पंढरपुरमें दामाजी सेठ नामक एक दर्जी (छींपी) भगवान् विट्ठलनाथके बड़े ही भक्त थे। उनके सुपुत्र नामाजीको भी बचपनसे वही लत लग गयी थी।
दामाजीका नित्य नियम था कि रसोई बननेपर थाल परोसकर विट्ठलनाथके पास जा उन्हें भोग लगाते और फिर घर आकर भोजन करते। एक दिन दामाजीको किसी दूसरे गाँव जाना था। जाते समय वे स्त्रीसे कहते गये कि मैं आऊँ तबतक प्रतिदिन नामाके हाथ विट्ठलनाथको भोग भेजती रहना, मेरा नियम भङ्ग न होने पाये। दूसरे दिन बालक नामदेव परोसी हुई थाली लेकरविट्ठलनाथके मन्दिर पहुँचा और थाली रखकर भोग खानेके लिये आग्रह करने लगा। उसकी निर्मल बालबुद्धिमें यह विकल्प ही नहीं उठा कि पत्थरकी मूर्ति कैसे खायेगी ? ‘भगवन्! क्या मेरे हाथका भोग आपको नहीं भाता ? मैं अज्ञान बच्चा हूँ, इसलिये मेरी उपेक्षा कर रहे हो ? अरे, पिताजी हाट गये हैं, इसीलिये माताजीने आज मुझे भेजा। अगर तुम न खाओगे तो लोग मुझे पापी कहेंगे और माताजी ऊपरसे मारेंगी। मेरे लिये दुनियामें मुँह दिखाना मुश्किल हो जायगा। प्रभो ! तुम ही मेरी उपेक्षा करोगे तो मैं किसकी शरण जाऊँगाअगर नहीं खाओगे तो मैं यहीं भूखा रहकर प्राण दे दूँगा । ‘ – वह करुणाभरे शब्दोंमें भगवान्को मनाने लगा। नामदेव समझता था कि भगवान् रोज भोग खाते हैं और आज ही नहीं खा रहे हैं? इसीलिये वह भगवान्के चरणोंमें अन्न – सत्याग्रह कर बैठ गया। और अन्तमें सरलहृदय नामदेवकी भक्तिसे प्रसन्न होकर भगवान् ने वह भोग पा लिया।
नामदेव प्रसन्न हो घर आया और मातासे बड़े आनन्दसे कहने लगा कि मेरे नन्हा होनेपर भी भगवान्ने मेरे हाथसे भोग खा लिया। माँने थाल देखा । सचमुच वह खाली था। माताको दृढ़ विश्वास था कि मेरा पुत्र कभी झूठ नहीं बोल सकता।
दूसरे दिन दामाजीके घर पहुँचनेपर उसने सारी बात कह सुनायी तो उन्हें भी आश्चर्य हुआ कि पत्थरकी मूर्ति कैसे भोग खा गयी! दामाजीका भी नामदेवपर पूर्णविश्वास था कि वह कभी झूठ नहीं बोलता । अन्तमें उन्होंने नामासे कहा- ‘आज भी तू ही मन्दिरमें भोग ले चल। मैं तेरे पीछे-पीछे आ रहा हूँ। देखता हूँ, वह तेरे हाथसे खाता है या तू झूठ बोलता है।’
नामदेव परोसा थाल लेकर भगवान्के पास आया और उनसे उसे खानेके लिये अत्यन्त करुणासे मनाने लगा – ‘प्रभो! अगर आज तुमने भोग न खाया तो व्यर्थ ही मैं झूठा ठहरूँगा और माता-पिताका मुझपरसे विश्वास भी उठ जायगा। भगवन्! सिवा आपके मेरी लाज कौन रख सकता है?’
भगवान् फिर संकटमें पड़े। भक्तका संकट दूर करने और उसकी लाज रखनेके लिये भोग खानेके सिवा दूसरा उपाय ही न देख भगवान्को पुनः उसे खाना पड़ा। दामाजी सेठ यह देख अपनेको धन्य-धन्य मानने लगे।
पंढरपुरमें दामाजी सेठ नामक एक दर्जी (छींपी) भगवान् विट्ठलनाथके बड़े ही भक्त थे। उनके सुपुत्र नामाजीको भी बचपनसे वही लत लग गयी थी।
दामाजीका नित्य नियम था कि रसोई बननेपर थाल परोसकर विट्ठलनाथके पास जा उन्हें भोग लगाते और फिर घर आकर भोजन करते। एक दिन दामाजीको किसी दूसरे गाँव जाना था। जाते समय वे स्त्रीसे कहते गये कि मैं आऊँ तबतक प्रतिदिन नामाके हाथ विट्ठलनाथको भोग भेजती रहना, मेरा नियम भङ्ग न होने पाये। दूसरे दिन बालक नामदेव परोसी हुई थाली लेकरविट्ठलनाथके मन्दिर पहुँचा और थाली रखकर भोग खानेके लिये आग्रह करने लगा। उसकी निर्मल बालबुद्धिमें यह विकल्प ही नहीं उठा कि पत्थरकी मूर्ति कैसे खायेगी ? ‘भगवन्! क्या मेरे हाथका भोग आपको नहीं भाता ? मैं अज्ञान बच्चा हूँ, इसलिये मेरी उपेक्षा कर रहे हो ? अरे, पिताजी हाट गये हैं, इसीलिये माताजीने आज मुझे भेजा। अगर तुम न खाओगे तो लोग मुझे पापी कहेंगे और माताजी ऊपरसे मारेंगी। मेरे लिये दुनियामें मुँह दिखाना मुश्किल हो जायगा। प्रभो ! तुम ही मेरी उपेक्षा करोगे तो मैं किसकी शरण जाऊँगाअगर नहीं खाओगे तो मैं यहीं भूखा रहकर प्राण दे दूँगा । ‘ – वह करुणाभरे शब्दोंमें भगवान्को मनाने लगा। नामदेव समझता था कि भगवान् रोज भोग खाते हैं और आज ही नहीं खा रहे हैं? इसीलिये वह भगवान्के चरणोंमें अन्न – सत्याग्रह कर बैठ गया। और अन्तमें सरलहृदय नामदेवकी भक्तिसे प्रसन्न होकर भगवान् ने वह भोग पा लिया।
नामदेव प्रसन्न हो घर आया और मातासे बड़े आनन्दसे कहने लगा कि मेरे नन्हा होनेपर भी भगवान्ने मेरे हाथसे भोग खा लिया। माँने थाल देखा । सचमुच वह खाली था। माताको दृढ़ विश्वास था कि मेरा पुत्र कभी झूठ नहीं बोल सकता।
दूसरे दिन दामाजीके घर पहुँचनेपर उसने सारी बात कह सुनायी तो उन्हें भी आश्चर्य हुआ कि पत्थरकी मूर्ति कैसे भोग खा गयी! दामाजीका भी नामदेवपर पूर्णविश्वास था कि वह कभी झूठ नहीं बोलता । अन्तमें उन्होंने नामासे कहा- ‘आज भी तू ही मन्दिरमें भोग ले चल। मैं तेरे पीछे-पीछे आ रहा हूँ। देखता हूँ, वह तेरे हाथसे खाता है या तू झूठ बोलता है।’
नामदेव परोसा थाल लेकर भगवान्के पास आया और उनसे उसे खानेके लिये अत्यन्त करुणासे मनाने लगा – ‘प्रभो! अगर आज तुमने भोग न खाया तो व्यर्थ ही मैं झूठा ठहरूँगा और माता-पिताका मुझपरसे विश्वास भी उठ जायगा। भगवन्! सिवा आपके मेरी लाज कौन रख सकता है?’
भगवान् फिर संकटमें पड़े। भक्तका संकट दूर करने और उसकी लाज रखनेके लिये भोग खानेके सिवा दूसरा उपाय ही न देख भगवान्को पुनः उसे खाना पड़ा। दामाजी सेठ यह देख अपनेको धन्य-धन्य मानने लगे।