।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
प्रच्छन्न भक्त पुण्डरीक विद्यानिधि
तदश्मसारं हृदयं बतेदं
यद् गृह्यमाणैर्हरिनामधेयैः।
न विक्रियेताथ यदा विकारो
नेत्रे जलं गात्ररुहेषु हर्षः।।
जिनके हृदय में भगवान के प्रति भक्ति उत्पन्न हो गयी है, जिनका हृदय श्याम-रंग में रँग गया है, जिनकी भगवान के सुमधुर नामों तथा उनकी जगत-पावनी लीलाओं में रति है, उन बड़भागी भक्तों ने ही यथार्थ में मनुष्य-शरीर को सार्थक बनाया है। प्रायः देखा गया है कि जिनके ऊपर भगवत्कृपा होती है, जो प्रभु के प्रेम में पागल बन जाते हैं, उनका बाह्य जीवन भी त्यागमय बन जाता है, क्योंकि जिसने उस अद्भुत प्रेमासव का एक बार भी पान कर लिया, उसे फिर त्रिलोकी के जो भी संसारी सुख हैं, सभी फीके-फीके-से प्रतीत होने लगते हैं। संसारी सुखों में तो मनुष्य तभी तक सुखानुभव करता है, जब तक उसे असली सुख का पता नहीं चलता। जिसने एक क्षण को भी सुखस्वरूप प्रेमदेव के दर्शन कर लिये फिर उसके लिये सभी संसारी पदार्थ तुच्छ-से दिखायी देने लगेंगे। इसीलिये प्रायः देखा गया है कि परमार्थ के पथिक भगवद्भक्तों तथा ज्ञाननिष्ठ साधकों का जीवन सदा त्यागमय ही होता है। वे संसारी भोगों से स्वरूपतः भी दूर ही रहते हैं, किंतु कुछ ऐसे भी भक्त देखने में आते हैं कि जिनका जीवन ऊपर से तो संसारी लोगों का-सा प्रतीत होता है, किंतु हृदय में अगाध भक्ति-रस भरा हुआ होता है। जो जरा-सी ठेस लगते ही छलककर आँखों के द्वारा बाहर बहने लगता है। असल में भक्ति का सम्बन्ध तो हृदय से है, यदि मन विषयवासनाओं में रत नहीं है, तो कैसी भी परिस्थिति में क्यों न रहें, हृदय सदा प्रभु के पादपद्मों का ही चिन्तन करता रहेगा। यही सोचकर महाकवि केशव कहते हैं-
कहैं ‘केशव’ भीतर जोग जगै इत बाहिर भोगमयो तन है।
मन हाथ भयो जिनके तिनके बन ही घर है घर ही बन है।।
प्रायः देखा गया है कि त्यागमय जीवन बिताने से साधक के मन में ऐसी धारणा-सी हो जाती है कि बिना स्वरूपतः बाह्य त्यागमय जीवन बिताये भगवद्भक्ति प्राप्त ही नहीं होती। भक्तिमार्ग में यह बड़ा भारी विघ्न है, त्यागमय जीवन जितना भी बिताया जाय उतना ही श्रेष्ठ है, किंतु यह आग्रह करना कि स्वरूपतः त्याग किये बिना कोई भक्त बन ही नहीं सकता, वह त्यागजन्य एक प्रकार का अभिमान ही है। भक्त को तो तृण से भी नीचा बनकर कुत्ते, चाण्डाल, गौ और गधे तक को भी मन से नहीं, किंतु शरीर से दण्ड की तरह पृथ्वी पर लेटकर प्रणाम करना चाहिये, तभी अभिमान दूर होगा। भक्तों के विषय में कोई क्या कह सकता है कि वे किस रूप में रहते हैं? नाना परिस्थितियों में रहकर भक्तों को जीवन बिताते देखा गया है, इसलिये जिसके जीवन में बाह्य त्याग के लक्षण प्रतीत न हों, वह भक्त ही नहीं, ऐसा कभी भी न सोचना चाहिये।
पुण्डरीक विद्यानिधि एक ऐसे ही प्रच्छन्न भक्त थे। उनके आचार-व्यवहार को देखकर कोई नहीं समझ सकता था कि ये भक्त हैं, सब लोग उन्हें विषयी ही समझते थे। लोग समझते रहें, किंतु पुण्डरीक महाशय तो सदा प्रभु प्रेम में छके-से रहते थे, लोगों को दिखाने के लिये वे कोई काम थोड़े ही करते थे, उन्हें तो अपने प्यारे से काम था। वैसे उनका बाह्य व्यवहार संसारी विषयी लोगों का-सा ही था। उनका जन्म एक कुलीन वंश में हुआ था, वे देखने में बहुत ही सुन्दर थे, शरीर राजपुत्रों की भाँति सुकुमार था, अत्यन्त ही चिकने और कोमल उनके काले-काले घुँघराले बाल थे, वे उनमें सदा बहुमूल्य सुगन्धित तैल डालते, शरीर को उबटन और तैल-फूलेल से खूब साफ रखते। बहुत ही महीन रेशमी वस्त्र पहनते। कभी गंगा मे स्नान करने नहीं जाते थे। लोग तो समझते थे कि इनकी गंगा जी में भक्ति नहीं है, किंतु उनके हृदय में गंगा माता के प्रति अनन्य श्रद्धा थी। वे इस भय से स्नान करने नहीं जाते थे कि माता के जल से पादस्पर्श हो जायगा। लोगों को गंगा जी में मल-मूल तथा अस्थि फेंकते, तैल-फुलेल लगाते और बाल फेंकते देखकर उन्हें बड़ा ही मार्मिक दुःख होता था। देवार्चन से पूर्व ही वे गंगाजल-पान करते, इस प्रकार उनकी सभी बातें लोकबाह्य ही थीं। इसीलिये लोग उन्हें घोर संसारी कहकर उनकी सदा उपेक्षा ही करते रहते।
एक दिन प्रभु भावावेश में आकर जोरों से ‘हा पुण्डरीक विद्यानिधि’, ‘ओ मेरे बाप विद्यानिधि’ कहकर जोरों से रुदन करने लगे। ‘पुण्डरीक’, ‘पुण्डरीक’ कहते-कहते वे अधीर हो उठे और बेहोश होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। भक्त आपस में एक-दूसरे की ओर देखने लगे। सभी को विस्मय हुआ। पहले तो भक्तों ने समझा ‘पुण्डरीक’ कहने से प्रभु का अभिप्राय श्रीकृष्ण से ही है, फिर जब पुण्डरीक के साथ विद्यानिधि पद पर ध्यान दिया, तब उन्होंने अनुमान लगाया हो-न-हो इस नाम के कोई भक्त हैं। बहुत सोचने पर भी नवद्वीप में ‘पुण्डरीक विद्यानिधि’ नाम के किसी वैष्णव भक्त का स्मरण उन लोगों को नहीं आया। थोड़ी देर के अनन्तर जब प्रभु की मूर्छा भंग हुई तो भक्तों ने नम्रतापूर्वक पूछा- ‘प्रभु जिनका नाम ले-लेकर जोरों से रुदन कर रहे थे, वे भाग्यवान पुण्डरीक विद्यानिधि कौन परम भागवत महाशय हैं?’
प्रभु ने गम्भीरता के साथ कहा- ‘वे एक परम प्रच्छन्न वैष्णव भक्त हैं, आप लोग उन्हें देखकर नहीं जान सकते कि ये वैष्णव हैं, उनके बाह्य आचार-विचार प्रायः सांसारिक विषयी पुरुषों के-से हैं। वे चटगाँव निवासी एक परम कुलीन ब्राह्मण हैं, उनका एक घर शान्तिपुर में भी है, गंगासेवन के निमित्त वे कभी-कभी चटगाँव से शान्तिपुर में भी आ जाते हैं, वे मेरे अत्यन्त ही प्रिय भक्त हैं। वे मेरे आन्तरिक सुहृद् हैं। उनके दर्शन के बिना मैं अधीर हूँ। वह कौन-सा सुदिवस होगा जब मैं उन्हें प्रेम से आलिंगन करके रुदन करूँगा? प्रभु की ऐसी बात सुनकर सभी को परम प्रसन्नता हुई और सब-के-सब पुण्डरीक विद्यानिधि के दर्शन के लिये परम उत्सुकता प्रकट करने लगे। सबने अनुमान लगा लिया कि जब प्रभु उनके लिये इस प्रकार रुदन करते हैं, तो वे शीघ्र ही नवद्वीप में आने वाले हैं। प्रभु के स्मरण करने पर अपने घर में ठहर ही कौन सकता है, इसीलिये सब भक्त विद्यानिधि के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे।
एक दिन चुपचाप पुण्डरीक महाशय नवद्वीप पधारे। किसी को भी उनके आने का पता नहीं चला। बहुत-से भक्तों ने उन्हें देखा भी, किंतु उन्हें देखकर कौन अनुमान लगा सकता था कि ये परम भागवत वैष्णव हैं? भक्तों ने उन्हें कोई सांसारिक धनी-मानी पुरुष ही समझा, इसीलिये भक्त उनके आगमन से अपरिचित ही रहे।
पाठकों को मुकुन्द दत्त का नाम स्मरण ही होगा। ये चटगाँव निवासी एक परम भागवत वैष्णव विद्यार्थी थे। इनका कण्ठ बड़ा ही सुमधुर था। अद्वैताचार्य के समीप ये अध्ययन करते थे और उनकी सत्संग-सभा में अपने मनोहर गायन से भक्तों को आनन्दित किया करते थे। जब से प्रभु का प्रकाश हुआ है, तब से वे इन्हीं की शरण में आ गये हैं और प्रभु के साथ मिलकर श्रीकृष्ण-कथा और संकीर्तन में ही सदा संलग्न रहते हैं। विद्यानिधि इनके गाँव के ही थे। दोनों ही समवयस्क तथा परस्पर में एक-दूसरे से भलीभाँति परिचित थे। मुकुन्ददत्त और वासुदेव पण्डित ही विद्यानिधि के भक्तिभाव को जानते थे। प्रभु के परम अन्तरंग भक्त गदाधर से मुकुन्द बड़ा ही स्नेह करते थे। इसलिये एक दिन एकान्त में उनसे बोले- ‘गदाधर! आजकल नवद्वीप में एक परम भागवत वैष्णव ठहरे हुए हैं, चलो, उनके दर्शन कर आवें।’
प्रसन्नता प्रकट करते हुए गदाधर ने कहा- ‘वाह! इससे बढ़कर और अच्छी बात क्या हो सकती है? भगवद्भक्तों के दर्शन तो भगवान के समान ही हैं। अवश्य चलिये, जिनकी आप प्रशंसा करते हैं, वे कोई महान ही भागवत वैष्णव होंगे!’ यह कहकर दोनों मित्र विद्यानिधि के समीप चल दिये। विद्यानिधि नवद्वीप के एक सुन्दर भवन में ठहरे हुए थे। उनका रहने का स्थान खूब साफ था। उसमें एक बहुत ही बढि़या शय्या पड़ी हुई थी, उसके चारों पाये व्याघ्र-मुख की भाँति कई मूल्यवान धातुओं के बने हुए थे, उसके ऊपर बड़ा ही सुकोमल बिस्तर बिछा था। पुण्डरीक महाशय स्नान-ध्यान से निवृत्त होकर उस शय्या पर आधे लेटे हुए थे। उनके विस्तृत ललाट पर सुन्दर सुगन्धित चन्दन लगा हुआ था, बीच में एक बड़ी ही बढ़िया लाल बिंदी लगी हुई थी। सिर के घुँघराले बाल बढ़िया-बढ़िया सुगन्धित तैल डालकर विचित्र ही भाँति से सजाये हुए थे, कई प्रकार के मसालेदार पान को वे धीरे-धीरे चबा रहे थे, पान की लाली से उनके कोमल पल्लवों के समान दोनों अरुण अधर और भी अधिक लाल हो गये थे। सामने दो पीकदान रखे थे। और भी बहुत-से बहुमूल्य सुन्दर बर्तन इधर-उधर रखे थे। दो नौकर मयूरपिच्छ के कोमल पंखों से उनको हवा कर रहे थे। देखने में बिलकुल राजकुमार-से ही मालूम पड़ते थे। गदाधर को साथ लिये हुए मुकुन्ददत्त उनके समीप पहुँचे और दोनों ही प्रणाम करके उनके बताये हुए सुन्दर आसन पर बैठ गये।
मुकुन्ददत्त के आगमन से प्रसन्नता प्रकट करते हुए पुण्डरीक महाशय कहने लगे- ‘आज तो बड़ा ही शुभ दिन है, जो आपके दर्शन हुए। आप नवद्वीप में ही हैं, इसका मुझे पता तो था, किंतु आपसे अभी तक भेंट नहीं कर सका। आपसे भेंट करने की बात सोच ही रहा था, सो आपने स्वयं ही दर्शन दिये। आपके जो ये साथी हैं, इनका परिचय दीजिये।’ मुकुन्ददत्त ने शिष्टाचार प्रदर्शित करते हुए गदाधर का परिचय दिया- ‘ये परम भागवत वैष्णव हैं। बाल्यकाल से ही संसारी विषयों से एकदम विरक्त हैं, आप मिश्रवंशावतंस पं. माधवजी के सुपुत्र हैं और महाप्रभु के परम कृपापात्र भक्तों में से प्रधान अन्तरंग भक्त हैं।’
गदाधरजी की प्रशंसा सुनकर पुण्डरीक महाशय ने परम प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा- ‘आपके कारण इनके भी दर्शन हो गये।’ इतना कहकर विद्यानिधि महाशय मुसकराने लगे। गदाधर तो जन्म से ही विरक्त थे। वे पुण्डरीक महाशय के रहन-सहन और ठाट-बाट को देखकर विस्मित-से हो गये। उन्हें संदेह होने लगा कि ऐसा विषयी मनुष्य किस प्रकार भगवद्भक्त हो सकता है? जो सदा विषय-सेवन में ही निमग्न रहता है, वह भगवद्भक्ति कर ही कैसे सकता है?
मुकुन्ददत्त श्रीगदाधर के मनोभाव को ताड़ गये, इसीलिये उन्होंने पुण्डरीक महाशय के भीतरी भावों को प्रकट कराने के निमित्त श्रीमद्भागवत के दो बड़े ही मार्मिक श्लोकों का अपने सुकोमल कण्ठ से स्वर और लय के साथ धीरे-धीरे गायन किया। उनमें परमकृपालु श्रीकृष्ण की अहैतु की कृपा का बड़ा ही मार्मिक वर्णन है। वे श्लोक सम्पूर्ण भागवत के दो परम उज्ज्वल रत्न समझे जाते हैं। वे श्लोक ये थे-
अहो बकी यं स्तनकालकूटं
जिघांसयापाययदप्यसाध्वी।
लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोऽन्यं
कं वा दयालुं शरणं व्रजेम।।
पूतना लोकबालघ्नी राक्षसी रूधिराशना।’
जिघांसयापि हरये स्तनं दत्त्वाऽऽप सद्गतिम्।।
मुकुन्ददत्त के मुख से इन श्लोकों को सुनते ही विद्यानिधि महाशय मूर्च्छित होकर शय्या से नीचे गिर पड़े। एक क्षण पहले जो खूब सजे-बजे बैठे हँस रहे थे, दूसरे ही क्षण श्लोक सुनने से उनकी विचित्र हालत हो गयी। उनके शरीर में स्वेद, कम्प, अश्रु, विकृति आदि सभी सात्त्विक विकास एक साथ उदय हो उठे। वे जोरों के साथ रुदन करने लगे। उनके दोनों नेत्रों में से निरन्तर दो जल-धारा-सी बह रही थी। घुँघराले कढ़े हुए केश इधर-उधर बिखर गये। सम्पूर्ण शरीर धूलि-धूसरित-सा हो गया। दोनों हाथों से वे अपने रेशमी वस्त्रों को चीरते हुए जोर-जोर से मुकुन्द से कहने लगे- ‘भैया! फिर पढ़ो, फिर पढ़ो। इस अपने सुमधुर गायन से मेरे कर्णरन्ध्रों में फिर से अमृत-सिंचन कर दो।’
मुकुन्द फिर उसी लय से स्वर के साथ श्लोक-पाठ करने लगे। वे ज्यों-ज्यों श्लोक-पाठ करते, त्यों-ही-त्यों पुण्डरीक महाशय की बेकली और बढ़ती जाती थी। वे पुनः-पुनः श्लोक पढ़ने के लिये आग्रह करने लगे, किंतु उनके साथियों ने उन्हें श्लोक-पाठ करने से रोक दिया। पुण्डरीक विद्यानिधि बेहोश पड़े हुए अश्रु बहा रहे थे।
इनकी ऐसी दशा देखकर गदाधर के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। क्षणभर पहले जिन्हें वे संसारी विषयी समझ रहे थे, उन्हें अब इस प्रकार प्रेम में पागलों की भाँति प्रलाप करते देखकर वे भौंचक्के-से रह गये। उनके त्याग, वैराग्य और उपरति के भाव न जाने कहाँ विलीन हो गये, अपने को बार-बार धिक्कार देने लगे कि ऐसे परम वैष्णव के प्रति मैंने ऐसे कलुषित विचार रखकर घोर पाप किया है। वे मन-ही-मन अपने पाप का प्रायश्चित सोचने लगे। अन्त में उन्होंने निश्चय किया कि वैसे तो हमारा यह अपराध अक्षम्य है। भगवदपराध तो क्षम्य हो भी सकता है, किंतु वैष्णवापराध तो सर्वदा अक्षम्य है। इसके प्रायश्चित्त का एक ही उपाय है। हम इनसे मन्त्र-दीक्षा ले लें, इनके शिष्य बन जायँ, तो गुरु-भाव से ये स्वयं ही क्षमा कर देंगे। ऐसा निश्चय करके इन्होंने अपना भाव मुकुन्ददत्त के सम्मुख प्रकट किया। इनके ऐसे विशुद्ध भाव को समझकर मुकुन्ददत्त को बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने इनके विमलभाव की सराहना की।
बहुत देर के अनन्तर पुण्डरीक महाशय प्रकृतिस्थ हुए। सेवकों ने उनके शरीर को झाड़-पोंछकर ठीक किया। शीतल जल से हाथ-मुँह धोकर वे चुपचाप बैठ गये। तब विनीत भाव से मुकुन्द ने कहा- ‘महाशय! ये गदाधर पण्डित कुलीन ब्राह्मण हैं, सत्पात्र हैं, परम भागवत वैष्णव हैं। इनकी हार्दिक इच्छा है कि ये आपके द्वारा मन्त्र ग्रहण करें। इनके लिये क्या आज्ञा होती है?’ कुछ संकोच और नम्रता के साथ विद्यानिधि महाशय ने कहा- ‘ये तो स्वयं ही वैष्णव हैं, हममें इतनी योग्यता कहाँ है, जो इन्हें मन्त्र-दीक्षा दे सकें? ये तो स्वयं ही हमारे पूज्य हैं।’
मुकुन्ददत्त ने अत्यन्त ही दीनता के साथ कहा- ‘इनकी ऐसी ही इच्छा है। यदि आप इनकी इस प्रार्थना को स्वीकार न करेंगे तो इन्हें बड़ा भारी हार्दिक दुःख होगा। आप तो कृपालु हैं, दूसरे को दुःखी देखना ही नहीं चाहते। अतः इनकी यह प्रार्थना अवश्य स्वीकार कीजिये।’
मुकुन्ददत्त के अत्यधिक आग्रह करने पर इन्होंने मन्त्र-दीक्षा देना स्वीकार कर लिया और दीक्षा के लिये उसी दिन एक शुभ-मुहूर्त भी बता दिया। इस बात से दोनों मित्रों को बड़ी प्रसन्नता हुई और वे बहुत रात्रि बीतने पर प्रेम में निमग्न हुए अपने-अपने स्थानों के लिये लौट आये।
इसके दूसरे-तीसरे दिन गुप्तभाव से पुण्डरीक महाशय अकेले ही एकान्त में प्रभु के दर्शनों के लिये गये। प्रभु को देखते ही ये उनके चरणों में लिपटकर फूट-फूटकर रुदन करने लगे। विद्यानिधि को अपने चरणों में पड़े हुए देखकर प्रभु मारे प्रेम के बेसुध-से हो गये। उन्होंने पुण्डरीक विद्यानिधि का जोरों के साथ आलिंगन किया। पुण्डरीक के मिलने से उनके आनन्द का पारावार नहीं रहा। उस समय उनकी आँखों से अविरल अश्रु प्रवाहित हो रहे थे। सम्पूर्ण शरीर पुलकित हो रहा था। वे पुण्डरीक की गोदी में अपना सिर रखकर रुदन कर रहे थे। इस प्रकार दो प्रहर तक विद्यानिधि के वक्षःस्थल पर सिर रखे निरन्तर रुदन करते रहे। पुण्डरीक महाशय के सभी वस्त्र प्रभु के अश्रुओं से भीग गये। पुण्डरीक भी प्रेम में बेसुध हुए चुपचाप प्रभु के मुखकमल की ओर एकटक दृष्टि से देख रहे थे। उन्हें समय का कुछ ज्ञान ही नहीं रहा कि कितना समय बीत गया है। दोपहर के अनन्तर प्रभु को ही कुछ-कुछ होश हुआ। उन्होंने उसी समय भक्तों को बुलाया और सभी से पुण्डरीक महाशय का परिचय कराया। पुण्डरीक महाशय का परिचय पाकर सभी भक्त परम संतुष्ट हुए और अपने भाग्य की सराहना करने लगे। विद्यानिधि ने अद्वैत आदि सभी भक्तों की पदधूलि लेकर अपने मस्तक पर चढ़ायी और सभी को श्रद्धा-भक्ति के साथ प्रणाम किया। इसके अनन्तर पुण्डरीक को बीच में करके सभी भक्त चारों ओर से संकीर्तन करने लगे। श्रीकृष्ण-संकीर्तन को सुनकर पुण्डरीक महाशय फिर बेहोश हो गये। भक्तों ने संकीर्तन बन्द कर दिया और भाँति-भाँति के उपचारों द्वारा पुण्डरीक को होश में किया। कुछ सावधान होने पर प्रभु की आज्ञा लेकर पुण्डरीक अपने स्थान के लिये चले गये।
शाम को आकर गदाधर ने पुण्डरीक के समीप से मन्त्र-दीक्षा लेने की अपनी इच्छा प्रभु के सम्मुख प्रकट की। इस बात को सुनकर प्रभु अत्यन्त ही प्रसन्न हुए और गदाधर से कहने लगे- ‘गदाधर! ऐसा सुयोग तुम्हें फिर कभी नहीं मिलेगा। पुण्डरीक-जैसे भगवद्भक्त का मिलना अत्यन्त ही दुर्लभ है। तुम इस काम में अब अधिक देरी मत करो। यह शुभ काम जितना ही शीघ्र हो जाय उतना ही ठीक है।’
प्रभु की आज्ञा पाकर नियत शुभ तिथि के दिन गदाधरजी ने विद्यानिधि से मन्त्र-दीक्षा ले ली। जिनके लिये महाप्रभु गौरांग स्वयं रुदन करते हों, जिनकी प्रशंसा करते-करते प्रभु अधीर हो जाते हों, गदाधर-जैसे परम त्यागी और महान भक्त जिनके शिष्य बनने में अपना सौभाग्य समझते हों ऐसे भक्ताग्रगण्य श्रीपुण्डरीक विद्यानिधि की विशद विरुदावली का बखान कौन कर सकता है? सचमुच विद्यानिधि की भक्ति परम शुद्ध और सात्त्विक कही जा सकती है, जिसमें देखावटी या बनावटीपन का लेश भी नहीं था। ऐसे प्रच्छन्न भक्तों की पदधूलि से पापी-से-पापी पुरुष भी परम पावन बन सकता है।
क्रमशः अगला पोस्ट [53]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram The disguised devotee Pundarika Vidyanidhi
That stone-hearted bat That which is taken by the names of Hari. Then when the transformation is not sold Tears in his eyes and joy in the hairs of his body
In whose heart devotion has arisen towards God, whose heart is colored with black color, who is engrossed in the melodious names of God and His world-purifying pastimes, only those fortunate devotees have actually made the human body meaningful. Is. It has often been seen that those who are blessed by the Lord, who become mad in the love of the Lord, their external life also becomes sacrificial, because the one who has drunk that wonderful Premasav even once, then he will not be able to live in any worldly life of Triloki. There are happiness, everything seems to be faded. In worldly pleasures, a man experiences happiness only till he does not know the real happiness. The one who has seen Premdev in the form of happiness even for a moment, then all the worldly things will appear insignificant to him. That’s why it has often been seen that the life of the devotees of God and devotees who are devoted to God’s path is always renunciation. They stay away from worldly pleasures by nature, but some such devotees also come to see that whose life seems like that of worldly people from above, but the heart is full of immense devotion. Which starts flowing out through the eyes as soon as it gets hurt a little. In fact, devotion is related to the heart, if the mind is not engrossed in sensual desires, then no matter what the situation may be, the heart will always think about the lotus feet of the Lord. Thinking this, great poet Keshav says-
Somewhere ‘Keshav’ wakes up inside, so the body is consumed outside. The mind is in the hands of whose straw the house is built, the house is built.
It has often been seen that by leading a renunciation life, such a belief develops in the mind of a seeker that devotion to God cannot be attained without living an outwardly renunciation life. This is a big obstacle in the path of devotion, the more renunciation life is spent, the better it is, but insisting that one cannot become a devotee without renunciation in nature is a kind of pride born of renunciation. The devotee, being lower than grass, should bow down to the earth like a stick, not even with the mind, but with the body, even the dog, the Chandal, the cow and the donkey, only then the pride will be removed. What can one say about the devotees in what form they live? Devotees have been seen living in various circumstances, so one should never think that the one whose life does not show signs of external renunciation is not a devotee.
Pundarika Vidyanidhi was one such disguised devotee. Seeing his conduct, no one could understand that he is a devotee, everyone considered him to be a subject. People continued to understand, but Pundrik Mahasaya always lived deeply in the love of God, he rarely did any work to show it to the people, he was busy with his beloved. By the way, his external behavior was like that of worldly people. He was born in a noble family, he was very beautiful to look at, his body was soft like a prince’s son, his hair was very smooth and soft, he had black curly hair, he always used to put precious fragrant oil in it, wash his body with boiling water and oil. – Keeps it very clean from flowerel. Wearing very fine silk clothes. Never used to go to bathe in the Ganges. People used to think that he did not have devotion in Ganga ji, but he had unique devotion towards Mother Ganga in his heart. He did not go to bathe because of the fear that his feet would be touched by the mother’s water. Seeing people throwing excrement and bones, applying oil and throwing hair in Ganga ji, he used to feel very sad. He used to drink Ganges water even before Devarchan, thus all his words were public. That’s why people always used to ignore him by calling him very worldly.
One day the Lord got emotional and started crying loudly saying ‘Ha Pundrik Vidyanidhi’, ‘O my father Vidyanidhi’. Saying ‘Pundarik’, ‘Pundarik’, he became impatient and fainted and fell on the earth. The devotees started looking at each other. Everyone was surprised. At first, the devotees understood that by saying ‘Pundarik’, the meaning of the Lord is Shri Krishna only, then when they noticed the post of Vidyanidhi with Pundarik, then they guessed whether or not there are any devotees of this name. Even after thinking a lot, those people could not remember any Vaishnav devotee named ‘Pundarik Vidyanidhi’ in Navadweep. After a while, when the Lord lost his senselessness, the devotees humbly asked – ‘Who is the supreme Bhagwat gentleman, Bhagya Pundrik Vidyanidhi, whose name the Lord was crying out loud?’
Prabhu said with seriousness- ‘He is a supreme disguised Vaishnava devotee, you people cannot know by looking at him that he is Vaishnava, his external conduct and thoughts are often like those of worldly men. He is a very noble Brahmin resident of Chittagong, he also has a house in Shantipur, sometimes he comes from Chittagong to Shantipur for the sake of Gangesavan, he is my very dear devotee. He is my inner soulmate. I am impatient without his darshan. Which will be that good day when I will cry hugging them with love? Hearing such words of the Lord, everyone was very happy and everyone started expressing great eagerness to have a darshan of Pundrik Vidyanidhi. Everyone guessed that when the Lord weeps for them like this, He is going to come to Navadvipa very soon. Who can stay in his house after remembering the Lord, that’s why all the devotees started waiting for the arrival of Vidyanidhi.
One day Mr. Pundrik quietly came to Navadweep. No one came to know of his arrival. Many devotees also saw him, but seeing him who could have guessed that he is Param Bhagwat Vaishnav? The devotees considered him to be a worldly rich man, that is why the devotees remained ignorant of his arrival.
Readers must remember the name of Mukund Dutt. He was a Param Bhagwat Vaishnava student from Chittagong. His voice was very melodious. He used to study near Advaitacharya and used to delight the devotees with his melodious singing in his satsang-meetings. Ever since the light of the Lord has appeared, since then they have taken refuge in him and are always engaged in Shri Krishna-Katha and Sankirtan together with the Lord. Vidyanidhi was from his village only. Both were well-known to each other and to each other. Only Mukundadatta and Vasudev Pandit knew the devotion of Vidyanidhi. Mukunda was very fond of Gadadhar, the most intimate devotee of the Lord. That’s why one day he said in solitude – ‘ Gadadhar! Nowadays a supreme Bhagwat Vaishnav is staying in Navadweep, come, let’s visit him.’
Expressing happiness, Gadadhar said – ‘ Wow! What could be better than this? The philosophy of the devotees of Bhagavad is the same as that of God. Must go, those whom you admire, they must be some great Bhagwat Vaishnav!’ Having said this, both the friends went near Vidyanidhi. Vidyanidhi was staying in a beautiful house in Navadvipa. His living place was very clean. A very fine bed was lying in it, its four feet were made of many precious metals like a tiger’s face, a very soft bed was spread on it. Pundrik Mahasaya retired from bath and meditation and was half-lying on that bed. Beautifully scented sandalwood was studded on his broad forehead, with a beautiful red dot in the middle. The curly hair of the head was decorated in a strange way by pouring fine fragrant oil, they were slowly chewing many types of spicy betel leaves, like their soft pallavs, both Arun Adhar became even more red due to the redness of the betel. Were. Two spittoons were kept in front. Many other valuable beautiful utensils were kept here and there. Two servants were fanning them with the soft wings of a peacock. He looked just like a prince. Taking Gadadhar with him, Mukundadatta reached near him and both of them bowed down and sat on the beautiful seat told by him.
Expressing happiness at the arrival of Mukundadatta, Mr. Pundrik started saying – ‘Today is a very auspicious day, that I got to see you. I knew that you are in Navadvipa only, but could not meet you till now. I was thinking of meeting you, so you yourself appeared. Introduce these companions of yours.’ Mukundadatta, showing courtesy, introduced Gadadhar – ‘He is the supreme Bhagwat Vaishnav. Completely detached from worldly subjects since childhood, you are the son of Mishravanshavatans Pt. Madhavji and the chief intimate devotee among the most favored devotees of Mahaprabhu.
After listening to the praise of Gadadharji, Pundarik Mahasaya expressed great happiness and said- ‘Because of you he also got darshan.’ Saying this, Vidyanidhi Mahasaya started smiling. Gadadhar was detached from birth. They were amazed to see Pundarika Mahasaya’s lifestyle and pomp. He began to doubt that how such a sensual man could be a devotee of the Lord? One who is always engrossed in sensual pleasures, how can he do devotional service to the Lord?
Mukundadatta was touched by Shrigadadhar’s emotion, so he slowly sang two very poignant verses of Shrimad Bhagwat with voice and rhythm in his soft voice to reveal the inner feelings of Pundarika Mahasaya. In them there is a very poignant description of the causeless mercy of the Supreme Lord Krishna. Those verses are considered to be the two supremely bright gems of the entire Bhagwat. Those verses were:
Oh, Bucky, whose breasts are black Jighansayapayadapyasadhvi. He got the movement the midwife deserved and then another To whom shall we turn for refuge, O merciful one?
Putana is a demoness who kills the children of the world and eats blood. Even with the intention of killing him she gave her breast to the monkey and gave him a good path
On hearing these verses from the mouth of Mukundadatta, Vidyanidhi Mahasaya fainted and fell down from the bed. A moment ago, those who were sitting in a well-dressed and laughing, the next moment they were in a strange condition after listening to the verses. Sweat, tremors, tears, distortion etc. all the sattvik developments emerged simultaneously in his body. They started crying loudly. Two streams of water were continuously flowing from both his eyes. Curly braided hair scattered here and there. The whole body turned like dust. Tearing their silk clothes with both hands, they started saying loudly to Mukund – ‘Brother! Read again, read again. With this melodious singing of yours, once again irrigate my ear canals with nectar.’
Mukund again started reciting verses with voice in the same rhythm. As he recited the verses, Pundrik Mahasaya’s anger kept on increasing. He started urging to read the verses again and again, but his companions stopped him from reciting the verses. Pundarika Vidyanidhi was shedding tears lying unconscious.
Gadadhar’s surprise knew no bounds after seeing his condition. A moment ago, he was astonished to see those whom he considered to be worldly subjects, now raving like madly in love. Don’t know where their feelings of renunciation, disinterest and subordination merged, they started cursing themselves again and again that I have committed a grave sin by keeping such dirty thoughts towards such a Param Vaishnav. They started thinking of atonement for their sin. In the end, he decided that anyway this crime of ours is unforgivable. Bhagavadpradha can be forgivable, but Vaishnavapradha is always unforgivable. There is only one way to atone for this. If we take mantra-diksha from him, become his disciple, then he will forgive himself with the feeling of Guru. With this determination, he expressed his feelings in front of Mukundatta. Mukundadatta was very pleased to understand such pure feelings of his and he appreciated his Vimalbhav.
After a long time, Mr. Pundrik became natural. The servants cleaned his body by sweeping it. After washing his hands and face with cool water, he sat quietly. Then Mukund politely said – ‘Sir! This Gadadhar Pandit is a noble Brahmin, a worthy person, a supreme Bhagwat Vaishnav. He has a heartfelt desire that he should receive the mantra from you. What is the order for them?’ With some hesitation and humility, Vidyanidhi Mahasaya said – ‘He himself is a Vaishnav, where do we have the ability to give him Mantra-Diksha? He himself is our worshipper.
Mukundadatta said with great humility – ‘ He has such a wish. If you don’t accept his prayer, he will feel very sad. You are kind, don’t want to see others sad. Therefore, please accept this prayer of his.
On the strong request of Mukundadatta, he accepted to give Mantra-Diksha and also told an auspicious time for initiation on the same day. This made both the friends very happy and after a long night they returned to their respective places engrossed in love.
After this, on the second-third day, in secret, Pundrik Mahasaya went alone in solitude for the darshan of the Lord. On seeing the Lord, they started crying bitterly by hugging the feet of the Lord. Seeing Vidyanidhi lying at his feet, Prabhu Mare became unconscious of love. He embraced Pundarika Vidyanidhi with a hug. His joy knew no bounds after meeting Pundrik. At that time, tears were flowing continuously from his eyes. Whole body was trembling. He was crying keeping his head on Pundarika’s lap. In this way, keeping his head on Vidyanidhi’s chest, kept crying continuously for two hours. All the clothes of Pundarik Mahasaya got wet from the tears of the Lord. Pundarik was also silently gazing at the lotus face of the Lord, unconscious of love. They have no knowledge of time that how much time has passed. In the late afternoon only the Lord regained some consciousness. At the same time he called the devotees and introduced Pundrik Mahasaya to everyone. All the devotees were extremely satisfied after getting the introduction of Pundarika Mahasaya and started appreciating their fortune. Vidyanidhi took the dust of all the devotees like Advaita and put them on his head and bowed down to everyone with reverence and devotion. After this, keeping Pundrik in the middle, all the devotees started chanting from all sides. Pundarik Mahasaya fainted again after listening to Shri Krishna-Sankirtan. The devotees stopped the sankirtan and brought Pundarika to his senses by various remedies. After being somewhat cautious, taking the permission of the Lord, Pundrik went to his place.
Coming in the evening, Gadadhar expressed his desire before the Lord to take mantra-diksha near Pundarika. The Lord was very pleased to hear this and said to Gadadhar – ‘ Gadadhar! You will never get such an opportunity again. It is very rare to find a devotee of the Lord like Pundarika. Don’t delay this work any longer. The sooner this auspicious work is done, the better it is.
After getting the permission of the Lord, on the appointed auspicious date, Gadadharji took Mantra-Diksha from Vidyanidhi. Who can narrate the vivid Virudavali of Bhaktagraganya Shripundarika Vidyanidhi, for whom Mahaprabhu Gauranga himself weeps, for whom the Lord becomes impatient while praising, Gadadhara-like supreme renunciate and great devotee who considers it his good fortune to be his disciple? Truly Vidyanidhi’s devotion can be said to be supremely pure and sattvic, in which there was not even a trace of showiness or artificiality. With the dust of the feet of such disguised devotees, even the worst of sinners can become pure.
respectively next post [53] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]