[67]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
सज्‍जन-भाव

तृष्‍णां छिन्धि भज क्षमां जहि पापे रतिं मा कृथा:
सत्‍यं ब्रूह्यनुयाहि साधुपदवीं सेवस्‍य विद्वज्‍जनम्।
मान्‍यान्‍मानय विद्विषोऽप्‍यनुनय प्रख्‍यापय स्‍वान्‍गुणान्
कीर्तिं पालय दु‍:खिते कुरु दयामेतत्‍सतां लक्षणम्।।

महाप्रभु गौरांगदेव में भगवत-भाव की भावना तो उनके कतिपय अंतरंग भक्‍त ही रखते थे, किंतु उन्‍हें परम भागवत वैष्‍णव विद्वान और गुणवान सज्‍जन पुरुष तो सभी लोग समझते थे। उनके सद्गुणों के सभी प्रशंसक थे। जिन लोगों का अकारण ईर्ष्‍या करना ही स्‍वभाव होता है, ऐसे खल पुरुष तो ब्रह्मा जी की भी बुराई करने से नहीं चूकते। ऐसे मलिन-प्रकृति के निंदक खलों को छोड़कर अन्‍य प्रकार के लोग प्रभु के उत्तम गुणों के ही कारण उन पर आसक्‍त थे। उन्‍होंने अपने जीवने में किसी भी शास्‍त्र–मर्यादा का उल्‍लंघन नहीं किया। सर्वसमर्थ होने पर भी वे सभी लौकिक तथा वैदिक क्रियाओं को स्‍वयं करते थे और लोगों को भी उनके लिये प्रोत्‍साहित करते थे, किंतु वे कलिकाल में श्रीभगवन्‍नाम को ही मुख्‍य समझते थे और सभी कर्मों को गौण मानते हुए भी उन्‍होंने गार्हस्‍थ्‍य-जीवन में न तो स्‍वयं ही उन सबका परित्‍याग किया और न कभी उनका खण्‍डन ही किया। वे स्‍वयं दोनों कालों की संख्‍या, तर्पण, पितृश्राद्ध, पर्व, उत्‍सव, तीर्थ, व्रत एवं वैदिक संस्‍कारों को करते तथा मानते थे, उन्‍होंने अपने आचरणों और चेष्‍टाओं द्वारा भी इन सबकी कहीं उपेक्षा नहीं की। श्रीवास, अद्वैताचार्य, मुरारी गुप्‍त, रमाई पण्डित, चन्‍द्रशेखर आचार्य आदि उनके सभी अंतरंग भक्‍त भी परम भागवत होते हुए इन सभी मर्यादाओं का पालन करते थे।

भावावेश के समय को छोड़कर वे कभी भी किसी के सामने अपनी बड़ाई की कोई बात नहीं कहते थे। अपने से बड़ों के सामने वे सदा नम्र ही बने रहते। श्रीवास, नंदनाचार्य, चन्‍द्रशेखराचार्य, अद्वैताचार्य आदि अपने सभी भक्‍तों को वे वृद्ध समझकर पहले से प्रणाम करते थे।
संसार का एक नियम होता है कि किसी एक ही वस्‍तु के जब बहुत-से इच्‍छुक होते हैं, तो वे परस्‍पर में विद्वेष करने लगते हैं, हमें उस अपनी इष्‍ट वस्‍तु के प्राप्‍त होने की तनिक भी आशा चाहे न हो तो भी हम इसके दूसरे इच्‍छुकों से अकारण द्वेष करने लगेंगे, ऐसा स्‍वाभाविक नियम है। संसार में इन्द्रियों के भोग्‍य-पदार्थों की और कीर्ति की सभी को इच्‍छा रहती है। इसीलिये जिनके पास इन्द्रियों के भोग्‍य-पदार्थों की प्रचुरता होती है और जिनकी संसार में कीर्ति होने लगती है, उनसे लोग स्‍वाभाविक हो द्वेष-सा करने लगते हैं। सज्‍जन पुरुष तो सुखी लोगों के प्रति मैत्री, दु:खियों के प्रति करुणा, पुण्‍यवानों के प्रति प्रसन्‍नता और पापियों के प्रति उपेक्षा के भाव रखते हैं।

सर्वसाधारण लोग धनिकों और प्रतिष्ठितों के प्रति उदासीन-से बने रहते हैं और अधिकांश दुष्‍ट -प्रकृति के लोग तो सदा धनी-मानी सज्‍जनों की निंदा ही करते रहते हैं। जहाँ चार लोगों ने किसी की प्रशंसा की, बस उसी समय उनकी अंदर छिपी ईर्ष्‍या भभक उठती है और वे झूठी-सच्‍ची बातों को फैलाकर जनता में उनकी निंदा करना आरंभ कर देते हैं। ऐसे निंदकों के दल से अवतारी पुरुष भी नहीं बचने पाये हैं। गौरांग महाप्रभु की भी बढ़ती हुई कीर्ति और उनके चारों और जनता में फैले हुए यश-सौरभ से क्षभित होकर निन्दक लोग उनकी भाँति-भाँति से निन्दा करने लगे। कोई तो उन्हें वाममार्गी बताता, कोई उन्हें ढोंगी कहकर अपने हृदय की कालिमा को प्रकट करता और कोई-कोई तो उन्हें धूर्त और बाजीगर तक कह देता। प्रभु सब‍की सुनते और हंस देते। उन्होंने कभी अपने निन्दकों की किसी बात का विरोध नहीं किया। उलटे वे स्वयं निन्दकों की प्रशंसा ही करते रहते। उनकी सहनशीलता और विद्वेष करने वालों के प्रति भी करुणा के भावों का पता नीचे की दो घटनाओं से भली-भाँति पाठकों को लग जायगा।

यह तो पाठकों को पता ही है कि श्रीवास पण्डित के घर संकीर्तन सदा किवाड़ बंद करके ही होता था। साल भर तक सदा इसी तरह संकीर्तन होता रहा। बहुत-से विद्वेषी और तमाशबीन देखने आते और किवाड़ों को बंद देखकर संकीर्तन की निन्दा करते हुए लौट जाते। उन्हीं ईर्ष्‍या रखने वाले विद्वेषियों में गोपाल चापाल नाम का एक क्षुद्र प्रकृति का ब्राह्मण था। वह प्रभु की बढ़ती हुई कीर्ति से क्षुभित-सा हो उठा, उसने संकीर्तन को बदनाम करने का अपने मन में निश्‍चय किया।

एक दिन रात्रि में वह श्रीवास पण्डित के द्वार पर पहुँचा। उस समय द्वार बंद था और भीतर संकीर्तन हो रहा था। चापाल ने द्वार के सामने थोड़ी-सी जगह लीपकर वहाँ चण्‍डी की पूजा की सभी सामग्री रख दी। एक हांडी में लाल, पीली, काली बिन्दी लगाकर उसको सामग्री के समीप रख दिया। एक शराब का पात्रतथा एक पात्र में मांस भी रख दिया। यह सब रखकर वह चला गया। दूसरे दिन जब संकीर्तन करके भक्‍त निकले तो उन्होंने चण्‍डीपूजन की सामग्री देखी। खलों का भी दल आकर एकत्रित हो गया और एक-दूसरे को सुनाकर कहने लगे- ‘हम तो पहले ही जानते थे, ये रात्रि में किवाड़-बंद करके और स्त्रियों को साथ लेकर जोर-जोर से तो हरिध्‍वनि करते हैं और भीतर-ही-भीतर वाममार्ग की पद्धति से भैरवी-चक्र का पूजन करते हैं। ये सामने काली की पूजा की सामग्री प्रत्यक्ष ही देख लो। जो लोग सज्जन थे, वे समझ गये कि यह किसी धूर्त का कर्तव्य है। सभी एक स्वर से ऐसा करने वाले धूर्त की निन्दा करने लगे।

श्रीवास ताली पीट-पीट कर हंसने लगे और लोगों से कहने लगे- ‘देखो भाई! हम रात्रि में ऐसे ही चण्‍डी पूजा किया करते हैं। भद्रपुरुषों को आज स्पष्‍ट ही ज्ञात हो गया! भक्‍तों ने उन सभी सामान को उठाकर दूर फेंक दिया और उस स्थान को गोमय से लीपकर और गंगाजल छिड़ककर शुद्ध किया।

दूसरे ही दिन लोगों ने देखा गोपाल चापाल के सम्पूर्ण शरीर में गलित कुष्‍ठ हो गया है। उसके सम्पूर्ण शरीर में से पीब बहने लगा। इतने पर भी घाव खुजाते थे, खुजली के कारण वह हाय-हाय करके सदा चिल्लाता रहता था। नगर के लोगों ने उसे मुहल्ले में से निकाल दिया, क्यों‍कि कुष्‍ठ छूत की बिमारी होती है, वह बेचारा गंगा जी के किनारे एक नीम के पेड़ के नीचे पड़ा रहता था।

एक दिन प्रभु को देखकर उसने दीन-भाव से कहा- ‘प्रभो! मुझसे बड़ा अपराध हो गया है। क्‍या मेरे इस अपराध को तुम क्षमा नहीं कर सकते? तुम जगत का उद्धार कर रहे हो, इस पापी का भी उद्धार करो। गांव-नाते से तुम मेरे भानजे लगते हो, अपने इस दीन-हीन मामा के ऊपर तुम कृपा क्‍यों नहीं करते? मैं बहुत दु:खी हूँ। प्रभो! मेरा दु:ख दूर करो।

प्रभु ने कहा- ‘कुछ भी हो, मैं अपने अपराधी को तो क्षमा कर सकता हूँ; किंतु तुमने श्रीवास पण्डित का अपराध किया है। इसलिये तुम्‍हें क्षमा करने की मुझमें सामर्थ्‍य नहीं है।’ बेचारा चुप हो गया और अपनी नीचता तथा दुष्‍टता फल कुष्‍ठ के दु:ख से दु:खी होकर वेदना के सहित भोगता रहा।

थोड़े दिनों के पश्‍चात जब प्रभु संन्‍यास लेकर कुलिया में आये और यह कुष्‍ठी फिर इनके शरणापन्‍न हुआ तब इन्‍होंने उसे श्रीवास पण्डित के पास भेज दिया। श्रीवास पण्डित ने कहा- ‘मुझे तो इनसे पहले भी कभी द्वेष नहीं था और अब भी नहीं है, यदि प्रभु ने इन्‍हें क्षमा कर दिया है, तो ये अब दु:ख से मुक्‍त हो ही गये। देखते-ही-देखते उसका सम्‍पूर्ण शरीर नीरोग हो गया।
इसी प्रकार एक दिन एक और ब्राह्मण संकीर्तन देखने के लिये आया। जब उसने किवाड़ों को भीतर से बंद देखा तब तो वह क्रोध के मारे आगबबूला हो गया और की‍र्तन वालों को खरी-खोटी सुनाता हुआ अपने घर लोट गया। दूसरे दिन गंगा जी के घाटपर जब उसने प्रभु के सहित स्‍नान करते देखा तब तो उसने क्रोध में भरकर प्रभु से कहा- ‘तुम्‍हें अपने कीर्तन का बड़ा अभिमान है। दस-बीस भोले-भाले लोगों को कठपुतलियों की तरह हाथ के इशारे से नचाते रहते हो। लोग तुम्‍हारी पूजा करते हैं, इससे तुम्‍हें बड़ा अहंकार हो गया है। जाओ मैं तुम्‍हें शाप देता हूँ, कि जिस संसारी सुख के मद में तुम इतने भूले हुए हो, वह तुम्‍हारा संसारी सुख शीघ्र ही नष्‍ट हो जाय।’

ब्राह्मण के ऐसे वाक्‍यों को सुनकर सभी भक्‍त आश्‍चर्य के साथ उस ब्राह्मण के मुख की ओर देखने लगे। कुछ लोगों को थोड़ा क्रोध भी आ गया, प्रभु ने उन सबको रोकते हुए हंसकर उन ब्राह्मण देवता से कहा- ‘विप्रदेव! आपके चरणों में मैं प्रणाम करता हूँ। आपका शाम मुझे सहर्ष स्‍वीकार है।’

कुछ देर के पश्‍चात ब्राह्मण का क्रोध शांत हो गया। तब उसने अपने वाक्‍यों पर पश्‍चात्ताप प्रकट करते हुए विनीतभाव से कहा- ‘प्रभो! मैंने क्रोध के वशीभूत होकर आपसे ऐसे कुवाक्‍य कह दिये। आप मेरे अपराध को क्षमा करें।’

प्रभु ने उसे आश्‍वासन देते हुए कहा- ‘विप्रवर! आपने मेरा कुछ भी अपकार नहीं किया और न आपने मुझसे कोई कुवाक्‍य ही कहा। आपने शाप न देकर यह तो मुझे वरदान ही दिया है! श्रीकृष्‍ण-प्राप्ति में संसारी सुख ही तो बंधन के प्रधान कारण हैं। आपने मुझे उनसे मुक्‍त होने का जो वरदान प्रदान कर दिया, इससे मेरा कल्‍याण ही होगा। आप इसके लिये कुछ भी चिंता न करें।’ ऐसा कहकर प्रभु ने उस ब्राह्मण को प्रेमपूर्वक आंलिगन किया और वे भक्‍तों के सहित अपने स्‍थान को चले आये। इसी का नाम है विद्वेष करने करने वालों के प्रति भी शुद्ध भाव रखना। ऐसा व्‍यवहार महाप्रभु-जैसे महापुरुषों के ही द्वारा सम्‍भव भी हो सकता है।

महाप्रभु की नम्रता बड़ी ही अलौकिक थी। वे रास्‍तें में कैसे भी चलें, स्त्रियों से कभी दृष्टि नहीं मिलाते थे। बड़े लोगों से सदा दीनता और सम्‍मान के सहित भाषण करते थे। भावावेश के समय तो वे अपने स्‍वरूप को ही भूल जाते थे। भावावेश के अतिरिक्‍त समय में यदि उनकी कोई पूजा या चरण-वंदना करता तो वे उससे बहुत अधिक असंतुष्‍ट होते। भावावेश अनन्‍तर यदि कोई कहता कि हमें आपके दुर्गारूप में, कृष्‍णरूप में, रामरूप में अथवा बलदेव, वामन, नृसिंह के रूप में दर्शन क्‍यों हुए थे तो आप कह देते- ‘तुम सदा उसी रूप का चिंतन करते रहते हो। तुम्‍हारे इष्‍टदेव में सभी सामर्थ्‍य है, वह जिसके शरीर में भी चाहें प्रवेश होकर तुम्‍हें दर्शन दे जायं। इसमें तुम्‍हारी भावना ही प्रधान कारण है। तुम्‍हें अपनी शुद्ध भावना से ही ऐसे रूपों के दर्शन होते हैं।

एक बार ये भक्‍तों के सहित लेटे हुए थे कि एक ब्राह्मणी ने आकर इनके चरणों में अपना मस्‍तक रखकर इन्‍हें भक्तिभाव से प्रणाम किया। ब्राह्मणी को अपने चरणों में मस्तक रखते देखकर इन्‍हें बड़ा दु:ख हुआ और उसी समय दौड़कर गंगा जी में कूद पड़े। सभी भक्त इन्‍हें इस प्रकार गंगा जी में कूदते देखकर हाहाकार करने लगे। शचीमाता छाती पीट-पीटकर रुदन करने लगीं। उसी समय नित्‍यानंद जी और हरिदास भी प्रभु के साथ गंगा जी में कूद पड़े और इन्‍हें निकालकर किनारे पर लाये।

इस प्रकार वे अपने जीवन को रागद्वेषादि से बचाते हुए, क्षमा को धारण करते हुए, अभिमान से रहित होकर, पापियों के साथ भी प्रेम का बर्ताव करते हुए तथा विद्वेषियों से भी सुंदर व्‍यवहार करते हुए अपनी सज्‍जनता, सहृदयता,सहनशीलता और सच्‍चरित्रता से भक्‍तों के लिये एक उच्‍चादर्श का पाठ पढ़ाते हुए अपने आचरणों द्वारा सबको आनन्दित करने लगे।

क्रमशः अगला पोस्ट [68]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram gentlemanliness

Cut off thirst, worship forgiveness, kill sin, and do not indulge in sin: Speak the truth and follow the path of the saintly men of service to the learned Honor those who respect you, persuade those who hate you, and proclaim your virtues Keep your fame and show mercy to the suffering This is the characteristic of the virtuous

In Mahaprabhu Gaurangdev, only some of his intimate devotees used to have the feeling of godliness, but everyone considered him as the supreme Bhagwat Vaishnava scholar and a virtuous gentleman. All were admirers of his virtues. People whose nature is to be jealous without any reason, such evil men do not hesitate to do bad things even to Brahma ji. Except for such dirty-natured cynics, other types of people were attached to the Lord because of His excellent qualities. He did not violate any scriptures in his life. Despite being all-powerful, he himself used to perform all cosmic and Vedic rituals and encouraged people to do the same, but in Kalikal, he used to consider the Lord’s name as the main one, and despite considering all the actions as secondary, he did not himself in his household life. He abandoned them all and never denied them. He himself used to perform and follow the Sankhya, Tarpan, Pitrushradh, festivals, festivals, pilgrimages, fasts and Vedic rites of both times, he did not neglect all these even by his conduct and efforts. Shrivas, Advaitacharya, Murari Gupta, Ramai Pandit, Chandrashekhar Acharya etc. all his intimate devotees also used to follow all these norms being Param Bhagwat.

Except in the time of passion, he never used to say anything about his pride in front of anyone. He always remained humble in front of his elders. Shrivas, Nandacharya, Chandrashekhacharya, Advaitacharya etc. he used to bow down to all his devotees considering them as elders. There is a rule of the world that when there are many desirous of the same thing, then they start enmity with each other, even if we do not have even the slightest hope of getting our favorite thing, then we are its other desirous. They will start hating without any reason, such is a natural rule. Everyone in the world has a desire for the enjoyment of the senses and for fame. That’s why people naturally feel envious of those who have an abundance of sensual pleasures and who start getting fame in the world. Gentle men show friendship towards the happy, compassion towards the sad, happiness towards the virtuous and neglect towards the sinners.

Common people remain indifferent to the rich and respected and most of the evil-natured people always criticize the rich and well-known gentlemen. Where four people praised someone, just at the same time their hidden jealousy flares up and they start condemning them in public by spreading false-truths. Even the incarnated men have not been able to escape from the group of such detractors. Enraged by the increasing fame of Gaurang Mahaprabhu and the fame and fortune spread around him among the public, the detractors started criticizing him in many ways. Some would call him a leftist, some would reveal the blackness of his heart by calling him a hypocrite and some would even call him a sly and a juggler. The Lord would listen to everyone and laugh. He never opposed anything of his detractors. On the contrary, he himself kept on praising the detractors. Readers will get to know about his tolerance and feelings of compassion even towards the haters from the below two incidents.

It is well known to the readers that Sankirtan always took place in Shrivas Pandit’s house with the door closed. Sankirtan continued like this for the whole year. Many ill-wishers and onlookers came to watch and returning after seeing the doors closed, condemning the Sankirtan. Among those jealous haters, there was a brahmin of petty nature named Gopal Chapal. He became angry with the increasing fame of the Lord, he decided in his mind to defame the Sankirtan.

One day at night he reached the door of Shrivas Pandita. At that time the door was closed and sankirtan was happening inside. Chapal covered a little space in front of the door and kept all the articles of worship of Chandi there. Put a red, yellow, black dot in a handi and put it near the material. A vessel of wine and meat was also kept in a vessel. He went away keeping all this. On the second day, when the devotees came out after doing sankirtan, they saw the ingredients of Chandi Pujan. A group of men also came and gathered together and after telling each other said- ‘We already knew that they keep the doors closed in the night and take women with them, they make loud noise and inside- Bhairavi-Chakra is worshiped internally by the method of left path. Just see the material of worship of Kali directly in front of you. Those who were gentlemen understood that this was the duty of a rascal. Everyone started condemning the rascal who did this with one voice.

Shrivas started laughing clapping and saying to the people- ‘Look brother! This is how we do Chandi Puja at night. Gentlemen have come to know clearly today! The devotees picked up all those things and threw them away and purified the place by smearing it with cow milk and sprinkling it with Ganges water.

The very next day, people saw that Gopal Chapal’s whole body was covered with leprosy. Pub started flowing from his whole body. Even after this, the wounds used to scratch, due to itching, he used to keep crying out and crying all the time. The people of the city drove him out of the locality, because leprosy is a contagious disease, he used to lie under a neem tree on the banks of the poor Ganga ji.

One day seeing the Lord, he humbly said – ‘Lord! I have committed a bigger crime. Can’t you forgive this crime of mine? You are saving the world, save this sinner also. You seem to be my nephew because of village ties, why don’t you show kindness to this poor uncle of yours? I am very sad. Lord! Take away my sorrow

The Lord said- ‘Whatever happens, I can forgive my offender; But you have committed the crime of Shrivas Pandit. That’s why I don’t have the power to forgive you.’ The poor man became silent and continued to suffer the result of his meanness and wickedness, suffering from the pain of leprosy.

After a few days, when Prabhu came to Kulia after taking sannyas and this Kushti again surrendered to him, then he sent him to Srivas Pandit. Srivas Pandit said- ‘I never had any enmity with him before and still don’t, if the Lord has forgiven him, then he is free from sorrow. Within no time, his whole body became healthy. Similarly, one day another Brahmin came to see the Sankirtan. When he saw the doors locked from inside, he became enraged with anger and returned to his house, telling lies to the kirtans. The next day, when he saw Ganga ji bathing along with the Lord, he filled with anger said to the Lord – ‘ You are very proud of your kirtan. You keep making ten-twenty innocent people dance like puppets with the gesture of your hand. People worship you, this has made you very proud. Go, I curse you, that the worldly happiness in which you are so forgetful, that worldly happiness of yours will be destroyed soon.’

Hearing such words of Brahmin, all the devotees started looking at the face of that Brahmin with astonishment. Some people even got a little angry, stopping them all, the Lord laughed and said to that Brahmin deity – ‘Vipradev! I bow down at your feet. I accept your evening with pleasure.

After some time the brahmin’s anger subsided. Then he expressed remorse on his sentences and humbly said – ‘Lord! Under the influence of anger, I said such bad words to you. You forgive my crime.

The Lord assured him and said – ‘ Vipravar! You didn’t do me any disservice and you didn’t say anything bad to me. Instead of cursing, you have given me a boon! Worldly pleasures are the main reason for bondage in the attainment of Shri Krishna. The boon you have given me to be free from them will only benefit me. Don’t worry about it.’ Having said this, the Lord lovingly embraced the brahmin and returned to his place along with the devotees. The name of this is to have a pure feeling even towards those who harbor enmity. Such behavior can be possible only by great men like Mahaprabhu.

The humility of Mahaprabhu was very supernatural. No matter how they walked on the road, they never made eye contact with women. He always spoke to the elders with humility and respect. At the time of passion, he used to forget his own form. If someone worships him or worships his feet during extra time of passion, he would be very dissatisfied with that. If someone asked in a fit of emotion, why did we see you in the form of Durga, Krishna, Ram or Baldev, Vaman, Nrisimha, you would have said – ‘You always think of that form. Your Ishtadev has all the powers, he can enter whose body he wants and give you darshan. Your feelings are the main reason in this. You can see such forms only with your pure feeling.

Once he was lying down with the devotees that a Brahmin came and bowed down to him with devotion by keeping her head at his feet. Seeing the Brahmin keeping her head at his feet, he felt very sad and at the same time ran and jumped into Ganga ji. All the devotees started crying seeing him jumping in Ganga ji like this. Sachimata started crying by beating her chest. At the same time, Nityananda ji and Haridas also jumped into the Ganga ji along with the Lord and brought them out to the shore.

In this way, saving his life from attachment and hatred, imbibing forgiveness, being free from pride, treating sinners with love and even haters with kindness, he wins the lives of his devotees with his gentleness, kind-heartedness, tolerance and truthfulness. While teaching the lesson of a lofty ideal, he started making everyone happy by his conduct.

respectively next post [68] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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