।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
प्रेमोन्मत्त अवधूत का पादोदकपान
वाग्भि: स्तुवंतो मनसा स्मरंत-
स्तन्वा नमन्तोअप्यनिशं न तृप्ता:।
भक्ता: स्त्रवन्नेत्रजला: समग्र-
मायुर्हरेरेव समर्पयन्ति।।
जिन्हें भगवत-भक्ति की प्राप्ति हो गयी है, जो प्रभु-प्रेम में मतवाले बन गये हैं, उनके सभी कर्म लोक-बाह्य हो जाते हैं। जो क्रिया किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये की जाती है, उसे कर्म कहते हैं, किंतु वैसे ही निरुद्देश्यरूप से केवल करने के ही निमित्त जो चेष्टाएँ या क्रियाएँ होती हैं, उन्हें लीला कहते हैं। बालकों की सभी चेष्टाएँ ऐसी ही होती हैं, उनमें कोई इन्द्रिय-जन्य सुख-स्वार्थ या कोई उद्देश्य नहीं होता। वे तो वैसे ही निरुद्देश्य भाव से होती हैं। भक्तों की सभी चेष्टाएं इसी प्रकार की होती हैं, इसीलिये उन्हें कर्म न कहकर लीला ही कहने की प्राचीन परिपाटी चली आयी है। भक्तों की लीलाएं प्राय: बालको की लीलाओं से बहुत ही अधिक मिलती-जुलती हैं। जहाँ लोक-लज्जा का भय है, जहाँ किसी वस्तु के प्रति आश्लीलता के कारण घृणा के भाव हैं और जहाँ दूसरों से भय की सम्भावना है, वहाँ असली प्रेम नहीं। बिना असली प्रेम के विशुद्ध लीला हो ही नहीं सकती। अत: लज्जा, घृणा और भय-ये स्वार्थजन्य मोह के द्योतक भाव हैं। भक्तों में तथा बालकों में ये तीनों भाव नहीं होते तभी उनका हृदय विशुद्ध कहा जाता है।
प्रेम में उन्मत्त हुआ भक्त कभी तो हंसता है, कभी रोता है, कभी गाता है और कभी संसार की लोक-लाज छोड़कर दिगम्बरवेश से ताण्डवनृत्य करने लगता है। उसका चलना विचित्र है, वह विलक्षण-भाव से हंसता है, उसकी चेष्टा में उन्माद है, उसके भाषण में निरर्थकता है और उसकी भाषा संसारीभाषा से भिन्न ही है। वह बालकों की भाँति सबसे प्रेम करता है, उसे किसी से भय नहीं, किसी बात की लज्जा नहीं नंगा रहे तो भी वैसा और वस्त्र पहने रहे तो भी वैसा ही। उसे बाह्य वस्त्रों की कुछ अपेक्षा नहीं, वह संसार के विधि-निषेध का गुलाम नहीं।
अवधूत नित्यानंद जी की भी यही दशा थी। बत्तीस वर्ष की अवस्था होने पर भी वे सदा बाल्यभाव में ही रहते। मालती देवी के सूखे स्तनों को मुंह में लेकर बच्चों की भाँति चूसते, अपने हाथ से दाल-भात नहीं खाते, तनिक-तनिक-सी बातों पर नाराज हो जाते और उसी क्षण बालाकें की भाँति हंसने लगते। श्रीवास को पिता कहकर पुकारते और उनसे बच्चों की भाँति हठ करते। गौरांग इन्हें बार-बार समझाते; किंतु ये किसी की एक भी नहीं सुनते। सदा प्रेम-वारूणी पान करके उसी के मद में मत्त-से बने रहते। शरीर का होश नहीं, वस्त्र गिर गया है, उसे उठाने तक की भी सुध नहीं है। नंगे हो गये हैं तो नंगे ही बाजार में धूम रहे है। खेल कर रहे है तो घंटों तक उसी में लगे हुए हैं। कभी बालकों के साथ खेलते, कभी भक्तों के साथ क्रीड़ा करते, कभी-कभी गौर को भी अपने बाल-कौतूहल से सुखी बनाते। कभी मालतीदेवी को ही वात्सल्य सुख पहुँचाते, इस प्रकार ये सभी को अपनी सरलता निष्कपटता, सहृदयता और बाल-चपलता से सदा आनन्दित बनाते रहते थे।
एक दिन ये श्रीवास पण्डित के घर के आंगन में खड़े-ही-खडे़ कुछ खा रहे थे, इतने में ही एक कौआ ठाकुर जी के घृत के दीपपात्र को उठा ले गया। इससे मालती देवी को बड़ा दु:ख हुआ। माता को दु:खी देखकर ये बालकों की भाँति कौए को टुकड़ा दिखाते हुए कहने लगे। बार-बार कौए को पुचकारते हुए गायन के स्वर में सिर हिला-हिलाकर कह रहे थे-
कौआ भैया आ जा, दूध बतासे खा जा।
मेरा दीपक दे जा, अपना टुकड़ा ले जा।।
अम्मा बैठी रोवे, आंसू से मुंह धोवे।
उनको धीर बंधा जा, कौआ भैया आ जा।।
दूध बतासे खा जा, आ जा प्यारे आ जा।
सचमुच में इतनी बात सुनकर कौआ जल्दी से आकर उस पीतल के पात्र को इनके समीप डाल गया। माता को इससे बड़ी प्रसन्नता हुई और वह इनमें ईश्वरभाव का अनुभव करने लगी। तब आप बड़े जोरों से खिलखिलाकर हंसने लगे और ताली बजा-बजाकर कहने लगे-
कौआ मेरा भैया, मेरी प्यारी मैया ।
मेरा वह प्यारा, बेटाहै तुम्हार ।।
मैंने पात्र मंगाया है, उससे जल्द मंगाया है।
अब दो मुझे मिठाई, लड्डू बालूसाई ।।
माता इनकी इस बाल-चपलता से बड़ी ही प्रसन्न हुईं। अब आप जल्दी से घर से बाहर निकले। बाजार में होकर पागलों की तरह दौड़ते जाते थे, न कुछ शरीर का होश है, न रास्ते की सुधि, किधर जा रहे हैं और कहाँ जा रहे हैं, इसका भी कुछ पता नहीं है। रास्तें में भागते-भागते लंगोटी खुल गयी, उसे जल्दी से सिरपर लपेट लिया, अब नंगे-धड़ंगे, दिगम्बर शिव की भाँति ताण्डव-नृत्य करते जा रहे हैं। रास्ते में लड़के ताली पीटते हुए इनके पीछे दौड़ रहे हैं, किंतु किसी की कुछ परवा ही नहीं। जोरों से चौकड़ियां भर रहे हैं। इस प्रकार बिलकुल नग्नावस्था में आप प्रभु के घर पहुँचे।
प्रभु उस समय अपनी प्राणेश्वरी विष्णुप्रिया जी के साथ बैठे हुए कुछ प्रेम की बातें कर रहे थे, विष्णुप्रिया धीरे-धीरे पान लगा-लगाकर प्रभु को देती जाती थीं और प्रभु उनकी प्रसन्नता के निमित्त बिना कुछ कहे खाते जाते थे। वे कितने पान खा गये होंगे, इसका न तो विष्णुप्रिया जी को ही पता था, न प्रभु को ही। पान का तो बहाना था, असल में तो वहाँ प्रेम का खान-पान हो रहा था। इतने में ही नंगे-घड़ंगे उन्मत्त अवधूत पहुँच गये। आँखे लाल-लाल हो रही हैं, सम्पूर्ण शरीर धूलिधूसरित हो रहा है। लंगोटी सिर से लिपटी हुई है। शरीर से खूब लंबे होने कारण दिगम्बर वेश में ये दूर से देव की तरह दिखायी पड़ते थे। प्रभु के समीप आते ही ये पागलों की तरह हुं-हुं करने लगे। विष्णुप्रिया जी इन्हें नग्न देखकर जल्दी से घर में भाग गयीं और जल्दी से किवाड़ बंद कर लिये। शचीमाता भीतर बैठी हुई चर्खा चला रही थीं, अपनी बहू को इस प्रकार दौड़ते देखकर उन्होंने जल्दी से पूछा-‘क्यों, क्यों क्या हुआ?’
विष्णुप्रिया मुंह में वस्त्र देकर हंसने लगीं। माता ने समझा निमाई ने जरूर कुछ कौतूहल किया है। अत: वे पूछने लगीं- ‘निमाई यहीं है या बाहर चला गया?’
अपनी हंसी को रोकते हुए हांफते-हांफते विष्णुप्रिया जी ने कहा- ‘अपने बड़े बेटे को तो देखो, आज तो वे सचमुच ही अवधूत बन आये हैं।’ यह सुनकर माता बाहर गयीं और निताई की इस प्रकार की बाल-क्रीड़ाको देखकर हंसने लगी।
प्रभु ने नित्यानंद जी से पूछा- ‘श्रीपाद! आज तुमने यह क्या स्वांग बना लिया है? बहुत चंचलता अच्छी नहीं। जल्दी से लंगोटी बांधो।’ किंतु किसी को लंगोटी की सुधि हो तब तो उसे बांधे। उन्हें पता ही नहीं कि लंगोटी कहाँ है और उसे बांधना कहाँ होगा? प्रभु ने इनकी ऐसी दशा देखकर जल्दी से अपना पट्ट-वस्त्र इनकी कमर में स्वयं ही बांध दिया और हाथ पकड़कर अपने पास बिठाकर धीरे-धीरे पूछने लगे- ‘श्रीपाद! कहाँ से आ रहे हो? तुम्हें हो क्या गया है? यह धूलि सम्पूर्ण शरीर में क्यों लगा ली है।’
श्रीपाद तो गर्क थे, उन्हें शरीर का होश कहाँ, चारों ओर देखते हुए पागलों की तरह ‘हुँ-हुँ’ करने लगे। प्रभु इन की प्रेम की इतनी उँची अवस्था को देखकर अत्यंत ही प्रसन्न हुए। उसी समय उन्होंने सभी भक्तों को बुला लिया। भक्त आ-आकर नित्यानंद जी के चारों बैठने लगे। प्रभु ने नित्यानंद जी से प्रार्थना की- ‘श्रीपाद! अपनी प्रसादी लंगोटी कृपा करके हमें प्रदान कीजिये।’ नित्यानंद जी ने जल्दी से सिरपर लंगोटी खोलकर फेंक दी। प्रभु ने वह लंगोटी अत्यंत ही भक्तिभाव के साथ सिरपर चढ़ायी और फिर उसके छोटे-छोटे बहुत-से टुकड़े किये। सभी भक्तों को एक-एक टुकड़ा देते हुए प्रभु ने कहा- ‘इस प्रसादी चीर को आप सभी लोग खूब सुरक्षित रखना।’ प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करके सभी ने उस प्रसादी चीर को गले में बांध लिया, किसी-किसी ने उसे मस्तक पर रख लिया।
इसके अनन्तर प्रभु ने निताई के पादपद्मों में स्वयं ही सुगंधित चंदन का लेप किया, पुष्प चढ़ाये और उनके चरणों को अपने हाथों से पखारा। निताई का पादोदक सभी भक्तों को वितरित किया गया। सभी ने बड़ी श्रद्धा-भक्ति के साथ उसका पान किया। शेष जो बचा उन सबको प्रभु पान कर गये और पान करते हुए बोले- ‘आज हम कृतकृत्य हुए। आज हमारा जन्म सफल हुआ। आज हमें यथार्थ श्रीकृष्ण-भक्ति की प्राप्ति हुई। श्रीपाद के चरणामृतपान से आज हम धन्य हुए।’
इस प्रकार सभी भक्तों ने अपने-अपने भाग्य की सराहना की। भाग्य की सराहना तो करनी ही चाहिये, भगवान की यथार्थ पूजा तो आज की हुई। भगवान अपनी पूजा से उतने संतुष्ट नहीं होते, जितने अपने भक्तों की पूजा से संतुष्ट होते हैं। उनका तो कथन है, जो केवल मेरे ही भक्त हैं, वे तो भक्त ही नहीं, यथार्थ भक्त तो वही है जो मेरे भक्तों का भक्त हो। भगवान स्वयं कहते हैं-
ये मे भक्तजना: पार्थ न मे भक्ताश्च ते जना: ।
मद्भक्तानां च ये भक्तास्ते में भक्ततमा मता:।।
क्योंकि भगवान् को तो भक्त ही अत्यंत प्रिय है। जो उनके प्रियजनों की अवहेलना करके केवल उन्हीं का पूजन करेंगे वे उन्हें किसी प्रकार हो सकेंगे? इसलिये सब प्रकार के आराधनों से विष्णुभगवान् का आराधन श्रेष्ठ जरूर है, किंतु विष्णुभगवान् के आराधन से भी श्रेष्ठ विष्ण-भक्तों का आराधन है।
भगवत-भक्तों की महिमा प्रकाशित करने के निमित्त ही प्रभु ने यह लीला की थी। सभी भक्तों को निताई के पादोदकपान से एक प्रकार की आंतरिक शांति-सी प्रतीत हुई।
अब निताई को कुछ-कुछ होश हुआ। वे बालकों की भाँति चारों ओर देखते हुए शचीमाता से दीनता के साथ बच्चों की तरह कहने लगे- ‘अम्मा! बड़ी भूख लगी है, कुछ खाने के लिये दो।’ माता यह सुनकर जल्दी से भीतर गयी और घर की बनी सुदंर मिठाई लाकर इनके हाथों पर रख दी। ये बालकों की भाँति जल्दी-जल्दी कुछ खाने लगे, कुछ पृथ्वी पर फेंकने लगे। खाते-खाते ही वे माता के चरण छूने को दौड़े। माता डरकर जल्दी से घर में घुस गयी। इस प्रकार उस दिन निताई अपनी अद्भुत लीला से सभी को आनन्दित किया।
क्रमशः अगला पोस्ट [62]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
।। Srihari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Jap] Hare Krishna Hare Ram Drinking the foot-water of the love-drunken Avadhuta
Vagbhi: stuvanto manasa smaranta- They bowed their heads and were not always satisfied. Bhakta: Stravan Netrajala: Comprehensive- They offer their lives to the Lord.
Those who have attained Bhagwat-Bhakti, who have become intoxicated in the love of God, all their deeds become public-external. The action which is done for the fulfillment of some purpose is called Karma, but in the same way the efforts or actions which are done without any purpose only for the sake of doing it are called Leela. All the efforts of children are like this, there is no sense-born pleasure-selfishness or any purpose in them. They just happen aimlessly. All the efforts of the devotees are of this type, that is why the ancient practice of calling them Leela instead of Karma has been followed. The pastimes of devotees are often very similar to the pastimes of children. Where there is fear of public shame, where there are feelings of hatred due to obscenity towards something and where there is a possibility of fear from others, there is no real love. Pure leela cannot happen without real love. Therefore, shame, hatred and fear are the expressions of selfish attachment. Devotees and children do not have these three feelings, only then their heart is called pure. A devotee who is madly in love, sometimes laughs, sometimes cries, sometimes sings and sometimes starts dancing with Digambaravesh, leaving the public shame of the world. His walk is strange, he laughs strangely, there is frenzy in his movements, there is nonsense in his speech and his language is different from the language of the world. He loves everyone like children, he is not afraid of anyone, he is not ashamed of anything, even if he is naked, he is the same even if he is wearing clothes. He has no need for external clothes, he is not a slave to the rules and regulations of the world.
Avdhoot Nityanand ji also had the same condition. Even at the age of thirty-two, he always remained childish. Taking Malati Devi’s dry breasts in his mouth like a child, he would not eat pulses and rice with his own hands, he would get angry on every little thing and at the same moment he would start laughing like a child. They used to call Shrivas as father and used to be stubborn like children. Gauranga would explain to him again and again; But they don’t listen to anyone. By drinking Prem-Varuni always, he would have remained intoxicated in his head. There is no consciousness of the body, the clothes have fallen, there is no thought even to pick them up. They have become naked so they are roaming in the market naked. If they are playing, then they are engaged in it for hours. Sometimes playing with children, sometimes playing with devotees, sometimes making Gaur happy with his childlike curiosity. Sometimes Vatsalya used to give happiness to Maltidevi, in this way he always used to make everyone happy with his simplicity, sincerity, kindness and childishness.
One day he was eating something while standing in the courtyard of Shrivas Pandit’s house, in the meanwhile a crow took away Thakur ji’s ghee lamp. Malti Devi felt very sad due to this. Seeing the mother sad, they started saying like children while showing the piece to the crow. Calling the crow again and again, nodding his head in a singing voice, he was saying-
Crow brother come, eat milk from the wind. Give me my lamp, take your piece. Amma sat and cried, washing her face with tears. Be patient with them, crow brother come. Eat milk from the wind, come, come, dear.
In fact, after hearing this, the crow came quickly and put that brass vessel near them. Mother was very happy with this and she started experiencing godliness in them. Then you started laughing out loud and started clapping and saying-
The crow is my brother, my dear mother. That beloved of mine, is your son. I have ordered the vessel, I have ordered it sooner. Now give me sweets, Laddu Balusai.
The mother was very pleased with his child-agility. Now you quickly get out of the house. He used to run like a madman in the market place, neither conscious of his body, nor aware of the way, where he was going and where he was going. While running on the way, the loincloth came open, quickly wrapped it on the head, now bare-chested, Digambar is performing Tandav-dance like Shiva. On the way, boys are running after them clapping, but no one cares at all. They are filling the squares in full swing. In this way you reached the Lord’s house completely naked.
At that time Prabhu was talking about some love while sitting with his consort Vishnupriya ji, Vishnupriya used to give betel leaf to Prabhu slowly and Prabhu used to eat without saying anything for her happiness. Neither Vishnupriya ji nor the Lord knew how many betel leaves they would have consumed. There was an excuse for paan, in fact there was food and drink of love. In the meantime, the insane Avdhoot reached naked. The eyes are turning red, the whole body is turning dusty. The loincloth is wrapped around the head. Due to being much taller than the body, in Digambar attire, he looked like a god from a distance. As soon as they came close to the Lord, they started humming like mad. Seeing her naked, Vishnupriya ji quickly ran into the house and quickly closed the door. Sachimata was spinning the wheel while sitting inside, seeing her daughter-in-law running like this, she quickly asked – ‘Why, why, what happened?’
Vishnupriya started laughing by putting cloth in her mouth. Mother understood that Nimai must have done some curiosity. So she started asking – ‘Is Nimai here or has he gone out?’
Holding back her laughter, Vishnupriya ji said, ‘Look at your elder son, today he has really become an avadhoot.’ Hearing this, the mother went out and started laughing seeing Nitai’s child-play. The Lord asked Nityanand ji – ‘Shripad! What farce have you made today? Too much fidgetiness is not good. Tie the loincloth quickly.’ But if someone remembers the loincloth, then tie it. They don’t even know where the loincloth is and where to tie it? Seeing his condition, the Lord quickly tied his belt-cloth around his waist and holding his hand, made him sit beside him and slowly asked – ‘Shripad! Where are you coming from? what happened to you? Why has this dust been applied all over the body.’
Shripad was very proud, he did not have any sense of his body, looking around he started saying ‘hu-hu’ like a madman. The Lord was extremely pleased to see such a high state of his love. At the same time he called all the devotees. Devotees came and started sitting around Nityanand ji. The Lord prayed to Nityanand ji – ‘Shripad! Kindly provide us with your Prasadi loincloth.’ Nityanand ji quickly opened the loincloth on his head and threw it away. The Lord put that loin cloth on the head with utmost devotion and then cut it into many small pieces. Giving one piece each to all the devotees, the Lord said- ‘You all keep this prasadi rag very safe.’ Obeying the Lord’s command, everyone tied that prasadi rag around their neck, some put it on their head.
Thereafter, the Lord Himself smeared the feet of Nitai with fragrant sandalwood paste, offered flowers and washed His feet with His own hands. Nitai’s Padodak was distributed to all the devotees. Everyone drank it with great devotion. The Lord made all the remaining ones drink and said while drinking – ‘ Today we are grateful. Today our birth was successful. Today we got the real Krishna-Bhakti. Today we were blessed by the nectar of Shripad’s feet.
In this way all the devotees appreciated their respective fortunes. Luck must be appreciated, the real worship of God happened today. God is not satisfied with his worship as much as he is satisfied with the worship of his devotees. He has a statement that those who are devotees only of Me are not only devotees, the real devotee is the one who is the devotee of my devotees. God himself says-
O son of Pṛthā, those who are My devotees are not My devotees. And those who are devotees of My devotees are considered to be the most devoted of Me.
Because the devotee is very dear to God. Those who ignore their loved ones and worship only them, will they be able to be in any way? That’s why worship of Lord Vishnu is certainly the best of all types of worship, but even better than worship of Lord Vishnu is the worship of the devotees of Vishnu.
The Lord had performed this leela only for the purpose of publishing the glory of Bhagwat-devotees. All the devotees felt a kind of inner peace from Nitai’s padodakpan. Now Nitai has regained some consciousness. Looking around like children, they started saying to Sachimata humbly like children – ‘ Amma! I am very hungry, give me something to eat.’ Hearing this, the mother hurriedly went inside and brought home-made sweets and put them on her hands. They started eating something quickly like children, started throwing some on the ground. While eating, they ran to touch the feet of the mother. Fearing, the mother hurriedly entered the house. Thus on that day Nitai delighted everyone with her wonderful pastimes.
respectively next post [62] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]