किसी समय महर्षि वसिष्ठजी विश्वामित्रजीके आश्रमपर पधारे। विश्वामित्रजीने उनका स्वागत-सत्कार तो किया ही, आतिथ्यमें अपनी एक सहस्र वर्षकी तपस्याका फल भी अर्पित किया। कुछ समय पश्चात् विश्वामित्रजीवसिष्ठजीके अतिथि हुए । वसिष्ठजीने भी उनका यथोचित सत्कार किया और उन्हें अपने आधी घड़ीके सत्सङ्गका पुण्य अर्पित किया। परंतु वसिष्ठजीके इस व्यवहारसे विश्वामित्रजीको क्षोभ हुआ । यद्यपि वे कुछ बोले नहीं;फिर भी उनके मुखपर आया रोषका भाव छिपा नहीं रहा। उस भावको लक्षित करके वसिष्ठजी बोले-‘मैं देखता हूँ कि आपको अपनी सहस्र वर्षकी तपस्याके समान मेरा आधी घड़ीका सत्सङ्ग नहीं जान पड़ता। क्यों न हमलोग किसीसे निर्णय करा लें।’
दोनों ब्रह्मर्षि ठहरे, उनके विवादका निर्णय करनेका साहस कोई ऋषि-मुनि भी नहीं कर सकता था, नरेशोंकी तो चर्चा ही क्या। वे ब्रह्मलोक पहुँचे। परंतु ब्रह्माजीने भी सोचा कि इनमें कोई रुष्ट होकर शाप दे देगा तो विपत्तिमें पड़ना होगा। उन्होंने कह दिया ‘आपलोग भगवान् विष्णुके पास पधारें; क्योंकि सृष्टिके कार्यमें व्यस्त होनेके कारण मैं स्वस्थचित्तसे कोई निर्णय देनेमें असमर्थ हूँ।’
‘मैं आप दोनोंके चरणोंमें प्रणाम करता हूँ। तपस्या और सत्सङ्गके माहात्म्यका निर्णय वही कर सकता है, जो स्वयं इनमें लगा हो। मेरा तो इनसे परिचय ही नहीं आपलोग तपोमूर्ति भगवान् शङ्करसे पूछनेकी कृपा करें।’ भगवान् विष्णुने भी दोनों ऋषियोंको यह कहकर विदा कर दिया।
दोनों ऋषि कैलास पहुँचे; किंतु शङ्करजीने भी कहदिया- ‘जबसे मैंने हालाहल पान किया है, तबसे चित्तकी स्थिति निर्णायक बनने जैसी नहीं रही है। शेषजी मस्तकपर पृथ्वी उठाये निरन्तर तप करते रहते हैं और अपने सहस्रमुखोंसे मुनिवृन्दको सत्सङ्गका लाभ देते रहते हैं। वे ही आपलोगोंका निर्णय कर सकते हैं।’ पाताल पहुँचनेपर दोनों महर्षियोंकी बात शेषजीने सुन ली और बोले- ‘आपमेंसे कोई अपने प्रभावसे इस पृथ्वीको कुछ क्षण अधरमें रोके रहें तो मेरा भार कम हो और मैं स्वस्थ होकर विचार करके निर्णय दूँ।’
‘मैं एक सहस्र वर्षके तपका फल अर्पित करता हूँ, धरा आकाशमें स्थित रहें ।’ महर्षि विश्वामित्रने हाथमें जल लेकर संकल्प किया; किंतु पृथ्वी तो हिली भी नहीं ।
‘मैं आधी घड़ीके अपने सत्सङ्गका पुण्य देता हूँ, पृथ्वी देवी कुछ क्षण गगनमें ही अवस्थित रहें ।’ ब्रह्मर्षि वसिष्ठजीने संकल्प किया और पृथ्वी शेषजीके फणोंसे
ऊपर उठकर निराधार स्थित हो गयीं अब निर्णय करने-करानेको कुछ रहा ही नहीं था विश्वामित्रजीने वसिष्ठजीके चरण पकड़ लिये -” ‘भगवन् ! आप सदासे महान् हैं । ‘ – सु0 सिं0
किसी समय महर्षि वसिष्ठजी विश्वामित्रजीके आश्रमपर पधारे। विश्वामित्रजीने उनका स्वागत-सत्कार तो किया ही, आतिथ्यमें अपनी एक सहस्र वर्षकी तपस्याका फल भी अर्पित किया। कुछ समय पश्चात् विश्वामित्रजीवसिष्ठजीके अतिथि हुए । वसिष्ठजीने भी उनका यथोचित सत्कार किया और उन्हें अपने आधी घड़ीके सत्सङ्गका पुण्य अर्पित किया। परंतु वसिष्ठजीके इस व्यवहारसे विश्वामित्रजीको क्षोभ हुआ । यद्यपि वे कुछ बोले नहीं;फिर भी उनके मुखपर आया रोषका भाव छिपा नहीं रहा। उस भावको लक्षित करके वसिष्ठजी बोले-‘मैं देखता हूँ कि आपको अपनी सहस्र वर्षकी तपस्याके समान मेरा आधी घड़ीका सत्सङ्ग नहीं जान पड़ता। क्यों न हमलोग किसीसे निर्णय करा लें।’
दोनों ब्रह्मर्षि ठहरे, उनके विवादका निर्णय करनेका साहस कोई ऋषि-मुनि भी नहीं कर सकता था, नरेशोंकी तो चर्चा ही क्या। वे ब्रह्मलोक पहुँचे। परंतु ब्रह्माजीने भी सोचा कि इनमें कोई रुष्ट होकर शाप दे देगा तो विपत्तिमें पड़ना होगा। उन्होंने कह दिया ‘आपलोग भगवान् विष्णुके पास पधारें; क्योंकि सृष्टिके कार्यमें व्यस्त होनेके कारण मैं स्वस्थचित्तसे कोई निर्णय देनेमें असमर्थ हूँ।’
‘मैं आप दोनोंके चरणोंमें प्रणाम करता हूँ। तपस्या और सत्सङ्गके माहात्म्यका निर्णय वही कर सकता है, जो स्वयं इनमें लगा हो। मेरा तो इनसे परिचय ही नहीं आपलोग तपोमूर्ति भगवान् शङ्करसे पूछनेकी कृपा करें।’ भगवान् विष्णुने भी दोनों ऋषियोंको यह कहकर विदा कर दिया।
दोनों ऋषि कैलास पहुँचे; किंतु शङ्करजीने भी कहदिया- ‘जबसे मैंने हालाहल पान किया है, तबसे चित्तकी स्थिति निर्णायक बनने जैसी नहीं रही है। शेषजी मस्तकपर पृथ्वी उठाये निरन्तर तप करते रहते हैं और अपने सहस्रमुखोंसे मुनिवृन्दको सत्सङ्गका लाभ देते रहते हैं। वे ही आपलोगोंका निर्णय कर सकते हैं।’ पाताल पहुँचनेपर दोनों महर्षियोंकी बात शेषजीने सुन ली और बोले- ‘आपमेंसे कोई अपने प्रभावसे इस पृथ्वीको कुछ क्षण अधरमें रोके रहें तो मेरा भार कम हो और मैं स्वस्थ होकर विचार करके निर्णय दूँ।’
‘मैं एक सहस्र वर्षके तपका फल अर्पित करता हूँ, धरा आकाशमें स्थित रहें ।’ महर्षि विश्वामित्रने हाथमें जल लेकर संकल्प किया; किंतु पृथ्वी तो हिली भी नहीं ।
‘मैं आधी घड़ीके अपने सत्सङ्गका पुण्य देता हूँ, पृथ्वी देवी कुछ क्षण गगनमें ही अवस्थित रहें ।’ ब्रह्मर्षि वसिष्ठजीने संकल्प किया और पृथ्वी शेषजीके फणोंसे
ऊपर उठकर निराधार स्थित हो गयीं अब निर्णय करने-करानेको कुछ रहा ही नहीं था विश्वामित्रजीने वसिष्ठजीके चरण पकड़ लिये -” ‘भगवन् ! आप सदासे महान् हैं । ‘ – सु0 सिं0