।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
द्विविध-भाव
भगवद्भावेन यः शश्वद्भक्तभावेन चैव तत्।
भक्तानानन्दयते नित्यं तं चैतन्यं नमाम्यहम्।।
प्रत्येक प्राणी की भावना विभिन्न प्रकार की होती है। अरण्य में खिले हुए जिस मालती के पुष्प को देखकर सहृदय कवि आनन्द में विभोर होकर उछलने और नृत्य करने लगता है, जिस पुष्प में वह विश्व के सम्पूर्ण सौन्दर्य का अनुभव करने लगता है, उसको ग्राम के चरवाहे रोज देखते हैं, उस ओर उनकी दृष्टि तक नहीं जाती। उनके लिये उस पुष्प का अस्तित्व उतना ही है, जितना कि रास्ते में पड़ी हुई काठ, पत्थर तथा अन्य सामान्य वस्तुओं का। वे उस पुष्प में किसी भी प्रकार की विशेष भावना का आरोप नहीं करते। असल में यह प्राणी भावमय है। जिसमें जैसे भाव होंगे उसे उस वस्तु में वे ही भाव दृष्टिगोचर होंगे। इसी भाव को लेकर तो गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है-
जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी।।
महाप्रभु के शरीर में भी भक्त अपनी-अपनी भावना के अनुसार नाना रूपों के दर्शन करने लगे। कोई तो प्रभु को वराह के रूप में देखता, कोई उनके शरीर में नृसिंहरूप के दर्शन करता, कोई वामनभाव का अध्यारोप करता। किसी को प्रभु की मूर्ति श्यामसुन्दर रूप में दिखायी देती, किसी को षड्भुजी मूर्ति के दर्शन होते। कोई प्रभु के इस शरीर को न देखकर उन्हें चतुर्भुजरूप से देखता और उनके चारों हस्तों में उसे प्रत्यक्ष शंख, चक्र, गदा और पद्म दिखायी देते। इस प्रकार एक ही प्रभु के श्रीविग्रह को भक्त भिन्न-भिन्न प्रकार से देखने लगे। जिसे प्रभु के चतुर्भुजरूप के दर्शन होते, उसे ही प्रभु की चारों भुजाएँ दीखतीं, अन्य लोगों को वही उनका सामान्य रूप दिखायी देता। जिसे प्रभु का शरीर ज्योतिर्मय दिखायी देता और प्रकाश के अतिरिक्त उसे प्रभु की और मूर्ति दिखायी ही नहीं देती, उसी की आँखों में वह प्रकाश छा जाता, साधारणतः सामान्य लोगों को वह प्रकाश नहीं दीखता, उन लोगों को प्रभु के उसी गौररूप के दर्शन होते रहते।
सामान्यतया प्रभु के शरीर में भगवत-भाव और भक्त-भाव ये दो ही भाव भक्तों को दृष्टिगोचर होते। जब इन्हें भगवत-भाव होता, तब ये अपने-आपको बिलकुल भूल जाते, निःसंकोच-भाव से देवमूर्तियों को हटकर स्वयं भगवान के सिंहासन पर विराजमान हो जाते और अपने को भगवान कहने लगते। उस अवस्था में भक्तवृन्द उनकी भगवान की तरह विधिवत पूजा करते, इनके चरणों को गंगा-जल से धोते, पैरों पर पुष्प-चन्दन तथा तुलसीपत्र चढ़ाते। भाँति-भाँति के उपहार इनके सामने रखते। उस समय ये इन कामों में कुछ भी आपत्ति नहीं करते, यही नहीं, किंतु बड़ी ही प्रसन्नतापूर्वक भक्तों की की हुई पूजा को ग्रहण करते और उनसे आशीर्वाद माँगने का भी आग्रह करते और उन्हें इच्छानुसार वरदान भी देते।
यही बात नहीं कि ऐसा भाव इन्हें भगवान का ही आवे, नाना देवी-देवताओं का भाव भी आ जाता था। कभी तो बलदेव के भाव में लाल-लाल आँखें करके जोरों से हुंकार करते और ‘मदिरा-मदिरा’ कहकर शराब माँगते, कभी इन्द्र के आवेश में आकर वज्र को घुमाने लगते। कभी सुदर्शन-चक्र का आह्वान करने लगते। एक दिन एक जोगी बड़े ही सुमधुर स्वर से डमरू बजाकर शिव जी के गीत गा-गाकर भिक्षा माँग रहा था। भीख माँगते-माँगते वह इनके भी घर आया। शिवजी के गीतों को सुनकर इन्हें महादेव जी का भाव आ गया और अपनी लटों को बखेरकर शिव जी के भाव में उस गाने वाले के कन्धे पर चढ़ गये और जोरों के साथ कहने लगे- ‘मैं ही शिव हूँ, मैं ही शिव हूँ। तुम वरदान माँगो, मैं तुम्हारी स्तुति से बहुत प्रसन्न हूँ।’ थोड़ी देर के अनन्तर जब इनका वह भाव समाप्त हो गया तो कुछ अचेतन-से होकर उसके कन्धे पर से उतर पड़े और उसे यथेच्छ भिक्षा देकर विदा किया।
इस प्रकार भक्तों को अपनी-अपनी भावना के अनुसार नाना रूपों के दर्शन होने लगे और इन्हें भी विभिन्न देवी-देवताओं तथा परम भक्तों के भाव आने लगे। जब वह भाव शान्त हो जाता, तब ये उस भाव में कही हुई सभी बातों को एकदम भूल जाते और एकदम दीन-हीन विनम्र भक्त की भाँति आचरण करने लगते। तब इनका दीन-भाव पत्थर-से-पत्थर हृदय को भी पिघलाने वाला होता। उस समय ये अपने को अत्यन्त ही दीन, अधम और तुच्छ बताकर जोरों के साथ रुदन करते। भक्तों का आलिंगन करके फूट-फूटकर रोने लगते और रोते-रोते कहते- ‘श्रीकृष्ण कहाँ चले गये? भैयाओ! मुझे श्रीकृष्ण से मिलाकर मेरे प्राणों को शीतल कर दो। मेरी विरह-वेदना को श्रीकृष्ण का पता बताकर शान्ति प्रदान करो। मेरा मोहन मुझे बिलखता छोड़कर कहाँ चला गया?’ इसी प्रकार प्रेम में विह्वल होकर अद्वैताचार्य आदि वृद्ध भक्तों के पैरों को पकड़ लेते और उनके पैरों में अपना माथा रगड़ने लगते। सबको बार-बार प्रणाम करते। यदि उस समय इनकी कोई पूजा करने का प्रयत्न करता अथवा इन्हें भगवान कह देता तो ये दुःखी होकर गंगा जी में कूदने के लिये दौड़ते। इसीलिये इनकी साधारण दशा में न तो इनकी कोई पूजा ही करता और न इन्हें भगवान ही कहता। वैसे भक्तों के मन में सदा एक ही भाव रहता।
जब ये साधारण भाव में रहते, तब एक अमानी भक्त के समान श्रद्धा-भक्ति के सहित गंगाजी को साष्टांग प्रणाम करते, गंगाजल का आचमन करते, ठाकुर जी का विधिवत पूजन करते तथा तुलसी जी को जल चढ़ाते और उनकी भक्तिभाव से प्रदक्षिणा करते।
भगवत-भाव में इन सभी बातों को भुलाकर स्वयं ईश्वरीय आचरण करने लगते। भावावेश के अनन्तर यदि इनसे कोई कुछ पूछता तो बड़ी ही दीनता के साथ उत्तर देते- ‘भैया! हमें कुछ पता नहीं कि हम अचेतनावस्था में न जाने क्या-क्या बक गये। आप लोग इन बातों का कुछ बुरा न मानें। हमारे अपराधों को क्षमा ही करते रहें, ऐसा आशीर्वाद दें, जिससे अचेतनावस्था में भी हमारे मुख से कोई ऐसी बात न निकलने पावे जिसके कारण हम आपके तथा श्रीकृष्ण के सम्मुख अपराधी बनें।’
संकीर्तन में भी ये दो भावों से नृत्य करते। कभी तो भक्त-भाव से बड़ी ही सरलता के साथ नृत्य करते। उस समय का इनका नृत्य बड़ा ही मधुर होता। भक्तभाव में ये संकीर्तन करते-करते भक्तों की चरण-धूलि सिर पर चढ़ाते और उन्हें बार-बार प्रणाम करते। बीच-बीच में पछाड़ें खा-खाकर गिर पड़ते। कभी-कभी तो इतने जोरों के साथ गिरते कि सभी भक्त इनकी दशा देखकर घबड़ा जाते थे। शचीमाता तो कभी इन्हें इस प्रकार पछाड़ खाकर गिरते देख परम अधीर हो जातीं और रोते-रोते भगवान से प्रार्थना करतीं कि ‘हे अशरण-शरण! मेरे निमाई को इतना दुःख मत दो।’ इसीलिये सभी भक्त संकीर्तन के समय इनकी बड़ी देख-रेख रखते और इन्हें चारों ओर से पकड़े रहते कि कहीं मूर्च्छित होकर गिर न पड़ें।
कभी-कभी ये भावावेश में आकर भी संकीर्तन करने लगते। तब इनका नृत्य बड़ा ही अद्भुत और अलौकिक होता था, उस समय इन्हें स्पर्श करने की भक्तों को हिम्मत नहीं होती थी, ये नृत्य के समय में जोरों से हुंकार करने लगते। इनकी हुंकार से दिशाएँ गूँजने लगतीं और पदाघात से पृथ्वी हिलने-सी लगती। उस समय सभी कीर्तन करने वाले भक्त विस्मित होकर एक प्रकार के आकर्षण में खिंचे हुए-से मन्त्र-मुग्ध की भाँति सभी क्रियाओं को करते रहते। उन्हें बाह्यज्ञान बिलकुल रहता नहीं था। उस नृत्य से सभी को बड़ा ही आनन्द प्राप्त होता था। इस प्रकार कभी-कभी तो नृत्य-संकीर्तन करते-करते पूरी रात्रि बीत जाती और खूब दिन भी निकल आता तो भी संकीर्तन समाप्त नहीं होता था।
एक-एक करके बहुत-से भावुक भक्त नवद्वीप में आ-आकर वास करने लगे और श्रीवास के घर संकीर्तन में आकर सम्मिलित होने लगे। धीरे-धीरे भक्तों का एक अच्छा खासा परिकर बन गया। इनमें अद्वैताचार्य, नित्यानन्द प्रभु और हरिदास- ये तीन प्रधान भक्त समझे जाते थे। वैसे तो सभी प्रधान थे, भक्तों में प्रधान-अप्रधान भी क्या? किंतु ये तीनों सर्वस्वत्यागी, परम विरक्त और महाप्रभु के बहुत ही अन्तरंग भक्त थे। श्रीवास को छोड़कर इन्हीं तीनों पर प्रभु की अत्यन्त कृपा थी। इनके ही द्वारा वे अपना सब काम कराना चाहते थे। इनमें से श्रीअद्वैताचार्य और अवधूत नित्यानन्द जी का सामान्य परिचय तो पाठकों को प्राप्त हो ही चुका है। अब भक्ताग्रगण्य श्रीहरिदास का संक्षिप्त परिचय तो पाठकों को अगले अध्यायों में मिलेगा। इन महाभागवत वैष्णवशिरोमणि भक्त ने नाम-जप का जितना माहात्म्य प्रकट किया है, उतना भगवन्नाम का माहात्म्य किसी ने प्रकट नहीं किया। इन्हें भगवन्नाम-माहात्म्य का सजीव अवतार ही समझना चाहिये।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
।। Srihari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Jap] Hare Krishna Hare Ram Dichotomous-feeling
That which is by the feeling of the Lord and by the feeling of an eternal devotee. I bow to that consciousness which ever delights the devotees.
Every living being has different types of feelings. Seeing the flower of Malti blooming in the forest, the poet of the heart starts jumping and dancing in joy, the flower in which he starts experiencing the whole beauty of the world, the shepherds of the village see it everyday, even their vision towards it Does not go For them the existence of that flower is as much as that of wood, stone and other common things lying on the way. He does not attribute any special emotion to that flower. Actually this creature is emotional. Whatever feelings one has, the same feelings will be visible in that object. Regarding this feeling, Goswami Tulsidas ji has said-
Those who have feelings like I saw three idols of God.
Even in the body of Mahaprabhu, the devotees started seeing different forms according to their feelings. Some would see the Lord in the form of a boar, some would see the form of a male lion in his body, and some would accuse him of Vamanabhava. Some would have seen the idol of God in Shyamsundar form, some would have seen the six-armed idol. Someone not seeing this body of the Lord would see him in quadrilateral form and would have directly seen the conch, chakra, mace and lotus in his four hands. In this way the devotees started seeing the Deity of the same Lord in different ways. The one who had the darshan of the quadrilateral form of the Lord, only he would see the four arms of the Lord, others would only see His normal form. The one who sees the body of the Lord as luminous and does not see any other idol of the Lord other than the light, that light shines in his eyes, normally ordinary people do not see that light, they continue to see the same glorious form of the Lord. .
Normally in the body of the Lord, only these two feelings of Bhagavat-Bhav and Bhakta-Bhav are visible to the devotees. When he had Bhagwat-Bhav, then he would completely forget himself, without any hesitation, he would sit on the throne of God himself leaving aside the deities and start calling himself God. In that state, devotees used to worship him like a god, wash his feet with Ganges water, offer flowers, sandalwood and basil leaves on his feet. Different types of gifts were kept in front of them. At that time, he did not object to these works, not only this, but very happily accepted the worship done by the devotees and also urged them to seek their blessings and also gave them boons as per their wish.
It is not only that he used to get such a feeling of God, he also used to get the feeling of Nana deities. Sometimes in the spirit of Baldev, with red-red eyes, he would shout loudly and ask for alcohol by saying ‘Madira-Madira’, sometimes in the passion of Indra, he would start rotating the Vajra. Sometimes they used to invoke Sudarshan-Chakra. One day a Jogi was begging for alms by singing songs of Lord Shiva, playing the drum in a very melodious voice. He also came to their house while begging. After listening to the songs of Shivji, he got the feeling of Mahadev ji and by spreading his locks in the feeling of Shivji, climbed on the shoulder of that singer and started saying loudly – ‘I am Shiva, I am Shiva. You ask for a boon, I am very pleased with your praise.’ After some time, when his feeling ended, some unconsciously got down from his shoulder and sent him away by giving him alms.
In this way, the devotees started having darshan of different forms according to their own feelings and they also started getting the feelings of different gods and goddesses and supreme devotees. When that feeling would calm down, then he would completely forget all the things said in that feeling and would start behaving like a humble devotee. Then their humility would have melted even the stone-to-stone heart. At that time, he used to cry loudly by describing himself as very poor, lowly and insignificant. Hugging the devotees, they started crying bitterly and kept crying saying- ‘Where has Shri Krishna gone? Brothers! Unite me with Shri Krishna and cool my soul. Give me peace by telling the address of Shri Krishna to my separation pain. Where did my Mohan go leaving me crying?’ In the same way Advaitacharya etc. would hold the feet of old devotees and start rubbing their foreheads in their feet. Greeting everyone again and again. If someone had tried to worship him at that time or had called him God, he would have been sad and run to jump into Ganga ji. That’s why in his normal condition, no one would worship him and neither would he call him God. By the way, there is always only one feeling in the mind of the devotees.
When he lived in a simple way, he used to prostrate to Gangaji with reverence and devotion like an unfaithful devotee, used Ganga water, worshiped Thakur ji duly and offered water to Tulsi ji and circumambulated her with devotion.
Forgetting all these things in Bhagwat-Bhav, he himself started behaving godly. If someone had asked him something out of passion, he would have answered humbly – ‘Brother! We don’t know anything that we didn’t know what all we talked about in unconsciousness. You people should not feel bad about these things. Keep on forgiving our crimes, bless us so that no such thing comes out of our mouth even in unconsciousness due to which we become guilty in front of you and Shri Krishna.
In Sankirtan also, he used to dance with two expressions. Sometimes he used to dance very simply with devotion. At that time their dance would have been very sweet. While doing this sankirtan in devotion, he would put the dust of the feet of the devotees on his head and bow down to them again and again. Thrown in between and fell down after eating. Sometimes he used to fall with such force that all the devotees used to get scared seeing his condition. Sachimata sometimes used to get extremely impatient seeing him falling after being left behind like this and would pray to God crying, ‘O refuge-refuge! Don’t give so much pain to my Nimai.’ That’s why all the devotees take great care of him at the time of Sankirtan and keep holding him from all sides so that he may not faint and fall down.
Sometimes he used to do sankirtan even after getting emotional. Then their dance was very wonderful and supernatural, at that time the devotees did not dare to touch them, they used to roar loudly during the dance. The directions started echoing with their roar and the earth seemed to shake with the blow of their feet. At that time, all the kirtan devotees kept on doing all the activities like a mantra-mugged by being drawn in a kind of attraction. He did not have external knowledge at all. Everyone used to get great pleasure from that dance. In this way, sometimes the whole night was spent doing dance-sankirtan and even if a long day passed, the sankirtan did not end.
One by one, many passionate devotees started coming to live in Navadvipa and participating in sankirtan at Srivas’s house. Gradually a good circle of devotees was formed. Among them Advaitacharya, Nityananda Prabhu and Haridas – these three main devotees were considered. By the way, all were prime, what about prime-minor among the devotees? But these three were self-sacrificing, supremely detached and very intimate devotees of Mahaprabhu. Except Shrivas, only these three were greatly blessed by the Lord. He wanted to get all his work done through him. Out of these, the general introduction of Shri Advaitacharya and Avdhoot Nityanand ji has already been received by the readers. Now readers will get brief introduction of Bhaktagraganya Shri Haridas in the next chapters. No one has revealed the greatness of the name of God as much as this Mahabhagwat Vaishnavishiromani devotee has revealed the greatness of chanting. He should be considered as the living incarnation of Bhagwannaam-Mahatmya.
respectively next post [55] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]