।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
भक्त-वन्दना
प्रह्लादनारदपराशरपुण्डरीक-
व्यासाम्बरीषशुकशौनकभीष्मदाल्भ्यान् ।
रूक्मांगदोद्धवविभीषणफाल्गुनादीन्
पुण्यानिमान्परमभागवतान्नतोऽस्मि ।।
जिन्होंने दैत्यकुल में जन्म लेकर भी अच्युत की अनन्य भाव से अर्चा-पूजा की है, जिनके सदुपदेश से दैत्य बालक भी परम भागवत बन गये, जिन्होंने अपने प्रतापी पिता के प्रभाव की परवा न करके अपनी प्रतिज्ञा में परिवर्तन नहीं किया, जिन्हें हलाहल विष पान कराया गया, पर्वत के शिखर से गिराया गया, जल में डुबाया गया, अग्नि में जलाया गया तो भी जो अपने प्रण से विचलित नहीं हुए, जिनके कारण साक्षात भगवान को नृसिंहरूप धारण करना पड़ा, उन भक्ताग्रगण्य प्रह्लाद जी के चरणों में मेरा कोटि-कोटि नमस्कार है। जो संसार के कल्याण की इच्छा से सदा नाना लोकों में भ्रमण करते रहते हैं, जो ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं, जिनकी सम्पूर्ण लोकों में अप्रतिहत गति है, जो स्मरण करते ही सर्वत्र पहुँच जाते हैं, जिन्हें इधर-की-उधर मिलाने में आनन्द आता है, जो संगीत में पारंगत हैं और भक्ति के आदि आचार्य हैं, जो वीणा लेकर उच्च स्वर से अहर्निश ‘श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे, हे नाथ! नारायण वासुदेव’ इन नामों का संकीर्तन करते रहते हैं ऐसे भक्तशिरोमणि देवर्षि नारद जी के चरणों में मेरा केटि-कोटि प्रणाम है। जो मूर्तिमान तप हैं, जो पुराणों के मर्मज्ञ हैं, जिन्होंने अनेक प्रकार के यज्ञों में विष्णु की आराधना की है, उन व्यासदेव जी के पिता परम भागवत महर्षि पराशर जी के पादपद्मों में अनन्त प्रणाम है। परम भागवत, परम वैष्णव पुण्डरीक ऋषि के चरणों में मैं बार-बार प्रणाम करता हूँ। जिन्होंने एक वेद को चार भागों में विभक्त कर दिया है, जिन्होंने कलि के जीवों के उद्धार के निमित्त पंचम वेद महाभारत और अठारह पुराणों की रचना की है, जो ज्ञानावतार हैं, उन महर्षि वेदव्यास देव को मैं बार-बार प्रणाम करता हूँ।
जिनकी वैष्णवता के प्रभाव को सूचित करने के निमित्त भगवान ने शरण में आये हुए महर्षि दुर्वासा की स्वयं रक्षा न करके उन्हीं के पास भेजा था, जिनके परम भागवत होने की प्रशंसा से पुराणों के बहुत-से स्थल भरे पड़े हैं, उन राजर्षि अम्बरीष की चरणधूलि को मैं अपने मस्तक पर धारण करता हूँ। जो संसारी माया के प्रभाव से बचने के निमित्त बारह वर्ष तक माता के गर्भ में ही वास करते रहे, जिन्होंने मरणासन्न महाराज परीक्षित को सात दिनों में ही श्रीमद्भागवत की कथा सुनाकर मोक्ष का उत्तम अधिकारी बना दिया, उन अवधूतशिरोमणि महामुनि शुकदेव जी के चरणों में मैं श्रद्धा-भक्ति के साथ प्रणाम करता हूँ। जिन्होंने नैमिषारण्य की पुण्यभूमि में सूत के मुख से महाभारत और अठारहों पुराण श्रवण किये, जो ऋषियों के अग्रणी गिने जाते हैं, जिन्होंने हजारों वर्ष की दीक्षा लेकर भारी-भारी यज्ञ-याग किये हैं, उन सन्त-महन्त महर्षि शौनकजी की चरणवन्दना करके मैं अपने को कृतकृत्य बनाना चाहता हूँ।
जिन्होंने पिता का प्रिय करने के निमित्त आजीवन अखण्ड ब्रह्मचर्यव्रत का पालन किया, जो अपनी प्रतिज्ञापालन के निमित्त अपने गुरु परशुराम जी से भी भिड़ गये, जिन्होंने पिता को प्रसन्न करके इच्छामृत्यु का अमोघ वरदान प्राप्त किया, जिनकी प्रतिज्ञा पूरी करने के निमित्त साक्षात भगवान ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी, उन गंगा के पुत्र वसु-अवतार महात्मा भीष्म पितामह के आशीर्वाद की मैं इच्छा करता हूँ। परम भागवत और परम वैष्णव दाल्भ्य ऋषि के चरणकमलों में मेरा कोटि-कोटि नमस्कार है। जिन्होंने एकादशी व्रत के माहात्म्य को सम्पूर्ण पृथ्वी पर स्थापित किया, जिनके धर्म के कारण स्वयं धर्मराज भी भयभीत होकर पितामह की शरण में गये ओर उन्हें धर्मच्युत कराने के निमित्त अद्वितीय रूप-लावण्ययुक्त ‘मोहिनी’ नाम की एक सुन्दरी को भेजा, जिन्होंने मोहिनी के आग्रह करने पर अपने इकलौते प्यारे पुत्र का सिर देना तो मंजूर किया किन्तु एकादशी व्रत नहीं छोड़ा, उन राजर्षि रूक्मांगद के प्रति मेरा कोटि-कोटि प्रणाम है।
जो भगवान के परम अन्तरंग सखा गिने जाते हैं, भगवान की प्रेमपाती लेकर जो वृन्दावन की गोपिकाओं को ज्ञानोपदेश करने गये थे और वहाँ से परम वैष्णव होकर लौटे थे, जो भगवान के तिरोभाव होने पर उनकी आज्ञा से नर-नारायण के क्षेत्र में योगसमाहित हुए थे, उन परम भागवत उद्धव जी के चरणों में मेरा अधिकाधिक अनुराग हो।
जो अन्यायी भाई का पक्ष छोड़कर भगवान रामचन्द्रजी के शरणापन्न हुए और अन्त में लंकाधिपति बने, उन श्री रामचन्द्र जी के प्रियसखा अमर भक्त विभीषण को मैं नत होकर अभिवादन करता हूँ। जिनका सारथ्य महाभारत के युद्ध में स्वयं भगवान ने किया, जो इसी शरीर से स्वर्ग में वास कर आये, जिन्होंने शंकर जी से युद्ध करके उनसे पाशुपतास्त्र प्राप्त किया, जिन्होंने अकेले गाण्डीव धनुष से अठारह अक्षौहिणी वाले महाभारत में विजय प्राप्त कर ली।
युद्ध से पराड्मुख होने पर जिन्हें भगवान ने स्वयं गीता का उपदेश दिया, जो भगवान के विहार, शय्या, आसन और भोजनों में सदा साथ-ही-साथ रहे, जिन्हें भगवान बड़े प्रेम से ‘हे पार्थ! हे सखा! है धनंजय!’ ऐसे सुन्दर सम्बोधनों से सम्बोधित करते थे, वे नरावतार श्रीअर्जुन जी मेरे ऊपर कृपा की दृष्टि करें। बौद्धों के नास्तिकवाद को मिटाकर जिन्होंने निर्विशेष ब्रह्म का व्याख्यान किया। जिन्होंने जगत के प्रपंचों को मिथ्या बताकर एकमात्र ब्रह्म को ही साध्य बताया। अभेदवाद को सिद्ध करते हुए भी जिन्होंने समुद्र की तरंगों की भाँति अपने को प्रभु का दास बताया, उन आचार्यप्रवर भगवान शंकराचार्य के चरणों में मेरा शत-शत प्रणाम है। जिन्होंने भक्तिमार्ग को सर्वसाधारण के लिये सुलभ बना दिया, जो जीवों के कल्याण के निमित्त स्वयं नरक की यातनाएँ सहने के लिये तत्पर हो गये।
जिन्होंने गुरु के मना करने पर भी सर्वसाधारण के लिये गोपनीय मन्त्र का उपदेश किया, उन विशिष्टाद्वैत के प्रचारक भक्त-वन्दना विष्णु-भक्त भगवान रामानुजाचार्य के चरणों में मेरा प्रणाम है। जिन्होंने लुप्त हुए विष्णु सम्प्रदाय का उद्धार करके पुष्टिमार्ग की स्थापना की, जो गृहस्थ में रहते हुए भी महान विरक्त और आसक्तिरहित बने रहे, जिन्होंने वात्सल्योपासना की मधुरता को दिखाकर अपने को स्वयं गोपवंश का प्रकट किया, जिन्होंने बालक श्रीकृष्ण की अर्चा-पूजा को ही प्रधानता देते हुए सर्वतोभावेन आत्मसमर्पण को ही अन्तिम ध्येय बताया, उन शुद्धाद्वैत के प्रचारक बालकृष्णोपासक भगवान वल्लभाचार्य के चरणों में मेरी प्रीति हो।
जिन्होंने श्रीराधा कृष्ण की उपासना को ही सर्वस्व सिद्ध किया, जिन्होंने नीम के पेड़ में अर्क (सूर्य) दिखाकर भूखे वैष्णव को भोजन कराया, उन द्वैताद्वैतमत प्रवर्तक, मधुर भाव के उपासक भगवान निम्बार्काचार्य के चरणों में मेरा प्रणाम है।
जिन्होंने वृन्दावनविहारी की प्रीति को ही एकमात्र साध्य माना है, जिन्होंने अत्यन्त परिश्रम करके स्वयं हिमालय पर जाकर वेदव्यास जी से ज्ञात प्राप्त किया और वेदान्तसूत्रों पर भाष्य रचा, उन द्वैतमत के प्रवर्तक भगवान मध्वाचार्य आनन्दतीर्थ के पादपद्मों में मेरा बार-बार प्रणाम है। जिन्होंने छूताछूत और जाति-पाँति का कुछ भी विचार न करके सर्वसाधारण को भक्ति का उपदेश किया, जिनकी कृपा से चमार, नाई, छीपी, मुसलमान सभी जगत्पूज्य बन गये, जिन्होंने वैष्णव-समाज में सीता राम की सेवा-पूजा का प्रचार किया, उन आचार्यप्रवर श्रीरामानन्द स्वामी के चरणों में मेरा कोटि-कोटि प्रणाम है। इनके अतिरिक्त दूसरे देशों के अन्य सम्प्रदायों के प्रवर्तक ईसा, मूसा, मुहम्मद आदि जितने आचार्य हुए हैं उन सभी के चरणों में मेरा प्रणाम है। सम्पूर्ण पृथ्वी की धूलि के कणों की गणना चाहे हो भी सके, आकाश के तारे चाहे गिने भी जा सकें, बहुत सम्भव है सम्पूर्ण जीवों के रोमों की गणना की जा सके, किन्तु भक्तों की गणना किसी भी प्रकार नहीं हो सकती।
सृष्टि के आदि से अब तक असंख्य भक्त होते आये हैं। उन सबके केवल नामों को ही गणेश जी- जैसे लेखक दिन-रात्रि निरन्तर लिखते रहें तो महाप्रलय के अन्त तक भी नहीं लिख सकते। फिर मुझ-जैसे अल्पज्ञ की तो बात ही क्या है? शिव जी, नारद जी, ब्रह्मा जी, पाण्डव, सनत्कुमार इन भक्तों से लेकर सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग- इन चारों युगों में, 18 मन्वन्तरों में, असंख्यों कल्पों में जितने भक्त हुए हैं, उन सभी के चरणों में मेरा प्रणाम है, जिन्होंने सत्ययुग में कपिलरूप से भगवान का दर्शन किया है उन भगवत-भक्तों के चरणों में मेरा प्रणाम है। जिन्होंने त्रेता में रामरूप से भगवान का दर्शन किया है उन राम-भक्तों के चरणों की मैं वन्दना करता हूँ। जिन्होंने व्यासरूप से द्वापर में भगवान के दर्शन किये हैं उन भक्तों के चरणों में मेरा प्रणाम है।
कल्किरूप से जिन्होंने कलियुग में भगवान के दर्शन किये हैं और जो इस कलि के अन्त में करेंगे उन सभी भक्तों के पदपद्मों में मेरा कोटि-कोटि नमस्कार है। जिन्होंने वाराह, मत्स्य, यज्ञ, नर-नारायण, कपिल, कुमार, दत्तात्रेय, हयग्रीव, हंस, पृश्निगर्भ, ऋषभदेव, पृथु, नृसिंह, कूर्म, धन्वन्तरि, मोहिनी, वामन, परशुराम, रामचन्द्र, वेदव्यास, भक्त-वन्दना बलदेव, कृष्ण, बुद्ध और कल्कि- इन भगवान के अवतारों का दर्शन, स्पर्श और सहवास किया है, उन-उन अवतारों के भक्तों के चरणों में मेरा प्रणाम है। कलिकाल में पैदा हुए कबीरदास, नानकदेव, दादूदयाल, पलटूदास, चरनदास, रैदास, बुल्ला, जगजीवनदास, तुलसीदास, सूरदास, मलूकदास, रामदास, निवृत्तिनाथ, ज्ञानदेव, सोपानदेव, एकनाथ, तुकाराम आदि जितने भी महापुरुष भगवत-भक्त हुए हैं उन सभी के चरणों में मेरा प्रणाम है। भक्तों में कौन छोटा और कौन बड़ा, इसका निर्णय जो करता है, वह महामूर्ख है।
शालग्राम की बटिया चाहे छोटी हो या बड़ी सभी एक-सी पूज्य हैं, इसलिये ये सभी भक्त एक ही भाँति पूज्य और मान्य हैं, इनके चरणों में प्रणाम करने से ही मनुष्य कल्याण-मार्ग का पथिक बन सकता है। इनके अतिरिक्त वर्तमान समय में जो भगवान के नामों का संकीर्तन करते हैं, लिखकर प्रचार करते हैं या जो स्वयं दूसरों से कराते हैं उन सभी नामभक्तों के चरणों में मेरा प्रणाम है। जो भगवान के गुणों का श्रवण करते हैं, जो भगवन्नाम का कीर्तन करते हैं, जो हर समय भगवत-रूप का स्मरण करते हैं, जो भगवान की पाद-सेवा करते हैं, जो भगवत-विग्रहों का अर्चन करते हैं, जो देवता, द्विज, गुरु, भगवत-भक्तों और भगवत-विग्रहों को नमन करते हैं, जो भगवान के प्रति सख्यभाव रखते हैं, जिन्होंने भगवान को आत्मनिवेदन कर दिया है उन सभी भक्तों के चरणों में मेरा कोटि-कोटि नमस्कार है।
जो सम्प्रदायों के अन्तर्भुक्त हैं अथवा जो सम्प्रदायों में नहीं हैं, जो ज्ञाननिष्ठ हैं, जो देशभक्त हैं, जो जनतारूपी जनार्दन की सेवा करते हुए नाना भाँति की यातनाएँ सह रहे हैं, जिन्होंने देश की सेवा में ही अपना जीवन अर्पण कर दिया है, जो किसी भी प्रकार से जनता की सेवा कर रहे हैं, उन सभी भक्तों के चरणों में मेरा बार-बार प्रणाम है। वर्तमान काल में जितने भक्त हैं, जो हो चुके हैं अथवा जो आगे होंगे उन सभी भक्तों के चरणों की मैं बार-बार वन्दना करता हूँ। भक्त ही भगवान के साकाररूप हैं, भगवान की शक्ति का विकास पूर्णरूप से भक्त के ही शरीर में होता है। भक्तों का शरीर पार्थिव होते हुए भी चिन्मय है। वे साक्षात भगवत्स्वरूप ही हैं। भक्तों की चरणवन्दना करने से ही सब प्रकार के विघ्न मिट जाते हैं-
भक्ति भक्त भगवन्त गुरु, चतुर्नाम वपु एक।
इनके पद वन्दन किये, मेटत विघ्न अनेक।।
क्रमशः अगला पोस्ट [05]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:.
[Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram
Bhakta-vandana
Prahladanaradaparasarapundarika-
Vyasa, Ambarīṣa, Śuka, Śaunaka, Bhīṣma and Albhya.
Rukmanga, Uddhava, Vibhishana, Phalguna and others
Punanimanparambhagavatannatotsmi..
Who, even after being born in a demon clan, has worshiped Achyuta with utmost devotion, by whose good advice even the demon children became supreme Bhagwat, who did not change his vow regardless of the influence of his glorious father, who was made to drink Halahal poison. I bow down to the feet of devotee Prahlad ji, who was thrown from the top of the mountain, drowned in water, burnt in fire, but who did not deviate from his vow, because of whom the Lord had to take the form of a male lion. Is. Who always travels in different worlds with the desire of the welfare of the world, who is the son of Brahma ji, who has unlimited speed in all the worlds, who reaches everywhere as soon as he remembers, who is happy to meet here and there. There comes the one who is well versed in music and the Acharya of Bhakti, who takes the veena and sings loudly ‘Shri Krishna Govind Hare Murare, O Nath! Narayan Vasudev keeps chanting these names. Those who are embodiment of penance, who are well-versed in the Puranas, who have worshiped Vishnu in various types of Yagya, to those Vyasdev ji’s father Param Bhagwat Maharishi Parashar ji’s feet, there are infinite salutations. I prostrate again and again at the feet of the supreme Bhagavata, the supreme Vaishnava sage Pundarika. I bow again and again to Maharishi Ved Vyas Dev, who has divided one Veda into four parts, who has composed the fifth Veda Mahabharata and eighteen Puranas for the salvation of the souls of Kali, who is the embodiment of knowledge.
In order to inform about the effect of Vaishnavism, the Lord did not protect Maharishi Durvasa who had come to the refuge and sent him to him, many places of the Puranas are full of praise for being the supreme Bhagwat, the dust of the feet of Rajarshi Ambareesh I wear it on my head. I am at the feet of that Avdhootshiromani Mahamuni Shukdev ji, who lived in his mother’s womb for twelve years in order to escape from the influence of worldly illusion, who by telling the story of Shrimad Bhagwat to Maharaj Parikshit, who was about to die, made him the best officer of salvation in seven days. I bow down with devotion. In the holy land of Naimisharanya, who listened to the Mahabharata and eighteen Puranas from the mouth of a thread, who is considered to be the leader of the rishis, who has been initiated for thousands of years and has performed huge sacrifices, I bow down to the feet of that saint-mahant Maharishi Shaunakji. I want to make
One who followed unbroken celibacy throughout his life in order to be loved by his father, who fought even with his Guru Parshuram ji for the sake of keeping his vow, who obtained the boon of euthanasia by pleasing his father, in order to fulfill his vow, God himself Broke the promise, I wish for the blessings of Mahatma Bhishma Pitamah, the son of Ganga, Vasu-incarnation. I offer my obeisances at the lotus feet of the supreme Bhagavata and the supreme Vaishnava, Dalbhya Rishi. Who established the greatness of Ekadashi fast on the whole earth, due to whose religion even Dharmaraj himself went to the shelter of Pitamah and sent a unique beauty named ‘Mohini’ to make him apostate, who, on the request of Mohini, He agreed to give the head of his only beloved son but did not leave the Ekadashi fast, I bow down to that Rajarshi Rukmangad.
One who is counted as the most intimate friend of the Lord, who had gone to Vrindavan to preach knowledge to the gopikas of Vrindavan with the Lord’s beloved, and returned from there as a supreme Vaishnava, who by the Lord’s permission had merged in the realm of Nar-Narayan May I have more and more affection at the feet of that supreme Bhagwat Uddhav ji.
I bow down to Vibhishan, the dear friend of Shri Ramchandra, who surrendered to his unjust brother and took refuge in Lord Ramchandra and finally became the ruler of Lanka. Whose charioteer was in the war of Mahabharata by God himself, who came to heaven from this body, who fought with Shankar and got Pashupatastra from him, who won victory in Mahabharata consisting of eighteen Akshauhini with Gandiva bow alone.
Those who were preached by the Lord Himself in the Gita after being defeated by the war, who were always together in the Lord’s vihar, bed, posture and food, whom the Lord addressed with great love ‘O Partha! Hey friend! Hail Dhananjay!’ He used to address with such beautiful addresses, may Naravatar Shri Arjun ji shower his blessings on me. Eradicating the atheism of the Buddhists who preached the impersonal Brahman. Who told the world’s illusions to be false and told Brahma only as an end. I bow down at the feet of that Acharyapravar Lord Shankaracharya, who, while proving non-discrimination, called himself the servant of the Lord like the waves of the ocean. Who made the path of devotion accessible to the general public, who himself got ready to bear the tortures of hell for the welfare of the living beings.
My salutations at the feet of Vishnu-devotee Lord Ramanujacharya, the preacher of Vishishtadvaita, who preached the secret mantra to the general public even when the Guru refused. Who saved the lost Vishnu community and established Pushtimarg, who remained great detached and free from attachment even while living in a householder, who revealed himself to be of the Gopavansh by showing the sweetness of Vatsalyopasana, who gave importance to the worship of the child Shri Krishna. While giving the supreme self-surrender as the ultimate goal, may my love be at the feet of Lord Vallabhacharya, the propagator of Shuddhadvaita.
I bow down at the feet of Lord Nimbarkacharya, the originator of dualism, the worshiper of sweet sentiments, who proved the worship of Sri Radha Krishna to be everything, who fed the hungry Vaishnava by showing the extract (sun) in the neem tree.
I bow again and again in the lotus feet of Lord Madhavacharya Anandtirtha, the originator of dualism, who has considered the love of Vrindavan Vihari as the only end, who himself went to the Himalayas with great effort and got knowledge from Ved Vyas ji and composed commentary on Vedanta Sutras. The one who preached bhakti to the general public irrespective of untouchability and caste, by whose grace Chamars, barbers, Chheepis, Muslims all became world-worshippers, who propagated the service-worship of Sita Ram in the Vaishnava society, those I offer my obeisances at the feet of Acharyapravar Shri Ramanand Swami. Apart from these, I bow down at the feet of all the teachers who have been the founders of other sects like Jesus, Moses, Muhammad etc. Even if the dust particles of the whole earth can be counted, even if the stars in the sky can be counted, it is quite possible that the hairs of all living beings can be counted, but the devotees cannot be counted in any way.
There have been innumerable devotees since the beginning of creation till now. If writers like Ganesh ji continue to write only their names day and night, they will not be able to write even till the end of the catastrophe. Then what is the point of a minor like me? From the devotees of Shivji, Naradji, Brahmaji, Pandavas, Sanatkumar to Satyayuga, Treta, Dwapara and Kaliyuga, all the devotees who have been there in these four ages, in 18 Manvantaras, in innumerable Kalpas, I bow down at their feet, I offer my obeisances at the feet of those devotees who have seen God in the form of Kapil in Satyayuga. I worship the feet of the devotees of Rama who have seen the Lord in the form of Rama in Treta. I bow down at the feet of those devotees who have seen God in the form of Vyasarup.
I offer my obeisances at the lotus feet of all those devotees who have seen God in the form of Kalki in Kaliyuga and who will do so at the end of this age. Those who killed Varaha, Matsya, Yajna, Nar-Narayan, Kapil, Kumar, Dattatreya, Hayagriva, Hans, Prishnigarbha, Rishabhdev, Prithu, Nrisimha, Kurma, Dhanvantari, Mohini, Vamana, Parshuram, Ramchandra, Vedavyas, Bhakta-Vandana Baldev, Krishna, Buddha and Kalki – I have seen, touched and had company with the incarnations of these Gods, I bow down at the feet of the devotees of those incarnations. Kabirdas, Nanakdev, Dadudayal, Paltudas, Charandas, Raidas, Bulla, Jagjivandas, Tulsidas, Surdas, Malukdas, Ramdas, Nivruttinath, Gyandev, Sopandev, Eknath, Tukaram etc. all the great men who were born in Kalikal have become Bhagwat-devotees at their feet. I salute you The one who decides who is small and who is big among the devotees is a great fool.
Shalagram’s daughters, whether small or big, are equally worshipable, therefore all these devotees are worshipable and valid in the same way, only by bowing down at their feet, man can become a traveler on the path of welfare. In addition to these, in the present time, I bow down at the feet of all the devotees who chant the names of God, propagate them by writing or who themselves get others to do it. One who listens to the qualities of the Lord, who chants the name of the Lord, who always remembers the form of the Lord, who worships the Lord’s feet, who worships the Deities, who Salutations to the Guru, Bhagavat-Bhaktas and Bhagavat-Idols, who are friendly towards the Lord, who have surrendered to the Lord, I bow down to the feet of all those devotees.
Those who belong to the sects or those who are not in the sects, who are knowledgeable, who are patriots, who are facing various kinds of tortures while serving the people, who have dedicated their life in the service of the country, who I bow again and again at the feet of all those devotees who are serving the public in any way. I worship again and again at the feet of all the devotees who are present, who have been or who will be in the future. Devotees are the real form of God, the power of God develops completely in the body of the devotee. The body of the devotees is eternal even though it is earthly. He is the real form of God. By worshiping the feet of the devotees, all kinds of obstacles are removed.
Devotional devotee Lord Guru, four-named body one.
Worshiped his feet, met many obstacles.
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[From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]