतने ही लाभसे सन्तुष्ट रहना चाहिये। इससे अधिक और क्या चाहिये ? आप मेरी ही दशा देखिये, मुझे ये कीड़े काट रहे हैं, किंतु हाथ न होनेके कारण इनसे छुटकारा पानेकी मेरेमें शक्ति नहीं है। आत्महत्या करना बड़ा पाप है, यह सोचकर ही मैं ऐसा नहीं करता, जिससे मैं इससे भी नीच योनिमें न गिरूँ। इस समय मैं श्रृंगाल-योनिमें हूँ, यह बहुत नीच योनि है, परंतु इसकी अपेक्षा कई योनियाँ और भी अधिक नीच हैं।
देखिये, मायाका चक्र तो ऐसा है कि जो नीचतर प्राणी हैं, वे भी अपनी योनियोंमें प्रसन्न रहते हैं, वे भी अपना शरीर नहीं छोड़ना चाहते। यही नहीं, आप लंगड़े लूले और पक्षाघातादि रोगोंसे पीड़ित मनुष्योंको देखिये, वे भी अपना शरीर नहीं छोड़ना चाहते हैं। फिर आपका शरीर नीरोग और पूर्णांग है तथा लोकमें आपको कोई बुरा भी नहीं कहता। आपको तो प्राणत्यागका विचार कभी भी नहीं करना चाहिये। अपने पूर्वजन्ममें मैं एक पण्डित था। उस समय थोथी तर्क-विद्यापर ही मेरा विशेष प्रेम था। मैं सभाओं में तरह-तरहके कुतर्क करता था और जो लोग सद्विचारमें लगे रहते थे, उन्हें बुरा-भला कहकर बढ़ बढ़कर बातें बनाया करता था। मूर्ख होनेपर भी अपनेको बड़ा पण्डित मानता था। विप्रवर। यह शृगाल-योनि मेरे उस कुकर्मका ही परिणाम है। अब मैं रात-दिन कोई ऐसा साधन करना चाहता हूँ, जिससे फिर मनुष्य योनि प्राप्त कर सकूँ। उस योनिमें मैं सन्तुष्ट और सावधान रहूँ; जाननेयोग्य वस्तुको जान सकूँ और त्याज्यको त्याग सकूँ।’
तब काश्यपने आश्चर्यचकित होकर कहा, ‘अहो! तुम तो बड़े कुशल और बुद्धिमान् हो।’ ऐसा कहकर ज्ञानदृष्टिसे देखा तो उसे मालूम हुआ कि यह तो शचीपति इन्द्र हैं। यह जानकर उसने इन्द्रकी पूजा की और उनकी आज्ञा पाकर अपने घर लौट आया।
इस प्रकार इस आख्यानसे यह सिद्ध होता है कि मनुष्य शरीर पाकर किसी भी परिस्थितिमें आत्महत्यानहीं करनी चाहिये। [महाभारत]