आनन्दरामायणकी तीन बोधकथाएँ

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आनन्दरामायणकी तीन बोधकथाएँ

पहली कथा – भेड़ोंका उपदेश
एक समयकी बात है, माता कैकेयी श्रीरामके पास गयीं और उनसे बोलीं- हे राम! मैंने पूर्वमें अज्ञानवश जो अपराध किया था, उसे क्षमा कर दो; क्योंकि तुम कृपालु हो, हे जगत्पते ! मैं तुम्हारी शरणमें आयी हूँ, मेरा उद्धार करो और मुझे कोई ऐसा उपदेश दो, जिससे मेरा अज्ञान नष्ट हो जाय। माताकी बातें सुनकर श्रीराम बोले- हे माता! आपने मेरा कोई अपराध नहीं किया है, उस समय मेरी ही इच्छासे सरस्वतीने आपकी वाणीमें बैठकर वह वर मँगवाया था। हे माता! आप शुद्ध हैं, आपके ऊपर मेरे हृदयमें कुछ भी क्रोध नहीं है। आप मेरी बात ध्यानसे सुनें-कल लक्ष्मण आपको कहीं ले जाकर उपदेश दिला देंगे। ऐसा कहकर उन्होंने माताको विदा किया और लक्ष्मणसे कहा कि हमारे कथनानुसार कल माता कैकेयीको नगरके बाहर सरयूतटपर जहाँ भेड़ें रहती हैं, वहाँ ले जाओ और भेड़ोंके मुखसे थोड़े-से उपदेशवाक्य सुनवाकर वापस ले आओ। श्रीरामकी बातें सुनकर लक्ष्मणको बड़ा आश्चर्य हुआ कि भैया ऐसी बातें क्यों कह रहे हैं, भला भेड़ें भी क्या उपदेश देंगी लेकिन बड़े भाईकी आज्ञा समझकर वे चुप रहे।
दूसरे दिन प्रातः लक्ष्मण भैया भरतके भवनमें गये और माता कैकेयीको पालकीमें बैठाकर दास-दासियोंके साथ अयोध्यापुरीके बाहर सरयूतटपर पहुँचे, जहाँ भेड़ें स्थित थीं। माताको पालकीसे उतारकर लक्ष्मणजीने भेड़ोंकी ओर इशारा करते हुए मातासे कहा- ‘माता ! सामने भेड़ोंके झुण्डकी ओर देखें, बड़े भैयाने इन्हीं भेड़ोंसे उपदेश प्राप्त करनेके लिये आपको यहाँ भेजा है। लक्ष्मणकी बात सुनकर माता कैकेयीको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे मन-ही-मन सोचने लगीं कि रामभद्रने मुझे यहाँ भेजकर लगता है मेरा उपहास किया है, भला भेड़ें
भी क्या उपदेश देंगी! वे अपने मनमें यह तर्क-वितर्क कर रही थीं कि उन्होंने भेड़ोंके मुखसे कई बार ‘मे मे’ की ध्वनि सुनी – ‘ तावच्छुश्राव सा मे मे त्वविवाक्यानि वै मुहुः’ (आ0रा0 मनो0 2।70)। यह ‘मे मे’ की ध्वनि सुनकर कैकेयीने अपने मनमें सोचा कि ये भेड़ें मुझे देखकर बार-बार ‘मे-मे’ ध्वनि क्यों कर रही हैं ? लगता है कि इसमें कोई गूढ़ रहस्य और भाव छिपा है। अगर इसमें कोई बात नहीं होती तो राम मुझे यहाँ न भेजते।
कैकेयीजीने आँखें बन्द कर लीं और वे उस ध्वनिके अर्थपर विचार करने लगीं। थोड़ी ही देरमें ध्वनिका रहस्य ज्ञात होनेपर वे प्रसन्न हो उठीं और मुसकराकर लक्ष्मणसे बोलीं- वत्स! मुझे तत्त्वका बोध हो गया, चलो, शीघ्र ही रामके पास चलो। देर न करो। माताका यह रूप देखकर लक्ष्मण शीघ्र ही नगरीको लौट आये और उन्होंने माताको श्रीरामके पास पहुँचा दिया। वहाँ पहुँचते ही कैकेयीने रामको प्रणाम किया और कहने लगीं- श्रीराम ! तुम्हारी कृपासे मैंने भेड़ोंद्वारा सद्ज्ञान प्राप्त कर लिया। मेरा मोह अब नष्ट हो गया है। हे राघव ! तुम्हारे अनुग्रहसे मैं सदाके लिये मुक्त हो गयी। माताकी ऐसी बात सुनकर अन्तर्यामी श्रीराम मुसकराकर बोले—माता! बतायें तो सही, आपको कैसे और कौन-सा ज्ञान प्राप्त हुआ ? तब माता बोलीं–भेड़ोंके पास पहुँचकर मैंने उनके मुखसे निकले हुए ‘मे-मे’ का शब्द सुना, फिर थोड़ी देरतक हृदयमें विचार किया और मैंने यह समझा तथा निश्चित किया कि ये भेड़ें ‘मे-मे’* करके मुझे यह शब्द सुनाती हैं कि संसारमें लोग जो सर्वदा अपने बाल-बच्चों, घर-द्वार श्र कुटुम्ब – परिवार, शरीर आदिमें ‘यह मेरा यह मेरा’ इस झे प्रकारसे ममत्वबुद्धि रखते हैं, यही सारे अनर्थका मूल है। ड़ें यही आसक्ति उन्हें नीचे गिराती है। हे राम! अब मैं उस ममताके बन्धनमें नहीं पहुँगी। भेड़ोंके उस ‘मे-मे’ अर्थात् ‘मेरा-मेरा’ इस शब्दने मुझे ज्ञान करा दिया। उन भेड़ोंने मुझे यह स्पष्ट उपदेश दिया है कि ममता त्याग दो। हे रघूत्तम ! मेरे अतिरिक्त संसारके अन्य लोगोंको भी भेड़ें यह उपदेश देती रहती हैं, किंतु उसपर कोई ध्यान नहीं देता । वे भेड़ें कहती हैं कि पूर्वजन्मकी ममताबुद्धिसे ही उन्हें भेड़की योनि मिली है । अतः जिसे अपने कल्याणकी इच्छा हो, उसे चाहिये कि वह ममताका परित्याग कर दे, संसारासक्तिको छोड़ दे, इसको कभी भी स्वीकार न करे, तभी कल्याण सम्भव है। अगर ऐसा नहीं करोगे तो ‘यह मेरा है’ इस बुद्धिसे हमारी जो गति हुई है, वही गति तुम्हारी भी होगी
मे मे बुद्ध्या सदास्माभिः पूर्वजन्मनि वर्तितम् ॥
देहस्त्वतो ह्यवेर्लब्धो युष्माभिर्मे मतिस्तु मा ।
सर्वतः सात्र त्यक्तव्या नाङ्गीकार्या कदाचन ॥
मे मे मत्या गतिर्जाता यास्माकं सकला जनाः ।
मे मे बुद्ध्या हि युष्माकं गतिः सैव भविष्यति ॥ एवं ता बोधयन्त्यत्र जनान् स्ववचनैः सदा
न तद्वाक्यं जनैर्बुद्ध्या कदा चित्ते विचार्यते ॥
हे राघव ! आपकी दया और उन भेड़ोंके शब्दसे मेरी ममताबुद्धि नष्ट हो गयी है। इसलिये अब मैं मुक्त हो गयी हूँ, ‘यह देह मेरी है-इस विचारमें मेरी आसक्ति थी, वह दुःखदायिनी आसक्ति अब नष्ट हो गयी है, अब रह ही क्या गया! यहाँ कौन किसका बेटा है, कौन किसकी माता ? सब सच्चिदानन्दमय ब्रह्मका ही स्वरूप है। हे राघव ! संसारमें जो कुछ दिखायी पड़ रहा
है, वह सब तुम्हारी माया है।
माताकी इस प्रकारकी बातें सुनकर मुसकराते हुए श्रीराम बोले- माता! आप धन्य हैं। आपने भेड़ोंके उपदेशको ठीक-ठीक समझा, अब आप जीवन्मुक्त हो गयीं। अब आप अपने भवनमें आनन्दपूर्वक रहें। रामकी बात सुनकर देहाभिमानसे रहित होकर कैकेयी उन्हें प्रणाम करके भवनमें चली गयीं और सर्वथा अनासक्तभावसे रहने लगीं।

आनन्दरामायणकी तीन बोधकथाएँ
पहली कथा – भेड़ोंका उपदेश
एक समयकी बात है, माता कैकेयी श्रीरामके पास गयीं और उनसे बोलीं- हे राम! मैंने पूर्वमें अज्ञानवश जो अपराध किया था, उसे क्षमा कर दो; क्योंकि तुम कृपालु हो, हे जगत्पते ! मैं तुम्हारी शरणमें आयी हूँ, मेरा उद्धार करो और मुझे कोई ऐसा उपदेश दो, जिससे मेरा अज्ञान नष्ट हो जाय। माताकी बातें सुनकर श्रीराम बोले- हे माता! आपने मेरा कोई अपराध नहीं किया है, उस समय मेरी ही इच्छासे सरस्वतीने आपकी वाणीमें बैठकर वह वर मँगवाया था। हे माता! आप शुद्ध हैं, आपके ऊपर मेरे हृदयमें कुछ भी क्रोध नहीं है। आप मेरी बात ध्यानसे सुनें-कल लक्ष्मण आपको कहीं ले जाकर उपदेश दिला देंगे। ऐसा कहकर उन्होंने माताको विदा किया और लक्ष्मणसे कहा कि हमारे कथनानुसार कल माता कैकेयीको नगरके बाहर सरयूतटपर जहाँ भेड़ें रहती हैं, वहाँ ले जाओ और भेड़ोंके मुखसे थोड़े-से उपदेशवाक्य सुनवाकर वापस ले आओ। श्रीरामकी बातें सुनकर लक्ष्मणको बड़ा आश्चर्य हुआ कि भैया ऐसी बातें क्यों कह रहे हैं, भला भेड़ें भी क्या उपदेश देंगी लेकिन बड़े भाईकी आज्ञा समझकर वे चुप रहे।
दूसरे दिन प्रातः लक्ष्मण भैया भरतके भवनमें गये और माता कैकेयीको पालकीमें बैठाकर दास-दासियोंके साथ अयोध्यापुरीके बाहर सरयूतटपर पहुँचे, जहाँ भेड़ें स्थित थीं। माताको पालकीसे उतारकर लक्ष्मणजीने भेड़ोंकी ओर इशारा करते हुए मातासे कहा- ‘माता ! सामने भेड़ोंके झुण्डकी ओर देखें, बड़े भैयाने इन्हीं भेड़ोंसे उपदेश प्राप्त करनेके लिये आपको यहाँ भेजा है। लक्ष्मणकी बात सुनकर माता कैकेयीको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे मन-ही-मन सोचने लगीं कि रामभद्रने मुझे यहाँ भेजकर लगता है मेरा उपहास किया है, भला भेड़ें
भी क्या उपदेश देंगी! वे अपने मनमें यह तर्क-वितर्क कर रही थीं कि उन्होंने भेड़ोंके मुखसे कई बार ‘मे मे’ की ध्वनि सुनी – ‘ तावच्छुश्राव सा मे मे त्वविवाक्यानि वै मुहुः’ (आ0रा0 मनो0 2।70)। यह ‘मे मे’ की ध्वनि सुनकर कैकेयीने अपने मनमें सोचा कि ये भेड़ें मुझे देखकर बार-बार ‘मे-मे’ ध्वनि क्यों कर रही हैं ? लगता है कि इसमें कोई गूढ़ रहस्य और भाव छिपा है। अगर इसमें कोई बात नहीं होती तो राम मुझे यहाँ न भेजते।
कैकेयीजीने आँखें बन्द कर लीं और वे उस ध्वनिके अर्थपर विचार करने लगीं। थोड़ी ही देरमें ध्वनिका रहस्य ज्ञात होनेपर वे प्रसन्न हो उठीं और मुसकराकर लक्ष्मणसे बोलीं- वत्स! मुझे तत्त्वका बोध हो गया, चलो, शीघ्र ही रामके पास चलो। देर न करो। माताका यह रूप देखकर लक्ष्मण शीघ्र ही नगरीको लौट आये और उन्होंने माताको श्रीरामके पास पहुँचा दिया। वहाँ पहुँचते ही कैकेयीने रामको प्रणाम किया और कहने लगीं- श्रीराम ! तुम्हारी कृपासे मैंने भेड़ोंद्वारा सद्ज्ञान प्राप्त कर लिया। मेरा मोह अब नष्ट हो गया है। हे राघव ! तुम्हारे अनुग्रहसे मैं सदाके लिये मुक्त हो गयी। माताकी ऐसी बात सुनकर अन्तर्यामी श्रीराम मुसकराकर बोले—माता! बतायें तो सही, आपको कैसे और कौन-सा ज्ञान प्राप्त हुआ ? तब माता बोलीं-भेड़ोंके पास पहुँचकर मैंने उनके मुखसे निकले हुए ‘मे-मे’ का शब्द सुना, फिर थोड़ी देरतक हृदयमें विचार किया और मैंने यह समझा तथा निश्चित किया कि ये भेड़ें ‘मे-मे’* करके मुझे यह शब्द सुनाती हैं कि संसारमें लोग जो सर्वदा अपने बाल-बच्चों, घर-द्वार श्र कुटुम्ब – परिवार, शरीर आदिमें ‘यह मेरा यह मेरा’ इस झे प्रकारसे ममत्वबुद्धि रखते हैं, यही सारे अनर्थका मूल है। ड़ें यही आसक्ति उन्हें नीचे गिराती है। हे राम! अब मैं उस ममताके बन्धनमें नहीं पहुँगी। भेड़ोंके उस ‘मे-मे’ अर्थात् ‘मेरा-मेरा’ इस शब्दने मुझे ज्ञान करा दिया। उन भेड़ोंने मुझे यह स्पष्ट उपदेश दिया है कि ममता त्याग दो। हे रघूत्तम ! मेरे अतिरिक्त संसारके अन्य लोगोंको भी भेड़ें यह उपदेश देती रहती हैं, किंतु उसपर कोई ध्यान नहीं देता । वे भेड़ें कहती हैं कि पूर्वजन्मकी ममताबुद्धिसे ही उन्हें भेड़की योनि मिली है । अतः जिसे अपने कल्याणकी इच्छा हो, उसे चाहिये कि वह ममताका परित्याग कर दे, संसारासक्तिको छोड़ दे, इसको कभी भी स्वीकार न करे, तभी कल्याण सम्भव है। अगर ऐसा नहीं करोगे तो ‘यह मेरा है’ इस बुद्धिसे हमारी जो गति हुई है, वही गति तुम्हारी भी होगी
मे मे बुद्ध्या सदास्माभिः पूर्वजन्मनि वर्तितम् ॥
देहस्त्वतो ह्यवेर्लब्धो युष्माभिर्मे मतिस्तु मा ।
सर्वतः सात्र त्यक्तव्या नाङ्गीकार्या कदाचन ॥
मे मे मत्या गतिर्जाता यास्माकं सकला जनाः ।
मे मे बुद्ध्या हि युष्माकं गतिः सैव भविष्यति ॥ एवं ता बोधयन्त्यत्र जनान् स्ववचनैः सदा
न तद्वाक्यं जनैर्बुद्ध्या कदा चित्ते विचार्यते ॥
हे राघव ! आपकी दया और उन भेड़ोंके शब्दसे मेरी ममताबुद्धि नष्ट हो गयी है। इसलिये अब मैं मुक्त हो गयी हूँ, ‘यह देह मेरी है-इस विचारमें मेरी आसक्ति थी, वह दुःखदायिनी आसक्ति अब नष्ट हो गयी है, अब रह ही क्या गया! यहाँ कौन किसका बेटा है, कौन किसकी माता ? सब सच्चिदानन्दमय ब्रह्मका ही स्वरूप है। हे राघव ! संसारमें जो कुछ दिखायी पड़ रहा
है, वह सब तुम्हारी माया है।
माताकी इस प्रकारकी बातें सुनकर मुसकराते हुए श्रीराम बोले- माता! आप धन्य हैं। आपने भेड़ोंके उपदेशको ठीक-ठीक समझा, अब आप जीवन्मुक्त हो गयीं। अब आप अपने भवनमें आनन्दपूर्वक रहें। रामकी बात सुनकर देहाभिमानसे रहित होकर कैकेयी उन्हें प्रणाम करके भवनमें चली गयीं और सर्वथा अनासक्तभावसे रहने लगीं।

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