।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
भगवत्-भजन में बाधक भाव
भगवन्नाम सभी प्रकार के सुखों को देने वाला है। इसमें अधिकारी-अनधिकारी का कोई भी भेद-भाव नहीं। सभी वर्ण के, सभी जाति के, सभी प्रकार के स्त्री-पुरुष भगवन्नाम का सहारा लेकर भगवान के पाद्पद्मों तक पहुँच सकतें हैं। देख, काल, स्थान, विधि तथा पात्रापात्र का भगवन्नाम में कोई नियम नहीं। सभी देशों में, सभी समय में, सभी स्थानों में शुद्ध-अशुद्ध कैसी भी अवस्था में हो, चाहे भले ही जप करने वाला बड़ा भारी दुराचारी ही क्यों न हो, भगवन्नाम में इन बातों का भेदभाव नहीं। नाम-जप तो सभी को, सभी अवस्थाओं में कल्याणकारी ही है। फिर भी भगवन्नाम में दस बड़े भारी अपराध[1] बताये गये हैं। पूर्वजन्मों के शुभकर्मों से, महात्माओं के सत्संग से अथवा भगवत्कृपा से जिसकी भगवन्नाम में निष्ठा जग गयी हो, उसे बड़ी सावधानी के साथ इन दस अपराधों से बचे रहना चाहिये।
महाप्रभु अपने सभी भक्तों को नामापराध से बचे रहने का सदा उपदेश करते रहते थे। वे भक्तों की सदा देख-रेख रखते। किसी भी भक्त को किसी की निंदा करते देखते, तभी उसे सचेत करके कहने लगते- ‘देखो, तुम भूल कर रहे हो। भगवद्भजन में दूसरों की निंदा करना तथा भक्तों के प्रति द्वेष के भाव रखना महान पाप है। जो अभक्त हैं, उनकी उपेक्षा करो, उनके संबंध में कुछ सोचो ही नहीं। उनसे अपना संबंध ही मत रखो और जो भगवद्भक्त हैं, उनकी चरण-रज को सदा अपने सिर का आभूषण समझो। उसे अपने शरीर का सुंदर सुगन्धित अंगराग समझकर सदा भक्तिपूर्वक शरीर में मला करो।’ इसीलिये प्रभु के भक्तों में आपस में बड़ा ही भारी स्नेह था। भक्त एक-दूसरे को देखते ही आपस में लिपट जाते। कोई किसी के पैरों को ही पकड़ लेता, कोई किसी की चरण-धूलि को ही अपने मस्तक पर मलने लगता और कोई भक्त को दूर से ही देखकर धूलि में लोटकर साष्टांग प्रणाम ही करने लगता। भक्तों की शिक्षा के निमित्त वे भगवन्नामापराध की बड़ी भारी भर्त्सना करते और जब तक जिसके समीप वह अपराध हुआ है, उसके समीप क्षमा न करा लेते तब तक उस अपराधी के अपराध को क्षमा हुआ ही नहीं समझते थे।
गोपाल चापाल ने श्रीवास पण्डित का अपराध किया था, इसी कारण उसके सम्पूर्ण शरीर मे गलित कुष्ठ हो गया था, वह अपने दु:ख से दु:खी होकर प्रभु ने शरणापन्न हुआ और अपने अपराध को स्वीकार करते हुए उसने क्षमा-याचना के लिये प्रार्थना की। प्रभु ने स्पष्ट कह दिया- ‘इसकी एक ही ओषधि है, जिन श्रीवास पण्डित का तुमने अपराध किया है, उन्हीं के चरणोदक को पान करो तो तुम्हारा अपराध क्षमा हो सकता है। मुझमें वैष्णवापराधी को क्षमा करने की सामर्थ्य नहीं है।’ गोपाल चापाल ने ऐसा ही किया। श्रीवास के चरणोदक को निष्कपट भाव से प्रेमपूर्वक पीने ही से उसका कुष्ठ चला गया।
नामापराधी चाहे कोई भी हो प्रभु उसी को यथोचित दण्ड देते और अधिकारी हुआ तो उसका प्रायश्चित्त भी बताते थे। यहाँ तक कि अपनी श्रीशची देवी के अपराध को भी उन्होंने क्षमा नहीं किया और जब तक जिनका अपराध हुआ था, उनसे क्षमा नहीं करा ली तब तक उन पर कृपा ही नहीं की।
बात यह थी कि महाप्रभु के ज्येष्ठ भ्राता विश्वरूपी अद्वैताचार्य जी के ही पास पढ़ा करते थे। वे आचार्य को ही अपना सर्वस्व समझते और सदा उनके ही समीप बने रहते थे, केवल रोटी खाने भर के लिये घर जाते थे। अद्वैताचार्य उन्हें ‘योगवासिष्ठ’ पढ़ाया करते थे। वे बाल्याकाल से ही सुशील, सदाचारी, मेधावी तथा संसारी विषयों से एकदम विरक्त थे। योगवासिष्ठ के श्रवणमात्र से उनके हृदय का छिपा हुआ त्याग-वैराग्य एक दम उभड़ पड़ा और वे सर्वस्व त्यागकर परिव्राजक बन गये। अपने सर्वगुणसम्पन्न प्रिय पुत्र को असमय में गृह त्यागकर सदा के लिये चले जाने के कारण माता को अपार दु:ख हुआ और उसने विश्वरूप के वैराग्य का मूल कारण अद्वैताचार्य को ही समझा। वात्सल्य प्रेम के कारण भूली हूई भोली-भाली माता ने सोचा- ‘अद्वैताचार्य ने ही ज्ञान की पोथी पढ़ा-पढ़ाकर मेरे प्राण प्यारे पुत्र को परिव्राजक बना दिया।’ जब माता बहुत रुदन करने लगी और अद्वैताचार्य जी के समीप भाँति-भाँति का विलाप करने लगी, तब अद्वैताचार्य जी ने यों ही बातों-ही-बातों में समझाते हुए कह दिया था- ‘शोक करने की क्या बात है।
विश्वरूप ने कोई बुरा काम थोड़े ही किया है, उसने तो अपने इस शुभ काम में अपने कुल की आगे-पीछे की 21 पीढ़ियों को तार दिया। हम तो समझते हैं पढ़ना-लिखना उसी का सार्थक हुआ। जिन्हें पोथी पढ़ लेने पर भी ज्ञान नहीं होता, वे पठित-मुर्ख हैं। ऐसे पुस्तक के कीड़े बने हुए पुरुष पुस्तक पढ़ लेने पर भी उसके असली मर्म से वंचित ही रहते हैं।’ बेचारी माता के तो कलेजे से टुकड़ा निकल गया था, उसे ऐसे समय में ये इतनी ऊँची ज्ञान की बातें कैसे प्रिय लग सकती थीं। इन बातों से उसके मन में इन्हीं भावों का दृढ़ निश्चय हो गया कि विश्वरूप के गृहत्याग में आचार्य की जरूर सम्मति है। वह आचार्य से अत्यधिक स्नेह करता था, इनकी आज्ञा के बिना वह जा ही नहीं सकता। इन भावों को माता ने मन में ही छिपाये रखा। किसी के सामने उन्हें प्रकट नहीं किया।
अब जब निमाई भी आचार्य के संसर्ग में अधिक रहने लगे और आचार्य ही सबसे अधिक भगवद्भाव से इनकी पूजा-स्तुति करने लगे, तो बेचारी दु:खिनी माता से अब नहीं रहा गया। कहावत है- ‘दूध का जला छाछ को भी फूंक-फूंककर पीता है।’ माता का हृदय पहले से ही घायल बना हुआ था। विश्वरूप उसके हृदय में पहले ही एक बड़ा भारी घाव कर गये थे, वह अभी पूरने भी नहीं पाया था कि निमाई भी उसी के पथ का अनुसरण करते हुए दिखायी देने लगे। निमाई अब भक्तों को छोड़कर एक क्षण भर के लिये भी संसारी कामों को करना पसंद नहीं करते। वे विष्णुप्रिया जी से अब बातें ही नहीं करते हैं, सदा भक्तमण्डल में बैठे हुए श्रीकृष्ण-कथा ही कहते-सुनते रहते हैं, नाती का मुख देखने के लिये उतावली बैठी हुई माता को अपने पुत्र का बर्ताव रुचिकर प्रतीत नहीं हुआ। इसके मूल में भी आचार्य अद्वैत का ही हाथ दीखने लगा। माता अब अपने मनोगत भावों को अधिक न छिपा सकीं। उनकी मनोव्यथा लोगों से बातें करते-करते आप-से-आप ही हृदय को फोड़कर बाहर निकल पड़ती। वे आंसू बहाते-बहाते अधीर होकर कहने लगतीं- ‘इन वृद्ध आचार्य को मुझ दु:खिनी विधवा के ऊपर दया भी नहीं आती। मेरे एक पुत्र को तो इन्होंने संन्यासी बना दिया। मेरे पति मुझे बीच में ही धोख देकर सदा के लिये चल बसे। मुझ बिलखती हूई दु:खिनी के ऊपर उन्हें तनिक भी दया नहीं आयी। अब मेरे जीवन का सहारा, मुझ अंधी की एकमात्र आधार लकड़ी यह निमाई ही है। इसे छोड़कर मेरे लिये सभी संसार सूना-ही-सूना है। मेरे आगे-पीछे बस यही एक आश्रय है, इसे भी आचार्य संन्यासी बनाना चाहते हैं। सदा इसे लेकर कीर्तन ही करते रहते हैं। मेरा निमाई कितना सीधा है। अद्वैताचार्य ने उनके साथी भक्तों ने उसे ईश्वर बता-बताकर विरक्त बना दिया है, वह घर की ओर कुछ ध्यान ही नहीं देता। सदा भक्तों के ही साथ घूमा करता है।’
माता की इन बातों से श्रीवास आदि भक्तों को तथा अद्वैताचार्य जी को मन-ही-मन कुछ दु:ख होता था। प्रभु भी भक्तों के मनोभावों को ताड़ गये। भक्तों को शिक्षा देने के निमित्त प्रभु ने माता के ऊपर कुछ क्रोध प्रकट करते हुए उस वैष्णव-निंदारूपी पाप का प्रायश्चित्त कराया।
एक दिन प्रभु भगवदावेश में भगवन्मूर्तियों को एक ओर हटाकर भगवान के सिंहासन पर आरूढ़ हुए और उपस्थित सभी भक्तों से वरदान मांगने के लिये कहा। भक्तों ने अपने-अपने इच्छानुसार किसी ने अपने पिता की दुष्टता छुड़ाने का, किसी के स्त्री की बुद्धि शुद्ध हो जाने का, किसी ने पुत्र का और किसी ने भगवद्भक्ति का वर मांगा। प्रभु ने आवेश में ही आकर सभी को उन-उनका अभीष्ट वरदान दिया। उसी समय श्रीवास पण्डित ने अति दीन-भाव से कहा- ‘प्रभो! ये शचीमाता यदा दु:खिनी ही बनी रहती है। ये दु:ख के कारण सदा अश्रु ही बहाती रहती हैं। भगवन! इनके उपर भी ऐसी कृपा होनी चाहिये कि इनका शोक-सन्ताप सब दूर हो जाय।‘
प्रभु ने उसी प्रकार सिंहासन पर बैठे-ही-बैठे भगवदावेश में ही कहा- ‘शचीमाता पर कृपा कभी नहीं हो सकती। इसने वैष्णवापराध किया है। अपने अपराध करने वाले को तो मैं क्षमा कर भी सकता हूँ; किंतु वैष्णवों का अपराध करने वाले को क्षमा करने की मुझमें सामर्थ्य नहीं।’
श्रीवास पण्डित ने अत्यंत दीन-भाव से कहा- ‘प्रभो! भला यह भी कभी हो सकता है कि जिस माता ने आपको गर्भ में धारण किया है, उसका अपराध ही क्षमा न हो सके। आपको गर्भ में धारण करने से तो ये जगज्जननी बन गयीं। इनके लिये क्या अपना और क्या पराया? सभी तो इनके पुत्र हैं। जिसे चाहें जो कुछ ये कह सकती हैं।’
प्रभु ने कहा- ‘कुछ भी हो, वैष्णवों का अपराध करने वाला चाहे कोई भी हो उसकी निष्कृति नहीं हो सकती। साक्षात देवाधिदेव महादेव जी भी वैष्णवों का अपराध करने पर तत्क्षण ही नष्ट हो सकते हैं।’
श्रीवास पण्डित ने कहा- ‘प्रभो! कुछ भी तो इनके अपराध-विमोचन का उपाय होना चाहिये।’ प्रभु ने कहा- ‘शचीमाता का अपराध अद्वैताचार्य के प्रति है। यदि आचार्य की चरण-धूलि माता सिर पर चढ़ावें और आचार्य ही इसे हृदय से क्षमा कर दें तब यह कृपा की अधिकारिणी बन सकती हैं।’ उस समय आचार्य दूसरे स्थान में थे, सभी भक्त आचार्य के समीप गये और वहाँ जाकर उन्होंने सभी वृत्तांत कहा। प्रभु की बातें सुनकर आचार्य प्रेम में विभोर होकर अश्रु-विमोचन करने लगे। वे रोते-रोते कहने लगे- ‘यही तो प्रभु की भक्तवत्सलता है। भला भगन्माता शचीदेवी का अपराध हो ही क्या सकता है? यह तो प्रभु हम लोगों को शिक्षा देने के लिये इस लीला का अभिनय करा रहे हैं, तो मैं हृदय से कहता हूँ, माता के प्रति मेरे मन में किसी प्रकार का बुरा भाव नहीं है। यदि आप मुझे प्रभु की आज्ञा से ‘क्षमा कर दी’ ऐसा कहने के लिये ही विवश करते हैं तो मैं कहे देता हूँ। वैसे तो माता ने मेरा कोई अपराध किया ही नहीं हैं। यदि प्रभु की दृष्टि में यह अपराध है तो मैं उसे हृदय से क्षमा करता हूँ। रही चरण-धूलि की बात सो शचीमाता तो जगद्वन्द्य हैं। उनकी चरण-धूलि ही भक्तों के शरीर का अंगराग है। भला, माता को मैं अपने पैर कैसे छुआ सकता हूँ।’
इस प्रकार भक्तों में झगड़ा हो ही रहा था कि इतने में ही शचीदेवी भी वहाँ आ पहुँची और उन्होंने जल्दी से अद्वैताचार्य की चरण-धूलि अपने मस्तक पर चढ़ा ली। इसी बात से भक्तों की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। वे आनन्द के साथ नृत्य करने लगे। भक्तों में एक-दूसरे के प्रति जो कुछ थोड़ा-बहुत मनोमालिन्य था, वह इस घटना से एकदम समूल नष्ट हो गया और भक्त परस्पर एक-दूसरे का प्रेम से गले लगा-लगाकर आंलिगन करने लगे।
इसी प्रकार नवद्वीप में एक देवानंद पण्डित थे। वे वैसे तो बड़े भारी पण्डित थे, शास्त्रों का ज्ञान उन्हें यथावत था। श्रीमद्भागवत के पढ़ाने के लिये दूर-दूर तक इनकी ख्याति थी। बहुत दूर-दूर से विद्यार्थी इनके पास श्रीमद्भागवत और गीता पढ़ने के लिये आते थे। ये स्वभाव के बुरे नहीं थे, संसारी सुखों से उदासीन और विरक्त थे; किंतु अभी तक इनके हृदय में प्रेमका अंकुर उदित नहीं था। हृदय में प्रेम का बीज तो पड़ा हुआ था, किंतु श्रद्धा और साधु-कृपारूपी जल के बिना क्षेत्र शुष्क ही पड़ा था। सुखे खेत में बीज अंकुरित कैसे हो सकता है, जब तक कि वह सुंदर वारि से सींचा न जाय? दयार्द्र-हृदय गौरांग ने एक दिन नगर-भ्रमण करते समय उनके ऊपर भी कृपा की। उनके ऊपर उसे वाक्-प्रहार कारके उनके सुखे और जमे हुए हृदयरूपी क्षेत्र को पहले तो जोत दिया, फिर कृपारुपी जल से सींचकर उसे स्निग्ध और उत्पन्न होने योग्य बना दिया।
देवानंद को श्रीमद्भागवत पढ़ाते देखकर प्रभु क्रोधित भाव से कहने लगे- ‘ओ पण्डित! श्रीमद्भागवत के अर्थों का अनर्थ क्यों किया करता है? तू भागवत के अर्थों को क्या जाने? श्रीमद्भागवत तो साक्षात श्रीकृष्ण का विग्रह ही है। जिनके हृदय में प्रेम नहीं, भक्ति नहीं, साधु-महात्मा और ब्राह्मण-वैष्णवों के प्रति श्रद्धा नहीं, वह श्रीमद्भागवत की पुस्तक के छूने का अधिकारी ही नहीं। भागवत, गंगा जी, तुलसी और भगवद्भक्त- ये भगवान के रूप ही है। जो शुष्क हृदय के हैं, जिनके अन्त:करण में भक्ति नहीं, वे इनके द्वारा क्या लाभ उठा सकते हैं। वैसे ही ज्ञान की बातें बघारता रहता है या कुछ समझता भी है? ऐसे पढ़ने से क्या लाभ। ला, तेरी पुस्तक को फाड़कर श्रीगंगा जी के प्रवाह में प्रवाहित कर दूं।’ इतना कहकर प्रभु भावावेश में उनकी पुस्तक फाड़ने के लिये दौड़े।
भक्तों ने यह देखकर प्रभु को पकड़ लिया और शांत किया। प्रभु को भावावेश में देखकर भक्त उन्हें आगे ले गये। लौटते हुए प्रभु फिर देवानंद के स्थान पर आये। उस समय प्रभु भावावेश में नहीं थे, उन्होंने देवानंद जी को वह बात याद दिलायी, जब वे एक बार श्रीमद्भागवत पाठ पढ़ा रहे थे और श्रीवास पण्डित भी पाठ सुनने आये थे। जिस श्रीमद्भागवत के अक्षर-अक्षर में ठूँस-ठूँसकर प्रेम रस भरा हुआ है, ऐसी भागवत का जब श्रीवास जी ने पाठ सुना तो वे प्रेम में बेहोश होकर मूर्च्छित हो गये, आपके भक्तो ने उन्हें उठाकर बाहर डाल दिया था और आपने इसमें कुछ भी आपत्ति नहीं की। महाभागवत श्रीवास पण्डित के भावों को जब आपने ही नहीं समझा तब आपके शिष्य तो समझते ही क्या? आपने उस समय एक भगवद्भक्त का बुरी तरह से तिरस्कार कराया, यह आपके ऊपर अपराध चढ़ा।
देवानंद विरक्त थे, विद्वान थे, शास्त्रज्ञ थे, फिर भी उन्होंने प्रभु के क्रोधयुक्त वचनों का कुछ भी उत्तर नहीं दिया। भगवत्कृपा से उनकी बृद्धि शुद्ध हो गयी। उन्हें अपनी भूल का अनुभव होने लगा। वे प्रभु के शरणापन्न हुए और उन्होंने अपने पूर्व के भूल तथा अज्ञान में किये जाने वाले उपराध के लिए श्रीवास पण्डित से क्षमा याचना की। जब प्रभु की उनके ऊपर कृपा हो गयी, तब उनके भगवद्भक्त होने में क्या देर थी। वे उस दिन से परमभक्त बन गये।
प्रभु अपने भक्तों को भजन की प्रणाली और भजन किस प्रकार के बनकर करना चाहिये इसकी शिक्षा सदा दिया करते थे। एक दिन आप भक्तों को भगवन्नाम का माहात्म्य बता रहे थे। माहात्म्य बताते हुए उन्होंने कहा- ‘भक्त को अपने लिये तृण से भी नीचा समझना चाहिये और वृक्षों से भी अधिक सहनशील। स्वयं तो कभी मान की इच्छा करे नहीं, किंतु दूसरों को सदा सम्मान प्रदान करते रहना चाहिये। इस प्रकार होकर निरन्तर भगवन्नामों का ही चिंतन-स्मरण करते रहना चाहिये। सबसे अधिक सहनशीलता पर ध्यान देना चाहिये। जिसमें सहनशीलता नहीं, वह चाहे कितना भी बड़ा विद्वान, तपस्वी और पण्डित ही क्यों न हो, कभी भी भगवत्कृपा का अधिकारी नहीं बन सकता। सहनशीलता का पाठ वृक्षों से लेना चाहिये। वृक्ष किसी से कटु वचन नहीं बोलते, उन्हें जो ईंट-पत्थर मारता है तो उस पर रोष न करके उलटे प्रहार करने वाले को पके हुए फल ही देते हैं। भूख-प्यास लगने पर भोजन तथा जल की याचना नहीं करते। सदा एकांत में ही रहते हैं। इसी प्रकार भक्त को जनसंसद से पृथक रहकर किसी से किसी बात की याचना न करते हुए अमानी और सहनशील बनकर भगवत-चिंतन करते रहना चाहिये।‘ इसके अनन्तर आपने-
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा।।
इस श्लोक की व्याख्या भक्तों को बतायी। तीन बार मना करने से यह अभिप्राय है कि कलियुग में इससे सरल और सुगम उपाय कोई दूसरा है ही नहीं। एक हृदयहीन जड़-बुद्धि वाला विद्यार्थी भी प्रभु की इस व्याख्या को सुन रहा था। उसने कहा- ‘यह तो सब शास्त्रों में अर्थवाद है। नामकी प्रशंसा में वैसे ही बहुत-सी चढ़ा-बढ़ाकर बातें कह दी हैं। वास्तव में कोरे नाम से कुछ नहीं होता।
लोगों की नाम में प्रवृत्ति हो, इसलिये ऐसे वाक्य कह दिये हैं।’ इतना सुनते ही प्रभु ने अपने दोनों कान बंद कर लिये और ‘श्रीहरि’ ‘श्रीहरि’ कहकर वे सभी भक्तों से कहने लगे- ‘भगवन्नाम में अर्थवाद कहने वाले को पातक लगता ही है, सुनने वाले को भी पाप होता है। इसलिये चलो, हम सभी गंगा जी में सचैल स्नान करें, तभी इस भगवन्नाम में अर्थवाद सुनने वाले पाप से मुक्त हो सकेंगे।’ यह कहकर प्रभु भक्तों के सहित गंगास्नान के लिये चले गये। सभी भक्तों ने श्रद्धा-भक्ति के सहित सुरसरि के सुंदर सुशीतल नीर में स्नान किया। स्नान कर लेने के अनन्तर प्रभु ने सभी भक्तों के सम्मुख भक्ति की महिमा का वर्णन किया।
प्रभु भक्तों को लक्ष्य करके उन्हें समझाते हुए कहने लगे- ‘भाई! तुम्ही सोचो, जो अखिलकोटि ब्रह्माण्डनायक हैं, जिनके एक-एक रोम-कूप में अंसख्यों ब्रह्माण्ड समा सकते हैं, उन्हें कोई योग के ही द्वारा प्राप्त करना चाहे, तो वे उसके वश में केवल श्वास रोकने से ही कैसे आ सकते हैं! कोई कहे कि हम तत्त्वों की संख्या कर-करके उनका पता लगा लेंगे, तो यह उसकी कोरी मूर्खता है। भला, जो बुद्धि से अतीत हैं, जिनके लिये चारों वेद नेति-नेति कहकर कथन कर रहे हैं उनका ज्ञान सांख्य के द्वारा हो ही कैसे सकता है। अब रही धर्म की बात सो धर्म तो उलटा बंधन का ही हेतु है। धर्म से तो तीनों लोकों के विषय-सुखों की ही प्राप्ति हो सकती है। वह भी एक प्रकार से सुवर्ण की बेड़ी ही है। कोई जप से अथवा केवल त्याग से ही उन्हें प्रसन्न करना चाहे तो वे कैसे प्रसन्न हो सकते हैं? त्याग कोई कर ही क्या सकता है? उनकी कृपा के बिना कुछ भी नहीं हो सकता। भक्ति से हीन होकर जप, तप, पूजा, पाठ, यज्ञ, दान, अनुष्ठान आदि कैसे भी सत्कर्म क्यों न किये जायँ, सभी व्यर्थ है। इस बात को भगवान से उद्धव से स्वयं ही कहा है-
न साधयति मां योगो न सांख्यं धर्म उद्धव।
न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो यथा भक्तिर्ममोर्जिता।।
इस प्रकार भक्तों को भगवद्भक्ति की शिक्षा देते हुए प्रभु सभी को अपूर्व सुख और आनन्द पहुँचाते हुए नवद्वीप में भाँति-भाँति की लीलाएँ करने लगे।
क्रमशः अगला पोस्ट [71]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Obstacles in Bhagwat-hymns
God’s name is the giver of all kinds of happiness. There is no distinction between officer and non-officer in this. Men and women of all varnas, all castes, all types can reach the lotus feet of the Lord by taking the help of the Lord’s name. See, there is no rule of time, place, method and character in the name of God. In all countries, at all times, in all places, no matter what the state of the pure or impure, even if the chanter is a very heavy miscreant, there is no discrimination of these things in the name of God. Nam-chanting is beneficial to everyone, in all situations. Nevertheless, ten major crimes [1] have been described in the name of God. One who has been awakened in the name of the Lord by the good deeds of his previous births, by the satsang of great souls or by the grace of the Lord, should with great care avoid these ten offenses.
Mahaprabhu always used to exhort all his devotees to stay away from name crimes. He always takes care of the devotees. Seeing any devotee criticizing someone, he used to caution him and say- ‘Look, you are making a mistake. It is a great sin to criticize others in Bhagavad Bhajan and to have hatred towards the devotees. Ignore those who are non-devotees, don’t think anything about them. Don’t keep your relationship with them and those who are devotees of God, always consider the secret of their feet as the ornament of your head. Considering it as a beautiful perfume of your body, rub it on your body always with devotion.’ That is why the devotees of the Lord had great affection for each other. The devotees would hug each other on seeing each other. Some used to hold someone’s feet, some used to rub the dust of someone’s feet on their head and some, seeing the devotee from a distance, started prostrating themselves in the dust. For the sake of the education of the devotees, he used to strongly condemn the crime of God’s name and did not consider the crime of that criminal to be forgiven until the person near whom the crime was forgiven.
Gopal Chapal had committed a crime against Shrivas Pandit, that is why his whole body was infected with leprosy, he surrendered to the Lord after being saddened by his grief and accepting his crime, he prayed for forgiveness. Of. The Lord clearly said- ‘There is only one medicine for this, if you drink the feet of the Shrivas Pandit, whose crime you have committed, then your crime can be forgiven. I do not have the capacity to forgive Vaishnavaparadhi.’ Gopal Chapal did the same. His leprosy went away just by lovingly drinking the Charanodak of Srivas.
Whoever the culprit may be, God would have punished him appropriately and if he was in charge, he would have also told his atonement. He didn’t even forgive the crime of his Shrishachi Devi and didn’t show mercy to her until he got forgiveness from those who had committed the crime.
The thing was that Mahaprabhu’s elder brother used to study with Vishwarupi Advaitacharya ji only. He used to consider Acharya as his everything and always remained close to him, used to go home only to eat bread. Advaitacharya used to teach him ‘Yogvasishtha’. Since childhood, he was well-behaved, virtuous, brilliant and completely detached from worldly subjects. Just by listening to Yogavasishtha, his heart’s hidden renunciation-vairagya suddenly emerged and he renounced everything and became a Parivrajak. The mother was deeply saddened by the untimely departure of her beloved son who was blessed with all virtues and went away forever, and she considered Advaitacharya to be the root cause of Vairagya in the form of the world. The innocent mother, who was forgotten because of affection, thought- ‘Advaitacharya only taught me the book of knowledge and made my beloved son a Parivrajak.’ When it started, Advaitacharya ji, explaining in a few words, had said – ‘What is the point of mourning.
Vishwaroop has hardly done any bad deed, in this auspicious deed, he has wired the 21 generations of his clan in front and back. We understand that reading and writing has become meaningful for him. Those who do not get knowledge even after reading the book, they are educated fools. Men who have become insects of such a book remain deprived of its real meaning even after reading the book.’ With these words, it was firmly decided in his mind that Acharya definitely has the consent of Vishwaroop to leave his home. He was very fond of Acharya, he cannot go without his permission. Mother kept these feelings hidden in her mind. Didn’t reveal them to anyone.
Now when Nimai also started being more in the company of Acharya and Acharya himself started worshiping her with the utmost devotion, then the poor sad mother could not stand it anymore. There is a saying- ‘He burns the milk and drinks the buttermilk as well.’ Mother’s heart was already injured. Vishwaroop had already inflicted a huge wound on his heart, which he had not yet been able to heal when Nimai was also seen following his path. Nimai no longer likes to do worldly work even for a moment except for the devotees. He doesn’t even talk to Vishnupriya ji anymore, he always keeps telling and listening to Shri Krishna’s story while sitting in the devotee’s circle, the mother, who was eager to see the face of her grandson, did not find her son’s behavior interesting. Acharya Advaita’s hand was also visible in its origin. Mother could no longer hide her occult feelings. While talking to people, his anguish used to burst out of his heart on its own. While shedding tears, she used to say impatiently – ‘This old Acharya doesn’t even feel pity on me, a sad widow. He made one of my sons a monk. My husband cheated on me in between and passed away forever. They didn’t even feel a bit sorry for me, who was crying out in sorrow. Now the support of my life, the only support of my blind is this Nimai. Except this, the whole world is deserted for me. This is the only shelter in front and behind me, Acharya wants to make him a monk. Always chanting about it. My Nimai is so straight. Advaitacharya, his fellow devotees have made him disinterested by telling him God, he does not pay any attention towards the house. He always roams with the devotees only.
The devotees like Shrivas and Advaitacharya ji used to feel some sorrow from these words of the mother. The Lord also touched the feelings of the devotees. For the sake of teaching the devotees, the Lord, showing some anger on the mother, made her atone for the sin of Vaishnava-criticism.
One day the Lord in Bhagavadavesh removed the idols to one side and mounted the throne of God and asked all the devotees present to ask for a boon. The devotees asked according to their wishes, some asked for the boon of getting rid of their father’s wickedness, some for the purification of the woman’s intellect, some for a son and some for devotion to the Lord. The Lord came in a fit of passion and gave everyone their desired boon. At the same time Shrivas Pandit said with great humility – ‘Lord! This Sachimata always remains sad. She always sheds tears because of sorrow. God! Such grace should be showered on them also that all their sorrows and sorrows go away.
In the same way, while sitting on the throne, the Lord said in Bhagavadavesh – ‘ Sachimata can never be blessed. He has committed Vaishnavapradha. I can even forgive the one who wronged me; But I do not have the ability to forgive those who commit crimes against Vaishnavas.
Shrivas Pandit said with utmost humility – ‘ Lord! It may also happen that the mother who conceived you may not be forgiven for her sins. By holding you in her womb, she became the mother of the world. What is ours and what is alien for them? All are his sons. She can say whatever she wants to.
The Lord said- ‘Whatever may happen, whoever commits the crime of Vaishnavas cannot be eliminated. Sakshat Devadhidev Mahadev ji can also be destroyed instantly if he commits a crime against Vaishnavas.
Shrivas Pandit said – ‘ Lord! At least there should be a way to get rid of their guilt.’ Prabhu said – ‘Sachimata’s crime is towards Advaitacharya. If the dust of the Acharya’s feet is applied to the mother and the Acharya forgives her from the heart, then she can become the possessor of grace.’ At that time the Acharya was in another place, all the devotees went near the Acharya and went there and told all the stories. . After listening to the words of the Lord, Acharya started shedding tears after being filled with love. They started crying and saying – ‘ This is the devotion of the Lord. What can be the crime of Bhaganmata Sachidevi? This is because God is enacting this Leela to teach us, so I say from my heart, I do not have any bad feelings towards my mother. If you force me to say ‘I am forgiven’ by the command of the Lord, then I will say it. By the way, mother has not committed any crime against me. If this is a crime in the eyes of the Lord, then I forgive him from the bottom of my heart. As far as the dust of feet is concerned, Sachi Mata is the world. The dust of his feet is the beauty of the body of the devotees. Well, how can I touch my mother’s feet.’
In this way, there was a quarrel between the devotees that in the meantime, Sachidevi also reached there and she quickly put the dust of Advaitacharya’s feet on her head. Due to this the happiness of the devotees knew no bounds. They started dancing with joy. Whatever affection the devotees had for each other was completely destroyed by this incident and the devotees started hugging each other with love.
Similarly, there was a Devananda Pandit in Navadvipa. Although he was a great scholar, he had the same knowledge of the scriptures. He was famous far and wide for teaching Shrimad Bhagwat. Students from far and wide used to come to him to study Shrimad Bhagwat and Gita. They were not bad by nature, indifferent and detached from worldly pleasures; But till now the sprout of love had not emerged in his heart. The seed of love was lying in the heart, but without the water of devotion and the grace of saints, the field remained dry. How can a seed germinate in a dry field, unless it is watered with a beautiful rain? Compassionate-hearted Gauranga showed kindness to him one day while visiting the city. He first plowed their dry and frozen heart-like area by hitting him with speech, then by irrigating it with the water of grace, made it smooth and capable of being born.
Seeing Devanand teaching Shrimad Bhagwat, the Lord started saying in anger – ‘ O Pandit! Why does he destroy the meaning of Shrimad Bhagwat? How do you know the meaning of Bhagwat? Shrimad Bhagwat is actually the deity of Shri Krishna. Those who do not have love in their heart, do not have devotion, do not have reverence for sages-mahatmas and Brahmins-Vaishnavs, they do not have the right to touch the book of Shrimad Bhagwat. Bhagwat, Ganga ji, Tulsi and Bhagwad devotee – these are the forms of God only. Those who are dry hearted, who do not have devotion in their hearts, how can they benefit from them. Similarly, does he keep talking about knowledge or does he understand anything? What is the benefit of studying like this? Come, tear your book and let it flow in the flow of Shri Ganga ji.’ Having said this, the Lord ran to tear his book in a fit of emotion.
Seeing this, the devotees caught hold of the Lord and pacified him. Seeing the Lord in a state of emotion, the devotees took him forward. While returning, Prabhu again came to Devananda’s place. Prabhu was not in a mood at that time, He reminded Devanand ji that once he was teaching Shrimad Bhagwat and Shrivas Pandit also came to listen to the lesson. When Srivas ji heard the recitation of the Srimad Bhagwat, which is full of love juice, your devotees had picked him up and thrown him out and you have no objection in this. Didn’t When you did not understand the feelings of Mahabhagwat Shrivas Pandit, then what would your disciples understand? At that time, you insulted a Bhagavad devotee badly, it was a crime on you.
Devananda was detached, scholar, scholar, yet he did not reply anything to the angry words of the Lord. By the grace of God, his growth became pure. He started realizing his mistake. He surrendered to the Lord and apologized to Shrivasa Pandit for his past mistakes and misdeeds committed out of ignorance. When the Lord was pleased with him, then what was the delay in him becoming a devotee of the Lord. He became a supreme devotee from that day.
Prabhu used to always teach his devotees the method of bhajan and the way in which bhajan should be performed. One day you were telling the greatness of the Lord’s name to the devotees. Describing the greatness, he said- ‘The devotee should consider himself lower than grass and more tolerant than trees. One should never desire respect himself, but should always keep giving respect to others. Being like this, one should keep thinking and remembering the names of God. Most attention should be paid to tolerance. The one who does not have tolerance, no matter how great a scholar, ascetic and scholar he may be, he can never become entitled to the grace of God. The lesson of tolerance should be taken from the trees. Trees don’t speak bitter words to anyone, they don’t get angry at the one who hits them with bricks and stones, they only give ripe fruits to the one who hits back. When hungry and thirsty, they do not beg for food and water. He always lives in solitude. In the same way, a devotee should remain separate from the people’s parliament and do not beg for anything from anyone, be honest and tolerant and keep thinking about God.’ After this you-
The name of Hari, the name of Hari, the name of Hari alone. In Kali there is nothing, there is nothing, there is no movement otherwise.
The explanation of this verse was told to the devotees. Refusing three times means that there is no other simple and easy solution than this in Kaliyuga. A heartless root minded student was also listening to this explanation of the Lord. He said- ‘ This is economics in all the scriptures. Similarly, many exaggerated things have been said in praise of the name. In fact, nothing happens with a blank name.
There should be a trend in the name of people, so such sentences have been said.’ On hearing this, the Lord closed both his ears and by saying ‘Sri Hari’ ‘Sri Hari’, he started saying to all the devotees – ‘The one who says meaning in the name of God, seems to be a sinner. Yes, the listener also commits sin. So come on, let us all take a quick bath in Ganga ji, only then those who listen to the meaning of this name of God will be free from sin.’ Having said this, the Lord went to bathe in the Ganges along with the devotees. All the devotees bathed in the beautiful Susheetal Neer of Surasari with reverence and devotion. After taking his bath, the Lord described the glory of devotion to all the devotees.
Targeting the devotees, the Lord started explaining to them and said- ‘Brother! You just think, if someone wants to attain him through yoga only, then how can he come under his control only by holding the breath, who is Akhilkoti Brahmandnayak, whose every pore can accommodate countless universes! If someone says that we will find out the elements by enumerating them, then this is his sheer stupidity. Well, those who are beyond intellect, for whom the four Vedas are saying neti-neti, how can their knowledge be through Sankhya. Now it is a matter of religion, so religion is the reason for reverse bondage. Only the pleasures of the three worlds can be attained through religion. That too is a kind of golden chain. If someone wants to please Him by chanting or simply by renunciation, how can He be pleased? What can anyone sacrifice? Nothing can happen without his grace. Chanting, penance, worship, recitation, yagya, charity, rituals etc., no matter how many good deeds are performed, being inferior to devotion, all are futile. God himself has said this to Uddhav-
Neither Yoga nor Sankhya nor Dharma accomplishes Me, O Uddhava. Not self-study, no austerity, no renunciation, as My devotion is strong.
In this way, while teaching the devotees to worship the Lord, the Lord started performing various pastimes in Navadweep, giving everyone immense happiness and joy.
respectively next post [71] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]