नर्मदा तटपर माहिष्मती नामकी एक नगरी है। वहाँ माधव नामके एक ब्राह्मण रहते थे। उन्होंने अपनी विद्याके प्रभावसे बड़ा धन कमाया और एक विशाल यज्ञका आयोजन किया। उस यज्ञमें बलि देनेके लिये एक बकरा मँगाया गया। जब उसके शरीरकी पूजा हो गयी, तब बकरेने हँसकर कहा- ‘ब्रह्मन् ! इन यज्ञोंसे क्या लाभ है। इनका फल विनाशी तथा जन्म-मरणप्रद ही है। मैं भी पूर्वजन्ममें एक ब्राह्मण था मैंने समस्त यज्ञोंका अनुष्ठान किया था और वेदविद्यामें बड़ा प्रवीण था। एक दिन मेरी स्त्रीने बाल रोगकी शान्तिके लिये एक बकरेकी मुझसे बलि दिलायी। जब चण्डिकाके मन्दिरमें वह बकरा मारा जाने लगा, तब उसकी माताने मुझे शाप दिया- ‘ओ पापी! तू मेरे बच्चेका वध करना चाहता है, अतएव तू भी बकरेकी योनिमें जन्म लेगा।’ ब्राह्मणो! तदनन्तर मैं भी मरकर बकरा हुआ यद्यपि मैं पशु-योनिमें हूँ, तथापि मुझे पूर्व जन्मोंका स्मरण बना है। अतएव इन सभी वैतानिक क्रियाजालसे भगवदाराधन आदि शुभ कर्म ही अधिक दिव्य हैं। अध्यात्ममार्गपरायण होकर हिंसारहित पूजा, पाठ एवं गीतादि सच्छास्त्रोंका अनुशीलन ही संसृति-चक्रसे छूटनेकी एकमात्र औषध है। इस सम्बन्धमें मैं आपको एक और आदर्शकी बात बताता हूँ।”एक बार सूर्यग्रहणके अवसरपर कुरुक्षेत्रके राजा चन्द्रशर्माने बड़ी श्रद्धाके साथ कालपुरुषका दान करनेकी तैयारी की। उन्होंने वेद-वेदाङ्गोंके पारगामी एक विद्वान् ब्राह्मणको बुलवाया और सपुरोहित स्नान करने चले । स्नानादिके उपरान्त यथोचित विधिसे उस ब्राह्मणको कालपुरुषका दान किया।’
‘तब कालपुरुषका हृदय चीरकर उसमेंसे एक पापात्मा चाण्डाल और निन्दात्मा एक चाण्डाली निकली। चाण्डालोंकी वह जोड़ी आँखें लाल किये ब्राह्मणके शरीरमें हठात् प्रवेश करने लगी। ब्राह्मणने मन-ही मन गीताके नवम अध्यायका जप आरम्भ किया और राजा यह सब कौतुक चुपचाप देख रहा था गीताके अक्षरोंसे समुद्भूत विष्णुदूतोंने चाण्डाल जोड़ीको ब्राह्मणके शरीरमें प्रवेश करते देख वे झट दौड़े और उनका उद्योग निष्फल कर दिया। इस घटनाको देख राजा चकित हो गया और उस ब्राह्मणसे इसका रहस्य पूछा। तब ब्राह्मणने सारी बात बतलायी। अब राजा उस ब्राह्मणका शिष्य हो गया और उससे उसने गीताका अध्ययन – अभ्यास किया।’
इस कथाको बकरेके मुँहसे सुनकर ब्राह्मण बड़ा प्रभावित हुआ और बकरेको मुक्तकर गीतापरायण हो गया।
-जा0 श0 (पद्मपुराण, उत्तरखण्ड, अध्याय 179)
There is a city named Mahishmati on the banks of Narmada. There lived a Brahmin named Madhav. He earned a lot of money by the influence of his education and organized a huge yagya. A goat was called to be sacrificed in that yagya. When his body was worshipped, the goat laughed and said – ‘Brahman! What is the benefit of these Yagyas. Their fruit is destructive and birth-death only. I was also a Brahmin in my previous birth, I had performed all the yagya rituals and was very proficient in Vedavidya. One day my wife got me to sacrifice a goat for the peace of child disease. When that goat started being killed in Chandika’s temple, then his mother cursed me – ‘O sinner! You want to kill my child, so you will also be born in the vagina of a goat.’ Brahmins! After that I also became a goat after death, although I am in the form of an animal, yet I remember my previous births. Therefore, the auspicious deeds of God worship etc. are more divine than all these statutory rituals. Following the path of spirituality, non-violence worship, recitation and practice of good scriptures like Gita is the only medicine to get rid of the cycle of culture. In this regard, I will tell you another ideal. Once, on the occasion of a solar eclipse, Chandra Sharma, the king of Kurukshetra, with great devotion prepared to donate Kaalpurush. He called a scholar Brahmin who is transcendental to the Vedas and the priests went to bathe. After taking a bath, he donated Kaalpurush to that Brahmin with proper method.
Then by ripping the heart of Kaalpurush, a sinful soul Chandala and a Chandali, the soul of blasphemy emerged from it. That pair of Chandalas started entering the Brahmin’s body with red eyes. The Brahmin started chanting the ninth chapter of the Gita in his mind and the king was silently watching all this prodigy. Seeing the pair of Chandala entering the body of the Brahmin, Vishnu’s messengers, immersed in the letters of the Gita, quickly ran and made their efforts unsuccessful. The king was surprised to see this incident and asked the Brahmin its secret. Then the Brahmin told the whole thing. Now the king became the disciple of that Brahmin and from him he studied and practiced the Gita.
Hearing this story from the mouth of the goat, the Brahmin was greatly impressed and freed the goat and became engrossed in the singing of the Gita.
Ja0 Sh0 (Padmapurana, Uttarakhand, Chapter 179)