[65]”श्रीचैतन्य–चरितावली

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।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
जगाई और मधाई की प्रपन्‍नता

सकृदेव प्रपन्‍नाय तवास्‍मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्‍यो ददाम्‍येतद् व्रतं मम।।

वृदांवन में एक परम भगवद्भक्‍त माताने हमें यह कथा सुनायी थी- भक्‍त- भयभंजन भगवान द्वारका के भव्‍य भोजन-भवन में बैठे हुए सत्‍यभामा आदि भामिनियों से घिरे हुए भोजन कर रहे थे। भगवान एक बहुत ही सुदंर सुवर्ण-चौकी पर विराजमान थे। सुवर्ण के बहुमूल्‍य थालों में भाँति-भाँति के स्‍वादिष्‍ट व्‍यंजन सजे हुए थे। बहुमूल्‍य रत्‍नजड़ित कटोरियों में विविध प्रकार के पेय पदार्थ रखे हुए थे। सामने रुक्मिणी जी बैठी हुई पंखा डुला रही थीं। इधर-उधर अन्‍य पटरानियां बैठी हुई थीं। सहसा भगवान भोजन करते-करते एकदम रुक गये, उनके मुख का ग्रास मुख में था और हाथ का हाथ में। वे निर्जीव मूर्ति की भाँति ज्‍यों-के-त्‍यों ही स्‍तम्भित रह गये। उनका कमल के समान प्रफुल्लित मुख एकदम कुम्‍हला गया। आँखों में आंसू भरकर वे रुक्मिणी जी की ओर देखने लगे। सभी पटरानियां भगवान के ऐसे भाव को देखकर भयभीत हो गयीं। वे किसी भावी आशंका के भय से भयभीत-सी हुई प्रभु के मूख की ओर निहारने लगीं। कुछ कम्पित स्‍वर में भयभीत होकर रुक्मिणी जी ने पूछा- ‘प्रभो! आपकी एक साथ ही ऐसी दशा क्‍यों हो गयी? मालूम पड़ता है, कहीं आपके परम प्रिय किसी भक्त पर भारी संकट पड़ा है, उसी के कारण आप इतने खिन्‍न हो गये हैं। क्‍या मेरा यह अनुमान ठीक है?’

रूक्मिणी की ओर देखते हुए प्रभु ने कहा- ‘तुम्‍हारा अनुमान असत्‍य नहीं है।‘
अधीरता प्रकट करते हुए रुक्मिणीजी ने कहा-‘प्राणेश्‍वर! मैं उन महाभाग भक्त का और उनकी विपत्ति का हाल जानना चा‍हती हूँ।‘
विषण्‍ण स्‍वर में भगवान ने कहा- ‘दुष्‍ट दु:शासन भरी सभा में द्रुपद सुता के चीर को खींच रहा है। गुरुजनों के सामने उस पतिव्रता को नग्‍न करना चाहता है।’

द्रुपदसुता के दु:ख की सुनकर नारी सुलभ भीरूता और कातरता के साथ जल्दी से रुक्मिणी जी ने कहा- ‘तब आप सोच क्‍या रहे हैं, जल्‍दी से उसकी सहायता क्‍यों नहीं करते, जिससे उसकी लाज बच सके। प्रभो! उस दीन-हीन अबला की रक्षा करो। नाथ! उसके दु:ख से मेरा दिल धड़कने लगा है।’

गद्गदकण्‍ठ से भगवान ने कहा- ‘सहायता कैसे करूं? उसने तो अपने वस्‍त्र का एक छोर दांतों से दाब रखा है। वह सर्वतोभावेन मेरा सहारा न लेकर दांतों का सहारा ले रही है। जब तक वह सब आशाओं को छोड़कर पूर्णरूप से मेरे ही ऊपर निर्भर नहीं हो जाती, तब तक मैं उसकी सहायता कर ही कैसे सकता हूँ?

भगवान द्वारका में इतना कह ही रहे थे कि द्रौपदी ने सब ओर से अपने को निस्‍सहाय समझकर भगवान का ही आश्रय लेने का निश्‍चय किया। उसके मुख में से ‘कृष्’ इतना ही निकला था कि दाँतों में से वस्‍त्र छूट गया। दांतों का आश्रय छोड़ना था और ‘कृष्’ के आगे ‘ण’ भी नहीं निकलने पाया कि तभी भगवान वहाँ आ उपस्थित हुए और द्रौपदी के चीर को अक्षय बना दिया। इसी का वर्णन करते हुए सूरदास जी कहते हैं-

द्रुपद-सुता निर्बल भइ ता दिन, गहि लाये निज धाम।
दु:शासन की भुजा थकित भइ, बसनरूप भये श्‍याम।।
सुने री मैंने निर्बलके बल राम ।

क्‍योंकि जब तक मनुष्‍य को अपने बल का आश्रय है, जब तक वह अपने को ही बली और समर्थ माने बैठा है, तब तक भगवान सहायता क्‍यों करने लगे? वे तो निर्बलों के सहायक हैं- निष्किंचनों के रक्षक हैं- इसी आगे सूर कहते हैं-

अप-बल तप-बल और बाहु-बल चौथा है बल दाम।
सूर किसोर-कृपातें सब बल, हारे को हरि नाम।।
सुने री मैंने निर्बलके बल राम ।

जगाई-मधाई के पास अन्‍याय से उपर्जित यथेष्‍ट धन था, शरीर उन दोनों का पुष्‍ट था, शासक की ओर से उन्‍हें अधिकार मिला हुआ था। धन, जन, सेना तथा अधिकार सभी के मद में वे अपने को ही कर्ता समझे बैठे थे, इसलिये प्रभु भी इनसे दूर ही रहे आते थे। जिस क्षण ये अपने सभी प्रकार के अधिकार और बलों को भुलाकर निर्बल और निष्किंचन बन गये उसी समय प्रभु ने इन्‍हें अपनी शरण में ले लिया। उस क्षणभर के ही उपशम से वे उम्रभर के पुराने पापी सभी वैष्‍णवों के कृपाभाजन बन गये। प्रपन्‍नता और शरणागति में ऐसा ही जादू है। जिस क्षण ‘तेरा हूँ’ कहकर सच्‍चे दिल से उनसे प्रार्थना करो उसी क्षण वे अपना लेते हैं, वे तो भक्तों के लिये भूखे-से बैठे रहते हैं। लोगों के मुख की ओर ताकते रहते हैं कि कोई अब कहे कि ‘मैं तुम्‍हारा हूँ’, यहाँ तक कि अजामिलने झूठे ही पुत्र के बहाने ‘नारायण’ शब्‍द कह दिया। बस, इतने से ही उसकी रक्षा की और उसके जन्‍मभर के पाप क्षमा कर दिये।

भक्‍तगण जगाई-मधाई दोनों भाइयों को साथ लेकर प्रभु के यहाँ आये। सभी भक्त यथास्‍थान बैठ गये। एक उच्‍चासर पर प्रभु विराजमान हुए। उनकें दायें-बायें गदाधर और नित्‍यानंद जी बैठे। सामने वृद्धआचार्य अद्वैत विराजमान थे। इनके अतिरिक्‍त पुण्‍डरीक, विद्यानिधि, हरिदास, गरुड़, रमाई पण्डित, श्रीनिवास, गंगाधर, वक्रेश्‍वर, चन्‍द्रशेखर आदि अनेकों भक्त प्रभु के चारों ओर बैठे हुए थे। बीच में ये दोनों भाई-जगाई और मधाई नीचा सिर किये आँखों में से अश्रु बहा रहे थे। इनके अंग-प्रत्‍यंग से विषण्‍णता और पश्‍चात्ताप की जवाला-सी निकलती हुई दिखायी दे रही थी। दोनों का शरीर पुलकित हो रहा था। दोनों ही नित्‍यानंद और प्रभु की भारी कृपा के बोझ से दबे-से जा रहे थे। उन्‍हें अपने शरीर का होश नहीं था। प्रभु ने उन्‍हें इस प्रकार विषादयुक्‍त देखकर उनसे कहा- ‘भाइयो! तुम पर श्रीपाद नित्‍यानंद जी ने कृपा कर दी, अब तुम लोग शोक-मोह छोड़ दो, अब तुम निष्‍पाप बन गये। भगवान ने तुम्‍हारे ऊपर बड़ी कृपा की है।’

प्रभु की बात सुनकर गद्गदकण्‍ठ से रोते हुए दोनों भाई बोले- ‘प्रभो! हम पापियों का उद्धार करके आज आपने अपने ‘पतिपावन’ नामको यथार्थ में ही सार्थक कर दिया। आपका पतितपावन नाम तो आज ही सार्थक हुआ। अजामिल को तारने में आपकी कोई प्रशंसा नहीं थी; क्‍योंकि उसने सब पापों को क्षय करने वाला चार अक्षरों का ‘नारायण’ नाम तो लिया था। गणिका सूआ पढ़ाते-पढ़ाते ही राम-नाम का उच्चारण करती थी, कैसे भी सही, भगवन्नाम का उच्चारण तो उसकी जिह्वा से होता था। वाल्मीकि जी ने सहस्रों वर्षों तक उलटा ही सही, नाम-जप तो किया था। खेत में उलटा-सीधा कैसे भी बीज पड़ना चाहिये, वह जम अवश्‍य आवेगा। दन्‍तवक्र, शिशुपाल, रावण, कुम्‍भकर्ण, शकटासुर, शम्‍बरासुर, अघासुर, बकासुर, कंस आदि सभी असुर और राक्षसों ने द्वेषबुद्धि से ही सही, आपके रूप का चिंतन तो किया था। वे उठते-बैठते, सोते-जागते सदा आपका ध्‍यान तो करते रहते थे। इन सबकी मुक्ति तो होनी ही चाहिये, ये लोग तो भगवत-संबंधी होने के कारण मुक्ति के अधिकारी ही थे, किंतु हे दीनानाथ! हे अशरण-शरण! हे पतितों के एकमात्र आधार! हे कृपा के सागर! हे पापियों के पतवार! हे अनाथरक्षक! हम पापियों ने तो कभी भूल से भी आपका नाम ग्रहण नहीं किया था। हम तो सदा मदोन्‍मत्त हुए पापकर्मों में ही प्रवृत्‍त रहते थे। हमें तो आपके संबंध में कुछ ज्ञान भी नहीं था। हमारे ऊपर कृपा करके आपने संसार को प्रत्‍यक्ष ही यह दिखला दिया कि चाहे कोई भजन करे या न करे, कोई कितना ही बड़ा पापी क्‍यों न हो, प्रभु उसके ऊपर भी एक-न-एक दिन अवश्‍य ही कृपा करेंगे। हे प्रभों! हमें अपने पापों का फल भोगने दीजिये। हमें अरबों-खरबों और असंख्‍यों वर्षों तक नरकों की भयंकर यातनाओं को भोगने दीजिये। प्रभों! हम आपकी इस अहैतु की कृपा को सहन न कर सकेंगे। नाथ! हमारा हृदय विदीर्ण हुआ जा रहा है। हम प्रभु के इतने बड़े कृपापात्र बनने के योग्‍य कोटि जन्‍मों में भी न बन सकेंगे, जितनी कृपा प्रभु हमारे ऊपर प्रदर्शित कर रहे हैं।’

कल तक जो मद्यपान के अतिरिक्‍त कुद जानते-समझते ही नहीं थे, उन्‍हीं के मुख से ऐसी अपूर्व स्‍तुति सुनकर सभी भक्‍त चकित रह गये। वे एक-दूसरे की ओर देखकर आश्‍चर्य प्रकट करने लगे। अद्वैताचार्य ने उसी समय इस श्‍लोक को पढ़कर प्रभु के पादपद्मों में प्रणाम किया-

मूकं करोति वाचालं पंगुं लड़्धयते गिरिम्।
यत्‍कृपा तमहं वन्‍दे परमानन्‍दमाधवम्।।[1]

जगाई-मधाई की ऐसी स्‍तुति सुनकर प्रभु ने उनसे कहा-‘तुम दोनों भाई सभी भक्तों की चरण-वंदना करो। भक्‍तों की पद-धूलि से पापी-से-पापी पुरुष भी परम पावन और पुण्‍यात्‍मा बन सकता है। प्रभु की आज्ञा पाकर दोनों भाई अपने अश्रुओं से भक्‍तों के चरणों को भिगोते हुए उनकी चरण-वंदना करने लगे। सभी भक्‍तों ने उन्‍हें हृदय से परम होने का सर्वोत्त्म आशीर्वाद दिया।

अब महाप्रभु ने उनकी शांति के लिये दूसरा उपाय सोचा। भगवती भागीरथी सभी के पापों को जड़-मूल से उखाड़कर फेंक देनेवाली हैं, अत: आपने भक्‍तों से जाह्नवी के तटपर चलने के लिये कहा। चांदनी रात्रि थी, गर्मी के दिन थे, लोग कुछ तो सो गये थे, कुछ सोने की तैयारी कर रहे थे। उसी समय सभी भक्‍त दोनों भाइयों को आगे करके संकीर्तन करते हुए और प्रेम से नाचते-गाते गंगा-स्‍नान के निमित्त चले। संकीर्तन और जय-जयकारों की तुमुल ध्‍वनि सुनकर सहस्‍त्रों नर-नारी गंगा जी के घाटपर एकत्रित हो गये। बहुत-से तो खाट पर से वैसे ही बिना वस्‍त्र पहने उठकर चले आये, कोई भोजन करते-से ही दौड़े आये।

पत्‍नी पतियों को छोड़ करके, माता पुत्रों का परित्‍याग करके तथा बहुएं अपनी सास-ननदों की कुछ भी परवा न करके संकीर्तन देखने की निमित्त दौड़ी आयी। सभी आ-आकर भक्‍तों के साथ संकीर्तन करने में निमग्‍न हो गये। सभी एक प्रकार के अपूर्व आकर्षण के वशीभूत होकर अपने आपको भूल गये। महाप्रभु ने संकीर्तन बंद करने की आज्ञा दी और इन दोनों भाइयों को साथ लेकर वे स्‍वयं जल में घुसे। उनके साथ नित्‍यानंद, अद्वैताचार्य, श्रीवास तथा गदाधर आदि सभी भक्‍तों ने भी जल में प्रवेश किया। जल में पहुँचकर प्रभु ने दोनों भाइयों से कहा- ‘जगन्‍नाथ (जगाई) और माघव (मधाई)! तुम दोनों अपने-अपने हाथों में जल लो।’ प्रभु की आज्ञा पाते ही दोनों ने अपने-अपने हाथों में जल लिया। तब प्रभु ने गम्‍भीरता स्‍वर में अत्‍यंत ही स्‍नेह के साथ दयार्द्र होकर कहा- ‘आजतक तुम दोनों भाइयों ने जितने पाप किये हों, इन जन्‍म में या पिछले कोटि जन्‍मों में, उन सभी को मुझे दान कर दो।’

हाथ के जल को जल्‍दी से फेंकते हुए अत्‍यंत ही दीनता के साथ कातरस्‍वर में उन दोनों भाइयों न कहा- ‘प्रभो! हमारा हृदय फट जायगा। भगवन! हम मर जायँगे। हमें ऐसा घोर कर्म करने की आज्ञा अब न प्रदान कीजिये। प्रभो! हम आपकी इतनी कृपा सहन नहीं कर सकते। हे दीनों के दयाल! जिन चरणों में भक्‍तगण नित्‍यप्रति भाँति-भाँति के सुगन्धित चंदन और विविध प्रकार के पत्र-पुष्‍प चढ़ाते हैं, उनमें हमें अपने असंख्‍यों पापों को चढ़ाने की आज्ञा न दीजिये। संसार हमें धिक्‍कारेगा कि प्रभु के पावन पादपद्मों में इन पापी पामर प्राणियों ने अपने पाप-पुंजों को अर्पण किया। प्रभो! हम दब जायंगे। यह काम हमसे कभी नहीं होने का।‘

प्रभु ने इन्‍हें धैर्य बंधाते हुए कहा- ‘भाइयो! तुम घबड़ाओं नहीं। तुम्‍हारे पापों को ग्रहण करके मैं पावन हो जाऊगाँ। मेरा जन्‍म धारण करना सार्थक हो जायगा। तुमलोग संकोच न करो।’ प्रभु की इस बात को सुनकर नित्‍यानंद जी ने उन दोनों भाइयों से कहा- ‘तुमलोग इतना संकोच मत करो। ये तो जगत को पावन बनाने वाले हैं। पाप इनका क्‍या बिगाड़ सकते हैं? ये तो त्रिभुवनपापहारी हैं। तुम अपने पापों का संकल्‍प कर दो।’

नित्‍यानंद जी की बात सुनकर रोते-रोते इन दोनों भाइयों ने हाथ में जल लिया। नित्यानन्द जी ने संकल्प पढ़ा और प्रभु ने दोनों हाथ फैलाकर उन दोनों भाइयों के सम्पूर्ण पापों को ग्रहण कर लिया। अहा! कैसा अपूर्व आदर्श है? दूसरों के पाप ग्रहण करने से ही तो गौरांग पतित पावन कहा सके। उनके पापों का ग्रहण करके प्रभु बोले- ‘अब तुम दोनों निष्‍पाप हो गये। अब तुम मेरे अत्यन्त प्रिय परम भागवत वैष्‍णव बन गये। आज से जो कोई तुम्हारे पुराने पापों को स्मरण करके तुम्हारे प्रति घृणा प्रकट करेगा, वह वैष्‍णवद्रोही समझा जायगा। उसे घोर वैष्‍णवापराध पातक लगेगा।’ यह कहते-कहते प्रभु ने फिर दोनों को गले से लगा लिया। वे भी प्रभु का प्रेमालिंगन पाकर मूर्च्छित होकर जल में गिर पड़े। उस समय प्रभु के अत्यन्त ही अन्तरंग भक्‍तों को तपाये हुए सुवर्ण के समान रंगवाला प्रभु का शरीर किंचित कृष्‍णवर्ण का प्रतीत होने लगा। पाप ग्रहण करने से वह काला हो गया। इसके अनन्तर सभी भक्‍तों ने आनन्द और उल्लास के सहित खूब स्नान किया। मारे प्रेम के सभी भक्‍त पागल-से हो गये थे। स्नान करते-करते वे आपस मे एक-दूसरे के ऊपर जल उलीचने लगे। इस प्रकार बहुत देर तक सभी गंगा जी के त्रिभुवनपावन पय में प्रसन्नता सहित क्रीड़ा करते रहे। अर्द्धरात्रि से अधिक बीतने पर अपने-अपने घरों को चले गये, किंतु जगाई-मधाई दोनों भाई उस दिन से अपने घर नहीं गये। वे श्रीवास पण्ड़ित ही घर रहने लगे।

क्रमशः अगला पोस्ट [66]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Jagai and Madhai Prapanna

He surrenders to you once and begs you to be yours This is my vow and I grant safety to all beings.

In Vrindavan, a supreme Bhagavad Bhakt Mata told us this story – Bhakt Bhayabhanjan was eating food surrounded by Satyabhama etc. Bhaminis sitting in the grand food hall of Lord Dwarka. The Lord was sitting on a very beautiful golden post. Varieties of delicious dishes were decorated in the precious plates of gold. A variety of beverages were kept in bowls studded with precious stones. Rukmini ji was sitting in front and was swinging the fan. Other queens were sitting here and there. Suddenly God stopped completely while eating, the grass of his mouth was in his mouth and his hand in his hand. He stood motionless like a lifeless statue. His lotus-like cheerful face completely withered. With tears in his eyes, he started looking at Rukmini ji. All the queens were horrified to see such a gesture of God. She started looking at the Lord’s face in fear of some future apprehension. Frightened, Rukmini ji asked in a trembling voice – ‘Lord! Why did you become like this all at once? It seems that some devotee who is very dear to you is in great distress, because of which you are so upset. Is my guess correct?

Looking at Rukmini, the Lord said- ‘Your guess is not untrue.’ Expressing impatience, Rukminiji said – ‘Praneshwar! I want to know the condition of that Mahabhag devotee and his calamity.’ The Lord said in an angry voice – ‘Drupad is pulling the thread of thread in a gathering full of evil misrule. Wants to strip that chastity naked in front of the teachers.’

Hearing Drupadasuta’s grief, Rukmini ji quickly said with timidity and shyness – ‘ Then what are you thinking, why don’t you help him quickly, so that he can be saved from shame. Lord! Protect that poor and helpless woman. God! My heart has started beating because of his sorrow.’

God said with a loud voice – ‘ How can I help? He has pressed one end of his cloth with his teeth. She is taking support of her teeth instead of taking support of me. How can I help her until she leaves all hope and completely depends on me?

The Lord was saying so much in Dwarka that Draupadi, considering herself helpless from all sides, decided to take shelter of the Lord. ‘Krish’ came out of his mouth so much that the cloth was left from the teeth. Had to leave the shelter of teeth and even ‘N’ could not come out in front of ‘Krish’ that’s why God appeared there and made Draupadi’s rag Akshay. Describing this, Surdas ji says-

Drupada-Suta became weak that day, brought him to his abode. Dushasan’s arm got tired, Shyam was scared in the form of basan. I have heard Ram, the strength of the weak.

Because as long as man has the shelter of his strength, as long as he considers himself strong and capable, then why does God start helping? He is the helper of the weak – he is the protector of the destitute – this is why Sur says –

Up-Bal, Tapa-Bal and Bahu-Bal, the fourth is Bal Daam. Sur Kishore-Kripateen Sab Bal, Hari Naam to the loser. I have heard Ram, the strength of the weak.

Jagai-Madhai had a lot of ill-gotten wealth, both of them were strong in body, they had authority from the ruler. In terms of money, people, army and authority, they considered themselves to be the doer, that’s why even the Lord used to stay away from them. The moment they forgot all their rights and powers and became weak and exhausted, at that very moment the Lord took them under His shelter. By the grace of that moment, the age-old sinners became the blessings of all Vaishnavas. Such is the magic of being and surrendering. The moment you pray to Him with a sincere heart saying ‘I am yours’, at that very moment He accepts you, He is sitting hungry for the devotees. Keeps looking at people’s faces to see if someone says ‘I am yours’, even Ajamil falsely uttered the word ‘Narayan’ on the pretext of a son. That’s all, protected him and forgave him the sins of his lifetime.

The devotees brought both the brothers Jagai-Madhai along with them and came to the Lord’s place. All the devotees sat at their places. The Lord sat on a high platform. Gadadhar and Nityanand ji were sitting on his right and left. Old Acharya Advait was sitting in front. Apart from these, many devotees such as Pundarika, Vidyanidhi, Haridas, Garuda, Ramai Pandit, Srinivasa, Gangadhar, Vakreshwar, Chandrasekhar etc. were sitting around the Lord. In between, these two brothers woke up and Madhai bowed his head, shedding tears from his eyes. The flame of remorse and remorse was visible emanating from his every part. Both of their bodies were trembling. Both were going under the heavy weight of Nityananda and the Lord’s grace. He was not aware of his body. Seeing them in such a sad way, the Lord said to them – ‘Brothers! Shripad Nityanand ji has blessed you, now you people leave mourning, now you have become sinless. God has blessed you a lot.’

After listening to the Lord, both the brothers said crying loudly – ‘Lord! By saving us sinners, today you have made your name ‘Patipavan’ truly meaningful. Your name of the Purifier has become meaningful today itself. You had no praise for saving Ajamil; Because he had taken the name of four syllables ‘Narayan’ which destroys all sins. The courtesan used to pronounce the name of Ram while teaching Sua, however, the name of God was pronounced by her tongue. Valmiki ji had chanted the name in reverse for thousands of years. No matter how the seed is sown in the field, it will definitely come up. Dantavakra, Shishupala, Ravana, Kumbhakarna, Shaktasur, Shambarasur, Aghasur, Bakasur, Kansa etc. all the asuras and demons had contemplated your form, right from their hatred. While getting up, sitting, sleeping and waking up, he used to meditate on you all the time. All of them must be freed, because of being related to God, these people were entitled to freedom, but O Dinanath! Oh refuge! O the only support of the fallen! O ocean of grace! O rudder of sinners! O protector of orphans! We sinners had never taken your name even by mistake. We always used to indulge in sinful deeds when we were intoxicated. We didn’t even have any knowledge about you. By showing mercy on us, you directly showed the world that whether someone does bhajan or not, no matter how big a sinner he may be, God will surely bless him one day or the other. O lords! Let us bear the fruits of our sins. Let us suffer the terrible tortures of the hells for billions and billions of years. Lord! We will not be able to tolerate this unnecessary kindness of yours. God! Our heart is being torn apart. Even in millions of births, we will not be able to become worthy of such a great favor of the Lord, as the Lord is showing us.

All the devotees were amazed to hear such unique praise from the mouth of those who till yesterday did not know or understand anything apart from drinking. They began to express surprise by looking at each other. Advaitacharya at the same time recited this verse and bowed down at the lotus feet of the Lord-

He makes the dumb speak and the lame fight the mountain I salute Him whose grace is the supreme bliss of Madhava.

Hearing such praise of Jagai-Madhai, the Lord said to them – ‘You two brothers, worship the feet of all the devotees. With the dust of the feet of the devotees, even the worst of sinners can become pure and virtuous. After getting the permission of the Lord, both the brothers started worshiping the feet of the devotees by soaking them with their tears. All the devotees heartily showered him with the best blessings of the Supreme Being.

Now Mahaprabhu thought of another solution for his peace. Bhagwati Bhagirathi is going to uproot everyone’s sins and throw them away, so you asked the devotees to walk on the banks of Jahnavi. It was moonlit night, it was summer day, some people were asleep, some were preparing to sleep. At the same time, all the devotees took the two brothers in front, chanting and singing and dancing with love, for the purpose of bathing in the Ganges. Thousands of men and women gathered at the ghats of Ganga ji after listening to the loud sound of sankirtan and cheers. Many just got up from the cot without wearing any clothes, some came running while having food.

Wives leaving their husbands, mothers abandoning their sons and daughters-in-law running to see the Sankirtan without caring for their mother-in-law and sisters-in-law. Everyone came and got engrossed in doing sankirtan with the devotees. Everyone forgot themselves by being influenced by a kind of unique attraction. Mahaprabhu ordered the sankirtan to stop and he himself entered the water taking these two brothers with him. Along with them all the devotees like Nityananda, Advaitacharya, Srivasa and Gadadhara etc. also entered the water. After reaching the water, the Lord said to both the brothers – ‘ Jagannath (Jagai) and Maghav (Madhai)! Both of you burn in your hands.’ As soon as they got the permission of the Lord, both of them got burnt in their hands. Then the Lord said in a very serious voice with great affection- ‘All the sins committed by both of you brothers till date, in this life or in the previous crores of births, donate them all to me.’

Throwing the water of the hand quickly, with utmost humility, both of those brothers did not say in Katraswar- ‘Lord! Our hearts will explode. God! we will die Don’t allow us to do such a heinous act now. Lord! We cannot tolerate your kindness. O merciful of the poor! Do not allow us to offer our innumerable sins at the feet where devotees regularly offer fragrant sandalwood and different types of leaves and flowers. The world will curse us that these sinful palmer creatures offered their sins in the holy feet of the Lord. Lord! We will be buried. This work should never happen to us.

Giving them patience, the Lord said – ‘Brothers! You don’t panic I will become pure by accepting your sins. Taking my birth will be meaningful. You guys don’t hesitate. After listening to this talk of the Lord, Nityanand ji said to both those brothers – ‘ You guys don’t hesitate so much. They are the ones who make the world pure. What harm can sin do to them? He is Tribhuvanpapahari. You resolve your sins.

Both these brothers burnt their hands while crying after listening to Nityanand ji. Nityanand ji read the resolution and the Lord accepted all the sins of those two brothers by spreading both hands. Aha! What a wonderful ideal It is only by accepting the sins of others that Gauranga can be called the Purifier of the sinful ones. Accepting their sins, the Lord said – ‘ Now both of you have become sinless. Now you have become my very dear Param Bhagwat Vaishnav. From today onwards whoever shows hatred towards you by remembering your old sins, he will be considered as Vaishnavadrohi. He will be considered a great Vaishnavaparadh Patak. Saying this, the Lord again hugged both of them. They also fainted after getting the Lord’s love and fell into the water. At that time, the body of the Lord, having a color similar to that of molten gold, appeared to the very intimate devotees of the Lord to be slightly crimson. He became black by taking sin. After this, all the devotees took a great bath with joy and gaiety. All the devotees of Mare Prem had gone mad. While taking bath, they started pouring water on each other. In this way, for a long time, everyone played happily in the Tribhuvanpavan drink of Ganga ji. After midnight they went to their respective homes, but Jagai-Madhai both brothers did not go to their homes from that day. That Shrivas Pandit started living at home.

respectively next post [66] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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