[63]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
जगाई-मधाई की क्रूरता
नित्यानन्द की उनके उद्धार के निमित्त प्रार्थना

किं दु:सहं नु साधूनां विदुषां किमपेक्षितम्।
किमकार्यं कदर्याणां दुस्त्यजं किं धृतात्मनाम्।।

यदि इस स्वार्थपूर्ण संसार में साधु पुरुषों का अस्तित्व न होता, यदि इस पृथ्‍वी को परमार्थी महापुरुष अपनी पद-धूलि से पावन न बनाते, यदि इस संसार में सभी लोग अपने-अपने स्वार्थ की ही बात सोचने वाले होते तो यह पृथ्‍वी रौरव नरक के समान बन जाती। इस दु:खमय जगत को परमार्थी साधुओं ने ही सुखमय बना रखा है, इस निरानन्द जगत को अपने नि:स्वार्थभाव से महात्माओं ने ही आनन्द का स्वरूप बना रखा है। स्वार्थ में चिन्ता है, परमार्थ में उल्लास। स्वार्थ में सदा भय ही बना रहता है, परमार्थ-सेवन से प्रतिदिन अधिकाधिक धैर्य बढ़ता जाता है। स्वार्थ में सने रहने से ही दीनता आती है, परमार्थी निर्भिक और निडर होता है। इतना सब होने पर भी क्रूर पुरुषों का असितत्त्व रहता ही है। यदि अविचारी पाप कर्म करने वाले क्रूर पुरुष न हों तो महात्माओं की दया, सहनशीलता, नम्रता, सहिष्‍णुता, सरलता, परोपकारिता तथा जीवमात्र के प्रति अहैतु की करुणा का प्रकाश किस प्रकार हो? क्रूर पुरुष अपनी क्रूरता करके महापुरुषों को अवसर देते हैं कि वे अपनी सद्वृत्तियों को लोगों के सम्मुख प्रकट करें, जिनका अनुसरण करके दु:खी और चिन्तित पुरुष अपने जीवन को सुखमय और आनन्दमय बना सकें। इसीलिये तो सृष्टि के आदि में ही मधु-कैटभ नाम के दो राक्षस ही पहले-पहल उत्पन्न हुए। उन्हें मारने पर ही तो भगवान मधु-कैटभारि बन सके। रावण न होता तो राम जी के पराक्रम को कौन पहचानता? पूतना न होती तो प्रभु की असीम दयालुता का परिचय कैसे मिलता? शिशुपाल यदि गाली देकर भगवान के हाथ से मरकर मुक्ति-लाभ न करता तो ‘क्रोधोअपि देवस्य वरेण तुल्य:’[2]

इस महामन्त्र का प्रचार कैसे होता? अजामिल-जैसा नीच कर्म करने वाला पापी पुत्र के बहाने ‘नारायण’ नाम लेकर सद्गति प्राप्‍त न करता तो भगवन्नाम की इतनी अधिक महिमा किस प्रकार प्रकट होती? अत: जिस प्र‍कार संसार को महात्मा और सत्पुरुषों की आवश्‍यकता होती है, उसी प्रकार दुष्‍टों की क्रूरता से भी उसका बहुत कुछ काम चलता है। भगवान तो अवसर तब धारण करते हैं जब पृथ्‍वी पर बहुत-से क्रूर कर्म करने वाले पुरुष उत्पन्न हो जाते हैं। क्रूरकर्मा पुरुष अपनी क्रूरता करने में पीछे नहीं हटते और महात्मा अपने परमार्थ और परोपकार के धर्म को नहीं छोड़ते। अन्त में विजय धर्म की ही होती है; क्योंकि ‘यतो धर्मस्ततो जय:।’

महाप्रभु गौरांगदेव की समय में भी नवद्वीप में जगाई-मधाई (जगन्नाथ-माधव) नाम के दो क्रूरकर्मा ब्राह्मण‍कुमार निवास करते थे। ‘राक्षसा: कलिमाश्रित्य जायन्ते ब्रह्मयोनिषु’ अर्थात ‘कलियुग आने पर राक्षस लोग ब्राह्मणों के रूप में पृथ्‍वी पर उत्पन्न हो जायंगे।’ शास्त्र के इस वाक्य का प्रत्यक्ष प्रमाण जगाई-मधाई दोनों भाइयों के जीवन में दृष्टिगोचर होता था। वे उस समय गौडे़श्‍वर की ओर से नदिया के कोतवाल बनाये गये थे। कोतवाल क्या थे, प्रजा का संहार करने वाले एक प्रकार से नवद्वीप के बिना छत्र के बादशा‍ह ही थे। इनसे ऐसा कोई भी दुष्‍कर्म नहीं बचा था, जिसे ये न करते हों। मनुष्‍य के विनाश के जितने लक्षण बताये हैं, वे सब इनके नित्‍य-नैमित्तिक कर्म थे। भगवान ने विनाश के लक्षणों का स्‍वयं वर्णन किया है-

यदा देवेषु वेदेषु गोषु विप्रेषु साधुषु।
धर्मे मयि च विद्वेष: स वा आशु विनश्‍यति।।

भगवान कहते हैं- ‘जिस समय मनुष्‍य देवताओं से, वैदिक कर्मों से, गौओं से, ब्राह्मणों से, साधु-महात्‍माओं से, धार्मिक कृत्‍यों से और मुझसे विद्वेष करने लगता है, तो उसका शीघ्र ही नाश हो जाता है।’ इनसे कोई भी बात नहीं बची थी। देवताओं के म‍ंदिर में जाना तो उन्होंने जन्‍म से ही नहीं सीखा था, ब्राह्मण होने पर भी ये वेद का नाम तक नहीं जानते थे। मांस तो इनका नित्‍यप्रति का भोजन ही था, साधु-ब्राह्मणों की अवज्ञा कर देना तो इनके लिये साधारण-सी बात थी। जिसे भी चाहते बाजार में खड़ा करके जूतों से पिटवा देते। किसी का सम्‍मान करना तो ये जानते ही नहीं थे। अच्‍छे-अच्‍छे कर्मकाण्‍डी और विद्वान ब्राह्मण इनके नाम से थर-थर कांपने लगते थे। किसी को इनके सामने तक जाने की हिम्‍मत नहीं होती थी।

धर्म किस चिड़िया का नाम है और वह कहाँ रहती है, इसका तो इन्‍हें पता ही नहीं था। धनिकों के यहाँ डाका डलवा देना, लोगों को कत्‍ल करा देना, पतिव्रताओं के सतीत्‍व को नष्‍ट करा देना, यह तो इनके लिये साधारण-से कार्य थे। न किसी से सीधी बात करना और न किसी के पास बैठना, बस, खूब मदिरा-पान करके उसी के मद में मतवाले हुए ये सदा पापकर्मों में प्रवृत्त रहते थे। ये नगर के क़ाज़ी को खूब धन दे देते, इसलिये वह भी इनके विरुद्ध कुछ नहीं कहता था। वैसे इनका घर तो भगवती भागीरथी के तटपर ही था, किंतु ये घर में नहीं रहते थे। सदा डेरा-तम्‍बू लेकर एक मुहल्‍ले से दूसरे मुहल्‍ले में दौरा करते। अब के इस मुहल्‍ले में इनका डेरा पड़ा है तो अब के उसमे। इसी प्रकार ये मुहल्‍ले-मुहल्‍ले में दस-दस, बीस-बीस दिन रहते। जिस मुहल्‍ले में इनका डेरा पड़ जाता, उस मुहल्‍ले के लोगों के प्राण सूख जाते। कोई भी इनके सामने होकर नहीं निकलता था, सभी आँख बचाकर निकल जाते। इस प्रकार इनके पाप पराकाष्‍ठापर पहुँच गये थे। उस समय ये नवद्वीप में अत्‍याचारों के लिये रावण-कंस की तरह, व‍क्रदंत-शिशुपाल की तरह, नादिरशाह-गजनी की तरह तथा डायर-आडायर की तरह प्रसिद्ध हो चुके थे।

एक दिन ये मदिरा के मद में उन्‍मत्त हुए पागलों की भाँति प्रलाप-सा करते हुए लाल-लाल आँखें किये जा रहे थे। रास्‍ते में नित्‍यानंद जी और हरिदास जी ने इन्‍हें देखा। इनकी ऐसी शोचनीय और विचित्र दशा देखकर नवद्वीप में नये ही आये हुए नित्‍यानंद जी लोगों से पूछने लगे- ‘क्‍यों जी! ये लोग कौन हैं और इस प्रकार पागलों की तरह क्‍यों बकते जा रहे हैं? वेषभूषा से तो ये कोई सभ्‍य पुरुष-से जान पड़ते हैं!’

लोगों ने कुछ सूखी हंसी हंसते हुए उत्तर दिया- ‘मालूम पड़ता है अभी आपको इनसे पाला नहीं पड़ा है। तभी ऐसी बातें पूछ रहे हैं। ये यहाँ के साक्षात यमराज हैं। पापियों को भी सम्भवतया यमराज से इतना डर न लगता होगा जितना कि नवद्वीप के नर-नारियों को इन नराधमों से लगता है। इन्होंने जन्म तो ब्राह्मण के घर में लिया है, किंतु वे काम चाण्‍डालों से भी बढ़कर करते हैं। देखना, आप कभी इनके सामने होकर नहीं निकलना। इन्हें साधुओं से बड़ी चिढ़ है। यदि इन्होंने आपलोगों को देख भी लिया तो खैर नहीं है। परदेशी समझकर हमने यह बात आपको समझा दी है।’

लोगों के मुख से ऐसी बात सुनकर नित्यानन्द जी को इनके ऊपर दया आयी। वे सोचने लगे- ‘जो लोग नाम में श्रद्धा रखते हैं और सदा सत्कर्मों को करने की चेष्‍टा करते रहते हैं, यदि ऐसे लोग हमारे कहने से भगवन्नाम का कीर्तन करते हैं, इसमें तो हमारे प्रभु की विशेष बड़ाई नहीं है। प्रंशसा की बात तो यह है कि ऐसे पापी भी पाप छोड़कर भगवन्नाम का आश्रय ग्रहण करके प्रभु की शरण में आ जायं। भगवन्नाम का असली महत्त्‍व तो तभी प्र‍कट होगा। ऐसे लोग ही सबसे अधिक कृपा के पात्र हैं। ऐसे ही लोगों के लिये तो भगवन्नाम-उपदेश की परम आवश्‍यकता है। किसी प्रकार इन लोगों का उद्धार होना चाहिये।’ इस प्रकार नित्यानन्द जी मन-ही-मन विचार करने लगे। जिस प्राणी के लिये महात्माओं के हृदय में शुभकामना उत्पन्न हो जाय, महात्मा जिसके भले के लिये विचारने लगें, समझना चाहिये उसका तो कल्‍याण हो चुका। फिर उसके उद्धार में देरी नहीं हो सकती। महात्माओं की यथार्थ इच्छा अथवा सत्संकल्प होते ही पापी-से-पापी प्राण भी पवन पावन और पुण्‍यवान बन सकता है। जब निताई के हृदय में इन दोनों भाइयों के उद्धार के निमित्त चिन्ता होने लगी, तभी समझना चाहिये, इनके पापों के क्षय होने का समय अत्यन्त ही समीप आ पहुँचा। मानों अब इनका सौभाग्‍य-सूर्य कुछ ही काल में उदय होने वाला हो।

नित्यानन्द जी ने अपने मनोगत विचार हरिदास जी पर प्रकट किये। हरिदास जी ने कहा- ‘आप तो बिना सोचे ही बर्रों के छत्ते में हाथ डालना चाहते हैं। अभी सुना नहीं, लोगों ने क्या कहा था?’
नित्यानन्द जी ने कुछ गम्भीरता के साथ कहा- ‘सुना तो सब कुछ, किंतु इतने से ही हमें डर जाना तो न चाहिये। हमें तो भगवन्नाम का प्रचार करना है।’ हरिदास जी ने कहा- ‘मैं यह कब कहता हूँ कि भगवन्नाम का प्रचार बंद कर दीजिये? चलिये, जैसे कर रहे हैं दूसरी ओर चलकर नाम का प्रचार करें। इन सोते सिंहों को जगाने से क्या लाभ?’

नित्यानन्द जी ने कहा- ‘आपकी बात तो ठीक है, किंतु प्रभु की तो आज्ञा है कि भगवन्नाम-वितरण में पात्रापात्र का ध्‍यान मत रखना, सभी को समानभाव से उपदेश करना। पापी हो या पुण्‍यात्मा, भगवन्नाम ग्रहण करने के तो सभी अधिकारी हैं। इसलिये इन्हें भगवन्नाम का उपदेश क्यों न किया जावे?’

हरिदास जी ने कुछ नम्रता के स्वर में कहा- ‘यह तो ठीक है। आपके सामने जो भी पड़े उसे ही भगवन्नाम का उपदेश करो, किंतु इन्हीं को विशेष-रूप से उद्देश्‍य करके इनके पास चलना ठीक नहीं। इन्हीं के पास हठपूर्वक क्यों चला जाय? भगवन्नाम का उपदेश करने के लिये और भी बहुत-से मनुष्‍य पड़े हैं। उन्हें चलकर उपदेश कीजिये।‘

नित्यानन्द जी ने कुछ दृढ़ता के साथ कहा- ‘देखिये, जो अधिक बीमार होता है, जिसे अन्य रोगियों की अपेक्षा ओषधि की अधिक आवश्‍यकता होती है, बुद्धिमान वैद्य सबसे पहले उसी रोगी की चिकित्सा करता है और उसे ओषधि देकर तब दूसरे रोगी की नाड़ी देखता है। अन्य लोगों की अपेक्षा भगवन्नाम की इन्हीं लोगों को अधिक आवश्‍यकता है। इनके इतने क्रूर कर्मों का भगवन्नाम से ही प्रायश्चित्त हो स‍कता है। इनकी निष्‍कृतिका दूसरा कोई मार्ग है ही नहीं। क्यों ठीक है न? आप मेरी बात से सहमत हैं न?’ हरिदास जी ने कहा- ‘जैसी आपकी इच्छा, यदि आप इन्हें ही सबसे अधिक भगवन्नाम का अधिकारी समझते हैं तो इसमें कोई आपत्ति नहीं। मैं भी आपके साथ चलने को तैयार हूँ।’ यह कहकर हरिदास जी-

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हरे कृष्‍ण हरे कृष्‍ण कृष्ण कृष्‍ण हरे हरे।।

इस महामन्त्र का अपने सुमधुर कण्‍ठ से गान करते हुए जगाई-मधाई के डेरे की ओर चले। इन दोनों को बादशाह की ओर से थोड़ी-सी फौज भी मिली हुई थी। उसे ये सदा साथ रखते थे। ये दोनों संन्यासी निर्भीक होकर भगवन्नाम का गान करते हुए इनके निवास-स्थान के समीप पहुँचे।

दैवयोग से ये दोनों भाई सामने ही सुरा के मद में चूर हुए पलंगो पर बैठे थे। इन दोनों को अपने सामने गायन करते देखकर इन‍की ओर लाल-लाल आँखों से देखते हुए वे लोग बोले- ‘तुम लोग कौन हो और क्या चाहते हो?’

नित्यानन्द जी ने बड़े मधुर स्वर में कहा-

‘कृष्‍ण कहो, कृष्‍ण भजो, लेहु कृष्‍ण नाम।
कृष्‍ण माता, कृष्‍ण पिता, कृष्‍ण धन प्राण।।

इसके अनन्तर वे कहने लगे- ‘हम भिक्षुक हैं, आपसे भिक्षा मांगने आये हैं, आप अपने मुख से-

श्रीकृष्‍ण गोविन्द हरे मुरारे। हे नाथ नारायण वासुदेव।।

-भगवान के इन मधुर नामों का उच्चारण करें, यही हम लोगों की भिक्षा है।’ इतना सुनते ही ये दोनों भाई मारे क्रोध के लाल हो गये और जल्दी से उठकर इनकी ओर झपटे। झपटते हुए उन्होंने कहा- ‘कोई है नहीं, इन दोनों बदमाशों को पकड़ तो लो।’ बस, इतना सुनना था कि नित्यानन्द जी ने वहाँ से दौड़ लगायी। हरिदास जी भी हांफते हुए उनके पीछे दौड़ने लगे, किंतु शरीर से स्थूल और अधिक अवस्था होने के कारण वे दुबले-पतले चंचल युवक निताई के साथ कैसे दौड़ सकते थे? नित्यानन्द जी ने उनकी बाँह को कसकर पकड़ लिया और उन्हें घसीटते हुए दौड़ने लगे। हरिदास जी किढरते हुए नित्यानन्द जी के साथ जा रहे थे। जगाई-मधाई के नौकर कुछ दूर तो इन्हें पकड़ने के लिये दौडे़, फिर वे यह सोचकर लौट गये कि ये तो नशे में ऐसे बकते ही रहते हैं, हम इन साधुओं को पकड़कर क्या पावेंगे? उन्होंने इन दोनों का बहुत दूर तक पीछा नहीं किया।

हरिदास जी हाँफ रहे थे, वे बार-बार पीछे देखते जाते थे। अन्त में वे बहुत ही अधिक थक गये। झुंझलाकर नित्यानन्द जी से बोले- ‘अजी, अब तो छोड़ दो, दम तो निकला जाता है, क्या प्राण लेकर ही छोड़ोगे? आपने तो मेरी कलाई इतनी कसकर पकड़ ली है कि दर्द के मारे मरा जाता हुँ। अब तो कोई पीछे भी नहीं आ रहा है।’

नित्यानन्द जी ने भागते-भागते कहा- ‘थोड़ी-सी हिम्मत और करो। बस, इस अगले तालाब तक की ही तो बात है।’

हरिदास जी ने कुछ क्षोभ के साथ कहा- ‘भाड़ में गया आपका तालाब! यहाँ तो प्राणों पर बीत रही है, आपको तालाब सूझ रहा है। छोड़ो मेरा हाथ!’ यह कहकर बूढ़े हरिदास जी ने जोर से एक झटका दिया; किंतु भला निताई से वे बांह कैसे छुड़ा सकते थे? तब तो नित्यानन्द जी हंसकर खडे़ हो गये। हरिदास जी बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े। जोरों से सांस लेते हुए कहने लगे- ‘रहने भी दीजिये, आप तो सदा चंचलता ही करते रहते हैं। मैंने पहले ही मना किया था। आप माने ही नहीं। एक तो जिद्द करके वहाँ गये और दूसरे मुझे खींच-खींचकर अधमरा कर दिया।’

हंसते हुए नित्यानन्दजी ने कहा- ‘आपकी ही सम्मति से तो हम गये थे। यदि आप सम्मति ने देते तो हम क्यों जाते? आप ही तो हम दोनों में बुजुर्ग हैं।’

हरिदास जी ने कुछ रोष में आकर कहा- ‘बुजुर्ग हैं पत्‍थर! मेरी सम्मति से गये थे तो वहाँ से भाग क्यों आये? तब मेरी सम्मति क्यों नहीं ली?’
जोरों से हंसते हुए नित्यानन्द जी ने कहा- ‘यदि उस समय आपकी सम्मति की प्रतीक्षा करता, तो सब मामला साफ ही हो जाता।’ इस प्रकार आपस में एक-दूसरे को प्रेम के साथ ताने देते हुए ये दोनों प्रभु के निकट पहूंचे। उस समय प्रभु भक्तों के साथ बैठे श्रीकृष्‍ण-‍कथा कह रहे थे। इन दोनों प्रचारक तपस्वियों को देखकर वे प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहने लगे- ‘लो, भाई! युगल-जोड़ी आ गयी। प्रचारक-मण्‍डल के मुखिया आ गये। अब आप लोग इनके मुख से नगर-प्रचार का वृत्तान्त सुनिये।‘

प्रभु के ऐसा कहने पर हरिदास जी ने कहा- ‘प्रभो! श्रीपाद नित्यानन्द जी बड़ी चंचलता करते हैं, इन्हें आप समझा दीजिये कि थोड़ी कम चंचलता किया करें।’

प्रभु ने पूछा- ‘क्यों-क्यों? बात क्या है, क्‍या हुआ? आज कोई नयी चंचलता कर डाली क्‍या? हाँ, आज आपलोग दोनों ही बहुत थके हुए-से मालूम पड़ते हैं। सब सुनाइये।‘
प्रभु के पूछने पर हरिदास जी ने सब वृत्तांत सुनाते हुए कहा- ‘लोगों ने बार-बार उन दोनों भाइयों के पास जाने से मना किया था, किंतु ये माने ही नहीं। जब उन्‍होंने डांट लगायी, तब वहाँ से बालकों की भाँति भाग छूटे। लोग कह रहे थे, अब की‍र्तन वालों की खैर नहीं। ये राक्षस-भाई कीर्तन वालों को बंधवा मंगावेंगे। लोग परस्‍पर में ऐसी ही बातें कह रहे थे।‘
हरिदास जी की बात सुनकर हंसते हुए प्रभु ने नित्‍यानंद जी से कहा- ‘श्रीपाद! उन लोगों के समीप जाने की आपको क्‍या आवश्‍यकता थी? थोड़ी कम चंचलता किया कीजिये। ऐसा चांचल्‍य किस काम का?’

कुछ बनावटी प्रेम-कोप प्रदर्शित करते हुए नित्‍यानंद जी ने कहा- ‘इस प्रकार मुझसे आपका यह काम नहीं होने का। आप तो घर में बैठे रहते हैं, आपको नगर-प्रचार की कठिनाइयों का क्‍या पता? एक बार तो कहते हैं सभी को नाम का प्रचार करो। ब्राह्मण से चाण्‍डालपर्यंन्‍त और पापी से लेकर पुण्‍यात्‍मा तक सभी भगवन्‍नाम के अधिकारी हैं और अब कहते हैं, उनके पास क्‍यों गये? सबसे बड़े अधिकारी तो वही हैं। हम तो जन्‍म से ही घर-बार छोड़कर टुकड़े मांगते फिरते हैं, हमारा उद्धार करने में आपकी कौन-सी बड़ाई है?

आपका पतित पावन नाम तो तभी सार्थक हो सकता है, जब ऐसे-ऐसे भयंकार क्रूर कर्म करने वाले पापियों का उद्धार करें। अब यों घर में बैठे रहने से काम न चलेगा। ऐसे घोर पापियों को जब तक हरि-नाम की शरण में लाकर भक्त न बनावेंगे, तब तक लोग हरि-नाम का महत्त्व ही कैसे समझ सकेंगे।’

कुछ हंसते हुए प्रभु भक्तों से कहने लगे- ‘श्रीपाद जिनके उद्धार की इतनी भारी चिंता है, वे महाभागवत पुरुष कौन हैं?’
पास ही में बैठे हुए श्रीवास और गंगादास भक्तों ने कहा- ‘प्रभो! वे महाभागवत नहीं है, वे तो ब्राह्मण-कुल-कण्‍टक अत्‍यंत क्रूर प्रकृति के राक्षस हैं। सम्‍पूर्ण नगर में उनका आतंक छाया हुआ है।’ यह कहकर उन लोगों ने जगाई-मधाई की बहुत-सी क्रूरताओं का वर्णन किया।
प्रभु ने हंसते हुए कहा- ‘अब वे कितने दिनों तक क्रूरता कर सकते हैं? श्रीपाद के जिन्‍हें दर्शन हो चुके और इनके मन में जिनके उद्धार का विचार आ चुका, वे क्‍या फिर पापी ही बने रह सकते हैं? श्रीपाद जिसे चाहें उसे भक्त बना सकते हैं, फिर चाहे वह कितना भी बड़ा पापी क्‍यों न हो।’ इस प्रकार निताई ने संकेत से ही प्रभु के समीप जगाई-मधाई के उद्धार की प्रार्थना कर दी और प्रभु ने भी संकेत द्वारा ही उन्‍हें उन दोनों भाइयों के उद्धार का आश्‍वासन दिला दिया। सचमुच महात्‍माओं के हृदयों में दूसरों के प्रति स्‍वा‍भाविक ही दया उत्‍पन्‍न हो जाती है। उनके समीप आकर कोई दया की प्रार्थना करे तभी वे दया करें यह बात नहीं है, किंतु उनका स्‍वभाव ही ऐसा होता है कि बिना कहे ही वे दीन-दु:खियों पर दया करते रहते हैं। बिना दया किये वे रह ही नहीं सकते। जैसे कि नीतिकारों ने कहा है-

पद्माकरं दिनकरो विकचं करोति
चन्‍द्रो विकासयति कैरवचक्रवातम्।
नाभ्‍यर्थितो जलधरोअपि जलं ददाति
सन्‍त: स्‍वयं परहितेषु कृताभियोगा:।।

रात्रि के दु:ख से सिकुड़े हुए कमल मरीचिमाली भगवान भुवन-भास्‍कर के समीप अपना दुखड़ा रोने के लिये नहीं जाते, बिना कहे ही कमलबन्धु भगवान दिवाकर उनके दु:खों को दूर करके उन्हें विकसित कर देते हैं। कुमुदिनीकी लज्जा से अवगुण्ठित कलिका को कलानाथ भगवान शशधर स्वयं ही प्रस्फुटित कर देते हैं। बिना याचना के ही जल से भरे हुए मेघ अपने सम्पूर्ण जल को बरसाकर प्राणियों के दु:ख को दूर करते हैं। इसी प्रकार महान संतगण भी स्वयं ही दूसरों के उपकार के निमित्त सदा कुछ-न-कुछ उद्योग करते ही रहते हैं। परोपकार करना उनका स्वभाव ही बन जाता है। जैसे सभी प्राणी जान में, अनजान में स्वांस लेते ही रहते हैं, उसी प्रकार संत-महात्मा जो-जो भी चेष्‍टा करते हैं, वे सभी लोक-कल्याणकारी ही होती हैं।

क्रमशः अगला पोस्ट [64]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram the brutality of waking up Nityananda’s prayer for his salvation

What is unbearable for the saintly and what is required of the learned What is the use of the miserly? What is difficult to give up for the self-controlled?

If there was no existence of sages in this selfish world, if this earth was not purified by the great souls with the dust of their feet, if all the people in this world were thinking of their own selfishness, then this earth would be like hell. Would have become This sorrowful world has been made happy by the pious sages, Mahatma’s have made this joyless world a form of joy by their selflessness. There is concern in selfishness, joy in charity. Fear always remains in selfishness, patience increases more and more day by day. Humility comes only by being immersed in selfishness, the altruist becomes fearless and fearless. Despite all this, the existence of cruel men remains. If there are no cruel men who do thoughtless sinful deeds, then how can the kindness, tolerance, humility, tolerance, simplicity, altruism and causeless compassion of the Mahatma towards living beings shine? Cruel men by doing their cruelty give opportunity to great men to reveal their virtues in front of the people, following which sad and anxious men can make their lives happy and joyful. That is why only two demons named Madhu and Kaitabh were born in the very beginning of the universe. God could become Madhu-Catbhari only after killing them. Had Ravana not been there, who would have recognized the might of Ram ji? If there was no Putana, how would we get to know about the infinite kindness of the Lord? If Shishupala did not attain salvation by abusing him by dying at the hands of God, then ‘Krodhoapi devasya varena tulya:'[2]

How would this great mantra be propagated? Ajamila: A lowly person like Ajamil had not attained salvation by taking the name of ‘Narayan’ on the pretext of being a sinful son, then how would the name of the Lord be so glorified? Therefore, just as the world needs great and virtuous men, in the same way, the cruelty of the wicked also helps a lot. God takes the opportunity when many cruel men are born on earth. Cruel karma men do not hold back in doing their cruelty and Mahatma does not leave his religion of charity and charity. In the end, victory is of religion only; Because ‘Yato Dharmastato Jayah’.

Even during the time of Mahaprabhu Gaurangadeva, two Krurkarma Brahmin Kumars named Jagai-Madhai (Jagannath-Madhav) used to reside in Navadvipa. ‘Rakshasa: Kalimashritya jayante brahmayonishu’ means ‘When the Kaliyuga comes, demons will be born on earth in the form of Brahmins.’ The direct evidence of this sentence of the scripture was visible in the lives of both Jagai-Madhai brothers. At that time, he was made Kotwal of Nadia on behalf of Godeshwar. What were the Kotwals, the ones who killed the people were in a way the emperor of Navadweep without an umbrella. There was no such misdeed left from them, which they did not commit. All the symptoms of the destruction of man have been told, they were all his daily routine deeds. The Lord Himself has described the symptoms of destruction-

When among the gods, the Vedas, the cows, the brahmins and the saints. Hatred for righteousness and for me is quickly destroyed

God says- ‘When a man starts hating the gods, Vedic deeds, cows, brahmins, sages-mahatmas, religious acts and me, then he gets destroyed soon.’ was not left. He had not learned from birth to go to the temples of the gods, even though he was a Brahmin, he did not even know the name of the Vedas. Meat was their daily food, it was a simple matter for them to disobey the sages and brahmins. Whoever they wanted, they would have made them stand in the market and beat them with shoes. They didn’t even know how to respect anyone. Well-performed and learned Brahmins used to tremble at his name. No one had the courage to go even in front of him.

They didn’t even know which bird’s name is Dharma and where it lives. To commit robbery in the houses of the rich, to kill people, to destroy the chastity of the virtuous, these were simple tasks for them. Neither talking directly to anyone nor sitting near anyone, just being intoxicated by drinking a lot of alcohol, they were always engaged in sinful deeds. They would have given a lot of money to the Qazi of the city, that’s why he also did not say anything against them. By the way, his house was on the banks of Bhagwati Bhagirathi, but he did not live in the house. He always used to travel from one locality to another with his tent. Now they have camped in this locality and now in that one. In the same way, they used to stay in locality for ten or twenty days. In the locality where he would have camped, the lives of the people of that locality would have dried up. No one used to pass in front of him, all would pass by keeping an eye on him. In this way their sins had reached their zenith. At that time, they had become famous like Ravana-Kamsa, Vakradanta-Shisupala, Nadirshah-Gajni and Dyer-Adair for their atrocities in Navadweep.

One day, he was raving like a madman in the intoxication of alcohol, and his eyes were red. On the way, Nityanand ji and Haridas ji saw him. Seeing such a pathetic and strange condition of them, Nityanand ji, who had just arrived in Navadweep, started asking the people – ‘Why! Who are these people and why are they talking like crazy? He looks like a decent man by his dress.’

People laughed and replied with a dry laugh- ‘It seems that you have not been brought up with them yet. That’s why they are asking such things. He is the real Yamraj here. Even the sinners might not be as much afraid of Yamraj as the men and women of Navadweep are afraid of these rascals. He has taken birth in a Brahmin’s house, but he does more work than the Chandalas. See, you should never pass in front of them. He has a lot of irritation with the saints. Even if they see you, it is not good. Considering us a foreigner, we have explained this to you.

Nityanand ji felt pity on him after hearing such a thing from the mouth of the people. They started thinking- ‘ Those who have faith in the name and always try to do good deeds, if such people chant the name of God on our saying, then there is no special praise of our Lord in this. It is a matter of praise that even such sinners leave their sins and take refuge in the name of the Lord and come to the shelter of the Lord. The real significance of the name of God will be revealed only then. Such people are the ones who deserve the most blessings. For such people, there is a great need for preaching in the name of God. Somehow these people should be saved.’ Thus Nityanand ji started thinking in his mind. The creature for whom good wishes arise in the heart of Mahatmas, for whose good Mahatma starts thinking, it should be understood that he has been blessed. Then his salvation cannot be delayed. With the right intention or determination of the great souls, even the most sinful of souls can become pure and virtuous. When the concern for the salvation of these two brothers started in Nitai’s heart, then only it should be understood, the time for the decay of their sins has come very near. It is as if it is their good fortune – the sun is going to rise in no time.

Nityanand ji expressed his occult thoughts on Haridas ji. Haridas ji said- ‘You want to put your hand in the nest of bulls without thinking. Haven’t heard yet, what did people say?’ Nityanand ji said with some seriousness – ‘ I have heard everything, but we should not be afraid of this much. We have to propagate the name of God.’ Haridas ji said – ‘When do I say that stop propagating the name of God? Come on, like you are doing, go to the other side and spread the name. What is the use of waking up these sleeping lions?

Nityanand ji said- ‘Your point is correct, but God has ordered that in the distribution of God’s name, do not take care of the character, preach everyone equally. Be it a sinner or a virtuous soul, everyone is entitled to chant the name of the Lord. That’s why why shouldn’t the name of God be preached to them?’

Haridas ji said in a voice of some humility – ‘It is okay. Preach the Lord’s name to whoever comes in front of you, but it is not right to walk near them with a special purpose. Why stubbornly go to them? There are many other people to preach the name of God. Walk and preach to them.

Nityanand ji said with some firmness- ‘Look, who is more sick, who needs medicine more than other patients, the wise doctor first treats that patient and gives medicine to him and then looks at the pulse of the other patient. Is. These people need the name of the Lord more than others. Such cruel deeds of theirs can be atoned for only by the name of the Lord. There is no other way to eliminate them. Why isn’t it okay? You agree with me, don’t you?’ Haridas ji said- ‘As per your wish, if you consider him the most entitled to God’s name, then there is no problem in it. I am also ready to go with you.’ Saying this, Haridas ji-

Hare Rama Hare Rama Rama Rama Hare Hare. Hare Krishna Hare Krishna Krishna Krishna Hare Hare.

Singing this great mantra with his melodious voice, he went towards Jagai-Madhai’s camp. Both of them had also received a small army from the king. He always kept her with him. Fearlessly singing the name of the Lord, these two sannyasins reached near his abode.

Fortunately, these two brothers were sitting right in front of me on beds that had been crushed by alcohol. Seeing these two singing in front of them, looking at them with red eyes, they said – ‘Who are you and what do you want?’

Nityanand ji said in a very sweet voice-

‘Say Krishna, sing Krishna, Lehu Krishna Naam. Krishna mother, Krishna father, Krishna wealth life.

After this they started saying- ‘We are beggars, we have come to beg from you, you from your mouth-

Sri Krishna Govinda Hare Murare. O Lord Narayana Vasudeva.

– Pronounce these sweet names of God, this is our alms.’ On hearing this, both these brothers turned red with anger and quickly got up and rushed towards him. Jumping up, he said- ‘There is no one, at least catch these two scoundrels.’ Just wanted to hear that Nityanand ji started running from there. Haridas ji also started running after him gasping for breath, but how could he run with Nitai, a lean, playful young man due to being fat and overweight? Nityanand ji held his arm tightly and started running while dragging him. Haridas ji was going along with Nityanand ji while giggling. Jagai-Madhai’s servants ran some distance to catch them, then they returned thinking that they keep on talking like this when they are drunk, what would we get by catching these sadhus? He did not follow these two very far.

Haridas ji was panting, he kept looking back again and again. In the end they got very tired. Annoyed, he said to Nityanand ji – ‘Aji, leave it now, you are out of breath, will you leave it after taking your life? You have held my wrist so tightly that I die of pain. Now no one is even coming back.

While running, Nityanand ji said- ‘Have a little more courage. It’s just a matter of till this next pond.’

Haridas ji said with some anger – ‘ Your pond has gone to hell! Here life is going on, you can see the pond. Leave my hand!’ Saying this, old Haridas ji gave a loud blow; But how could he get rid of Nitai? Then Nityanand ji stood up laughing. Haridas ji fainted and fell on the ground. Breathing heavily, he said – ‘Let it be, you are always fickle. I have already refused. You didn’t agree. One stubbornly went there and the other dragged me half-dead.’

Laughing, Nityanandji said – ‘ We had gone on your advice. If you had consented, why would we have gone? You are the elder among us.

Haridas ji came in some anger and said – ‘ Stones are elders! You had gone with my advice, so why did you run away from there? Why didn’t you take my advice then?’ Laughing out loud, Nityanand ji said- ‘If I had waited for your consent at that time, everything would have been clear.’ Thus taunting each other with love, both of them reached near the Lord. At that time Lord Krishna was telling the story sitting with the devotees. Seeing these two preachers ascetics, they expressed their happiness and said- ‘Take it, brother! Couples have arrived. The head of the preacher circle has arrived. Now you people listen to the story of city-publicity from his mouth.

On saying this of the Lord, Haridas ji said – ‘ Lord! Shripad Nityanand ji is very fickle, you explain to him that he should be a little less fickle.’

The Lord asked – ‘Why-why? What’s the matter, what happened? Did you create any new fickleness today? Yes, both of you seem very tired today. Tell them all. On the Lord’s question, Haridas ji while narrating all the incidents said- ‘People had repeatedly forbidden to go to those two brothers, but they did not agree. When he scolded, then ran away from there like children. People were saying, now the people of Kirtan are not well. These demon-brothers will get the people of Kirtan tied up. People were saying similar things to each other. Laughing after listening to Haridas ji, the Lord said to Nityanand ji – ‘Shripad! What was the need for you to go near those people? Be a little less fickle. What is the use of such fickleness?

Displaying some artificial love-anger, Nityanand ji said- ‘ In this way, you should not do this work with me. You are sitting at home, what do you know about the difficulties of city publicity? At least once it is said, spread the name to everyone. From Brahmin to Chandal and from sinner to virtuous all are entitled to the name of God and now they say, why did you go to him? He is the biggest authority. We have been leaving home and asking for pieces since birth, what is your pride in saving us?

Your holy name can be meaningful only when you save the sinners who do such terrible cruel deeds. Now sitting at home like this will not work. Unless such heinous sinners are brought under the shelter of Hari-Nam and made devotees, how will people understand the importance of Hari-Nam.’

Some laughingly started saying to the Lord devotees – ‘Who is that Mahabhagwat man, whose salvation Shripad is so worried about?’ Srivas and Gangadas devotees sitting nearby said – ‘ Lord! They are not Mahabhagwat, they are Brahmins-Kul-Kantaks, demons of extremely cruel nature. His terror has spread throughout the city. By saying this, they described many cruelties of Jagai-Madhai. The Lord laughed and said- ‘How long can they be cruel now? Those who have had darshan of Shripad and whose thoughts of salvation have entered their mind, can they continue to be sinners? Shripad can convert anyone he wants into a devotee, no matter how big a sinner he is.’ In this way, Nitai prayed for the salvation of Jagai-Madhai near the Lord by a sign and the Lord also assured him of the salvation of those two brothers by a sign. Truly, compassion for others naturally arises in the hearts of great souls. It is not a matter of someone coming close to him and praying for mercy, only then he should show mercy, but his nature is such that without saying anything, he keeps on showing mercy to the poor. He cannot live without showing mercy. As the politicians have said-

The sun makes the lotus flower vibrate The moon develops the cyclone of Carava. Even a water-bearer gives water when he is not asked Saints themselves engaged in the welfare of others

Kamal Marichimali, who has shrunk due to the sorrow of the night, does not go near Lord Bhuvan-Bhaskar to cry his sorrow, without saying anything, Kamalbandhu Lord Diwakar removes his sorrows and makes him grow. Kalanath Lord Shasadhar himself makes the bud hidden by the shame of Kumudini blossom. Clouds filled with water without begging remove the sorrows of the living beings by showering all their water. In the same way, the great sages themselves always do some or the other industry for the benefit of others. It becomes their nature to do charity. Just as all living beings keep on breathing knowingly or unknowingly, in the same way, whatever efforts Saint-Mahatma do, they are all for the welfare of the people.

respectively next post [64] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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