दिव्य कृष्ण सँदेश~

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“सँवारते हुये, प्रेम से प्रियतम की बिखरी हुयी घनी काली घुँघराली कजरारी अलकें ! अपने आँचल से थीं पोछीं कृष्ण सखा ने प्रेम से प्रियतम की भीगी कजरारी पलकें!

अँतरँग कृष्ण सखा ने था तब प्रियतम से आत्मीयता भरे अत्यँत कोमल स्वर में कहा, ‘फिर चले तुम क्यों नहीं जाते मिलने उनसे वृन्दावन के स्वर्णिम गाँव रे! रहते हैं जिनके लिये मोतियों से भरे तुम्हारे कजरारे नयन बाँवरे!!’ प्रियतम ने तब , अत्यँत व्यथित होकर व्यथित स्वर में कही अपने अँतरँग सखा से ये बात थी-!!”


‘कृष्ण सखे !! चला जो अपने स्वर्णिम वृन्दावन गया मैं अभी! तो मैया आने मुझे देगी नहीं व्यथित वृन्दावन से कभी!! न आने मुझे देगी कभी मेरी वो कृष्ण प्रिया साँवरी! हो गयी मेरे वियोग में है जो कृष्ण प्रिया बाँवरी!!

क्या कहूँगा कृष्ण सखे अब मैं उस मैया से ! झूठ बोल कर आया था सखे मैं जिस मैया से!! उन दोनों के शाश्वत प्रेमबन्धन में आबद्ध अवश सा हो फिर मैं कृष्ण जाऊँगा ! तोड़ कर उनका प्रेम बन्धन सखे, फिर लौट वृन्दावन से कैसे मैं पाऊँगा!’ प्रियतम के भावुक कजरारे नयनों में था- तब सखे ने भावुक होकर देखा ! !

प्रियतम के व्यथित कजरारे नयनों में थी माधवी चँद्रपरी चँद्रलेखा!! प्रियतम की उस वियोगिनी कृष्ण प्रिया के रस नयनों में , मोती चाँदी के पिघल रहे थे!! जो व्यथा भरी नीलम चाँदनी में कृष्ण प्रिया के रस नयनों से रसनिर्झर निकल रहे थे!!”


“उद्धव ने तब करुणा भरे स्वर में था प्रियतम से कहा ‘तुम्हारे भावुक रस नयनों में है , मैंने तुम्हारी उस विरहिणी चँद्रप्रिया को देख लिया ! तुम नीलम चँदन रूप नहीं नीलम चँद्रसरोवर हो~ क्या जानती नहीं तुम्हारी चँद्र प्रिया?’

इस पर दीर्घ उच्छ्वास भर के बोले प्रियतम ‘देखा तो है मेरा दिव्य चँद्रसरोवर रूप मेरी चँद्र परी वैजयँती साँवरी ने! पर मेरे नीलम चँदन रूप के मोह में है भुला दिया सब कुछ मेरी प्रेमबाँवरी ने!!’

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