[47]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
निमाई के भाई निताई

पुण्यतीर्थे कृतं येन तपः क्वाप्यतिदुष्करम्।
तस्य पुत्रो भवेद्वश्यः समृद्धो धार्मिकः सुधीः।।

विधि का विधान भी बड़ा ही विचित्र है, कभी-कभी एक ही माता के उर से उत्पन्न हुए दो भाई परस्पर में शत्रुभाव से बर्ताव करते हुए देखे गये हैं। वालि-सुग्रीव, रावण-विभीषण, कर्ण-अर्जुन आदि सहोदर भाई ही थे, किंतु ये परस्पर में एक-दूसरे की मृत्यु का कारण बने हैं। इसके विपरीत विभिन्न माता-पिताओं से उत्पन्न होकर उनमें इतना अधिक प्रेम देखने में आता है कि इतना किसी विरले सहोदर भाई में भी सम्भवतया न हो। इन सब बातों से यही अनुमान किया जाता है कि प्रत्येक प्राणी पूर्वजन्म के संस्कारों से आबद्ध हैं। जिसका जिसके साथ जितने जन्मों का सम्बन्ध हो, उसे उसके साथ उतने ही जन्मों तक उस सम्बन्ध को निभाना होगा। फिर चाहे उन दोनों का जन्म एक ही परिवार अथवा देश में हो या विभिन्न जाति-कुल अथवा ग्राम में हो। सम्बन्ध तो पूर्व की ही भाँति चला आवेगा। महाप्रभु गौरांगदेव का जन्म गौड़देश के सुप्रसिद्ध नदिया नामक नगर में हुआ। इनके पिता सिलहट-निवासी मिश्र ब्राह्मण थे, माता नवद्वीप के सुप्रसिद्ध पण्डित नीलाम्बर चक्रवर्ती की पुत्री थी। ये स्वयं दो भाई थे। बड़े भाई विश्वरूप इन्हें पाँच वर्ष का ही छोड़कर सदा के लिये चले गये। अपने माता-पिता के यही एकमात्र पुत्र थे, इसलिये चाहे इन्हें सबसे छोटा कह लो या सबसे बड़ा। इनकी माता के दूसरी कोई जीवित संतान ही विद्यमान नहीं थी।

श्रीनित्यानन्द का जन्म राढ़ देश में हुआ। इनके माता-पिता राढ़ी श्रेणी के ब्राह्मण थे, वे अपने सभी भाइयों में बड़े थे। किंतु इनके छोटे भाइयों का कोई नाम भी नहीं जानता कि वे कौन थे और कितने थे? ये गौरांग के बड़े भाई नाम से प्रसिद्ध हुए और गौरभक्तों में संकीर्तन के समय गौर से पहले निताई का ही नाम आता है।

भजो निताई गौर राधे श्याम। जपो हरे कृष्ण हरे राम।।

इस प्रकार इन दोनों का पांचभौतिक शरीर एक स्थानीय रज-वीर्य का न होते हुए भी इनकी आत्मा एक ही तत्त्व की बनी हुई थी। इनका शरीर पृथक-पृथक देशीय होने पर भी इनका अन्तःकरण एक ही था, इसीलिये तो ‘निमाई और निताई’ दोनों भिन्न-भिन्न होते हुए भी अभिन्न समझे जाते हैं।

प्रभु नित्यानन्द जी का जन्म वीरभूमि जिले के अन्तर्गत ‘एकचाका’ नामक एक छोटे-से ग्राम में हुआ था, इनके ग्राम से थोड़ी दूरी पर मोड़ेश्वर (मयूरेश्वर) नाम का एक बहुत ही प्रसिद्ध शिवलिंग था। आजकल वहाँ मयूरेश्वर नाम का एक ग्राम भी बसा है, जो वीरभूमि का एक थाना है। प्रभु के पिता का नाम हाड़ाई ओझा और माता का नाम पद्मावती देवी था। ओझा-दम्पति विष्णुभक्त थे। बिना परमभावगत और सद्वैष्णव हुए उनके घर में नित्यानन्द-जैसे महापुरुष का जन्म हो ही कैसे सकता था? उस समय साम्प्रदायिक संकुचितता का इतना अधिक प्राबल्य नहीं था। प्रायः सभी सम्प्रदायों के मानने वाले वैष्णव, स्मार्त्तमतानुसार ही अपने को वैष्णव मानते थे। उपास्यदेव तो उनके विष्णु ही होते थे, विष्णुपूजन को ही प्रधानता देते हुए वे अन्य देवताओं की भी समय-समय पर भक्तिभाव से पूजा किया करते थे। अपने को श्रीवैष्णव-सम्प्रदाय के अनुयायी कहने वाले कुछ पुरुष जो आज शिव पूजन की तो बात ही क्या त्रिपुण्ड्र, बिल्वपत्र और रुद्राक्ष आदि के दर्शनों से भी घृणा करते हैं, पूर्वकाल में उनके भी सम्प्रदाय में कोई शिवोपासक आचार्यों का वृत्तान्त मिलता है। अस्तु, हाड़ाई पण्डित वैष्णव होते हुए भी नित्यप्रति मोड़ेश्वर में जाकर बड़े भक्ति-भाव से शिव जी की पूजा किया करते थे। शिवलिंग की तो सभी देवताओं की भावना से पूजा की जा सकती है।

हाड़ाई पण्डित के वंश में सदा से पुरोहित-वृत्ति होती चली आयी थी। इसलिये ये भी थोड़ी-बहुत पुरोहिती कर लेते थे। घर में खाने-पहनने की कमी नहीं थी, किंतु इनका घर संतान के बिना सूना था, इसलिये ओझा-दम्पति को यही एक भारी दुःख था। एक दिन पद्मावती देवी को स्वप्न में प्रतीत हुआ कि कोई महापुरुष कह रहे हैं- ‘देवि! तुम्हारे गर्भ से एक ऐसे महापुरुष का जन्म होगा, जिनके द्वारा सम्पूर्ण देश में श्रीकृष्ण संकीर्तन का प्रचार होगा और वे जगन्मान्य महापुरुष समझे जायँगे।’ प्रायः देखा गया है कि सात्त्विक प्रकृति वाले पुरुषों को शुद्ध भाव से शयन करने पर रात्रि के अन्त में जो स्वप्न दीखते हैं, वे सच्चे ही होते हैं। भाग्यवती पद्मावतीदेवी का भी स्वप्न सच्चा हुआ। यथासमय उनके गर्भ रहा और शाके 1395 में माघ के शुक्लपक्ष में पद्मावती देवी के गर्भ से एक पुत्र-रत्न उत्पन्न हुआ। पुत्र का नाम रखा गया। नित्यानन्द। आगे चलकर ये ही नित्यानन्द प्रभु अथवा ‘निताई’ के नाम से गौर-भक्तों में बलराम के समान पूजे गये और प्रसिद्ध हुए।

बालक नित्यानन्द देखने में बड़े ही सुन्दर थे। इनका शरीर इकहरा और लावण्यमय था। चेहरे से कान्ति प्रकट होती थी, गौर वर्ण था, आँखें बड़ी-बड़ी और स्वच्छ तथा सुहावनी थीं। इनकी बुद्धि बाल्यकाल से ही बड़ी तीक्ष्ण थी। पाँच वर्ष की अवस्था में इनका विद्यारम्भ-संस्कार कराया गया। विद्यारम्भ-संस्कार होते ही ये खूब मनोयोग के साथ अध्ययन करने लगे। थोड़े ही समय में इन्हें संस्कृत-साहित्य तथा व्याकरण का अच्छा ज्ञान हो गया। ये पाठशाला के समय में तो पढ़ने जाते, शेष समय में बालकों के साथ खूब खेल-कूद करते। इनके खेल अन्य साधारण प्राकृतिक बालकों की भाँति नहीं होते थे। ये बालकों को साथ लेकर छोटी ही उम्र से श्रीकृष्ण-लीलाओं का अभिनय किया करते। किसी बालक को श्रीकृष्ण बना देते, किसी को ग्वाल-बाल और आप स्वयं बलराम बन जाते। कभी गो-चारण-लीला करते, कभी पुलिन-भोजन का अभिनय करते और कभी मथुरा-गमन की लीला बालकों से कराते। इन्हें ये लीलाएँ किसने सिखा दीं और इन्होंने इनकी शिक्षा कहाँ पायी, इसका किसी को कुछ भी पता नहीं चलता। ये सभी शास्त्रीय लीला ही किया करते।

कभी-कभी आप रामायण की लीलाओं को बालकों से कराते। किसी को राम बना देते, किसी को भरत, शत्रुघ्न और आप स्वयं लक्ष्मण बन जाते। शेष बालकों को नौकर-चाकर तथा रीछ-वानर बनाकर भिन्न-भिन्न स्थानों की लीलाओं को करते। कभी तो वनगमन का अभिनय करते। कभी चित्रकूट का भाव दर्शाते और कभी सीता-हरण का अभिनय करते। एक दिन आप लक्ष्मण-मूर्छा की लीला कर रहे थे। आप स्वयं लक्ष्मण बनकर मेघनाद की शक्ति से बेहोश होकर पड़े थे। एक लड़के को हनुमान बनकर संजीवन लाने के लिये भेजा। वह लड़का छोटा ही था, इन्होंने जैसे बताया उसे भूल गया। ये बहुत देर तक बेहोश बने पड़े रहे। सचमुच लोगों ने देखा कि इनकी नाड़ी बहुत ही धीरे-धीरे चल रही है। बहुत जगाने पर भी ये नहीं उठते हैं। इसकी सूचना इनके पिता को जाकर बालकों ने दी। पिता यह सुनकर दौड़े आये और उन्होंने भी आकर इन्हें जगाया, किंतु तो भी नहीं जगे। तब तो पिता को बड़ा भारी दुःख हुआ। जो बालक इनके पास रामरूप से बैठा रुदन कर रहा था, उसे याद आयी और उसने हनुमान बनने वाले लड़के को बुलाया।

जब हनुमान जी संजीवन लेकर आये और इन्हें वह सुँघायी गयी तब इनकी मूर्छा भंग हुई। इस प्रकार ये बाल्यकाल से ही भाँति-भाँति की शास्त्रीय लीलाओं का अभिनय किया करते थे।

पढ़ने-लिखने में ये अपने सभी साथियों से सर्वश्रेष्ठ समझे जाते थे। इनकी बुद्धि अत्यन्त ही तीक्ष्ण थी, प्रायः देखा गया है, पिता का ज्येष्ठ पुत्र के प्रति अत्यधिक प्रेम होता है और माता को सबसे छोटी संतान सबसे प्रिय होती है। फिर ये तो रूप और गुणों में भी अद्वितीय ही थे, इसी कारण हाड़ाई ओझा इन्हें प्राणों से भी अधिक प्यार करते थे। वे जहाँ भी कहीं जाते, वहीं इन्हें साथ ले जाते। इनके बिना उन्हें कहीं जाना-आना या अकेले बैठकर खाना-पीना अच्छा ही नहीं लगता था। माता भी इनके मनोहर मुखकमल को देखकर सदा आनन्दसागर में डुबकियाँ लगाती रहती थी। इस प्रकार इनकी अवस्था बारह-तेरह वर्ष की हो गयी।

हाड़ाई पण्डित बड़े साधु-भक्त थे। प्रायः हमेशा ही कोई साधु-संत इनके घर पर बने रहते। ये भी यथाशक्ति जैसा घर में रूखा-सूखा अन्न होता, उसके द्वारा श्रद्धापूर्वक आगत-साधु-संतों का सत्कार किया करते थे। एक दिन एक संन्यासी आकर हाड़ाई पण्डित के यहाँ अतिथि हुए। पण्डित जी ने श्रद्धापूर्वक उनका आतिथ्य किया। पद्मावती देवी ने शुद्धता के साथ अपने हाथों से दाल, चावल, पकौड़ी और कई प्रकार के साग बनाये। पण्डित जी ने भक्ति-भाव से संन्यासी जी को भोजन कराया। इनके भक्तिभाव को देखकर संन्यासी महात्मा बड़े प्रसन्न हुए और दो-चार दिन पण्डित जी के यहाँ ठहर गये। पण्डित जी भी उनकी यथाशक्ति सेवा-शुश्रूषा करते रहे। संन्यासी देखने में बड़े ही रूपवान थे। उनके चेहरे से एक प्रकार की ज्योति हमेशा निकलती रहती थी। उनकी आकृति से गम्भीरता, सच्चरित्रता, पवित्रता, तेजस्विता और भगवद्भक्ति के भाव प्रकट होते थे।

हाड़ाई पण्डित की संन्यासी के प्रति बड़ी श्रद्धा हो गयी। इस अल्पवयस के संन्यासी के प्रभाव से हाड़ाई पण्डित अत्यधिक प्रभावान्वित हो गये। एक दिन एकान्त में संन्यासी जी ने हाड़ाई पण्डित जी से कहा- ‘पण्डित जी! हम आपसे एक भिक्षा माँगते हैं, दोगे?’

दीनता प्रकट करते हुए हाड़ाई पण्डित ने कहा- ‘प्रभो! इस दीन-हीन कंगाल के पास है ही क्या! इधर-उधर से जो कुछ मिल जाता है, उसी से निर्वाह होता है। आप देखते ही हैं, मेरे घर में ऐसी कौन-सी चीज है, जिसे मैं आपको भिक्षा मे दे सकूँ? जो कुछ उपस्थित है उसमें ऐसी कोई भी चीज नहीं है, जो आपके लिये अदेय हो सके। यदि आप शरीर माँगे, तो मैं शरीर तक देने को तैयार हूँ।’

संन्यासी जी ने कुछ गम्भीरता के साथ कहा- ‘पण्डित! तुम्हारे पास सब कुछ है, जो चीज मैं माँगना चाहता हूँ, वह यह पार्थिव धन नहीं है। वह तो बहुत ही मूल्यवान वस्तु है, उसे देने में तुम जरूर आनाकानी करोगे, क्योंकि वह तुम्हें अत्यन्त ही प्रिय है।’ हाड़ाई पण्डित ने कहा- ‘भगवन! मैं ऐसा सुनता आया हूँ कि प्राणिमात्र के लिये अपने प्राण ही सबसे अधिक प्रिय हैं, यदि आप मेरे प्राणों की भी भिक्षा माँगें, तो मैं उन्हें भी देने के लिये तैयार हूँ।’ संन्यासी जी ने कुछ देर ठहरकर कहा- ‘मैं तुम्हारे शरीर के भीतर के प्राणों को नहीं चाहता, किंतु बाहर के प्राणों की याचना करता हूँ। तुम अपने प्राणों से भी प्यारे ज्येष्ठ पुत्र को मुझे दे दो। मैं सभी तीर्थों की यात्रा करना चाहता हूँ। इसके लिये एक साथी की मुझे आवश्यकता है। तुम्हारा यह पुत्र योग्य और होनहार है, इसका भी कल्याण होगा और मेरा भी काम चल जायगा।’

संन्यासी जी की इस बात को सुनकर हाड़ाई पण्डित सुन्न पड़ गये। उन्हें स्वप्न में भी ध्यान नहीं था कि संन्यासी महाशय ऐसी विलक्षण वस्तु की याचना करेंगे। भला, जिस पुत्र को पिता प्राणों से भी अधिक प्यार करता हो, जिसके बिना उसका जीवन असम्भव-सा ही हो जाने वाला हो, उस पुत्र को यदि कोई सदा के लिये माँग बैठे तो उस पिता को कितना भारी दुःख होगा, इसका अनुमान तो कोई सहृदय स्नेही पिता ही कर सकता है। अन्य पुरुष की बुद्धि के बाहर की बात है। महाराज दशरथ से विश्वामित्र-जैसे क्रोधी और तेजस्वी ब्रह्मर्षि ने कुछ दिनों के ही लिये श्रीरामचन्द्र जी को माँगा था। धर्म में आस्था रखने वाले महाराज यह जानते भी थे कि महर्षि की इच्छा-पूर्ति न करने पर मेरे राज्य तथा परिवार की खैर नहीं है। उन अमित तेजस्वी ब्रह्मर्षि के तप और प्रभाव से भी वे पूर्णरीत्या परिचित थे, उन्हें इस बात का भी दृढ़ विश्वास था कि विश्वामित्र जी के साथ में रामचन्द्र जी का किसी प्रकार भी अनिष्ट नहीं हो सकता, फिर भी पुत्र-वात्सल्य के कारण विश्वामित्र जी की इच्छा-पूर्ति करने के लिये वे सहमत नहीं हुए और अत्यन्त दीनता के साथ ममता में सने हुए वाक्यों से कहने लगे-

देह प्रान तें प्रिय कछु नाहीं। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माहीं।।
सब सुत प्रिय मोहि प्रान कि नाईं। राम देत नहिं बनइ गोसाईं।।

जब गुरु वसिष्ठ ने उन्हें समझाया, तब कहीं जाकर उनका मोह भंग हुआ और वे महर्षि के इच्छानुसार श्रीरामचन्द्र जी को उनके साथ वन में भेजने को राजी हुए।

इधर हाड़ाई पण्डित को उनकी धर्मनिष्ठा ने समझाया। उन्होंने सोचा- ‘पुत्र को देने में भी दुःख सहना होगा और न देने में भी अकल्याण है। संन्यासी शाप देकर मेरा सर्वस्व नाश कर सकते हैं। इसलिये चाहे जो हो पुत्र को इन्हें दे ही देना चाहिये।’ यह सोचकर वे पद्मावती देवी के पास गये और उनसे जाकर सभी वृत्तान्त कहा। भला, जिसे नित्यानन्द-जैसे महापुरुष की माता होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वह अपने धर्म से विचलित कैसे हो सकती है? पुत्र-मोह के कारण वह कैसे अपने धर्म को छोड़ सकती है? सब कुछ सुनकर उसने दृढ़ता के साथ उत्तर दिया- ‘मैं तो आपके अधीन हूँ। जो आपकी इच्छा है, वही मेरी भी होगी, पुत्र-वियोग का दुःख असह्या होता है, किंतु पतिव्रताओं के लिये पति-आज्ञा-उल्लंघन का दुःख उसे भी अधिक असह्या होता है, इसलिये आपकी जैसी इच्छा हो करें। मैं सब प्रकार से सहमत हूँ, जिसमें धर्मलोप न हो वही कीजिये।’

पत्नी की अनुमति पाकर हाड़ाई पण्डित ने अपने प्राणों से भी प्यारे प्रिय पुत्र को रोते-रोते संन्यासी के हाथों में सौंप दिया। धर्मनिष्ठ नित्यानन्द जी ने भी इसमें कुछ भी आपत्ति नहीं की। वे प्रसन्नतापूर्वक संन्यासी के साथ हो लिये। उन्होंने पीछे फिरकर फिर अपने माता-पिता तथा कुटुम्बियों की ओर नहीं देखा।

संन्यासी जी के साथ नित्यानन्द जी ने भारतवर्ष के प्रायः सभी मुख्य-मुख्य तीर्थों की यात्रा की। वे गया, काशी, प्रयाग, मथुरा, द्वारका, बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्तरी, यमुनोत्तरी, रंगनाथ, सेतुबन्ध रामेश्वर, जगन्नाथपुरी आदि तीर्थों में गये। इसी तीर्थयात्रा-भ्रमण में इनका श्रीमन्माधवेन्द्रपुरी के साथ साक्षात्कार हुआ और उनके द्वारा श्रीकृष्ण-भक्ति प्राप्त करके ये प्रेम में विह्वल हो गये। उनसे विदा होकर ये व्रज में आये। इनके साथ के संन्यासी कहाँ रह गये, इसका कोई ठीक-ठीक पता नहीं चलता।

व्रज में आने पर इन्हें पता चला कि नवद्वीप में गौरचन्द्र उदय होकर अपनी सुशीतल किरणों से दोनों ही पक्षों में निरन्तर मोहज्वाला में झुलसते हुए संसारी प्राणियों को अपने श्रीकृष्ण-संकीर्तनरूपी अमृत से शीतलता प्रदान कर रहे हैं, इनका मन स्वतः ही श्रीगौरचन्द्र के आलोक में पहुँचने के लिये हिलोरें मारने लगा। अब ये अधिक समय तक व्रज में नहीं रह सके और प्रयाग, काशी होते हुए सीधे नवद्वीप में पहुँच गये।

नवद्वीप जाकर अवधूत नित्यानंद सीधे महाप्रभु के समीप नहीं गये। वे पण्डित नन्दनाचार्य के घर जाकर ठहर गये। इधर प्रभु ने तो अपनी दिव्यदृष्टि द्वारा पहले ही देख लिया था कि नित्यानन्द नवद्वीप आ रहे है, इसीलिए उन्होंने खोज करने के लिए भक्तों को भेजा।

क्रमशः अगला पोस्ट [48]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram nimai’s brother nitai

He performed austerities in a holy holy place which is very difficult anywhere His son will be submissive prosperous righteous and intelligent

The rule of law is also very strange, sometimes two brothers born from the womb of the same mother have been seen behaving with each other with enmity. Vali-Sugriva, Ravana-Vibhishan, Karna-Arjun etc. were brothers, but they have become the cause of each other’s death. On the contrary, being born from different parents, so much love is seen in them that it is not possible even in a rare sibling. It is inferred from all these things that every living being is bound by the rituals of the previous birth. The one with whom he has a relationship for as many births, he will have to maintain that relationship with him for that many lives. Even if both of them are born in the same family or country or in different caste-clan or village. The relationship will go on like before. Mahaprabhu Gaurangdev was born in the famous Nadiya city of Gaudesh. His father was a Mishra Brahmin resident of Sylhet, mother was the daughter of the famous Pandit Nilambar Chakravarti of Navadweep. These were the two brothers themselves. Elder brother Vishwaroop left him at the age of five and went away forever. He was the only son of his parents, so whether you call him the youngest or the eldest. There were no other living children of his mother.

Srinityananda was born in Raad Desh. His parents were Brahmins of Radhi category, he was elder among all his brothers. But no one even knows the names of his younger brothers, who they were and how many there were. He became famous by the name of Gaurang’s elder brother and at the time of Sankirtan among Gaur devotees, the name of Nitai comes before Gaur.

Bhajo Nitai Gaur Radhe Shyam. Chant Hare Krishna Hare Ram.

In this way, even though the five physical bodies of these two were not of a local Raj-Semen, their soul was made of the same element. Even though their bodies were of different countries, their conscience was the same, that is why both ‘Nimai and Nitai’ are considered to be integral even though they are different.

Prabhu Nityanand ji was born in a small village called ‘Ekchaka’ under Virbhoomi district, a little distance from his village there was a very famous Shivling named Modeshwar (Mayureshwar). Nowadays there is also a village named Mayureshwar, which is a police station of Virbhoomi. Prabhu’s father’s name was Hadai Ojha and mother’s name was Padmavati Devi. Ojha-couple were devotees of Vishnu. How could a great man like Nityananda be born in his house without being a supreme being and a Sadvaishnava? At that time there was not so much dominance of communal narrowness. Vaishnavs who believed in almost all sects used to consider themselves as Vaishnavs according to their smartness. His worshiped deity was Vishnu only, giving priority to Vishnu worship, he used to worship other deities also from time to time with devotion. Some men who call themselves followers of the Srivaishnava-sampradaya, today, what to talk about Shiva-worship, hate even the darshan of Tripundra, Bilvapatra and Rudraksh etc., in their sampradaya in the past, there is an account of some Shiva-worshipping Acharyas. Astu, despite being a Vaishnava, Hadai Pandit used to go to Modeshwar daily and worship Lord Shiva with great devotion. Shivling can be worshiped with the spirit of all the deities.

In the family of Hadai Pandit, there had always been a priestly attitude. That’s why they also used to do some priesthood. There was no shortage of food and clothing in the house, but their house was deserted without children, so this was a great sorrow for the Ojha couple. One day Padmavati Devi had a dream that some great man was saying – ‘ Devi! Such a great man will be born from your womb, through whom Shri Krishna Sankirtan will be propagated in the whole country and he will be considered as a universal great man.’ See, they are true. Bhagyavati Padmavati Devi’s dream also came true. She was pregnant for the time being and in 1395, in the Shuklapaksha of Magha, a son-gem was born from the womb of Padmavati Devi. The son was named. Nityananda. Later on, he was worshiped like Balarama among Gaur-devotees by the name of Nityananda Prabhu or ‘Nitai’ and became famous.

The child Nityanand was very beautiful to see. His body was smooth and graceful. Radiance used to appear from the face, the complexion was fair, the eyes were big and clean and pleasant. His intelligence was very sharp since childhood. At the age of five, he was initiated into education. As soon as the initiation rites took place, he started studying with great enthusiasm. In a short time, he got a good knowledge of Sanskrit-literature and grammar. He used to go to study during the school hours, in the rest of the time he used to play a lot with the children. His games were not like other ordinary natural children. From a young age, he used to act out Shri Krishna-Leelas with the children. Some child would have been made Shri Krishna, some would have become Gwal-Bal and you yourself would have become Balram. Sometimes he used to do cow-grazing-leela, sometimes he used to play Pulin-food and sometimes he used to make children play Mathura-Gaman. No one knows anything about who taught them these pastimes and where they got their education. He used to do all these classical leela.

Sometimes you used to make the kids play the pastimes of Ramayana. Some would have been made Ram, some would have become Bharat, Shatrughan and you yourself would have become Lakshman. By making the rest of the children servants and bear-monkeys, they used to perform pastimes in different places. Sometimes he used to act as an exile. Sometimes showing the spirit of Chitrakoot and sometimes acting of Sita-Haran. One day you were doing the leela of Laxman-murcha. You yourself became Laxman and lay unconscious due to the power of Meghnad. A boy disguised as Hanuman was sent to bring Sanjeevan. That boy was only small, he forgot the way he told. He remained unconscious for a long time. In fact, people saw that his pulse was running very slowly. They don’t wake up even after waking up a lot. The children informed their father about this. Father came running after hearing this and he also came and woke him up, but he did not wake up either. Then the father felt very sad. The child who was crying sitting near him in the form of Ram, remembered him and called the boy who would become Hanuman.

When Hanuman ji brought Sanjeevan and he was made to smell it, then he fainted. In this way, since childhood, he used to act in various classical pastimes.

In reading and writing, he was considered the best of all his peers. His intelligence was very sharp, it is often seen that the father has a lot of love for the eldest son and the mother loves the youngest child the most. Then he was unique in form and qualities as well, that is why Hadai Ojha loved him more than his life. He used to take them with him wherever he went. Without them, he did not like to go anywhere or sit alone and eat and drink. Mother also always used to take dips in Anandsagar seeing his beautiful lotus face. In this way his condition became twelve-thirteen years old.

Hadai Pandit was a great saint-devotee. Almost always some saint-saint used to stay at his house. He also used to felicitate the visiting sages and saints with devotion if there was dry food in the house as much as possible. One day a sannyasin came and became a guest at Hadai Pandit’s place. Pandit ji devotedly hosted him. Padmavati Devi made dal, rice, dumplings and many types of greens with her own hands with purity. Pandit ji offered food to the monk with devotion. Sanyasi Mahatma was very pleased to see his devotion and stayed at Pandit ji’s place for two-four days. Pandit ji also continued to serve him as per his capacity. The monks were very beautiful to see. A kind of light always emanated from his face. His figure used to reveal the feelings of seriousness, truthfulness, purity, brilliance and devotion to the Lord.

Hadai Pandit had a lot of respect for the monk. Hadai Pandits were highly influenced by the influence of this young monk. One day in solitude, the monk said to Hadai Pandit ji – ‘Pandit ji! We ask you for alms, will you?

Expressing humility, Hadai Pandit said – ‘ Lord! What does this destitute pauper have! Whatever we get from here and there, we survive with that. You see, what is such a thing in my house, which I can give you as alms? There is nothing in all that exists that is undeserved for you. If you ask for a body, I am even ready to give it.’

Sanyasi ji said with some seriousness – ‘Pandit! You have everything, what I want to ask is not this earthly wealth. He is a very valuable thing, you will definitely hesitate to give him, because he is very dear to you. ‘ Hadai Pandit said – ‘ God! I have been hearing that one’s own life is the most dear to all living beings, if you beg for my life too, I am ready to give it too.’ I don’t want the inner life, but I beg for the outer life. You give me the eldest son who is dearer than your life. I want to visit all the pilgrimages. For this I need a partner. This son of yours is capable and promising, he will also be blessed and my work will also be successful.

Hadai Pandit became numb after hearing these words of Sanyasi ji. He had no idea even in his dream that the hermit would ask for such a wonderful thing. Well, the son whom the father loves more than life, without whom his life is going to be impossible, if someone asks for that son forever, how much grief that father will feel, no one can imagine it. Only a loving father can do this. It is beyond the intellect of other men. Vishwamitra-like angry and Tejasvi Brahmarshi had asked Shri Ramchandra ji from Maharaj Dashrath for a few days only. Maharaj, who believed in religion, also knew that if Maharishi’s wishes were not fulfilled, my state and family would not be well. He was fully familiar with the tenacity and influence of that Amit Tejaswi Brahmarshi, he also firmly believed that Ramchandra ji could not be harmed in any way in the company of Vishwamitra, yet due to love for his son, Vishwamitra ji He did not agree to fulfill the wish and with utmost humility started saying with words soaked in affection-

There is nothing dearer than body and life. Sou muni deun nimish ek maahin।। All my sons are dear to me. Ram gives not banai Gosain.

When Guru Vasishtha explained to him, then somewhere his disillusionment got dissolved and he agreed to send Shri Ramchandra ji with him to the forest as per Maharishi’s wish.

Here Hadai Pandit was explained by his piety. He thought- ‘There will be pain in giving a son also and there is unhappiness in not giving it. Saints can destroy my everything by cursing. That’s why whatever happens, the son should be given to him.’ Thinking this, he went to Padmavati Devi and went to her and told all the incidents. Well, who has got the fortune of being the mother of a great man like Nityananda, how can she deviate from her religion? How can she give up her religion because of the love of her son? Hearing everything, he replied with determination- ‘I am under you. Whatever is your wish, it will be mine too, the sorrow of son-separation is unbearable, but the sorrow of husband-obedience-disobedience is even more unbearable for her, so let it be as you wish. I agree in all respects, do the same in which there is no apostasy.

After getting the permission of his wife, Hadai Pandit handed over his beloved son, who was dearer than his own life, to the sannyasin while crying. Devotee Nityanand ji also did not object anything in this. They happily joined the monk. He did not look back at his parents and relatives again.

Along with Sanyasi ji, Nityanand ji traveled to almost all the main pilgrimages of India. He went to pilgrimages like Gaya, Kashi, Prayag, Mathura, Dwarka, Badrinath, Kedarnath, Gangottari, Yamunottari, Ranganath, Setubandha Rameshwar, Jagannathpuri etc. In this pilgrimage-tour, he had an interview with Shrimanmadhavendrapuri and after receiving devotion to Shri Krishna from him, he became overwhelmed with love. After saying goodbye to him, he came to Vraj. It is not known exactly where the sannyasins who were with him remained.

On coming to Vraj, he came to know that Gaurchandra rising in Navadweep with his cool rays is providing coolness to the worldly beings with his nectar in the form of Shri Krishna-Sankirtana, constantly scorching in both the sides; Started hitting hilore for. Now he could not stay in Vraj for long and reached Navadweep directly via Prayag, Kashi.

Avdhoot Nityananda did not go directly near Mahaprabhu after going to Navadvipa. They went to Pandit Nandacharya’s house and stayed. Here the Lord had already seen through his divine vision that Nityananda was coming to Navadvipa, that is why he sent devotees to search for him.

respectively next post [48] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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