आर्यसमाजके प्रवर्तक स्वामी दयानन्दजीको बड़ी खोजके बाद विरजानन्द-ऐसे परम वेदज्ञ महात्माका दर्शन हुआ। विरजानन्द अंधे थे। उन्होंने दयानन्दको शिष्य बना लिया।
स्वामी दयानन्द सरस्वती अपने गुरुको प्रसन्न रखनेके लिये सदा प्रयत्नशील रहते थे। उनकी सेवाका वे सदा ध्यान रखते थे। विरजानन्द तीनों ऋतुओंमें यमुना जलसे स्नान किया करते थे। दयानन्द बड़े सबेरे उनके लिये बारह घड़े यमुना-जल लाते थे और उसके बाद निवास-स्थानमें झाडू-बहारू किया करते थे।एक दिन दयानन्दजी महाराज झाडू दे रहे थे। दैवयोगसे कहींपर थोड़ा-सा कूड़ा शेष रह गया था और उसपर विरजानन्दका पैर पड़ गया। वे दयानन्दको डंडेसे पीटने लगे। स्वामी दयानन्दने उफ्तक नहीं किया।
‘गुरुदेव ! आप मुझे और मत मारिये । दुःख सहते सहते मेरी पीठ पत्थर-जैसी हो गयी है। इसपर प्रहार करते-करते आपके हाथोंमें पीड़ा होती होगी।’ स्वामी दयानन्दजी महाराज अपने गुरुके हाथ सहलाने लगे।
स्वामी विरजानन्दने बड़े प्रेमसे उन्हें गले लगा लिया और उनकी गुरुनिष्ठाकी सराहना की।
– रा0 श्री0
Swami Dayanandji, the promoter of Arya Samaj, after a long search, had the darshan of Virjanand – such a supreme Vedagya Mahatma. Virjanand was blind. He made Dayanand a disciple.
Swami Dayanand Saraswati was always trying to keep his Guru happy. He always took care of his service. Virjanand used to bathe in Yamuna water in all the three seasons. Dayanand used to bring twelve pitchers of Yamuna water for him early in the morning and then used to sweep the house. One day Dayanandji Maharaj was sweeping. Fortunately, some garbage was left somewhere and Virjanand’s foot fell on it. They started beating Dayanand with sticks. Swami Dayanand did not budge.
‘Gurudev ! Don’t kill me anymore My back has become like a stone due to suffering. There must be pain in your hands while hitting it.’ Swami Dayanandji Maharaj started caressing the hands of his Guru.
Swami Virjanand embraced him with great love and appreciated his devotion to Guru.