भगवान् प्रसन्न होते हैं

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कहा जाता है कि जब लंका-विजयके लिये नल नील समुद्रपर सेतु बनानेमें लगे थे और अपार वानर भालुसमुदाय गिरिशिखर तथा वृक्षसमूह ला-लाकर उन्हें दे रहा था, एक गिलहरी भी मर्यादा पुरुषोत्तमके कार्य में सहायता करने वृक्षसे उतरकर वहाँ आ गयी। नन्ही सी गिलहरी – उससे न वृक्षकी शाखा उठ सकती थी। और न शिलाखण्ड। लेकिन उसने अपने उपयुक्त एक कार्य निकाल लिया। वह बार-बार समुद्रके जलमें स्नान करके रेतपर लोट-पोट होती और सेतुपर दौड़ जाती। वहाँ वह अपने शरीरमें लगी सारी रेत झाड़ देती और फिर स्नान करने दौड़ती। अविराम उसका यह कार्य चलता रहा।

महापुरुष तथा शास्त्र बतलाते हैं कि भगवान् साधन-साध्य नहीं हैं। जीवका महान्-से-महान् साधन उन सर्वेशको न तो विवश कर सकता और न उनकी प्राप्तिका मूल्य बन सकता। इसलिये किसने कितना जप, तप आदि किया, इसका वहाँ महत्त्व नहीं है।जीवनिष्ठ साधन तथा भगवन्निष्ठ कृपाके संयोगसे भगवत्प्राप्ति होती है, यह महापुरुष कहते हैं; किंतु भगवान् तो नित्य कृपाके अनन्त अनन्त सागर हैं। जीव अप्रमत्त होकर अपनी शक्तिका पूरा उपयोग करके सच्ची श्रद्धा तथा प्रीतिसे जब साधन करता है, वे करुणावरुणालय प्रसन्न हो जाते हैं। कितने समय या कितना साधन किसीने किया, यह प्रश्न वहाँ रहता नहीं । भगवान् प्रसन्न होते हैं. वे नित्य प्रसन्न जो हैं ।

गिलहरीकी चेष्टा बड़े कुतूहलसे, बड़ी एकाग्रतासे मर्यादा-पुरुषोत्तम देख रहे थे। उस क्षुद्र जीवकी ओर दूसरे किसीका ध्यान नहीं था; किंतु कबीरदासजीने कहा है न –

‘चींटी के पग घुँघुरू बाजे सो भी साहब सुनता है।’ श्रीराघवेन्द्रने हनुमान्जीको संकेतसे पास बुलाकर उस गिलहरीको उठा लानेका आदेश दिया। हनुमान्जीने गिलहरीको पकड़कर उठा लिया और लाकर रघुनाथजीके किसलयकोमल बन्धूकारुण हाथपर रख दिया उसे ।प्रभुने उस नन्हे प्राणीसे पूछा- ‘तू सेतुपर क्या कर रही थी? तुझे भय नहीं लगता कि कपियों या रीछोंके पैरके नीचे आ सकती है या कोई वृक्ष अथवा शिलाखण्ड तुझे कुचल दे सकता है ?”

गिलहरीने हर्षसे रोम फुलाये, पूँछ उठाकर श्रीराघवके करपर गिरायी और बोली- ‘मृत्यु दो बार तो आती नहीं, आपके सेवकोंके चरणोंके नीचे मेरी मृत्यु हो जाय यह तो मेरा सौभाग्य होगा सेतुमें बहुत बड़े बड़े शिलाखण्ड तथा वृक्ष लगाये जा रहे हैं। बहुत श्रम करनेपर भी नल-नील सेतुको पूरा समतल नहीं कर पा रहे हैं। ऊँची-नीची विषम भूमिपर चलनेमेंआपके कोमल चरणोंको बड़ा कष्ट होगा, यह सोचकर पुलके छोटे-छोटे गड्ढे मैं रेतसे भर देनेका प्रयत्न कर रही थी ।’

मर्यादा-पुरुषोत्तम प्रसन्न हो गये। उन्होंने वाम हस्तपर गिलहरीको बैठा रखा था। उस क्षुद्र जीवको वह आसन दे रखा था जिसकी कल्पना त्रिभुवनमें कोई कर ही नहीं सकता। अब दाहिने हाथकी तीन अँगुलियोंसे उन्होंने गिलहरीकी पीठ थपथपा दी । कहते हैं कि गिलहरीकी पीठपर श्रीरामकी अँगुलियोंके चिह्नस्वरूप तीन श्वेत रेखाएँ बन गयीं और तभीसे सभी गिलहरियोंको वे रेखाएँ भूषित करती हैं।

कहा जाता है कि जब लंका-विजयके लिये नल नील समुद्रपर सेतु बनानेमें लगे थे और अपार वानर भालुसमुदाय गिरिशिखर तथा वृक्षसमूह ला-लाकर उन्हें दे रहा था, एक गिलहरी भी मर्यादा पुरुषोत्तमके कार्य में सहायता करने वृक्षसे उतरकर वहाँ आ गयी। नन्ही सी गिलहरी – उससे न वृक्षकी शाखा उठ सकती थी। और न शिलाखण्ड। लेकिन उसने अपने उपयुक्त एक कार्य निकाल लिया। वह बार-बार समुद्रके जलमें स्नान करके रेतपर लोट-पोट होती और सेतुपर दौड़ जाती। वहाँ वह अपने शरीरमें लगी सारी रेत झाड़ देती और फिर स्नान करने दौड़ती। अविराम उसका यह कार्य चलता रहा।
महापुरुष तथा शास्त्र बतलाते हैं कि भगवान् साधन-साध्य नहीं हैं। जीवका महान्-से-महान् साधन उन सर्वेशको न तो विवश कर सकता और न उनकी प्राप्तिका मूल्य बन सकता। इसलिये किसने कितना जप, तप आदि किया, इसका वहाँ महत्त्व नहीं है।जीवनिष्ठ साधन तथा भगवन्निष्ठ कृपाके संयोगसे भगवत्प्राप्ति होती है, यह महापुरुष कहते हैं; किंतु भगवान् तो नित्य कृपाके अनन्त अनन्त सागर हैं। जीव अप्रमत्त होकर अपनी शक्तिका पूरा उपयोग करके सच्ची श्रद्धा तथा प्रीतिसे जब साधन करता है, वे करुणावरुणालय प्रसन्न हो जाते हैं। कितने समय या कितना साधन किसीने किया, यह प्रश्न वहाँ रहता नहीं । भगवान् प्रसन्न होते हैं. वे नित्य प्रसन्न जो हैं ।
गिलहरीकी चेष्टा बड़े कुतूहलसे, बड़ी एकाग्रतासे मर्यादा-पुरुषोत्तम देख रहे थे। उस क्षुद्र जीवकी ओर दूसरे किसीका ध्यान नहीं था; किंतु कबीरदासजीने कहा है न –
‘चींटी के पग घुँघुरू बाजे सो भी साहब सुनता है।’ श्रीराघवेन्द्रने हनुमान्जीको संकेतसे पास बुलाकर उस गिलहरीको उठा लानेका आदेश दिया। हनुमान्जीने गिलहरीको पकड़कर उठा लिया और लाकर रघुनाथजीके किसलयकोमल बन्धूकारुण हाथपर रख दिया उसे ।प्रभुने उस नन्हे प्राणीसे पूछा- ‘तू सेतुपर क्या कर रही थी? तुझे भय नहीं लगता कि कपियों या रीछोंके पैरके नीचे आ सकती है या कोई वृक्ष अथवा शिलाखण्ड तुझे कुचल दे सकता है ?”
गिलहरीने हर्षसे रोम फुलाये, पूँछ उठाकर श्रीराघवके करपर गिरायी और बोली- ‘मृत्यु दो बार तो आती नहीं, आपके सेवकोंके चरणोंके नीचे मेरी मृत्यु हो जाय यह तो मेरा सौभाग्य होगा सेतुमें बहुत बड़े बड़े शिलाखण्ड तथा वृक्ष लगाये जा रहे हैं। बहुत श्रम करनेपर भी नल-नील सेतुको पूरा समतल नहीं कर पा रहे हैं। ऊँची-नीची विषम भूमिपर चलनेमेंआपके कोमल चरणोंको बड़ा कष्ट होगा, यह सोचकर पुलके छोटे-छोटे गड्ढे मैं रेतसे भर देनेका प्रयत्न कर रही थी ।’
मर्यादा-पुरुषोत्तम प्रसन्न हो गये। उन्होंने वाम हस्तपर गिलहरीको बैठा रखा था। उस क्षुद्र जीवको वह आसन दे रखा था जिसकी कल्पना त्रिभुवनमें कोई कर ही नहीं सकता। अब दाहिने हाथकी तीन अँगुलियोंसे उन्होंने गिलहरीकी पीठ थपथपा दी । कहते हैं कि गिलहरीकी पीठपर श्रीरामकी अँगुलियोंके चिह्नस्वरूप तीन श्वेत रेखाएँ बन गयीं और तभीसे सभी गिलहरियोंको वे रेखाएँ भूषित करती हैं।

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