पञ्चाल प्रदेशकी सर्वगुणसम्पन्ना विवेकशीला लोक विश्रुत सुन्दरी एक स्वयंवरा कन्या थी। वह श्रेष्ठ कुलमें उत्पन्न सत्पुरुषसे ही विवाह करना चाहती थी। वह इस बातको अच्छी तरह समझती थी कि विवाह योग्य वरके सम्मान्य गुणोंमें सत्कुलका महनीय स्थान है। यही कारण था कि उसने वैवाहिक जीवनके सब सुखोंपर सत्कुलको ही विशेषता दी और तपस्वी ऋषि कुमार सुधन्वासे विवाह करनेका निश्चय किया। केशिनीके पास विवाहार्थी अनेक राजकुमारोंके भी
प्रस्ताव आये; परन्तु उसने सबको ठुकरा दिया। एक
दिन सम्राट् प्रह्लादके युवराज विरोचनने भी अपनी विवाहेच्छा उसके सम्मुख प्रकट की। यद्यपि युवराज विरोचनके साथ विवाह करनेके सांसारिक लाभ केशिनीकी दृष्टिसे ओझल नहीं थे, तथापि उसने विरोचनको इन शब्दोंमें उत्तर दिया
‘राजकुमार ! मैंने महर्षि अङ्गिराके पुत्र सुधन्वासे विवाह करनेका निश्चय किया है, परंतु यह निश्चय उनके कुलश्रेष्ठ होनेके कारण ही किया गया है। अब आप ही बताइये कि कुलमें ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं या दैत्य; यदि ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं तो मैं सुधन्वासे विवाह क्यों न करूँ ?’
इसपर विरोचनने दैत्य-कुलके श्रेष्ठत्वका प्रतिपादन किया। उत्तरमें केशिनीने कहा- ‘ठीक है, यदि आपका ऐसा मत है तो कल प्रातःकाल स्वयंवरसे पहले हमारे घरपर आ जाइये; वहाँ सुधन्वा भी होंगे, आप इस विषयमें उनसे विचार-विनिमय कर सकते हैं।’
प्रातः काल दोनों कुमार केशिनीके घरपर पहुँचे, परंतु वहाँ एक अरुचिकर घटना हो गयी। वह यह कि विरोचन पहले पहुंचे और सुधन्या पीछे इसलिये विरोचनने उससे कहा, ‘सुधन्वा ! तुम यहाँ मेरे पास सिंहासनपर बैठो।’ किंतु सुधन्वाने उसके पास बैठनेसे इनकार करते हुए यह कहा कि ‘समान गुणशील व्यक्ति ही एक साथ बैठ सकते हैं।’
पिता-पुत्र, दो ब्राह्मण, दो क्षत्रिय, दो वृद्ध और दोशूद्र एक आसनपर साथ बैठ सकते हैं। इस दृष्टिसे मैं तुम्हारे पास नहीं बैठ सकता; क्योंकि तुम मेरे समान नहीं हो। सम्भवतः तुम्हें यह बात मालूम नहीं कि जब मैं तुम्हारे पिताकी सभामें जाता था, तब वे मुझे उच्चासनपर बैठाकर स्वयं मुझसे नीचे बैठते थे और मेरी सेवा-शुश्रूषा भी करते थे।
इसपर दोनोंमें विवाद छिड़ गया; परंतु वे एकमत नहीं हो सके। ऐसी परिस्थितिमें उन्होंने किसी न्यायाधीशसे ही निर्णय लेना उचित समझा। परंतु विरोचनके यह कहनेपर कि वे देवता और ब्राह्मणको न्यायाधीश नहीं बना सकते, सुधन्वाने विरोचनके पिता सम्राट् प्रह्लादजीको ही न्यायाधीश चुना; किंतु इसमें शर्त यह रही कि विजित व्यक्ति विजेताके चरणोंमें अपने प्राण समर्पित कर दे।
इसपर दोनों न्याय-पिपासु कुमार महाराज श्रीप्रह्लादजीके पास गये और उनसे सब कुछ कह दिया। प्राण पणकी बात भी कह दी और न्यायके लिये दोनोंने उनसे प्रार्थना की।
प्रह्लादजी एक बार तो पुत्र-स्नेहसे सकुचाये; किंतु उन्होंने धर्माधर्म और सत्यासत्यके विषयमें सुधन्वासे विचार-विनिमय किया। सुधन्वाने बतलाया-
यां रात्रिमधिविन्ना स्त्री यां चैवाक्षपराजितः l
यां च भाराभितप्ताङ्गो दुर्विवक्ता स्म तां वसेत् ॥
नगरे प्रतिरुद्धः सन् बहिद्वरि बुभुक्षितः l
अमित्रान् भूयसः पश्येद् यः साक्ष्यमनृतं वदेत् ॥
पञ्च पश्चनृते हन्ति दश हन्ति गवानृते ।
शतमश्वानृते हन्ति सहस्त्र पुरुषानृते ॥
हन्ति जातानजातांश्च हिरण्यार्थेऽनृतं वदन् ।
सर्व भूम्यनृते हन्ति मास्य भूम्यनृतं वदेः ॥
(महा0 उद्योग0 35 31-34)
सौतवाली स्त्री, जूएमें हारे हुए जुआरी और भार ढोनेसे व्यथित शरीरवाले मनुष्यकी रात्रिमें जो स्थिति होती है, वही उलटा न्याय देनेवाले वक्ताकी होती है।जो झूठा निर्णय देता है, वह राजाके नगरमें कैद होकर बाहरी दरवाजेपर भूखका कष्ट सहता हुआ बहुत-से शत्रुओंको देखता है। साधारण पशुके लिये झूठ बोलनेसे पाँच पीढ़ियाँ, गौके लिये झूठ बोलनेवालेकी दस पीढ़ियाँ, घोड़ेके लिये झूठ बोलनेसे सौ पीढ़ियाँ और मनुष्यके लिये झूठ बोलनेसे एक हजार पीढ़ियाँ नरकमें गिरती हैं। सोनेके लिये झूठ बोलनेवाला भूत, भविष्यकी सभी पीढ़ियोंको नरकमें गिराता है। पृथ्वी (स्त्री) के लिये झूठ बोलनेवाला तो अपना सर्वनाश ही कर लेता है। अतएव आप भूमि (स्त्री) के लिये झूठा निर्णय कभी मत दीजियेगा ।
प्रह्लादने अन्तमें पुत्र-स्नेहकी तुलनामें सत्य और कुल-गौरवको विशेषता देते हुए विरोचनको सम्बोधित करके कहा-
मत्तः श्रेयानङ्गिरा वै सुधन्वा त्वद्विरोचन ।
मातास्य श्रेयसी मातुस्तस्मात्त्वं तेन वै जितः ॥
(महा0 उद्योग0 31 । 34)
‘विरोचन! अङ्गिरा मुझसे श्रेष्ठ हैं, सुधन्वाकी माता तेरी मातासे श्रेष्ठ है और तुझसे सुधन्वा श्रेष्ठ है। अतःसुधन्वाने तुझे जीत लिया, अब सुधन्वा तेरे प्राणोंका स्वामी है।’ इस प्रकार प्रसन्न होकर सुधन्वाने सहृदयता पूर्वक कहा-
यद्धर्ममवृणीथास्त्वं न कामादनृतं वदीः ।
पुनर्ददामि ते पुत्रं तस्मात् प्रह्लाद दुर्लभम् ॥
एष प्रह्लाद पुत्रस्ते मया दत्तो विरोचनः ।
पादप्रक्षालनं कुर्यात् कुमार्याः संनिधौ मम ॥
(महा0 उद्योग0 अ0 34 )
‘प्रह्लादजी ! आपने पुत्र – स्नेहके वशीभूत होकर भी असत्य भाषण नहीं किया, अपितु विशुद्ध न्याय प्रदान किया; इसलिये मैं यह दुर्लभ पुत्र आपको सौंपता हूँ; किंतु यह कुमारी केशिनीके सम्मुख हमारे पैर धोये यही इस घटनाका साधारण सा प्रायश्चित्त है।’
यहाँ उल्लेखनीय बात यह है कि कुमारी केशिनीने अश्वस्तनिक सुधन्वाको जीवन सङ्गी और धर्म – साथी बनाकर न केवल अपने भौतिक सुख-विलासकी तुलनामें सत्कुलोत्पन्न व्यक्तित्वको विशेषता दी, अपितु उसने अपने जीवनके द्वारा हिंदू-संस्कृतिका एक विश्व-स्पृहणीय उदाहरण भी संसारके सामने प्रस्तुत किया।
पञ्चाल प्रदेशकी सर्वगुणसम्पन्ना विवेकशीला लोक विश्रुत सुन्दरी एक स्वयंवरा कन्या थी। वह श्रेष्ठ कुलमें उत्पन्न सत्पुरुषसे ही विवाह करना चाहती थी। वह इस बातको अच्छी तरह समझती थी कि विवाह योग्य वरके सम्मान्य गुणोंमें सत्कुलका महनीय स्थान है। यही कारण था कि उसने वैवाहिक जीवनके सब सुखोंपर सत्कुलको ही विशेषता दी और तपस्वी ऋषि कुमार सुधन्वासे विवाह करनेका निश्चय किया। केशिनीके पास विवाहार्थी अनेक राजकुमारोंके भी
प्रस्ताव आये; परन्तु उसने सबको ठुकरा दिया। एक
दिन सम्राट् प्रह्लादके युवराज विरोचनने भी अपनी विवाहेच्छा उसके सम्मुख प्रकट की। यद्यपि युवराज विरोचनके साथ विवाह करनेके सांसारिक लाभ केशिनीकी दृष्टिसे ओझल नहीं थे, तथापि उसने विरोचनको इन शब्दोंमें उत्तर दिया
‘राजकुमार ! मैंने महर्षि अङ्गिराके पुत्र सुधन्वासे विवाह करनेका निश्चय किया है, परंतु यह निश्चय उनके कुलश्रेष्ठ होनेके कारण ही किया गया है। अब आप ही बताइये कि कुलमें ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं या दैत्य; यदि ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं तो मैं सुधन्वासे विवाह क्यों न करूँ ?’
इसपर विरोचनने दैत्य-कुलके श्रेष्ठत्वका प्रतिपादन किया। उत्तरमें केशिनीने कहा- ‘ठीक है, यदि आपका ऐसा मत है तो कल प्रातःकाल स्वयंवरसे पहले हमारे घरपर आ जाइये; वहाँ सुधन्वा भी होंगे, आप इस विषयमें उनसे विचार-विनिमय कर सकते हैं।’
प्रातः काल दोनों कुमार केशिनीके घरपर पहुँचे, परंतु वहाँ एक अरुचिकर घटना हो गयी। वह यह कि विरोचन पहले पहुंचे और सुधन्या पीछे इसलिये विरोचनने उससे कहा, ‘सुधन्वा ! तुम यहाँ मेरे पास सिंहासनपर बैठो।’ किंतु सुधन्वाने उसके पास बैठनेसे इनकार करते हुए यह कहा कि ‘समान गुणशील व्यक्ति ही एक साथ बैठ सकते हैं।’
पिता-पुत्र, दो ब्राह्मण, दो क्षत्रिय, दो वृद्ध और दोशूद्र एक आसनपर साथ बैठ सकते हैं। इस दृष्टिसे मैं तुम्हारे पास नहीं बैठ सकता; क्योंकि तुम मेरे समान नहीं हो। सम्भवतः तुम्हें यह बात मालूम नहीं कि जब मैं तुम्हारे पिताकी सभामें जाता था, तब वे मुझे उच्चासनपर बैठाकर स्वयं मुझसे नीचे बैठते थे और मेरी सेवा-शुश्रूषा भी करते थे।
इसपर दोनोंमें विवाद छिड़ गया; परंतु वे एकमत नहीं हो सके। ऐसी परिस्थितिमें उन्होंने किसी न्यायाधीशसे ही निर्णय लेना उचित समझा। परंतु विरोचनके यह कहनेपर कि वे देवता और ब्राह्मणको न्यायाधीश नहीं बना सकते, सुधन्वाने विरोचनके पिता सम्राट् प्रह्लादजीको ही न्यायाधीश चुना; किंतु इसमें शर्त यह रही कि विजित व्यक्ति विजेताके चरणोंमें अपने प्राण समर्पित कर दे।
इसपर दोनों न्याय-पिपासु कुमार महाराज श्रीप्रह्लादजीके पास गये और उनसे सब कुछ कह दिया। प्राण पणकी बात भी कह दी और न्यायके लिये दोनोंने उनसे प्रार्थना की।
प्रह्लादजी एक बार तो पुत्र-स्नेहसे सकुचाये; किंतु उन्होंने धर्माधर्म और सत्यासत्यके विषयमें सुधन्वासे विचार-विनिमय किया। सुधन्वाने बतलाया-
यां रात्रिमधिविन्ना स्त्री यां चैवाक्षपराजितः l
यां च भाराभितप्ताङ्गो दुर्विवक्ता स्म तां वसेत् ॥
नगरे प्रतिरुद्धः सन् बहिद्वरि बुभुक्षितः l
अमित्रान् भूयसः पश्येद् यः साक्ष्यमनृतं वदेत् ॥
पञ्च पश्चनृते हन्ति दश हन्ति गवानृते ।
शतमश्वानृते हन्ति सहस्त्र पुरुषानृते ॥
हन्ति जातानजातांश्च हिरण्यार्थेऽनृतं वदन् ।
सर्व भूम्यनृते हन्ति मास्य भूम्यनृतं वदेः ॥
(महा0 उद्योग0 35 31-34)
सौतवाली स्त्री, जूएमें हारे हुए जुआरी और भार ढोनेसे व्यथित शरीरवाले मनुष्यकी रात्रिमें जो स्थिति होती है, वही उलटा न्याय देनेवाले वक्ताकी होती है।जो झूठा निर्णय देता है, वह राजाके नगरमें कैद होकर बाहरी दरवाजेपर भूखका कष्ट सहता हुआ बहुत-से शत्रुओंको देखता है। साधारण पशुके लिये झूठ बोलनेसे पाँच पीढ़ियाँ, गौके लिये झूठ बोलनेवालेकी दस पीढ़ियाँ, घोड़ेके लिये झूठ बोलनेसे सौ पीढ़ियाँ और मनुष्यके लिये झूठ बोलनेसे एक हजार पीढ़ियाँ नरकमें गिरती हैं। सोनेके लिये झूठ बोलनेवाला भूत, भविष्यकी सभी पीढ़ियोंको नरकमें गिराता है। पृथ्वी (स्त्री) के लिये झूठ बोलनेवाला तो अपना सर्वनाश ही कर लेता है। अतएव आप भूमि (स्त्री) के लिये झूठा निर्णय कभी मत दीजियेगा ।
प्रह्लादने अन्तमें पुत्र-स्नेहकी तुलनामें सत्य और कुल-गौरवको विशेषता देते हुए विरोचनको सम्बोधित करके कहा-
मत्तः श्रेयानङ्गिरा वै सुधन्वा त्वद्विरोचन ।
मातास्य श्रेयसी मातुस्तस्मात्त्वं तेन वै जितः ॥
(महा0 उद्योग0 31 । 34)
‘विरोचन! अङ्गिरा मुझसे श्रेष्ठ हैं, सुधन्वाकी माता तेरी मातासे श्रेष्ठ है और तुझसे सुधन्वा श्रेष्ठ है। अतःसुधन्वाने तुझे जीत लिया, अब सुधन्वा तेरे प्राणोंका स्वामी है।’ इस प्रकार प्रसन्न होकर सुधन्वाने सहृदयता पूर्वक कहा-
यद्धर्ममवृणीथास्त्वं न कामादनृतं वदीः ।
पुनर्ददामि ते पुत्रं तस्मात् प्रह्लाद दुर्लभम् ॥
एष प्रह्लाद पुत्रस्ते मया दत्तो विरोचनः ।
पादप्रक्षालनं कुर्यात् कुमार्याः संनिधौ मम ॥
(महा0 उद्योग0 अ0 34 )
‘प्रह्लादजी ! आपने पुत्र – स्नेहके वशीभूत होकर भी असत्य भाषण नहीं किया, अपितु विशुद्ध न्याय प्रदान किया; इसलिये मैं यह दुर्लभ पुत्र आपको सौंपता हूँ; किंतु यह कुमारी केशिनीके सम्मुख हमारे पैर धोये यही इस घटनाका साधारण सा प्रायश्चित्त है।’
यहाँ उल्लेखनीय बात यह है कि कुमारी केशिनीने अश्वस्तनिक सुधन्वाको जीवन सङ्गी और धर्म – साथी बनाकर न केवल अपने भौतिक सुख-विलासकी तुलनामें सत्कुलोत्पन्न व्यक्तित्वको विशेषता दी, अपितु उसने अपने जीवनके द्वारा हिंदू-संस्कृतिका एक विश्व-स्पृहणीय उदाहरण भी संसारके सामने प्रस्तुत किया।