गुरुके अपमानसे पराभव

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गुरुके अपमानसे पराभव

इन्द्रको त्रिलोकीका ऐश्वर्य पाकर घमण्ड हो गया था। इस घमण्डके कारण वे धर्ममर्यादाका, सदाचारका उल्लंघन करने लगे थे। एक दिनकी बात है, वे भरी सभामें अपनी पत्नी शचीके साथ ऊँचे सिंहासनपर बैठे हुए थे। उनचास मरुद्गण, आठ वसु, ग्यारह रुद्र, द्वादश आदित्य, ऋभुगण, विश्वेदेव, साध्यगण और दोनों अश्विनीकुमार उनकी सेवामें उपस्थित थे। सिद्ध, चारण, गन्धर्व, ब्रह्मवादी मुनिगण, विद्याधर, अप्सराएँ, किन्नर, पक्षी और नाग उनकी सेवा एवं स्तुति कर रहे थे। सब ओर ललित स्वरसे देवराज इन्द्रकी कीर्तिका गायन हो रहा था। ऊपरकी ओर चन्द्रमण्डलके समान सुन्दर श्वेतछत्र शोभायमान था। चँवर, पंखे आदि महाराजोचित सामग्रियाँ यथास्थान सुसज्जित थीं। इस दिव्य समाजमें देवराज बड़े ही सुशोभित हो रहे थे। इसी समय देवगुरु बृहस्पतिजी वहाँ आये। बृहस्पतिजी देवराज इन्द्र और समस्त देवताओंके परम आचार्य हैं। उन्हें सुर-असुर सभी नमस्कार करते हैं। इन्द्रने देख लिया कि वे सभामें आये हैं, परंतु वे न तो खड़े हुए और न आसन आदि देकर गुरुका सत्कार ही किया। यहाँतक कि वे अपने आसनसे हिले-डुलेतक नहीं। त्रिकालदर्शी समर्थ
बृहस्पतिजीने देखा कि यह ऐश्वर्यमदका दोष है ! बस, वे झटपट वहाँसे निकलकर चुपचाप अपने घर चले आये।.
उसी समय देवराज इन्द्रको चेत हुआ। वे समझ गये कि मैंने अपने गुरुदेवकी अवहेलना की है। अब वे भरी सभामें अपने-आप अपनी निन्दा करने लगे ‘हाय-हाय! बड़े खेदकी बात है कि भरी सभामें मैंने अपने गुरुदेवका तिरस्कार कर दिया। सचमुच मेरा यह कर्म अत्यन्त निन्दनीय है। मैं ऐश्वर्यके नशेमें चूर हो रहा हूँ। मैं बड़ा मन्दबुद्धि हूँ। भला, कौन विवेकी पुरुष इस स्वर्गकी राजलक्ष्मीको पानेकी इच्छा करेगा ? देखो तो सही, आज इसीने मुझ देवराजको भी असुरोंके से रजोगुणी भावसे भर दिया। मुझे पतनकी सीमापर ले जाकर पटक दिया। जो लोग यह कहते हैं कि सार्वभौम राजसिंहासनपर बैठा हुआ सम्राट् किसीके आनेपर राजसिंहासनसे न उठे, वे धर्मका वास्तविक स्वरूप नहीं जानते। ऐसा उपदेश करनेवाले कुमार्गकी ओर ले जानेवाले हैं। वे स्वयं घोर नरकमें गिरते हैं। उनकी बातपर जो लोग विश्वास करते हैं, वे पत्थरको नावकी तरह डूब जाते हैं। मेरे गुरुदेव बृहस्पतिजी ज्ञानके समुद्र हैं। मैंने बड़ी शठता की। अब मैं उनके चरणों में अपना माथा टेककर उन्हें मनाऊँगा।’
देवराज इन्द्र इस प्रकार सोच ही रहे थे कि भगवान् बृहस्पति अपने घरसे निकलकर योगबलसे अन्तर्धान हो गये। देवराज इन्द्रने अपने गुरुदेवको बहुत ढूँढ़ा-ढुंढ़वाया, परंतु उनका कहीं पता न चला। तब वे गुरुके बिना अपनेको सुरक्षित न समझकर देवताओंके साथ अपनी बुद्धिके अनुसार स्वर्गकी रक्षाका उपाय सोचने लगे, परंतु वे कुछ भी सोच न सके। उनका चित्त अशान्त ही बना रहा। देवगुरु बृहस्पति और देवराज इन्द्रकी अनबनका समाचार छिपा न रहा। अन्ततः दैत्योंको भी उसका पता लग ही गया। उन मदोन्मत्त और आततायी असुरोंने अपने गुरु शुक्राचार्यके आदेशानुसार देवताओंपर विजय पानेके लिये धावा बोल दिया। उन्होंने देवताओंपर इतने तीखे तीखे बाणोंकी वर्षा की कि उनके मस्तक, जंघा, बाहु आदि अंग कट-कटकर गिरने लगे। तब इन्द्रके साथ सभी देवता सिर झुकाकर ब्रह्माजीकी शरणमें गये । स्वयम्भू एवं समर्थ ब्रह्माजीने देखा कि देवताओंकी तो सचमुच बड़ी दुर्दशा हो रही है। अतः उनका हृदय अत्यन्त करुणासे भर गया। वे देवताओंको धीरज बँधाते हुए बोले।
ब्रह्माजीने कहा- देवताओ! यह बड़े खेदकी बात

है। सचमुच तुमलोगोंने बहुत बुरा काम किया। अरे! तुमलोगोंने ऐश्वर्यके मदसे अन्धे होकर ब्रह्मज्ञानी, वेदज्ञ एवं संयमी आचार्यका सत्कार नहीं किया। देवताओ! तुम्हारी उसी अनीतिका यह फल है कि आज समृद्धिशाली होनेपर भी तुम्हें अपनेसे निर्बल शत्रुओंके सामने नीचा देखना पड़ा।
अतः अपना अभ्युदय चाहनेवालेको कभी गुरुजनोंकी अवहेलना नहीं करनी चाहिये। [ श्रीमद्भागवत

गुरुके अपमानसे पराभव
इन्द्रको त्रिलोकीका ऐश्वर्य पाकर घमण्ड हो गया था। इस घमण्डके कारण वे धर्ममर्यादाका, सदाचारका उल्लंघन करने लगे थे। एक दिनकी बात है, वे भरी सभामें अपनी पत्नी शचीके साथ ऊँचे सिंहासनपर बैठे हुए थे। उनचास मरुद्गण, आठ वसु, ग्यारह रुद्र, द्वादश आदित्य, ऋभुगण, विश्वेदेव, साध्यगण और दोनों अश्विनीकुमार उनकी सेवामें उपस्थित थे। सिद्ध, चारण, गन्धर्व, ब्रह्मवादी मुनिगण, विद्याधर, अप्सराएँ, किन्नर, पक्षी और नाग उनकी सेवा एवं स्तुति कर रहे थे। सब ओर ललित स्वरसे देवराज इन्द्रकी कीर्तिका गायन हो रहा था। ऊपरकी ओर चन्द्रमण्डलके समान सुन्दर श्वेतछत्र शोभायमान था। चँवर, पंखे आदि महाराजोचित सामग्रियाँ यथास्थान सुसज्जित थीं। इस दिव्य समाजमें देवराज बड़े ही सुशोभित हो रहे थे। इसी समय देवगुरु बृहस्पतिजी वहाँ आये। बृहस्पतिजी देवराज इन्द्र और समस्त देवताओंके परम आचार्य हैं। उन्हें सुर-असुर सभी नमस्कार करते हैं। इन्द्रने देख लिया कि वे सभामें आये हैं, परंतु वे न तो खड़े हुए और न आसन आदि देकर गुरुका सत्कार ही किया। यहाँतक कि वे अपने आसनसे हिले-डुलेतक नहीं। त्रिकालदर्शी समर्थ
बृहस्पतिजीने देखा कि यह ऐश्वर्यमदका दोष है ! बस, वे झटपट वहाँसे निकलकर चुपचाप अपने घर चले आये।.
उसी समय देवराज इन्द्रको चेत हुआ। वे समझ गये कि मैंने अपने गुरुदेवकी अवहेलना की है। अब वे भरी सभामें अपने-आप अपनी निन्दा करने लगे ‘हाय-हाय! बड़े खेदकी बात है कि भरी सभामें मैंने अपने गुरुदेवका तिरस्कार कर दिया। सचमुच मेरा यह कर्म अत्यन्त निन्दनीय है। मैं ऐश्वर्यके नशेमें चूर हो रहा हूँ। मैं बड़ा मन्दबुद्धि हूँ। भला, कौन विवेकी पुरुष इस स्वर्गकी राजलक्ष्मीको पानेकी इच्छा करेगा ? देखो तो सही, आज इसीने मुझ देवराजको भी असुरोंके से रजोगुणी भावसे भर दिया। मुझे पतनकी सीमापर ले जाकर पटक दिया। जो लोग यह कहते हैं कि सार्वभौम राजसिंहासनपर बैठा हुआ सम्राट् किसीके आनेपर राजसिंहासनसे न उठे, वे धर्मका वास्तविक स्वरूप नहीं जानते। ऐसा उपदेश करनेवाले कुमार्गकी ओर ले जानेवाले हैं। वे स्वयं घोर नरकमें गिरते हैं। उनकी बातपर जो लोग विश्वास करते हैं, वे पत्थरको नावकी तरह डूब जाते हैं। मेरे गुरुदेव बृहस्पतिजी ज्ञानके समुद्र हैं। मैंने बड़ी शठता की। अब मैं उनके चरणों में अपना माथा टेककर उन्हें मनाऊँगा।’
देवराज इन्द्र इस प्रकार सोच ही रहे थे कि भगवान् बृहस्पति अपने घरसे निकलकर योगबलसे अन्तर्धान हो गये। देवराज इन्द्रने अपने गुरुदेवको बहुत ढूँढ़ा-ढुंढ़वाया, परंतु उनका कहीं पता न चला। तब वे गुरुके बिना अपनेको सुरक्षित न समझकर देवताओंके साथ अपनी बुद्धिके अनुसार स्वर्गकी रक्षाका उपाय सोचने लगे, परंतु वे कुछ भी सोच न सके। उनका चित्त अशान्त ही बना रहा। देवगुरु बृहस्पति और देवराज इन्द्रकी अनबनका समाचार छिपा न रहा। अन्ततः दैत्योंको भी उसका पता लग ही गया। उन मदोन्मत्त और आततायी असुरोंने अपने गुरु शुक्राचार्यके आदेशानुसार देवताओंपर विजय पानेके लिये धावा बोल दिया। उन्होंने देवताओंपर इतने तीखे तीखे बाणोंकी वर्षा की कि उनके मस्तक, जंघा, बाहु आदि अंग कट-कटकर गिरने लगे। तब इन्द्रके साथ सभी देवता सिर झुकाकर ब्रह्माजीकी शरणमें गये । स्वयम्भू एवं समर्थ ब्रह्माजीने देखा कि देवताओंकी तो सचमुच बड़ी दुर्दशा हो रही है। अतः उनका हृदय अत्यन्त करुणासे भर गया। वे देवताओंको धीरज बँधाते हुए बोले।
ब्रह्माजीने कहा- देवताओ! यह बड़े खेदकी बात
है। सचमुच तुमलोगोंने बहुत बुरा काम किया। अरे! तुमलोगोंने ऐश्वर्यके मदसे अन्धे होकर ब्रह्मज्ञानी, वेदज्ञ एवं संयमी आचार्यका सत्कार नहीं किया। देवताओ! तुम्हारी उसी अनीतिका यह फल है कि आज समृद्धिशाली होनेपर भी तुम्हें अपनेसे निर्बल शत्रुओंके सामने नीचा देखना पड़ा।
अतः अपना अभ्युदय चाहनेवालेको कभी गुरुजनोंकी अवहेलना नहीं करनी चाहिये। [ श्रीमद्भागवत

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