गरिमा और घमण्ड
पुराणको एक प्रतीक कथा बड़े मार्मिक से घमण्ड और गरिमाके भेदको समझाती है। गरुड़ और शेषनाग इतने बलशाली माने जाते हैं कि बड़े-से बड़ा बोझ उठा सकें। गरुड़को एक बार इस बातका घमण्ड हो गया; क्योंकि वे अपने साथी एक पक्षीके बुरी तरह घायल हो जानेपर इन्द्रके नन्दनवनसे उस विशाल पर्वतको उठाकर ले गये थे, जिसपर अमोघ प्रभाव करनेवाली जड़ी-बूटियाँ थीं। पक्षीके स्वस्थ हो जानेपर वे उसे लौटाने गये तो इन्द्रसे मुलाकात हो गयी। बातों ही बातोंमें वे इन्द्रके सामने अपने शौर्यकी डींग हाँकने लगे। ‘मैं दक्ष-पुत्री विनता और महर्षि कश्यपका पुत्र हूँ। अनेक राक्षसोंका संहारक हूँ। श्रुतश्री, श्रुतसेन, विवस्वान्, रोचनमुख, प्रस्तुत और कालकाक्ष-जैसे राक्षसों का वध कर चुका हूँ। स्वयं विष्णुको धारण करता हूँ।’ ये सब डींगें हाँककर जब वे वैकुण्ठ लौटे तो विष्णु सामने ही मिल गये। उन्हें मालूम हो गया था कि गरुड़ने इन्द्रलोकमें क्या कहा है। उन्होंने इसका इलाज करनेकी सोची। ज्यों ही
गरुड़ उनके पास पहुँचे, उन्होंने यह कहते हुए अपना बायाँ हाथ उनके ऊपर रख दिया कि आज हाथ दर्द कर रहा है।
हाथ रखते ही गरुड़को लगा कि जाने कितने पर्वतों और भूमण्डलोंका भार उनपर आ पड़ा। कमर टूटने लगी। चीख निकलते-निकलते बची। पूछने लगे ‘आज आपके हाथको क्या हो गया है प्रभो!’ विष्णुने कहा—’हाथको तो कुछ नहीं हुआ गरुड़! तुम्हारी बुद्धिको घमण्डका घुन अवश्य लग गया है, जिससे डींगे हाँकने लगे हो। तुम तो जानते ही हो, जब मैं तुमपर सवारी करता हूँ, अपना भार स्वयं सम्भाले रखता हूँ। जिस पर्वतको तुमने उठाया था, उसका भार मैंने हर लिया था; क्योंकि उस समय तुम परोपकारके उद्देश्यसे पर्वत ले जा रहे थे। अब सफलताके घमण्डके भारी बोझके कारण पहले ही तुम बोझिल हो रहे हो, और किसीका बोझ क्या उठाओगे ?’ गरुड़ पानी-पानी हो गये। इतनी बेबाक शैलीमें विष्णुजीने पहले कभी उनसे बात नहीं की थी। वे समझ गये कि सफलताकी सारी गरिमा सफलताके घमण्डसे समाप्त हो जाती है।
dignity and pride
An allegorical story from the Puranas very poignantly explains the difference between pride and dignity. Garuda and Sheshnag are considered so strong that they can carry the heaviest of burdens. Garuda once became proud of this; Because when one of his fellow birds was badly injured, he had taken away that huge mountain from Indra’s Nandanvan, on which there were herbs of immense effect. When the bird got healthy, when they went to return it, they met Indra. They started bragging about their bravery in front of Indra. ‘I am the son of Daksha-daughter Vinata and Maharshi Kashyapa. I am the destroyer of many demons. I have killed demons like Shrutashree, Shrutsen, Vivaswan, Rochanmukha, Pranath and Kalakaksha. I myself wear Vishnu. When he returned to Vaikunth after making all these brags, he found Vishnu in front of him. He had come to know what Garuda had said in Indralok. He thought of curing it. as soon as
Garuda reached him, he put his left hand on him saying that today the hand is hurting.
As soon as he placed his hand, Garuda felt that the weight of so many mountains and continents had come on him. Back started breaking. Screaming survived. They started asking, ‘Lord, what has happened to your hand today?’ Vishnu said – ‘Nothing happened to your hands, Garuda! Your intellect must have been infected with the mite of pride, due to which you have started bragging. You know that when I ride on you, I take care of my own weight. I took away the weight of the mountain that you had lifted; Because at that time you were taking the mountain for the purpose of charity. Now you are already getting burdened due to the heavy burden of the pride of success, and what else will you bear?’ Garuda became watery. Vishnuji had never spoken to him in such a bold manner before. They understood that all the dignity of success ends with the pride of success.