।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
स्नेहाकर्षण
दर्शने स्पर्शने वापि श्रवणे भाषणेऽपि वा।
यत्र द्रवत्यन्तरंगं स स्नेह इति कथ्यते।।
सचमुच प्रेम में कितना भारी आकर्षण है। आकाश में चन्द्र भगवान का इन्दु-मण्डल है और पृथ्वी पर सरित्पति सागर विराजमान है। जिस दिन शर्वरीनाथ अपनी सम्पूर्ण कलाओं से आकाशमण्डल में उदित होते हैं, उसी दिन अवनि पर मारे प्रेम के पयोनिधि उमड़ने लगता है। पद्माकर भगवान भुवन-भास्कर से कितनी दूर पर रहते हैं, किंतु उनके आकाश में उदय होते ही वे खिल उठते हैं, उनका मुकुर-मन जो अब तक सूर्यदेव के शोक में संकुचित बना बैठा था, वह उनकी किरणों का स्पर्श पाते ही आनन्द से विकसित होकर लहराने लगता है। बादल न जाने कहाँ गरजते हैं, किंतु पृथ्वी पर भ्रमण करने वाले मयूर यहीं से उनकी सुमधुर ध्वनि सुनकर आनन्द में उन्मत्त होकर चिल्लाने और नाचने लगते हैं, यदि प्रेम में इतना अधिक आकर्षण न होता तो सचमुच इस संसार का अस्तित्व ही असम्भव हो जाता।
संसार की स्थिति ही एकमात्र प्रेम के ही ऊपर निर्भर है। प्रेम ही ईश्वर है और ईश्वर ही प्रेम है। प्रेम ही प्राणियों को भाँति-भाँति के नाच नचा रहा है। हृदय का विश्राम- स्थान प्रेम ही है। स्वच्छ हृदय में जब प्रेम का सच्चा स्वरूप प्रकट होता है, तभी हृदय में शान्ति होती है। हृदय में प्रेम का प्राकट्य हो जाने पर कोई विषय अज्ञेय नहीं रह जाता, आगे-पीछे की सभी बातें प्रत्यक्ष दीखने लगती हैं। फिर चर-अचर में जहाँ भी प्रेम दृष्टिगोचर होता है वहीं हृदय आप-से-आप दौड़कर चला जाता है। अहा, जिन्होंने प्रेम-पीयूष का पान कर लिया है, जो प्रेमासव का पान करके पागल बन गये हैं, उन प्रेमियों के पाद-पद्मों में पहुँचने पर हृदय में कितनी अधिक शान्ति उत्पन्न होती है, उसे तो वे ही प्रेमी भक्त अनुभव कर सकते हैं, जिन्हें प्रभु के प्रेम-प्रसाद की पूर्णरीत्या प्राप्ति हो चुकी है।
नित्यानन्द प्रभु प्रेम के ही आकर्षण से आकर्षित होकर नवद्वीप आये थे, इधर इस बात का पता प्रभु के हृदय को बेतार के तार द्वारा पहले ही लग चुका था। उन्होंने उसी दिन भक्तों को नवद्वीप में अवधूत नित्यानन्द को खोजने के लिये भेजा। नवद्वीप कोई छोटा-मोटा गाँव तो था ही नहीं जिसमें से वे झट नित्यानन्दजी को खोज लाते, फिर नित्यानन्दजी से कोई परिचित भी नहीं था, जो उन्हें देखते ही पहचान लेता। श्रीवास पण्डित तथा हरिदास दिनभर उन नवीन आये हुए महापुरुष की खोज करते रहे, किंतु उन्हें इनका कुछ भी पता नहीं चला। अन्त में निराश होकर वे प्रभु के पास लौट आये और आकर कहने लगे- ‘प्रभो! हमने आपके आज्ञानुसार नवद्वीप के मुहल्ले-मुहल्ले में जाकर उन महापुरुष की खोज की, सब प्रकार के मनुष्यों के घरों में जाकर देखा, किंतु हमें उनका कुछ भी पता नहीं चला। अब जैसी आज्ञा हो, वैसा ही करें, जहाँ बतावें वहीं जायँ।’
इन लोगों के मुख से इस बात को सुनकर प्रभु कुछ मुसकराये और सबकी ओर देखते हुए बोले- ‘मुझे रात्रि में स्वप्न हुआ है कि वे महापुरुष जरूर यहाँ आ गये हैं और लोगों से मेरे घर का पता पूछ रहे हैं। अच्छा, एक काम करो, हम सभी लोग मिलकर उन्हें ढूँढ़ने चलें।’ यह कहकर प्रभु उसी समय उठाकर चल दिये। उनके पीछे गदाधर, श्रीवासादि भक्तगण भी हो लिये। प्रभु उठकर सीधे पं. नन्दनाचार्य के घर की ओर चल पड़े। आचार्य के घर पहुँचने पर भक्तों ने देखा कि एक दिव्यकान्तियुक्त महापुरुष अपने अमित तेज से सम्पूर्ण घर को आलोकमय बनाये हुए पद्मासन से विराजमान हैं। उनके मुखमण्डल की तेजोमय किरणों में ग्रीष्म के प्रभाकर की किरणों की भाँति प्रखर प्रचण्डता नहीं थी, किंतु शरद-चन्द्र की किरणों के समान शीतलता, शान्तता और मनोहरता मिली हुई थी। गौरांग ने भक्तों के सहित उन महापुरुष की चरण-वन्दना की और एक ओर चुपचाप बैठ गये। किसी ने किसी से कुछ भी बातचीत नहीं की। नित्यानन्द प्रभु अनिमेष-दृष्टि से गौरांग के मुख-चन्द्र की ओर निहार रहे थे। भक्तों ने देखा, उनकी पलकों का गिरना एकदम बंद हो गया है। सभी स्थिर भाव से मन्त्रमुग्ध की भाँति नित्यानन्द प्रभु की ओर देख रहे थे। प्रभु ने अपने मन में सोचा- ‘भक्तों को नित्यानन्द जी की महिमा दिखानी चाहिये। इन्हें कोई प्रेमप्रसंग सुनाना चाहिये, जिसके श्रवण से इनके शरीर में सात्त्विक भावों का उद्दीपन हो। इनके भावों के उदय होने से ही भक्त इनके मनोगत भावों को समझ सकेंगे।’ यह सोचकर प्रभु ने श्रीवास पण्डित को कोई स्तुति-श्लोक पढ़ने के लिये धीरे से संकेत किया। प्रभु के मनोगत भाव को समझकर श्रीवास इस श्लोक को पढ़ने लगे-
बर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कर्णिकारं
बिभ्रद्वासः कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम्।
रन्ध्रान्वेणोरधरसुधया पूरयन्गोपवृन्दै-
र्वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्तिः।।[1]
श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध के इस श्लोक में कितना माधुर्य है, इसे तो संस्कृत-साहित्यानुरागी सहृदय रसिक भक्त ही अनुभव कर सकते हैं, इसका भाव शब्दों में व्यक्त किया ही नहीं जा सकता। व्रजमण्डल के भक्तगण तो इसी श्लोक को श्रीमद्भागवत के प्रचार में मूल कारण बताते हैं। बात यही थी कि भगवान शुकदेवजी तो बाल्यकाल से ही विरक्त थे। वे अपने पिता भगवान व्यासदेवजी के पास न आकर घोर जंगलों में ही अवधूत-वेश में विचरण करते थे। व्यासदेव ने उसी समय श्रीमद्भागवत की रचना की थी। उनकी इच्छा थी कि शुकदेव जी इसे पढ़ें, किंतु वे जितनी देर में गौ दुही जा सकती है, उतनी देर से अधिक कहीं ठहरते ही नहीं थे। फिर अठारह हजार श्लोक वाली श्रीमद्भागवत को वे किस प्रकार पढ़ सकते थे, इसलिये व्यासदेव जी की इच्छा मन की मन ही में रह गयी।
व्यासदेव जी के शिष्य उस घोर जंगल में समिधा, कुश तथा फूल-फल लेने जाया करते थे, एक दिन उन्हें इस बीहड़ वन में एक व्याघ्र मिला। व्याघ्र को देखकर वे लोग डर गये और आकर भगवान व्यासदेव से कहने लगे- ‘गुरुदेव! अब हम घोर जंगल में न जाया करेंगे, आज हमें व्याघ्र मिला था, उसे देखकर हम सब-के-सब भयभीत हो गये।’
शिष्यों के मुख से ऐसी बात सुनकर भगवान व्यासदेव कुछ मुसकराये और थोड़ी देर सोचकर बोले- ‘व्याघ्र से तुम लोगों को भय ही किस बात का है? हम तुम्हें एक ऐसा मन्त्र बना देंगे कि उसके प्रभाव से कोई भी हिंसक जन्तु तुम्हारे पास नहीं फटक सकेगा।’ शिष्यों ने गुरुदेव के वाक्य पर विश्वास किया और दूसरे दिन स्नान-सन्ध्या से निवृत्त होकर हाथ जोड़े हुए वे गुरु के समीप आये और हिंसक जन्तु-निवारक मन्त्र की जिज्ञासा की। भगवान व्यासदेव ने यही ‘बर्हापीडं नटवरवपुः’ वाला श्लोक बता दिया। शिष्यों ने श्रद्धाभक्ति सहित इसे कण्ठस्थ कर लिया और सभी साथ मिलकर जब-जब जंगल को जाते तब-तब इस श्लोक को मिलकर स्वर के साथ पढ़ते। उनके सुमधुर गान से नीरव और निर्जल जंगल गूँजने लगता और चिरकाल तक उसमें इस श्लोक की प्रतिध्वनि सुनायी पड़ती। एक दिन अवधूतशिरोमणि श्रीशुकदेव जी घूमते-फिरते उधर आ निकले। उन्होंने जब इस श्लोक को सुना तो वे मुग्ध हो गये। शिष्यों से जाकर पूछा- ‘तुम लोगों ने यह श्लोक कहाँ सीखा?’
शिष्यों ने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया- ‘हमारे कुलपति भगवान व्यासदेव ने ही हमें इस मन्त्र का उपदेश दिया है। इसके प्रभाव से हिंसक जन्तु पास नहीं आ सकते।’ भगवान शुकदेव जी इस श्लोक के भीतर जो छिपा हुआ अनन्त और अमर बनाने वाला रस भरा हुआ था, उसे पान करके पागल-से हो गये। वे अपने अवधूतपन के सभी आचरणों को भुलाकर दौड़े-दौड़े भगवान व्यासदेव के समीप पहुँचे और उस श्लोक को पढ़ाने की प्रार्थना की। अपने विरक्त परमहंस पुत्र को इस भाँति प्रेम में पागल देखकर पिता की प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा। वे शुकदेव जी को एकान्त में ले गये और धीरे से कहने लगे- बेटा! मैंने इसी प्रकार अठारह हजार श्लोकों की परमहंससंहिता ही बनायी है, तुम उसका अध्ययन करो।’ इन्होंने आग्रह करते हुए कहा- ‘नहीं पिता जी! हमें तो बस, यही एक श्लोक बता दीजिये।’ भगवान व्यासदेव ने इन्हें वही श्लोक पढ़ा दिया और इन्होंने उसी समय उसे कण्ठस्थ कर लिया। अब तो ये घूमते हुए उसी श्लोक को सदा पढ़ने लगे।
श्रीकृष्ण प्रेम तो ऐसा अनोखा आसव है कि इसका जिसे तनिक भी चसका लग गया फिर वह कभी त्याग नहीं सकता। मनुष्य यदि फिर उसे छोड़ना भी चाहे तो वह स्वयं उसे पकड़ लेता है। शुकदेव जी को भी उस मधुमय मनोज्ञ मदिरा का चसका लग गया, फिर वे अपने अवधूतपने के आग्रह को छोड़कर श्रीमद्भागवत के पठन में संलग्न हो गये और पिता से उसे सांगोपांग पढ़कर ही वहाँ से उठे। तभी तो भगवान व्यासदेव जी कहते हैं-
आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे।
कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थंभूतगुणो हरिः।।[1]
भगवान के गुणों में यही तो एक बड़ी भारी विशेषता है कि जिनकी हृदय-ग्रन्थि खुल गयी है, जिनके सर्व संशयों का जड़मूल से छेदन हो गया है और जिनके सम्पूर्ण कर्म नष्ट भी हो चुके हैं, ऐसे आत्माराम मुनि भी उन गुणों में अहैतु की भक्ति करते हैं। क्यों न हो, वे तो रसराज हैं न? ‘प्रेमसिन्धु में डूबे हुए को किसी ने आज तक उछलते देखा ही नहीं।’
जिस श्लोक का इतना भारी महत्त्व है उसका भाव भी सुन लीजिये। गौएँ चराने मेरे नन्हें-से गोपाल वृन्दावन की ओर जा रहे हैं। साथ में वे ही पुराने ग्वाल-बाल हैं, उन्हें आज न जाने क्या सूझी है कि वे कनुआ की कमनीय कीर्ति का निरन्तर बखान करते हुए जा रहे हैं। सभी अपने कोमल कण्ठों से श्रीकृष्ण का यशोगान कर रहे हैं। इधर ये अपनी मुरली की तान में ही मस्त हैं, इन्हें दीन-दुनिया किसी का भी पता नहीं।
अहा! उस समय की इनकी छबि कितनी सुन्दर है- ‘सम्पूर्ण शरीर की गठन एक सुन्दर नट के समान बड़ी ही मनोहर और चित्ताकर्षक है। सिर पर मोर मुकुट विराजमान है। कानों में बड़े-बड़े कनेर के पुष्प लगा रखे हैं, कनक के समान जिसकी द्युति है, ऐसा पीताम्बर सुन्दर शरीर पर फहरा रहा है, गले में वैजयन्ती माला पड़ी हुई है। कुछ आँखों की भृकुटियों को चढ़ाये हुए, टेढ़े होकर वंशी के छिद्रों को अपने अधरामृत से पूर्ण करने में तत्पर हैं। उन छिद्रों में से विश्वमोहिनी ध्वनि सुनायी पड़ रही है। पीछे-पीछे ग्वालबाल यशोदानन्दन का यशोगान करते हुए जा रहे हैं, इस प्रकार के मुरलीमनोहर अपनी पदरज से वृन्दावन की भूमि को पावन बनाते हुए व्रज में प्रवेश कर रहे हैं।’ जगत को उन्मादी बनाने वाले इस भाव को सुनकर जब अवधूतशिरोमणि शुकदेव जी भी प्रेम में पागल बन गये, तब फिर भला हमारे सहृदय अवधूत नित्यानन्द अपनी प्रकृति में कैसे रह सकते थे? श्रीवास पण्डित के मुख से इस श्लोक को सुनते ही वे मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। इनके मूर्च्छित होते ही प्रभु ने श्रीवास से फिर श्लोक पढ़ने को कहा।
श्रीवास के दुबारा श्लोक पढ़ने पर नित्यानन्द प्रभु जोरों से हुंकार देने लगे। उनके दोनों नेत्रों से अविरल अश्रु बह रहे थे। शरीर के सभी रोम बिलकुल खड़े हो गये। पसीने से शरीर भीग गया। प्रेम में उन्मादी की भाँति नृत्य करने लगे। प्रभु ने नित्यानन्द को गले से लगा लिया और दोनों महापुरुष परस्पर में एक-दूसरे को आलिंगन करने लगे। नित्यानन्द प्रेम में बेसुध-से प्रतीत होते थे, उनके पैर कहीं-के-कहीं पड़ते थे, जोर से ‘हा कृष्ण! हा कृष्ण!’ कहकर वे रुदन कर रहे थे। रुदन करते-करते बीच में जोरों की हुंकार करते। इनकी हुंकार को सुनकर उपस्थित भक्त भी थर-थर काँपने लगे। सभी काठ की पुतली की भाँति स्थिर भाव से चुपचाप खड़े थे। इसी बीच बेहोश होकर निताई अपने भाई निमाई की गोद में गिर पड़े। प्रभु ने नित्यानन्द के मस्तक पर अपना कोमल करकमल फिराया। उसके स्पर्शमात्र से नित्यानन्द जी को परमानन्द प्रतीत हुआ। वे कुछ-कुछ प्रकृतिस्थ हुए।
नित्यानन्द-प्रभु को प्रकृतिस्थ देखकर प्रभु दीनभाव से कहने लगे- ‘श्रीपाद आज हम सभी लोग आपकी पदधूलि को मस्तक पर चढ़ाकर कृतकृत्य हुए। आपने अपने दर्शन से हमें बड़भागी बना दिया। प्रभो! आप-जैसे अवधूतों के दर्शन भला, हमारे-जैसे संसारी पुरुषों को हो ही कैसे सकते हैं? हम तो गृहरूपी कूप के मण्डूक हैं, इसे छोड़कर कहीं जा ही नहीं सकते। आप-जैसे महापुरुष हमारे ऊपर अहैतु की कृपा करके स्वयं ही घर बैठे हमें दर्शन देने आ जाते हैं, इससे बढ़कर हमारा और क्या सौभाग्य हो सकता है?’
प्रभु की इस प्रेममयी वाणी सुनकर अधीरता के साथ निताई ने कहा- ‘हमने श्रीकृष्ण के दर्शन के निमित्त देश-विदेशों की यात्रा की, सभी मुख्य-मुख्य पुण्यस्थानों और तीर्थों में गये। सभी बड़े-बड़े देवालयों को देखा, जो-जो श्रेष्ठ और सात्त्विक देवस्थान समझे जाते हैं, उन सबके दर्शन किये, किंतु वहाँ केवल स्थानों के ही दर्शन हुए। उन स्थानों के सिंहासनों को हमने ख़ाली ही पाया।
भक्तों से हमने पूछा- इन स्थानों से भगवान कहाँ चले गये? मेरे इस प्रश्न को सुनकर बहुत-से तो चकित रह गये, बहुत-से चुप हो गये, बहुतों ने मुझे पागल समझा। मेरे बहुत तलाश करने पर एक भक्त ने पता किया कि भगवान नवद्वीप में प्रकट होकर श्रीकृष्ण-संकीर्तन का प्रचार कर रहे हैं। तुम उन्हीं के शरण में जाओ, तभी तुम्हें शान्ति की प्राप्ति हो सकेगी। इसीलिये मैं नवद्वीप आया हूँ। दयालु श्रीकृष्ण ने कृपा करके स्वयं ही मुझे दर्शन दिये। अब वे मुझे अपनी शरण में लेते हैं या नहीं इस बात को वे जानें।’ इतना कहकर फिर नित्यानन्द प्रभु गौरांग की गोदी में लुढ़क पड़े। मानो उन्होंने अपना सर्वस्व गौरांग को अर्पण कर दिया हो।
प्रभु ने धीरे-धीरे इन्हें उठाया और नम्रता के साथ कहने लगे- ‘आप स्वयं ईश्वर हैं, आपके शरीर में सभी ईश्वरता के चिह्न प्रकट होते हैं, मुझे भुलाने के लिये आप मेरी ऐसी स्तुति कर रहे हैं। ये सब गुण तो आप में ही विद्यमान हैं। हम तो साधारण जीव हैं। आपकी कृपा के भिखारी हैं।’
इन बातों को भक्त मन्त्रमुग्ध की भाँति चुपचाप पास में बैठे हुए आश्चर्य के साथ सुन रहे थे। मुरारी गुप्त ने धीरे से श्रीवास से पूछा- ‘इन दोनों की बातों से पता हीं नहीं चलता कि इनमें कौन बड़ा है और कौन छोटा?’ धीरे-ही-धीरे श्रीवास पण्डित ने कहा- ‘किसी ने शिव जी से जाकर पूछा कि आपके पिता कौन हैं?’
इस पर शिव जी ने उत्तर दिया- ‘विष्णु भगवान।’ उसी ने जाकर विष्णु भगवान से पूछा कि ‘आपके पिता कौन हैं?’ हँसते हुए विष्णु जी ने कहा- देवाधिदेव श्रीमहादेव जी ही हमारे पिता हैं। इस प्रकार इनकी लीला ये ही समझ सकते हैं, दूसरा कोई क्या समझे?
नन्दनाचार्य इन सभी लीलाओं को आश्चर्य के साथ देख रहे थे, उनका घर प्रेम का सागर बना हुआ था, जिसमें प्रेम की हिलोरें मार रही थीं। करुणक्रन्दन और रुदन की हृदय को पिघलाने वाली ध्वनियों से उनका घर गूँज रहा था। दोनों ही महापुरुष चुपचाप पश्यन्ती भाषा में न जाने क्या-क्या बातें कर रहे थे, इसका मर्म वे ही दोनों समझ सकते थे। वैखरी वाणी को बोलने वाले अन्य साधारण लोगों की बुद्धि के बाहर की ये बातें थीं।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]