।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
सर्वप्रथम संकीर्तन और अध्यापकी का अन्त
तत्कर्म हरितोषं यत्सा विद्या तन्मतिर्यया।
तद्वर्णं तत्कुलं श्रेष्ठं तदाश्रमं शुभं भवेत्।।
जिन नयनों में प्रियतम की छबि समा गयी, जिस हृदय-मन्दिर में श्रीकृष्ण की परमोज्ज्वल परम प्रकाशयुक्त मूर्ति स्थापित हो गयी, फिर भला उसमें दूसरे के लिये स्थान कहाँ? जिनका मन-मधुप श्रीकृष्ण-कथारूपी मकरन्द का पान कर चुका है, जिनके चित्त को चितचोर ने अपनी चंचल चितवन से अपनी ओर आकर्षित कर लिया है, वे फिर अन्य वस्तु की ओर आँख उठाकर भी नहीं देख सकते। उनकी जिह्वा सदा नारायणख्यपीयूष का ही निरन्तर पान करती रहेगी, उसके द्वारा संसारी बातें कही ही नहीं जा सकेंगी। उन्हीं कर्मों को वह कर्म समझेगा जिनके द्वारा श्रीकृष्ण के कमनीय कीर्तन में प्रगाढ़ रति की प्राप्ति हो सके। उसकी विद्या, बुद्धि, वैभव और सम्पदा तथा मेधा सभी एकमात्र श्रीकृष्ण-कथा ही है।
महाप्रभु का चित्त अब इस लोक में नहीं रहा, वह तो कृष्णमय हो चुका। प्राण कृष्णरूप बन चुके, मन का उनके मनोहर गुणों के साथ तादात्म्य हो चुका, चित्त उस माखनचोर की चंचलता में समा गया। वाणी उसके गुणों की गुलाम बन गयी, अब वे करें भी तो क्या करें? संसारी कार्य करने के लिये मन, बुद्धि, चित्त, इन्द्रियाँ आदि कोई भी उनका साथ नहीं देतीं, वे दूसरे के वश में हो चुकीं। महाप्रभु की सभी चेष्टाएँ श्रीकृष्णमय ही होने लगीं।
आचार्य गंगादास जी की मधुर ओर वात्सल्यपूर्ण भर्त्सना के कारण वह खूब सावधान होकर घर से पढ़ाने के लिये चले। विद्यार्थियों ने अपने गुरुदेव को आते देखकर उनके चरणकमलों में साष्टांक प्रणाम किया और सभी सुख से बैठ गये। विद्यार्थियों का पाठ आरम्भ हुआ। किसी विद्यार्थी ने पूछा- ‘अमुक धातु का किस अर्थ में प्रयोग होता है और अमुक लकार में उसका कैसा रूप बनेगा?’
इस प्रश्न को सुनते ही आप भावावेश में आकर कहने लगे- ‘सभी धातुओं का एक श्रीकृष्ण के ही नाम में समावेश हो सकता है, शरीर में जो सप्तधातु हैं ओर भी संसार में जितनी धातु सुनी तथा कही जा सकती हैं सभी के आदिकारण श्रीकृष्ण ही हैं। उनके अतिरिक्त कोई अन्य धातु हो ही न हीं सकती। सभी स्थितियों में उनके समान ही रूप बनेंगे। भगवान का रूप नील-श्याम है, उनके श्रीविग्रह की कान्ति नवीन जलधर की भाँति एकदम स्वच्छ और हल के नीले रंग की-सी है। उसे वैडूर्य या घन की उपमा तो ‘शाखाचन्द्रन्याय’ से दी जाती है, असल में तो वह अनुपमेय है, किसी भी संसारी वस्तु के साथ उसकी उपमा नहीं दी जा सकती।’
प्रभु के ऐसे उत्तर को सुनकर विद्यार्थी कहने लगे- ‘आप तो फिर वैसी ही बातें कहने लगे। धातु का यथार्थ अर्थ बताइये। पुस्तक में जो लिखा है उसी के अनुसार कथन कीजिये!’
प्रभु ने अधीरता के साथ कहा- ‘धातु का यथार्थ अर्थ तो यही है, जो मैं कर रहा हूँ, इसके अतिरिक्त मैं और कुछ कह ही नहीं सकता। मुझे तो इसका वही अर्थ मालूम पड़ता है। आगे आप लोग जैसा समझें।’
इस पर विद्यार्थियों ने कुछ प्रेम के साथ अपनी विवशता प्रकट करते हुए कहा- ‘आप तो हमें ऐसी विचित्र-विचित्र बातें बताते हैं, हम अब याद क्या करें? हमारा काम कैसे चलेगा, इस प्रकार हमारी विद्या कब समाप्त होगी और इस तरह से हम किस प्रकार विद्या प्राप्त कर सकते हैं?’
आप प्रेम के आवेश में आकर कहने लगे- ‘सदा याद करते रहने की तो एक ही वस्तु है। सदा, सर्वदा, सर्वत्र श्रीकृष्ण के सुन्दर नामों के ही स्मरणमात्र से प्राणिमात्र का कल्याण हो सकता है। सदा उसी का स्मरण करते रहना चाहिये। अहा, जिन्होंने पूतना- जैसी बालघ्नी को, जो अपने स्तनों में जहर पलेटकर बालकों के प्राण हर लेती थी, उस क्रूर कर्म करने वाली राक्षसी को भी सद्गति दी, उन श्रीकृष्ण की लीलाओं का चिन्तन करना ही मनुष्यों के लिये परम कल्याण का साधन हो सकता है। जो दुष्टबुद्धि से भी श्रीकृष्ण का स्मरण करते थे, जो उन्हें शत्रुरूप से विद्वेष के कारण मारने की इच्छा से उनके पास आये थे, वे अघासुर, बकासुर, शकटासुर आदि पापी भी उनके जगत-पालन दर्शनों के कारण इस संसार-सागर से बात-की-बात में पार हो गये, जिससे योगी लोग करोड़ों वर्ष तक समाधि लगाकर भाँति-भाँति के साधन करते रहने पर भी नहीं तर सकते, उन श्रीकृष्ण के चारू चरित्रों के अतिरिक्त चिन्तनीय चीज और हो ही क्या सकती है?’
’श्रीकृष्ण-कीर्तन से ही उद्धार होगा, श्रीकृष्ण-कीर्तन ही सर्वसिद्धिप्रद है, उसके द्वारा प्राणिमात्र का कल्याण हो सकता है। श्रीकृष्ण-कीर्तन ही शाश्वत शान्ति का एकमात्र उपाय है, उसी के द्वारा मनुष्य सभी प्रकार के दुःखों से परित्राण पा सकता है। तुम लोगों को उसी श्रीकृष्ण की शरण में जाना चाहिये।’
इनकी ऐसी व्याख्या सुनकर सभी विद्यार्थी श्रीकृष्णप्रेम में विभोर होकर रुदन करने लगे। वे सभी प्रकार के संसारी विषयों को भूल गये और श्रीकृष्ण को ही अपना आश्रय-स्थान समझकर उन्हीं की स्मृति में अश्रु-विमोचन करने लगे।
उनमें से कुछ उतावले और पुस्तकी विद्या को ही परम साध्य समझने वाले छात्र कहने लगे- ‘हमें तो पुस्तक के अनुसार उसकी व्याख्या बताइये! उसे ही पढ़ने के लिये हम यहाँ आये हैं।’
प्रभु अब कुछ-कुछ स्वस्थ हुए थे। उन्हें अब थोड़ा-थोड़ा बाह्य-ज्ञान होने लगा। इसलिये विद्यार्थियों के ऐसा कहने पर आपने रोते-रोते उत्तर दिया- ‘भैया! हम क्या करें, हमारी प्रकृति स्वस्थ नहीं है। मालूम पड़ता है, हमें फिर से वही पुराना वायु-रोग हो गया है। हम क्या कह जाते हैं, इसका हमें स्वयं पता नहीं। अब हमसे इन ग्रन्थों का अध्यापन न हो सकेगा। आप लोग जाकर किसी दूसरे अध्यापक से पढ़ें! अब हम अपने वश में नहीं हैं।’
प्रभु के ऐसा कहने पर सभी विद्यार्थी फूट-फूटकर रोने लगे और विलाप करते हुए करूणकण्ठ से प्रार्थना करने लगे- ‘गुरुदेव! अब हम कहाँ जायँ? हम निराश्रयों के आप ही एकमात्र आश्रय हैं। हमें आपके समान वात्सल्य प्रेम दूसरे किस अध्यापक में मिल सकेगा? इतने प्रेम के साथ हमें अन्य अध्यापक पढ़ा ही नहीं सकता।
आपके समान सर्व संशयों का छेत्ता और सरलता के साथ सुन्दर शिक्षा देने वाला अध्यापक ढूँढ़ने पर भी हमें त्रिलोकी में नहीं मिल सकता। आप हमारा परित्याग न कीजिये। हम आपके रोग की यथाशक्ति चिकित्सा करावेंगे। स्वयं दिन-रात्रि सेवा-शुश्रूषा करते रहेंगे।’
उनकी आर्तवाणी सुनकर प्रभु की आँखों में से अश्रुओं की धारा बहने लगी। रोते-रोते उन्होंने कहा- भैया! तुम लोग हमारे बाह्य प्राणों के समान हो। तुमसे सम्बन्ध-विच्छेद करते हुए हमें स्वयं अपार दुःख हो रहा है, किन्तु हम करें क्या, हम तो विवश हैं। हमारी पढ़ाने की शक्ति ही नहीं। नहीं तो तुम्हारे-जैसे परम बन्धुओं के सहवास का सुख स्वेच्छापूर्वक कौन सत्पुरुष छोड़ सकता है?’
विद्यार्थियों ने दीनभाव से कहा- ‘आज न सही, स्वस्थ होने पर आप हमें पढ़ावें। हमारा परित्याग न कीजिये, यही हमारी श्रीचरणों में विनम्र प्रार्थना है। आप ही हमारी इस जीवन नौका के एकमात्र आश्रय हैं, हमें मझधार में ही बिलखता हुआ छोड़कर अन्तर्धान न हूजिये!’
प्रभु ने गद्गद कण्ठ से कहा- ‘भैया! मेरा यह रोग असाध्य है। अब इससे छुटकारा पाने की आशा नहीं। किसी दूसरे के सामने तो बताने की बात नहीं है, किन्तु तुम तो अपनी आत्मा ही हो, तुमसे छिपाने योग्य तो कोई बात हो ही नहीं सकती। असल बात यह है कि अब हम पढ़ाने का या किसी अन्य काम के करने का यत्न करते हैं तो एक श्यामवर्ण का सुन्दर शिशु हमारी आँखों के सामने आकर बड़े ही सुन्दर स्वर में मुरली बजाने लगता है। उस मुरली की विश्वविमोहिनी तान को सुनकर हमारा चित्त व्याकुल हो जाता है और हमारी सब सुध-बुध भूल जाती है।
हम पागल की भाँति मन्त्रमुग्ध-से हो जाते हैं। फिर हम कोई दूसरा काम कर ही नहीं सकते।’ इतना कहकर प्रभु फिर जोरों के साथ फूट-फूटकर रोने लगे। उनके रुदन के साथ ही सैकड़ों विद्यार्थियों की आँखों से अश्रुओं की धाराएँ बहने लगीं। सभी ढाड़ बाँधकर उच्च स्वर से रुदन करने लगे। संजय महाशय का चण्डीमण्डप विद्यार्थियों के रुदन के कारण गूँजने लगा। इस करुणापूर्ण क्रन्दन-ध्वनि को सुनकर सहस्रों नर-नारी दूर-दूर से वहाँ आकर एकत्रित हो गये।
प्रभु अब कुछ-कुछ प्रकृतिस्थ हुए। अश्रु-विमोचन करते हुए उन्होंने कहा- ‘मेरे प्राणों से भी प्यारे छात्रो! अपनी-अपनी पुस्तकों को बाँध लो, आज से अब हम तुम्हारे अध्यापक नहीं रहे और न अब तुम ही हमारे छात्र हो, अब तो तुम श्रीकृष्ण के सखा हो। अब सभी मिलकर हमें ऐसा आशीर्वाद दो जिससे हमें श्रीकृष्ण-प्रेम प्राप्त हो सके। तुम सभी हमें हृदय से स्नेह करते हो, तुमसे हम यही दीनता के साथ भीख माँगते हैं। तुम सदा हमारे कल्याण के कामों में तत्पर रहे हो।’
प्रभु के मुख से ऐसे दीनतापूर्ण शब्द सुनकर सभी विद्यार्थी बेहोश-से हो गये। कोई तो पछाड़ खाकर पृथ्वी पर गिरने लगे और कोई अपने सिर को पृथ्वी पर रगड़ने लगे।
प्रभु ने फिर कहा- ‘मैं अन्तिम बार फिर तुम लोगों से कहता हूँ। तुम लोग पढ़ना न छोड़ना, कहीं जाकर अपने पाठ को जारी रखना।’ रोते हुए विद्यार्थियों ने कहा- ‘अब हमें न तो कहीं आप-जैसा अध्यापक मिलेगा और न कहीं अन्यत्र पढ़ने ही जायँगे। अब तो ऐसा ही आशीर्वाद दीजिये कि आपके श्रीमुख से जो भी कुछ पढ़ा है, वही स्थायी बना रहे और हमें किसी दूसरे के समीप जाने की जिज्ञासा ही उत्पन्न न हो। अब तो हमें अपने चरणों की शरण ही प्रदान कीजिये! आपके चरणों की सदा स्मृति बनी रहे यही अन्तिम वरदान प्रदान कीजिये!’
यह कहकर सभी विद्यार्थियों ने प्रभु को एक साथ ही साष्टांग प्रणाम किया और प्रभु ने भी सबको पृथक-पृथक गले से लगाया। वे सभी बड़भागी विद्यार्थी प्रभु के प्रेमपूर्ण आलिंगन से कृतकृत्य हो गये और जारों से ‘हरि बोल’ ‘हरि बोल’ कहकर हरिनाम की तुमुल-ध्वनि करने लगे।
प्रभु ने उन विद्यार्थियों से कहा- ‘भैया, हम लोग, इतने दिनों तक साथ-साथ रहे हैं। हमारा तुम लोगों से बहुत ही अधिक घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है, तुम ही हमारे परम आत्मीय तथा सुहृद हो। एक बार तुम सभी एक स्वर से श्रीकृष्णरूपी शीतल सलिल से हमारे हृदय की जलती हुई विरह-ज्वाला को शान्त कर दो। तुम सभी श्रीकृष्ण-रसायन पिलाकर हमें नीरोग बना दो।
एक बार तुम सभी लोग मिलकर श्रीकृष्ण के मंगलमय नामों का उच्च स्वर से संकीर्तन करो!’ विद्यार्थियों ने अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए कहा- ‘गुरुदेव! हम संकीर्तन को क्या जानें? हमें तो पता भी नहीं संकीर्तन कैसे किया जाता है? हाँ, यदि आप ही कृपा करके हमें संकीर्तन की प्रणाली सिखा दें तो हम जिस प्रकार आज्ञा हो उसी प्रकार सब कुछ करने के लिये उद्यत हैं।’ प्रभु ने सरलता के साथ कहा- ‘कृष्ण-कीर्तन में कुछ कठिनता थोड़े ही है, बड़ा ही सरल मार्ग है। तुम लोग बड़ी ही आसानी के साथ उसे कर सकते हो।’ यह कहकर प्रभु ने स्वयं स्वर के सहित नीचे का पद उच्चारण करके बता दिया-
हरे हरये नमः कृष्ण यादवाय नमः।
गोपाल गोविन्द राम श्रीमधुसूदन।।
प्रभु ने स्वयं हाथ से ताली बजाकर इस नाम-संकीर्तन को आरम्भ किया। प्रभु की बतायी हुई विधि के अनुसार सभी विद्यार्थी एक स्वर से इस नाम-संकीर्तन को करने लगे। हाथ की तालियों के बजने से तथा संकीर्तन के सुमधुर स्वर से सम्पूर्ण चण्डीमण्डप गूँजने लगा। लोगों को महान आश्चर्य हुआ। नवद्वीप में यह एक नवीन ही वस्तु थी। इससे पूर्व ढोल, मृदंग, करताल आदि वाद्यों पर पद-संकीर्तन तो हुआ करता था, किन्तु सामूहिक नाम-संकीर्तन तो यह सर्वप्रथम ही था। इसकी नींव निमाई पण्डित की पाठशाला ही में पहले-पहल पड़ी। सबसे पहले इन्हीं नामों के पद से नाम-संकीर्तन प्रारम्भ हुआ। प्रभु भावावेश में जोर से संकीर्तन कर रहे थे, विद्यार्थी एक स्वर से उनका साथ दे रहे थे। कीर्तन की सुमधुर ध्वनि से दिशा-विदिशाएँ गूँजने लगीं। चण्डीमण्डप में मानो आनन्द का सागर उमड़ पड़ा। दूर-दूर से मनुष्य उस आनन्द-सागर में गोता लगाकर अपने को कृतार्थ बनाने के लिये दौड़े आ रहे थे। सभी आनन्द की बाढ़ में अपने-आपे को भूलकर बहने लगे और सभी दर्शनार्थियों के मुँह से स्वयं ही निकलने लगा-
हरे हरये नमः कृष्ण यादवाय नमः।
गोपाल गोविन्द राम श्रीमधुसूदन।।
इस प्रकार चारों ओर से इन्हीं भगवन्नामों की ध्वनि होने लगी। पक्के-पक्के मकानों में से जोर की प्रतिध्वनि सुनायी पड़ने लगी-
हरे हरये नमः कृष्ण यादवाय नमः।
गोपाल गोविन्द राम श्रीमधुसूदन।।
मानो स्थावर-जंगम, चर-अचर सभी मिलकर इस कलिपावन नाम का प्रेम के साथ संकीर्तन कर रहे हों। इस प्रकार थोड़ी देर के अनन्तर प्रभु का भावावेश कुछ कम हुआ। धीरे-धीरे उन्होंने ताली बजानी बंद कर दी और संकीर्तन समाप्त कर दिया। प्रभु के चुप हो जाने पर सभी विद्यार्थी तथा दर्शनार्थी चुप हो गये, उनके नेत्रों से प्रेमाश्रु अब भी निकल रहे थे।
प्रभु ने उठकर एक बार फिर सब विद्यार्थियों को गले से लगाया। सभी विद्यार्थी फूट-फूटकर रो रहे थे। कोई कह रहा था- ‘हमारे प्राणों के सर्वस्व हमें इसी प्रकार मझधार में न छोड़ दीजियेगा!’ कोई हिचकियाँ लेते हुए गद्गदकण्ठ से कहता- ‘पढ़ना-लिखना तो जो होना था, सो हो लिया, आपके हृदय के किसी कोने में हमारी स्मृति बनी रहे, यही हमारी प्रार्थना है।’ प्रभु उन्हें बार-बार आश्वासन देते। उनके शरीरों पर हाथ फेरते, किन्तु उन्हें धैर्य होता ही नहीं था, प्रभु के स्पर्श से उनकी अधीरता अधिकाधिक बढ़ती जाती थी, वे बार-बार प्रभु के चरणों में लोटकर प्रार्थना कर रहे थे। दर्शनार्थी इस करूण दृश्य को और अधिक देर तक देखने में समर्थ न हो सके, वे कपड़ों से अपने-अपने मुखों को ढककर फूट-फूटकर रोने लगे। प्रभु भी इस करुणा की उमड़ती हुई तरंग में बहुत प्रयत्न करने पर भी अपने को न सँभाल सके। वे भी रोते-राते वहाँ से गंगा जी की ओर चल दिये। विद्यार्थी उनके पीछे-पीछे जा रहे थे। प्रभु ने सभी को समझा-बुझाकर विदा किया। प्रभु के बहुत समझाने पर विद्यार्थी दुःखित भाव से अपने-अपने स्थानों को चले गये और प्रभु गंगा जी से निवृत्त होकर अपने घर को चले आये।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]