[72]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
क़ाज़ी की शरणागति

वन्‍दे स्‍वैराद्भुतेअहं तं चैतन्‍यं यत्‍प्रसादत:।
यवना: सुमनायन्‍ते कृष्‍णनामप्रजल्‍पका:।।

बिना मुकुट के राजा भी होते हैं और बिना शस्‍त्र के सेना भी लड़ सकती है। जो मुकुटधारी राजा अथवा महाराजा होते हैं, उनके तो प्राय: जनता के ऊपर भय से आधिपत्‍य होता है, वे भीतर से उससे द्वेष भी रख सकते हैं और जनता कभी-कभी उनके विरुद्ध बलवा भी कर सकती है, किंतु जो बिना मुकुट के राजा होते हैं उनका तो जनता के हृदयों पर आधिपत्‍य होता है। वे तो प्रेम से ही सभी लोगों को अपने वश में कर सकते हैं। चाहे मुकुटधारी राजा की सेना रणक्षेत्र से भय के कारण भाग आवे, चाहे उसकी पराजय ही हो जाय, किंतु जिनका जनता के हृदयों के ऊपर आधिपत्य है, जनता के अन्त:करण पर जिनके शासन की प्रेम-मुहर लगी हुई है, उनके सैनिक चाहे शस्त्रधारी हों अथवा बिना शस्त्र के, बिना जय प्राप्त किये मैदान से भागते ही नहीं। क्योंकि वे अपने प्राणों की कुछ भी परवा नहीं करते। जिसे अपने प्राणों की कुछ भी परवा नहीं, जो मृत्यु का नाम सुनकर तनिक भी विचलित न होकर उसका सर्वदा स्वागत करने के लिये प्रस्तुत रहता है, उसके लिये संसार में कोई काम दुरूह नहीं। उसे इन बाह्यशस्त्रों की उतनी अधिक अपेक्षा नहीं, उसका तो साहस ही शस्त्र है। वह निर्भिक होकर अपने साहसरूपी शस्त्र के सहारे अन्याय के पक्ष लेने वाले का पराभव कर सकता है। फिर भी वह अपने विरोधी के प्रति किसी प्रकार के बुरे विचार नहीं रखता। वह सदा उसके हित की ही बात सोचता रहता है, अन्त में उसका भी कल्याण हो जाता है। प्रेम में यही तो विशेषता है। प्रेममार्ग में कोई शत्रु ही नहीं। घृणा, द्वेष, कपट, हिंसा अथवा अकारण कष्‍ट पहुँचाने के विचार तक उस मार्ग में नहीं उठते, वहाँ तो ये ही भाव रहते हैं-

सर्वे कुशलिन: सन्तु सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्‍यन्तु मा कश्चिद् दु:खभाग्भवेत्।।

इसी का नाम ‘निष्क्रिय प्रतिरोध’, ‘सविनय अवज्ञा’ अथवा ‘सत्याग्रह’ है। महाप्रभु गौरांगदेव ने संकीर्तन रोकने के विरोध में इसी मार्ग का अनुसरण करना चाहा। क़ाज़ी की नीच प्रवृत्तियों के दमन करने के निमित्त उन्होंने इसी उपाय का अवलम्बन किया। सब लोगों से उन्होंने कह दिया- ‘आप लोग घबड़ायँ नहीं, मैं स्वयं क़ाज़ी के सामने संकीर्तन करता हुआ निकलूंगा, देखें, वह मुझे संकीर्तन से किस प्रकार रोकता है?’ प्रभु के ऐसे आश्‍वासन से सभी को परम प्रसन्नता हुई और सभी अपने-अपने घरों को चले गये।

दूसरे दिन महाप्रभु ने नित्यानन्द जी को आज्ञा दी कि सम्पूर्ण नगर में इस संवाद को सुना आओ कि ‘हम आज सायंकाल के समय क़ाज़ी की आज्ञा के विरुद्ध नगर में संकीर्तन करते हुए निकलेंगे। संध्‍या के समय सभी लोग हमारे घर पर एकत्रित हों और प्रकाश के लिये एक-एक मशाल भी साथ लेते आवें।’ नित्यानन्द जी तो बहुत दिन से यही बात चाहते भी थे। उनकी इच्छा थी कि ‘एक दिन महाप्रभु सम्पूर्ण नगर में संकीर्तन करते हुए निकलें तो लोगों को पता चल जाय कि संकीर्तन में कितना माधुर्य है। उन्हें विश्‍वास था कि जो लोग संकीर्तन का विरोध करते हैं, यदि वे लोग एक दिन भी गौरांग के प्रेम-नृत्य को देख लेंगे, तो वे सदा के लिये गौरांग के तथा उनके संकीर्तन के भक्त बन जायंगे। महाप्रभु के खुलकर कीर्तन करने से भयभीत भक्तों का भय भी दूर भाग जायगा और अन्य लोगों को भी फिर संकीर्तन करने का साहस होगा। बहुत-से लोग हृदय से संकीर्तन के समर्थक हैं, किंतु क़ाज़ी के भय से उनकी कीर्तन करने से हिम्मत नहीं होती।

प्रभु कि प्रोत्साहन की ही आवश्‍यकता है।’ इन बातों को नित्यानन्द जी मन-ही-मन में बहुत दिनों से सोच रहे थे। किंतु उन्होंने किसी पर अपने इन भावों को प्रकट नहीं किया। आज स्वयं महाप्रभु को नगर-कीर्तन करने के लिये उद्यत देखकर उनके आनन्द का पारावार नहीं रहा। वे हाथ में घण्‍टा लेकर नगर के मुहल्ले-मुहल्ले और गली-गली में घर-घर घूम-घूमकर इस शुभ संवाद को सुनने लगे। पहले वे घण्‍टे को जोरों से बजा देते। घण्‍टे की ध्‍वनि सुनकर बहुत-से स्त्री-पुरुष वहाँ एकत्रित हो जाते, तब नित्यानन्द जी हाथ उठाकर कहते- ‘भाइयो! आज शाम को श्रीगौरहरि अपने सुमधुर संकीर्तन से सम्पूर्ण नगर के लोगों को पावन बनावेंगे। नगरवासी नर-नारियों की चिरकाल की मनोवांछा आज पूरी होगी। सभी लोगों को आज प्रभु के अद्भुत और अलौकिक नृत्य के रसास्वादन का सौभाग्य प्राप्‍त होगा। सभी भाई संकीर्तनकारी भ‍क्तों के स्वागत के निमित्त अपने-अपने घरों को सुन्दरता के साथ सजावें और शाम को सभी एक-एक मशाल लेकर प्रभु के घर पर आवें। वहाँ किसी प्रकार का शोर-गुल न मचावें। बस, संकीर्तन का सुख लूटते हुए अपने जीवन को कृतकृत्य बनावें।

सभी लोग इस मुनादी को सुनते और आनन्‍द से उछलने लगते। सामूहिक कार्यों में एक प्रकार का स्‍वाभाविक जोश आ जाता है। उस जोश में सभी प्रकार के लोग एक अज्ञातशक्ति के कारण खिंचे-से चले आते हैं, जिनसे कभी किसी शुभकाम की आशा नहीं की जाती वे भी जोश में आकर अपनी शक्ति से बहुत अधिक कार्य कर जाते हैं, इसीलिये तो कलिकाल में सभी कार्यों के लिये संघशक्ति को ही प्रधानता दी गयी है।

नवद्वीप में ऐसा नगर-कीर्तन पहले कभी हुआ ही नहीं था। वहाँ के नर-नारियों के लिये यह एक नूतन ही वस्‍तु थी। लोग बहुत दिनों से निमाई के नृत्‍य और कीर्तन की बातें तो सुनते थे, किंतु उन्‍होंने आज तक कभी निमाई का नृत्‍य तथा कीर्तन देखा नहीं था। श्रीवास पण्डित के घर के भीतर संकीर्तन होता था और उसमें खास-खास भक्‍तों के अतिरिक्‍त और कोई जा ही नहीं सकता था, इसीलिये नगरवासियों की कीर्तनानंद देखने की इच्‍छा मन-ही-मन में द‍ब-सी जाती। आज नगर कीर्तन की बात सुनकर सभी की दबी हुई इच्‍छाएं उभड़ पड़ी। लोग अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार संकीर्तन के स्‍वागत के निमित्त भाँति-भाँति की तैयारियां करने लगे। कहावत है ‘खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलने लगता है’ जब भगवद्भक्‍त अपने-अपने घरों को बंदनवार, कदलीस्‍तम्‍भ और ध्‍वजा-पताकाओं से सजाने लगे, तब उनके समीप रहने वाले शाक्त अथवा विभिन्‍न पन्‍थवाले लोग भी शोभा के लिये अपने-अपने दरवाजों के सामने झंडियां लगाने लगे, जिससे हमारे घर के कारण नगर की सजावट में बाधा न पड़े। किसी जोशीले नये काम के लिये सभी लोगों के हृदयों में स्‍वाभाविक ही सहानुभुति उत्‍पन्‍न हो जाती है।

उस कार्य की घूम-घाम से तैयारियां होते देखकर विपक्षी भी उसमें सहयोग देने लगते हैं। उस समय उनके विरोधी भाव दूर हो जाते हैं, कारण कि उग्र विचारों का प्रभाव तो सभी प्रकारके लोगों के ऊपर पड़ता है। इसलिये जो लोग अपनी नीच प्रकृति के कारण संकीर्तन तथा श्रीगौरांग से अत्‍यंत ही द्वेष मानते थे, उन अकारण जलने वाले खल पुरुषों के घरों को छोड़कर सभी प्रकार के लोगों ने अपने-अपने घरों को भलीभाँति सजाया। नगर की सुंदर सड़कों पर छिड़काव किया गया। स्‍थान-स्‍थानपर धूप, गुग्‍गुल आदि सुगन्धित वस्‍तुएं जलायी गयीं। सड़क के किनारे के दुमंजले-तिमंजले मकान लाल, पीली, हरि, नीली आदि विविध प्रकार की रंगीन साड़ियों से सजाये गये थे। कहीं कागज की पताकाएँ फहरा रही हैं तो कहीं रंगीन कपड़ों की झंडियाँ शोभा दे रही हैं।

भक्‍तों ने अपने-अपने द्वारों पर मंगलसूचक कोरे घड़े जल से भर-भरकर रख दिये हैं। द्वारों पर गहरों के सहित केले के वृक्ष बड़े ही सुदंर तथा सुहावने ने दिखायी देते थे। लोगों का उत्‍साह इतना अधिक बढ़ गया था कि वे बार-बार यही सोचते थे कि हम संकीर्तन के स्‍वागत के निमित्त क्‍या-क्‍या कर डालें। संकीर्तन-मण्‍डल किधर होकर निकलेगा और कहाँ जाकर उसका अंत होगा, इसके लिये कोई पथ तो निश्चित हुआ ही नहीं था। सभी अपनी-अपनी भावना के अनुसार यही समझते थे कि हमारे द्वार की ओर होकर संकीर्तन-मण्‍डल जरूर आवेगा। सभी का अनुमान था, हमें संकीर्तनकारी भक्‍तों के स्‍वागत-सत्‍कार करने का सौभाग्‍य अवश्‍य प्राप्‍त हो सकेगा। इसलिये वे महाप्रभु के सभी साथियों के स्‍वागतार्थ भाँति-भाँति की सामग्रियाँ सजा-सजाकर रखने लगे। इस प्रकार सम्‍पूर्ण नवद्वीप में चारों ओर आनन्‍द–ही-आनन्‍द छा गया। इतनी सजावट-तैयारियाँ किसी महोत्‍सव पर अथवा किसी महाराज के आने पर भी नगर में नहीं होती थीं। चारों ओर धूम-धाम मची हुई थी। भक्‍तों के हृदय मारे प्रेम के बांसों उछल रहे थे। तैयारियां करते-करते ही बात-की-बात में संध्‍या हो गयी।

महाप्रभु भी घर के भीतर संकीर्तन की तैयारियाँ कर रहे थे। उन्‍होंने विशेष-विशेष भक्‍तों को बुलाकर नगर-कीर्तन की सभी व्‍यवस्‍था समझा दी। कौन आगे रहेगा, कौन उसके पीछे रहेगा और कौन सबसे पीछे रहेगा, ये सभी बातें बता दीं। किस सम्‍प्रदाय में कौन प्रधान नृत्‍यकारी होगा, इसकी भी वयवस्‍था कर दी।

अब प्रभु के अन्‍तरंग भक्त गदाधर ने महाप्रभु श्रृंगार किया। प्रभु के घुंघराले काले-काले बालों में भाँति-भाँति के सुगन्धित तैल डालकर उसका जूरा बांधा गया, उसमें मालती, चम्‍पा आदि के सुगन्धित-पुष्‍प गूंथे गये। नासिका पर ऊर्ध्‍व-पुण्‍ड्र लगाया गया। केसर-कुंकुम की महीन बिन्दियों से मस्‍तक तथा दोनों कपोलो के ऊपर पत्रावली बनायी गयी। उनके अंग-प्रत्‍यंग की सजावट इस प्रकार की गयी कि एक बार कामदेव भी देखकर लज्जित हो उठता।

महाप्रभु ने एक बहुत ही बढ़िया पीताम्‍बर अपने शरीर पर धारण किया। नीचे तक लटकती हुई थोड़ी किनारीदार चुनी हूई पीले रंग की धोती बड़ी ही भली मालूम होती थी। गदाधर ने घुटनों तक लटकने वाला एक बहुत ही बढ़िया हार प्रभु के गले में पहना दिया। उस हार के कारण प्रभु का तपाये हुए सुवर्ण के समान शरीर अत्‍यंत ही शोभित होने लगा। मुख में सुंदर पान की बीरी लगी हुई थी, इससे बायीं तरफ का कपोल थोड़ा उठा हुआ-सा दीखता था। दोनों अरुण अधर पान की लालिमा से और भी रक्तवर्ण के बन गये थे। उन्‍हें बिम्‍बा-फल की उपमा देने में भी संकोच होता था। कमान के समान दोनों कुटिल भ्रुकुटियों के मध्‍य में चारों ओर केसर लगाकर बीच में एक बहुत ही छोटी कुंकुम की बिन्‍दी लगा दी थी, पीतवर्ण के शरीर में वह लाल बिन्‍दी लाल रंग के हीरे की कनी की भाँति दूर ही चमक रही थी। इस प्रकार भलीभाँति श्रृंगार करके प्रभु घर से बाहर निकले। प्रभु के बाहर निकलते ही द्वारपर जो अपार भीड़ प्रभु की प्रतीक्षा कर रही थी, उसमें एकदम कोलाहल होने लगा। मानो समुद्र में ज्‍वार आ गया हो। सभी जोरों से ‘हरि बोल,’ ‘‍हरि बाल’ कहकर दिशा- विदिशाओं को गुँजाने लगे। लोग प्रभु के दर्शनों के लिये उतावले हो उठे। एक-दूसरे को धक्‍का देकर सभी पहले प्रभु के पाद-पद्मों के निकट पहुँचना चाहते थे।

प्रभु ने अपने दोनों हाथ उठाकर भीड़ को शां‍त हो जाने का संकेत किया। देखते-ही-देखते सर्वत्र सन्‍नाटा छा गया। उस समय ऐसा प्रतीत होने लगा, मानो यहाँ कोई है ही नहीं। गदाधर ने प्रभु के दोनों चरणों में नूपुर बांध दिये। फिर क्रमश: सभी भक्तों ने अपने-अपने पैरों में नूपुर पहन लिये। बायें पैर को ठमकाकर प्रभु ने नूपुरों की ध्‍वनि की। प्रभु के ध्‍वनि करते ही एक साथ ही सहस्‍त्रों भक्तों ने अपने-अपने नूपुरों का बजाया। भीड़ में आनन्‍द की तरंगें उठने लगीं। भीड़ में स्‍त्री-पुरुष, बालक-वृद्ध तथा युवा सभी प्रकार के पुरुष थे। जाति-पांति का कोई भी भेद-भाव नहीं था, जो भी चाहे आकर संकीर्तन-समाज में सम्मिलित हो सकता था। किसी के लिये किसी प्रकार की रोक-टोक नहीं थी। भीड़ मे जितने भी आदमी थे, प्राय: सभी के हाथों में एक-एक मशाल थी। लोगों की सूझ ही तो ठहरी। प्रकाश के लिये मशाल न लेकर उस दिन मशाल ले चलने का एक प्रकार से माहात्‍म्‍य ही बन गया था, मानो सभी लोग मिलकर अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार छोटे-बड़े आलोक के द्वारा नवद्वीप के चिरकाल के छिपे हुए अज्ञानान्‍धकार को खोज-खोजकर भगा देने के ही लिये कटिबद्ध होकर आये हैं। किसी के हाथ में बड़ी मशाल थी, किसी के छोटी। किसी-किसी ने तो दोनों हाथों में दो-दो मशालें ले रखी थीं। छोटे-छोटे बच्‍चे छोटी-छोटी मशालें लिये हुए ‘हरि बोल’, ‘हरि बोल’ कहकर उछल रहे थे।

गोधूलि का सुखमय समय था। आकाश-मण्‍डल में स्थित भगवान दिवानाथ गौरचन्‍द्र के असह्यरूप-लावण्‍य से पराभव पाकर अस्‍ताचल में मुंह छिपाने के लिये उद्योग कर रहे थे। लज्‍जा के कारण उनका सम्‍पूर्ण मुख-मण्‍डल रक्‍तवर्ण का हो गया था। इधर आकाश में अर्धचन्‍द्र उदित होकर पूर्णचन्‍द्र के पृथ्‍वी पर अवतीर्ण होने की घोषणा करने लगे। शुक्‍ल पक्ष था, चांदनी रा‍त्रि थी, ग्रीष्‍मकाल का सुखद समय था। सभी प्रेम में उन्‍मत्त हुए ‘हरि बोल’, ‘हरि बोल’ कहकर चिल्‍ला रहे थे। प्रभु ने भक्‍तों को नियमपूर्वक खड़े हो जाने का संकेत किया। सभी लोग पीछे हट गये। संकीर्तन करने वाले भक्‍त आगे खड़े हुए। प्रभु ने भक्‍त-मण्‍डली को चार सम्‍प्रदायों में विभक्‍त किया। सबसे आगे वृद्ध सेनापति भक्ति-सेना के महारथी भीष्‍म पितामह के तुल्‍य श्री अद्वैताचार्य का सम्‍प्रदाय था। उस सम्‍प्रदाय के वे ही अग्रणी थे। इनके पीछे श्रीवास पण्डित अपने दल-बल के सहित डटे हुए थे। श्रीवास पण्डित के सम्‍प्रदाय में छटे हुए कीर्तन कला में कुशल सैकड़ों भक्त थे। इनके पीछे महात्‍मा हरिदास का सम्‍प्रदाय था। सबसे पीछे महाप्रभु अपने प्रधान-प्रधान भक्तों के सहित खड़े हुए। प्रभु के दायीं ओर नित्‍यानंद जी और बायीं ओर गदाधर पण्डित शोभायमान थे।

सब लोगों के यथायोग्‍य खड़े हो जाने पर प्रभु ने नूपुर बजाकर इशारा किया। बस, प्रभु का संकेत पाना था कि ढोल-करतालों की मधुर ध्‍वनि से आकाशमण्‍डल गूंजने लगा। प्रेम-वारुणी में पागल-से बने हुए भक्‍त ताल-स्‍वर के सहित गा-गाकर नृत्‍य करने लगे। उस समय किसी को न तो अपने शरीर की सुधि रही और न बाह्य जगत का ही ज्ञान रहा। जिस प्रकार भूत-पिशाच से पकड़े जाने वाले मनुष्‍य होश-हवास भुलाकर नाचने-कूदने लगते हैं, उसी प्रकार भक्‍तगण प्रेम में विभोर होकर नृत्‍य करने लगे, किंतु कोई भी ताल-स्‍वर के विपरीत नहीं जाता था। इतने भारी कोलाहल में भी सभी ताल-स्‍वर के नियमों का भलीभाँति पालन कर रहे थे। सभी के पैर एक साथ ही उठते थे।

घुँघरुओं की रुनझुन-रुनझुन ध्‍वनि के साथ ढोल-करताल और झाँझ-मजीरों की आवाजें मिलकर विचित्र प्रकार की ही स्‍वर-लहरी की सृष्टि कर रही थीं। एक सम्‍प्रदाय दूसरे सम्‍प्रदाय से बिलकुल पृथक ही पदों का गायन करता था। वाद्य बजाने वाले भक्‍त नृत्‍य करते-करते बाद्य बजा रहे थे। ढोल बजाने वाले बजाते-बजाते दोहरे हो जाते और पृथ्‍वी पर लेट-लेटकर ढोल बजाने लगते। करताल बजाने वाले चारों ओर हाथ फेंक-फेंककर जोरों से करताल बजाते। झाँझ और मजीरा की मीठी-मीठी ध्‍वनि सभी के हृदयों में खलबली-सी उत्पन्न कर रही थी। नृत्य करने वाले के चारों ओर से घेरकर भक्त खडे़ हो जाते और वह स्वच्छन्द रीति से अनेक प्रकार के कीर्तन के भावों को दर्शाता हुआ नृत्य करने लगता। उसके सम्प्रदाय के सभी भक्त उसके पैरों के साथ पैर उठाते और उसकी नूपुर-ध्‍वनि के सहित अपनी नूपुर-ध्‍वनि को मिला देते। बीच-बीच में सम्पूर्ण लोग एक साथ जोरों से बोल उठते ‘हरि बोल,’ ‘हरि बोल’,’गौरहरि बोल।’ अपार भीड़ में से उठी हुई यह आकाश-मण्‍डल को कपाँ देने वाली ध्‍वनि बहुत देर तक अन्तरिक्ष में गूजंती रहती। भक्त फिर उसी प्रकार संकीर्तन में मग्न हो जाते।

सबसे पीछे नित्यानन्द और गदाधर के साथ प्रभु नृत्य कर रहे थे। महाप्रभु का आज का नृत्य देखने ही योग्य था। मानो आ‍काश-मण्‍डल में देवगण अपने-अपने विमानों में बैठे हुए प्रभु का नृत्य देख रहे हों। प्रभु उस समय भावावेश में आकर नृत्य कर रहे थे। घुंटुनों तक लटकी हुई उनकी मनोहर माला पृथ्‍वी को स्पर्श करने लगती। कमर को लचाकर, हाथों को उठाकर, ऊर्ध्‍व दृष्टि किये हुए प्रभु नृत्य कर रहे थे। उनके दोनों कमल-नयनों से प्रेमाश्रु बह-बहकर कपोलों के ऊपर से लुढ़क रहे थे।

तिरछी आँखों की कोरों में से शीतल अश्रुओं के कण बह-बहकर जब कपोलों पर कढ़ी हुई पत्रावली के ऊपर होकर नीचे गिरते तब उस समय के मुख-मण्‍डल की शोभा देखते ही बनती थी। वे गद्गद कण्‍ठ से गा रहे थे ‘तुम्हार चरण मन लागुरे, हे सांरगधर’- सांरगधर कहते-कहते प्रभु का गला भर आता और सभी भक्त एक स्वर में बोल उठते ‘हरि बोल’, ‘गौरहरि बोल’। प्रभु फिर संभल जाते और फिर उसी प्रकार कोकिल-कण्‍ठ से गान करने लगते। वे हाथ फैलाकर, कमर लचाकर, भौहें मरोड़कर, सिर को नीचा-ऊंचा करके भाँति-भाँति से अलौकि‍क भावों को प्रदर्शित करते। सभी दर्शक काठकी पुतलियों के समान प्रभु के मुख की ओर देखते-के-देखते ही रह जाते।

प्रभु के आज के नृत्य से कठोर-से-कठोर हृदय में भी प्रेम का संचार होने लगा। कीर्तन के महाविरोधियों के मुखों में से भी हठात निकल पड़ने लगा- ‘धन्य है, प्रेम हो तो ऐसा हो!’ कोई कहता- ‘इतनी तन्मयता तो मनुष्‍य-शरीर में सम्भव नहीं।’ दूसरा बोल उठता- ‘निमाई तो साक्षात नारायण है।’ कोई कहता- ‘हमने तो ऐसा सुख अपने जीवन में आज तक कभी पाया नहीं।’ दूसरा जल्दी से बोल उठता- ‘तुमने क्या, किसी ने भी ऐसा सुख आज तक कभी नहीं पाया। यह सुख तो देवताओं को भी दुर्लभ है। वे भी इसके लिये सदा लालायित बने रहते हैं।’

प्रभु संकीर्तन करते हुए गंगा जी के घाट की ओर जा रहे थे। रास्ते में मनुष्‍यों की अपार भीड़ थी। उस भीड़ में से चींटी का भी निकल जाना सम्भव नहीं था। भगवद्भक्त सद्गृहस्थ अपने-अपने दरवाजों पर आरती लिये हुए खडे़ थे। कोई प्रभु के ऊपर पुष्‍पों की वर्षा करता, कोई भक्तों को माला पहनाता, कोई बहुमूल्य इत्र-फुलेल की शीशी-की-शीशी प्रभु के ऊपर उडे़ल देता। कोई इत्रदान में से इत्र छिड़क-छिड़ककर भक्तों को सराबोर कर देता। अटा, अटारी और छज्जे तथा द्वारों पर खड़ी हुई स्त्रियाँ प्रभु के ऊपर वहीं से पुष्‍पों की वृष्टि करतीं। कुमारी कन्याएं अपने आंचलों में भर-भरकर धान के लावा भक्तों के ऊपर बिखेरती। कोई सुन्दर सुगन्धित चन्दन ही छिड़क देती, कोई अक्षत, दूब तथा पुष्‍पों को ही फेंककर भक्तों का स्वागत करती। इस प्रकार सम्पूर्ण पथ पुष्‍पमय हो गया। लावा, अक्षत, पुष्‍प और फलों से रास्ता पट-सा गया।

प्रभु उन्मत्त हुए नृत्य कर रहे थे। उन्हें बाह्य-जगत का कुछ पता ही नहीं था। सभी संसारी विषयों का चिन्तन छोड़कर संकीर्तन की प्रेम-धारा में वे बहने लगे। उन्हें न तो क़ाज़ी का पता रहा और न उसके अत्याचारों का ही। सभी प्रभु के नृत्य को देखकर आपा भूले हुए थे। इस प्रकार का नगर-कीर्तन यह सबसे पहला ही था। सभी के लिये यह नयी बात थी, फिर मुसलमान शासक के शासन में ऐसा करने की हिम्मत ही किसकी हो सकती थी? किंतु आज तो प्रभु के प्रभाव से सभी अपने को स्वतन्त्र समझने लगे थे। उनके हृदयों पर तो एक मात्र प्रभु का साम्राज्य था, वे उनके तनिक-से इशारे पर सिर कटाने तक को तैयार थे।

इस प्रकार संकीर्तन-समाज अपने नृत्य-गान तथा जय-जयकारों से नगर-वासियों के हृदय में एक प्रकार के नवजीवन का संचार करता हुआ गंगा जी के उस घाट पर पहुँच, जहाँ प्रभु नित्यप्रति स्नान करते थे। वहाँ से प्रभु भक्त मण्‍डली के सहित मधाई-घाट पर गये। मधाई-घाट से सीधे ही बेलपुखरा जहाँ क़ाज़ी रहता था उसकी ओर चले। अब सभी को स्मरण हो उठा कि प्रभु को आज क़ाज़ी का भी उद्धार करना है। सभी उसके अत्याचारों को स्मरण करने लगे। कुछ लोग तो यहाँ तक आवेश में आ गये कि खूब जोरों के साथ चिल्लाने लगे- ‘इस क़ाज़ी को पकड़ लो’, ‘जान से मार डालो’, ‘इसने हिंद-धर्म पर बड़े-बड़े़ अत्याचार किये हैं।’ प्रभु को इन बातों का कुछ भी पता नहीं था। उन्हें किसी मनुष्‍य से या किसी सम्प्रदाय-विशेष से रत्तीभर भी द्वेष नहीं था। वे तो अन्याय के द्वेषी थे, सो भी अन्यायी के साथ वे लड़ना नहीं चाहते थे! वे तो प्रेमास्त्र द्वारा ही उसका पराभव करना चा‍हते थे। वे संहार के पक्षपाती न होकर उद्धार के पक्ष में थे। इसलिये मार-काट का नाम लेने वाले पुरुष उनके अभिप्राय को न समझने वाले अभक्त पुरुष ही थे। उन उत्तेजना प्रिय अज्ञानी मनुष्‍यों ने तो यहाँ तक किया कि वृक्षों की शाखाएं तोड़-तोड़कर वे क़ाज़ी के घर में घुस गये और उसकी फुलवारी तथा बाग के फल-फूलों को नष्‍ट-भ्रष्‍ट करने लगे। क़ाज़ी के आदमियों ने पहले से ही क़ाज़ी को डरा दिया था। उससे कह दिया था- ‘निमाई पण्डित हजारों मनुष्‍यों को साथ लिये हुए तुम्हें पकड़ने के लिये आ रहा है। वे लोग तुम्हें जान से मार डालेंगे।’ कमज़ोर हृदय वाला क़ाज़ी अपार लोगों के कोलाहल से डर गया। उसकी फौज ने भी डरकर जवाब दे दिया। बेचारा चारों ओर से अपने का असहाय समझकर घर के भीतर जा छिपा।

जब प्रभु को इस बात का पता चला कि कुछ उपद्रवी लोग जनता को भड़काकर उसमें उत्तेजना पैदा कर रहे हैं और क़ाज़ी को क्षति पहुँचाने का उद्योग कर रहे थे, तो उन्होंने उसी समय संकीर्तन बंद कर देने की आज्ञा दे दी। प्रभु की आज्ञा पाते ही सभी भक्तों ने अपने-अपने वाद्य नीचे उतार कर रख दिये। नृत्य करने वाले रुक गये। पद गाने वालों ने पद बंद कर दिये। क्षणभर में ही वहाँ सन्‍नाटा-सा छा गया। प्रभु ने दिशा‍ओं को गुंजाते हुए मेघ-गम्भीर स्वर में कहा- ‘खबरदार! किसी ने क़ाज़ी को तनिक भी क्षति पहुँचाने का उद्योग किया तो उससे अधिक अप्रिय मेरा और कोई न होगा। सभी एकदम शान्त हो जाओ।’ प्रभु का इतना कहना था कि सभी उपद्रवी अपने-अपने हाथों से शाखा तथा ईंट-पत्थर फेंककर चुपचाप प्रभु के समीप आ बैठे। सबको शान्त भाव से बैठे देखकर प्रभु ने क़ाज़ी के नौकरों से कहा- ‘काजी से हमारा नाम लेना और कहना कि आपको उन्होंने बुलाया है, आपके साथ कोई भी अभद्र व्यवहार नहीं कर सकता, आप थोड़ी देर को बाहर चलें।’

प्रभु की बात सुनकर क़ाज़ी के सेवक घर में घिपे हुए क़ाज़ी के पास गये और प्रभु ने जो-जो बातें कही थीं, वे सभी जाकर क़ाज़ी से कह दीं। प्रभु के ऐसे आश्‍वासन को सुनकर और इतनी अपार भीड़ को चुपचाप शान्त देखकर क़ाज़ी बाहर निकला। प्रभु पे भक्तों के सहित क़ाज़ी का अभ्‍यर्थना की और प्रेमपुर्वक उसे अपने पास बिठाया। प्रभु ने कुछ हंसते हुए प्रेम के स्वर में कहा- ‘क्यों जी, यह कहाँ की रीति है कि हम तो आपके द्वार पर अतिथि होकर आये हैं और आप हमें देखकर घर में जा छिपे!’

काजी ने कुछ लज्जित होकर विनीत भाव से प्रेम के स्वर में कहा- ‘मेरा सौभाग्य, जो आप मेरे घर पर पधारे! मैंने समझा था, आप क्रोधित होकर मेरे यहाँ आ रहे हैं, इसीलिये क्रोधित अवस्था में आपके सम्मुख होना ठीक नहीं समझा।’

प्रभु ने हंसते हुए कहा- ‘क्रोध करने की क्या बात थी? आप तो यहाँ के शासक हैं, मैं आपके ऊपर क्रोध क्यों करने लगा?’
यह बात हम पहले ही बता चुके हैं कि शचीदेवी के पूज्‍य पिता तथा महाप्रभु के नाना नीलाम्‍बर चक्रवर्ती का घर इसी बेलपुखरिया मुहल्‍ले में क़ाज़ी के पास ही था। क़ाज़ी चक्रवर्ती महाशय से बड़ा स्‍नेह रखते थे। इसीलिये क़ाज़ी ने कहा- ‘देखों निमाई! गांव-नाते से चक्रवर्ती मेरे चाचा लगते हैं, इसलिये तूम मेरे भानजे लगे। मैं तुम्‍हारा मामा हूँ, मामा के ऊपर भानजा यदि अकारण क्रोध भी करे तो मामा को सहना पड़ता है। मैं तुम्‍हारे क्रोध को सह लूंगा। तुम जितना चाहो, मेरे ऊपर क्रोध कर लो।‘

प्रभु ने हंसते हुए कहा-‘मामा जी! मैं इस संबंध को कब अस्‍वीकार करता हूँ। आप तो मेरे बड़े हैं। आपने तो मुझे गोद में खिलाया है। मैं तो आपके सामने बच्‍चा हूँ, मैं आप पर क्रोध क्‍यों करूँगा!’
काजी ने कुछ लजाते हुए कहा- ‘शायद इसीलिये कि मैंने तुम्‍हारे संकीर्तन का विरोध किया है।’
प्रभु ने कुछ मुसकराकर कहा- ‘इससे मैं क्‍यों क्रोध करने लगा? आप भी तो स्‍वतन्‍त्र नहीं है, आपको बादशाह की जैसी आज्ञा मिली होगी या आपके अधीनस्‍थ कर्मचारियों ने जैसा कहा होगा वैसा ही‍ आपने किया होगा। यदि कीर्तन करने वालों को दण्‍ड ही देना आपने निश्‍चय किया हो, तो हम सभी उसी अपराध को कर रहे हैं, हमें भी खुशी से दण्‍ड दीजिये। हम इसीलिये तैयार होकर आये हैं।’

काजी ने कहा- ‘बादशाह की तो ऐसी आज्ञा नहीं थी, किंतु तुम्‍हारे बहुत-से पण्डितों ने ही आकर मुझसे शिकायत की थी कि यह अशास्‍त्रीय काम है। पहले ‘मंगलचण्‍डी’ के गीत गाये जाते थे। अब निमाई पण्डित भगवन्नाम के गोप्‍य मन्‍त्रों को खुल्‍लमखुल्‍ला गाता फिरता है और सभी वर्णों को उपदेश करता है। ऐसा करने से देश में दुर्भिक्ष पड़ेगा; इसीलिये मैंने संकीर्तन के विरोध में आज्ञा प्रकाशित की थी। कुछ मुल्ला और क़ाज़ी भी इसे बुरा समझते थे।’

प्रभु ने यह सुनकर पूछा- ‘अच्छा, तो आप सब लोगों को संकीर्तन से क्यों नहीं रोकते!’
काजी इस प्रश्‍न को सुनकर चुप हो गया। थोड़ी देर सोचते रहने के बाद बोला- ‘यह बड़ी गुप्त बात है, तुम एकान्त में चलो तो कहूँ।’

प्रभु ने कहा- ‘यहाँ सब अपने ही आदमी हैं। इन्हें आप मेरा अन्तरंग ही समझिये। इनके सामने आप संकोच न करें। कहिये, क्या बात है?’

प्रभु के ऐसा कहने पर क़ाज़ी ने कहा- ‘गौरहरि! मुझे तुम्हें गौरहरि कहने में अब संकोच नहीं होता। भक्त तुम्हें गौरहरि कहते हैं, इसलिये तुम सचमुच में हरि हो। तुम जब कृष्‍ण-कीर्तन करते थे, तब कुछ मुल्लाओं ने मुझसे शिकायत की थी कि यह निमाई ‘कृष्‍ण-कृष्‍ण’ कहकर सभी को बरबाद करता है। इसका कोई उपाय कीजिये। तब मैंने विवश होकर उस दिन एक भक्त के घर में जाकर ढोल फोड़ा था और संकीर्तन के विरुद्ध लोगों को नियुक्त किया था, उसी दिन रात को मैंने एक बड़ा भंयकर स्वप्न देखा। मानो एक बड़ा भारी सिंह मेरे समीप आकर कह रहा है कि ‘यदि आज से तुमने संकीर्तन का विरोध किया तो उस ढोल की तरह ही मैं तुम्हारा पेट फोड़ दूंगा।’ यह कहकर वह अपने तीक्ष्‍ण पंजों से मेरे पेट को विदारण करने लगा। इतने में ही मेरी आँखे खुल गयीं! मेरी देह पर उन नखों के चिह्न अभी तक प्रत्यक्ष बने हुए हैं।’ यह कहकर क़ाज़ी ने अपने शरीर का वस्त्र उठाकर सभी भ‍क्तों के सामने वे चिह्न दिखा दिये।

काजी के मुख से ऐसी बात सुनकर प्रभु ने क़ाज़ी का जोरों से आलिगंन किया और उसके ऊपर अनन्त कृपा प्रदर्शित करते हुए बोले- ‘मामा जी! आप तो परम वैष्‍णव बन गये। हमारे शास्त्रों में लिखा है कि जो किसी भी बहाने से, हंसी में, दु:ख में अ‍थवा वैसे ही भगवान के नामों का उच्चारण कर लेता है उसके सम्पूर्ण पाप नष्‍ट हो जाते हैं[1] आपने तो कई बार ‘हरि’, ‘कृष्‍ण’ इन सुमधुर नामों का उच्चारण किया है। इन नामों के उच्चारण के ही कारण आपकी बुद्धि इतनी निर्मल हो गयी है।’

प्रभु का प्रेमालिंगन पाकर क़ाज़ी का रोम-रोम खिल उठा। उसे अपने शरीर में एक प्रकार के नवजीवन का- सा संचार होता हुआ दिखायी देने लगा। वह अपने में अधिकाधिक स्निग्धता, कोमलता और पवित्रता का अनुभव करने लगा। तब प्रभु ने कहा- ‘अच्छा तो मामा जी! आपसे मुझे यही बात कहनी है कि अब आप संकीर्तन का विरोध कभी न करें।’
गद्गद-कण्‍ठ से क़ाज़ी कहने लगा- ‘गौरहरि! तुम साक्षात नारायणस्वरूप हो, तुम्हारे सामने मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि मैं अपने कुल-परिवार को छोड़ सकता हूँ, कुटुम्बी तथा जाति वालों का परित्याग कर स‍कता हूँ, किंतु आज से संकीर्तन का भी विरोध नहीं करूंगा। तुम लोगों से कह दो, वे बेखट के कीर्तन करें।’

काजी की ऐसी बात सुनकर उपस्थित सभी भक्त मारे प्रसन्नता के उछलने लगे। प्रभु ने एक बार फिर क़ाज़ी को गाढालिंगन प्रदान किया और आप भक्तों के सहित फिर उसी प्रकार आगे चलने लगे। प्रभु के पीछे-पीछे प्रेम के अश्रु बहाते हुए क़ाज़ी भी चलने लगा और लोगों के ‘हरि बोल’ कहने पर वह भी ‘हरि बोल’ की उच्च ध्‍वनि करने लगा। इस प्रकार संकीर्तन करते हुए प्रभु केला खोल वाले श्रीधर भक्त के घर के सामने पहुँचे। भक्त-वत्सल प्रभु उस अकिंचन दीन-हीन भक्त के घर में घुस गये। गरीब भक्त एक ओर बैठा हुआ भगवान के सुमधुर नामों का उच्च स्वर से गायन कर रहा था। प्रभु को देखते ही वह मारे प्रेम के पुलकित हो उठा और जल्दी से प्रभु के पाद-पद्मों में गिर पड़ा।

श्रीधर को अपने पैरों के पास पड़ा देखकर प्रभु उससे प्रेमपूर्वक कहने लगे- ‘श्रीधर! हम तुम्हारे घर आये हैं, कुछ खिलाओगे नहीं?’ बेचारा गरीब-कंगाल सोचने लगा ‘हाय! प्रभु तो ऐसे असमय में पधारे है कि इस दीन-हीन कंगाल के घर में दो मुट्ठी चबेना भी नहीं। अब प्रभु को क्या खिलाऊं।’ भक्त यह सोच ही रहा था कि उसके पास के ही फूटे लोहे के पात्र में रखे हुए पानी को उठाकर प्रभु कहने लगे- ‘श्रीधर! तुम सोच क्या रहे हो। देखते नहीं हो, अमृत भरकर तो तुमने इस पात्र में ही रख रखा है।’ यह कहते-कहते प्रभु उस समस्त जल को पान कर गये। श्रीधर रो-रोकर कह रहा था- ‘प्रभो! यह जल आपके योग्य नहीं है, नाथ! इस फूटे पात्र का जल अशुद्ध है।’ किंतु प्रभु कब सुनने वाले थे। उनके लिये भक्त की सभी वस्तुएँ शुद्ध और परम प्रिय हैं। उनमें योग्यायोग्य और अच्छी-बुरी का भेदभाव नहीं। सभी भक्त श्रीधर के भाग्य की सराहना करने लगे और प्रभु की भक्त वत्सलता की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। श्रीधर भी प्रेम में विह्वल होकर पृथ्‍वी पर गिर पड़े।

काजी यहाँ तक प्रभु के साथ-ही-साथ आया था। अब प्रभु ने उससे लौट जाने के लिये कहा। वह प्रभु के प्रति नम्रतापूर्वक प्रणाम करके लौट गया। उस दिन से उसने ही नहीं, किंतु उसके सभी वश के लोगों ने संकीर्तन का विरोध करना छोड़ दिया। नवद्वीप में अद्यावधि चाँदखाँ क़ाज़ी का वश विद्यमान हैं क़ाज़ी के वश के लोग अभी तक श्रीकृष्‍ण-संकीर्तन में योगदान देते हैं। वेलपुकर या ब्राह्मणपुकर-स्थान में अभी तक चाँदखाँ क़ाज़ी की समाधि बनी हुई है। उस महाभागवत सौभाग्यशाली क़ाज़ी की समाधि के निकट अब भी जाकर वैष्‍णवगण वहाँ की धूलि को अपने मस्तक पर चढा़कर अपने को कृतार्थ मानते हैं। वह प्रेम-दृश्‍य उसकी समाधि के समीप जाते ही भावुक भक्तों के हृदयों में सजीव होकर ज्यों-का-त्यों ही नृत्य करने लगता है। धन्य है महाप्रभु गौरांगदेव के ऐसे प्रेम को, जिसके सामने विरोधी भी नतमस्तक होकर उसकी छत्र-छाया में अपने को सुखी बनाते हैं और धन्य है ऐसे महाभाग क़ाज़ी के जिसे मामा कहकर महाप्रभु प्रेमपूर्वक गाढालिंगन प्रदान करते हैं।

क्रमशः अगला पोस्ट [73]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Qazi surrenders

I salute that wonderful consciousness by His grace. The Yavanas are flowery and chant the name of Krishna.

There are kings without a crown and even an army can fight without weapons. Those who are crowned kings or emperors, they often have dominion over the public out of fear, they can also harbor hatred from inside and the public can sometimes rebel against them, but those who would have been kings without a crown Yes, they have dominion over the hearts of the people. He can bring everyone under his control only with love. Even if the army of the crowned king runs away from the battlefield due to fear, even if it is defeated, but the one who has supremacy over the hearts of the people, whose love-seal of rule is on the conscience of the people, his soldiers may be armed Be it or without weapons, they don’t run away from the field without getting victory. Because they care nothing for their lives. The one who does not care about his life, who does not get distracted even after hearing the name of death and is always ready to welcome him, for him no work is difficult in the world. He doesn’t expect much from these external weapons, his only weapon is courage. He can fearlessly defeat those who take the side of injustice with the help of his weapon of courage. Still he does not have any bad thoughts towards his opponent. He always thinks about his welfare, in the end he also gets welfare. This is the specialty in love. There is no enemy in the path of love. Hatred, malice, treachery, violence or even the thought of causing unnecessary pain do not arise in that way, there only these feelings remain-

May all be well and may all be in good health. May all be well and no one be in sorrow.

This is called ‘passive resistance’, ‘civil disobedience’ or ‘satyagraha’. Mahaprabhu Gaurangadeva wanted to follow this path in protest against stopping sankirtana. To suppress the lowly tendencies of Qazi, he used this method. He said to all the people- ‘Don’t worry, I myself will come out doing sankirtan in front of the Qazi, see how he stops me from doing sankirtan?’ went to their homes.

On the second day, Mahaprabhu ordered Nityanand ji to make this dialogue heard in the whole city that ‘Today in the evening, we will go out doing sankirtan in the city against the order of the Qazi. Everyone should gather at our house in the evening and bring one torch with them for lighting.’ Nityanand ji had been wanting this for a long time. His wish was that ‘ one day Mahaprabhu would go out doing sankirtan in the whole city, so that people would come to know how much melody is there in sankirtan. He believed that those who oppose sankirtana, if they see Gauranga’s love-dance even for one day, they will forever become devotees of Gauranga and his sankirtana. By Mahaprabhu’s open kirtan, the fear of fearful devotees will also go away and others will also have the courage to do sankirtan again. Many people are supporters of Sankirtan from their heart, but due to the fear of the Qazi, they do not have the courage to perform their Kirtan.

All that is needed is the encouragement of the Lord. Nityanandji was thinking these things in his mind for many days. But he did not reveal his feelings to anyone. Today, seeing Mahaprabhu himself ready to do Nagar-Kirtan, his joy knew no bounds. Taking the bell in hand, they went from house to house and from house to house in the city listening to this auspicious dialogue. First they would ring the bell loudly. Hearing the sound of the bell, many men and women used to gather there, then Nityanand ji raised his hands and said – ‘Brothers! This evening Shri Gaurhari will purify the people of the entire city with his melodious sankirtan. The eternal desire of the men and women of the city will be fulfilled today. Everyone will have the privilege of relishing the wonderful and supernatural dance of the Lord today. All the brothers should decorate their homes beautifully to welcome the sankirtankari devotees and in the evening everyone should come to the Lord’s house with a torch each. Don’t make any kind of noise there. Just make your life an act of gratitude while enjoying the pleasure of Sankirtan.

Everyone listened to this chant and started jumping with joy. There is a kind of natural enthusiasm in group work. In that enthusiasm, all kinds of people are pulled away due to an unknown power, those who are never expected to do any good work, they also do a lot of work in enthusiasm, that is why in Kalikal, for all the works Union power has been given priority.

Such a city-kirtan had never happened before in Navadvipa. This was a new thing for the men and women there. People used to hear about Nimai’s dance and kirtan for many days, but they had never seen Nimai’s dance and kirtan till today. Sankirtan used to take place inside Shrivasa Pandita’s house and no one except special devotees could enter it, that’s why the desire of the townspeople to see the kirtanananda was suppressed in their hearts. Today, after listening to Nagar Kirtan, everyone’s suppressed desires came out. People started making various preparations according to their capacity to welcome the Sankirtan. There is a saying, ‘melon starts changing color after seeing the melon’. When the devotees of Bhagwad started decorating their houses with bandanwar, kadalistamba and flag-ensigns, then the Shaktas living near them or people of different sects also put up in front of their respective doors for decoration. Started hoisting flags, so that the decoration of the city does not get hampered due to our house. Sympathy naturally arises in the hearts of all people for some exciting new work.

Seeing the elaborate preparations for that work, the opposition also starts supporting it. At that time their antagonisms go away, because violent thoughts have an effect on all kinds of people. That’s why all kinds of people decorated their houses well, except those who used to hate Sankirtan and Shri Gauranga because of their lowly nature. Sprinkling was done on the beautiful streets of the city. Fragrant things like incense, guggul etc. were burnt at different places. The double-three-storey houses on the side of the road were decorated with different colored sarees like red, yellow, green, blue etc. Somewhere paper flags are being hoisted and somewhere flags of colorful clothes are adorning.

Devotees have placed auspicious blank pitchers filled with water at their respective doors. The banana trees along with the holes at the gates looked very beautiful and pleasant. The enthusiasm of the people had increased so much that they used to think again and again what should we do to welcome the Sankirtan. There was no definite path for the sankirtan-mandal through which it would emerge and where it would end. According to their own feelings, everyone thought that the Sankirtan Mandal would definitely come towards our door. Everyone had expected that we would definitely get the fortune of welcoming the Sankirtankari devotees. That’s why they started decorating and keeping different types of materials to welcome all the companions of Mahaprabhu. In this way, there was joy and joy all around in the entire Navadvipa. Such decorations and preparations were not done in the city on any festival or even on the arrival of a king. There was fanfare all around. Bamboos of love were springing from the hearts of the devotees. As soon as the preparations were done, it became evening in the talk.

Mahaprabhu was also making preparations for Sankirtan inside the house. He called special devotees and explained them all the arrangements for Nagar-Kirtan. Told all these things who will be ahead, who will be behind him and who will be behind. Arrangements were also made as to who would be the main dancer in which community.

Now Gadadhar, the intimate devotee of the Lord, adorned Mahaprabhu. Varieties of fragrant oils were put in the curly black hair of the Lord and its Jura was tied, fragrant flowers of Malti, Champa etc. were woven into it. Urdhva-Pundra was applied on the nostrils. Patravali was made on the forehead and both the cheeks with fine dots of saffron-kumkum. His body parts were decorated in such a way that even Kamdev would have been ashamed to see him.

Mahaprabhu wore a very fine pitambar on his body. The yellow colored dhoti with a little border hanging down looked very nice. Gadadhar put a very beautiful necklace hanging around the Lord’s neck. Due to that necklace, the Lord’s body became extremely beautiful like molten gold. There was a beautiful betel leaf in the mouth, because of this, the left side of the cheek was seen a little raised. Both Arun had become even more blood-colored due to the redness of the half-pan. He used to hesitate even to give him the analogy of Bimba-fruit. Like a bow, a very small dot of kumkum was applied in the middle of both crooked brows by applying saffron all around, that red dot was shining like a red colored diamond from far away in the body of Pitvarna. Having adorned himself in this way, the Lord came out of the house. As soon as the Lord came out, the huge crowd that was waiting for the Lord at the door started making a lot of noise. As if the tide has come in the sea. Everyone started chanting ‘Hari Bol’, ‘Hari Bal’ loudly. People became eager to see the Lord. Pushing each other, everyone first wanted to reach near the feet of the Lord.

Prabhu raised both his hands and signaled the crowd to calm down. Soon there was silence everywhere. At that time it seemed as if there was no one here. Gadadhar tied anklets on both the feet of the Lord. Then respectively all the devotees wore nupur on their feet. Prabhu made the sound of nupuras by thumping his left foot. Thousands of devotees played their nupuras at the same time as soon as the Lord’s sound was heard. Waves of joy started rising in the crowd. There were all kinds of men in the crowd, men and women, children and old and young. There was no discrimination of caste and creed, anyone could come and join the sankirtan society. There was no restriction of any kind for anyone. All the people in the crowd, almost everyone had a torch in their hands. At least the understanding of the people remained. It had become a kind of greatness to carry the torch on that day without taking a torch for lighting, as if all the people together, according to their power, with small and big light, searched and chased away the hidden ignorance of the eternal ignorance of Navadweep. They have come determined for the same. Some had a big torch in their hands, some had a small one. Some had carried two torches in both the hands. Small children carrying small torches were jumping around saying ‘Hari Bol’, ‘Hari Bol’.

Twilight was a happy time. Lord Divanath, situated in the sky, was trying to hide his face in Astachal after being defeated by the unbearable beauty of Gaurchandra. Due to shame, his entire face had become red. Here the half moon rising in the sky started announcing the arrival of the full moon on the earth. It was a bright day, it was a moonlit night, it was a pleasant summer time. Everyone was shouting ‘Hari Bol’, ‘Hari Bol’, madly in love. The Lord signaled the devotees to stand up as per rules. Everyone retreated. The devotees performing sankirtan stood in front. The Lord divided the devotees into four sects. At the forefront was the sect of Shri Advaitacharya, the old general of the Bhakti army, equivalent to Bhishma Pitamah. He was the leader of that community. Shrivas Pandit was standing behind him along with his team. There were hundreds of devotees skilled in the art of kirtan scattered in the sect of Srivasa Pandita. Behind them was the sect of Mahatma Haridas. At the back stood Mahaprabhu along with his chief devotees. Nityananda ji on the right side of the Lord and Gadadhar Pandita on the left side were beautiful.

When all the people stood up appropriately, the Lord signaled by playing Nupur. Just had to get a sign from the Lord that the sky started echoing with the melodious sound of the drums. Devotees made of mad in Prem-Varuni started singing and dancing with rhythmic voice. At that time no one was aware of his body, nor was he aware of the external world. Just as a person caught by a ghost-vampire forgets his senses and starts dancing and jumping, in the same way the devotees started dancing out of love, but no one went against the rhythm. Even in such a huge uproar, everyone was following the rules of rhythm and tone very well. Everyone’s feet used to rise at the same time.

The sounds of dhol-kartal and cymbals combined with the rumbling sound of curls were creating a strange type of vocal wave. One sect used to sing completely different verses from the other sect. The devotees playing musical instruments were playing their instruments while dancing. The drummers used to double while playing and started playing the drum while lying down on the earth. Kartal players used to play loudly by throwing their hands around. The sweet sound of cymbals and majeera was creating disturbance in everyone’s hearts. Devotees would stand around the dancer and he would start dancing in a clean manner depicting the expressions of many types of kirtan. All the devotees of his community would raise their feet with his feet and mix their nupur-dhvani with his nupur-dhvani. From time to time, all the people used to shout ‘Hari Bol,’ ‘Hari Bol,’ ‘Gaurahari Bol.’ This sky-shaking sound emanating from the immense crowd would resound in space for a long time. The devotees then get engrossed in the sankirtan in the same way.

The Lord was dancing at the back with Nityananda and Gadadhara. Today’s dance of Mahaprabhu was worth watching. It is as if the deities are sitting in their respective planes in the sky watching the dance of the Lord. At that time the Lord was dancing in ecstasy. Her beautiful garland hanging till her knees seemed to touch the earth. The Lord was dancing by bending his waist, raising his hands and looking upwards. Tears of love were rolling down her cheeks from both her lotus eyes.

When the particles of cold tears flowed from the corners of the slanting eyes and fell down on the cheeks, then the beauty of the face of that time was made. He was singing in a thunderous voice ‘Tumhar Charan Man Lagure, O Sanragdhar’ – while saying this Sanragdhar, the Lord’s throat filled and all the devotees chanted ‘Hari Bol’, ‘Gaurahari Bol’ in one voice. Prabhu would regain his composure and again start singing in the same way with the voice of the nightingale. They used to display supernatural expressions in various ways by spreading their hands, bending their waist, twisting their eyebrows, raising and lowering their head. All the spectators used to keep looking at the face of the Lord like wooden puppets.

Today’s dance of the Lord started spreading love even in the toughest of hearts. The mouths of the great opponents of kirtan also said, ‘Blessed, if there is love then it should be like this!’ Some would say – ‘Such tension is not possible in the human body.’ ‘ Someone would say- ‘We have never got such happiness in our life till date.’ The other would quickly say- ‘What are you, no one has ever got such happiness till date.’ This happiness is rare even for the deities. They also always yearn for it.

Prabhu was going towards the ghat of Ganga ji while doing Sankirtan. There was a huge crowd of humans on the way. It was not possible for even an ant to get out of that crowd. The devotees of Bhagwad Sadgrihastha were standing at their respective doors carrying Aarti. Some shower flowers on the Lord, some garland the devotees, some pour bottle after bottle of precious perfume on the Lord. Someone used to sprinkle perfume from the perfume box and drench the devotees. Atta, attic and balcony and the women standing at the doors used to shower flowers on the Lord from there. Unmarried girls used to scatter paddy lava on the devotees in their laps. Some used to sprinkle beautiful fragrant sandalwood, some used to welcome the devotees by throwing Akshat, Doob and flowers. In this way the whole path became full of flowers. The path was paved with lava, Akshat, flowers and fruits.

Prabhu was dancing frantically. He did not know anything about the outside world. Leaving the thoughts of all worldly subjects, they started flowing in the love-stream of Sankirtan. They neither knew about Qazi nor about his atrocities. Everyone had forgotten their temper after seeing the dance of the Lord. This type of Nagar-Kirtan was the first one. This was a new thing for everyone, then who could have the courage to do this under the rule of a Muslim ruler? But today, due to the influence of the Lord, everyone had started thinking of themselves as independent. There was only one Lord’s kingdom on their hearts, they were ready to behead even at his slightest signal.

In this way, the Sankirtan-Society reached the ghat of Ganga ji, where the Lord used to bathe daily, infusing a kind of new life in the hearts of the city-dwellers with their dance-songs and shouts. From there the Lord went to Madhai Ghat along with the devotees. From Madhai-Ghat, walk straight towards Belpukhara where the Qazi lived. Now everyone remembered that today the Lord has to save the Qazi as well. Everyone started remembering his atrocities. Some people even got so excited that they started shouting very loudly – ​​’Catch this Qazi’, ‘Kill him,’ ‘He has done big atrocities on Hindu religion.’ Didn’t know anything about. He did not have an iota of hatred towards any human being or towards any particular community. He was a hater of injustice, yet he did not want to fight with the unjust! They wanted to defeat him by love weapon only. He was not in favor of destruction but in favor of salvation. That’s why the men who took the name of killing were non-devotee men who did not understand their meaning. Those excitement-loving ignorant people went so far as to break the branches of the trees and entered the Qazi’s house and started destroying his flowers and the fruits of the garden. The Qazi’s men had already intimidated the Qazi. Told him- ‘Nimai Pandit is coming to catch you with thousands of humans. They will kill you.’ The Qazi with a weak heart was scared by the noise of the huge crowd. His army also responded in fear. The poor man hid inside the house considering himself helpless from all sides.

When the Lord came to know that some miscreants were inciting the people and trying to harm the Qazi, He ordered to stop the Sankirtan at the same time. After getting the permission of the Lord, all the devotees put down their musical instruments. The dancers stopped. Those who sing the verses have stopped the verses. Within a moment there was silence. Echoing the directions, the Lord said in a solemn voice – ‘Beware! If someone tries to harm the Qazi even a little bit, then no one will be more unpleasant to me. Everybody calm down.’ The Lord said so much that all the miscreants threw branches and bricks and stones with their hands and silently came near the Lord. Seeing everyone sitting quietly, the Lord said to the Qazi’s servants – ‘Take our name from the Qazi and say that he has called you, no one can misbehave with you, you go out for a while.’

After listening to the Lord, the servants of the Qazi went to the Qazi who was hiding in the house and told all the things that the Lord had said to the Qazi. The Qazi came out after hearing such assurance from the Lord and seeing such a huge crowd silently and peacefully. Prabhu requested the Qazi along with the devotees and lovingly made him sit near him. The Lord said in a voice of love with some laughter – ‘Why, where is it that we have come as guests at your door and you hide in the house seeing us!’

Kazi felt somewhat ashamed and humbly said in a voice of love- ‘It is my good fortune that you have come to my house! I understood that you are coming to my place in anger, that is why it was not right to be in front of you in an angry state.’

The Lord laughed and said- ‘What was the point of getting angry? You are the ruler here, why did I get angry with you?’ We have already mentioned that the house of Nilambar Chakraborty, the respected father of Shachidevi and maternal grandfather of Mahaprabhu, was near the Qazi in this Belpukharia locality. Qazi Chakraborty had great affection for Mr. That’s why Qazi said – ‘Look Nimai! Chakraborty seems to be my uncle because of village ties, that’s why you seem to be my nephew. I am your maternal uncle, if the nephew gets angry on the maternal uncle without any reason, then the maternal uncle has to bear it. I will bear your anger. Be angry with me as much as you want.’

The Lord laughed and said – ‘Uncle! When do I reject this relationship? You are my elder. You have fed me in your lap. I am a child in front of you, why should I be angry with you!’ Kazi said somewhat shyly – ‘Perhaps because I have opposed your sankirtan.’ The Lord smiled and said – ‘Why did I get angry because of this? You are also not free, you must have done as per the orders of the king or as told by your subordinate employees. If you have decided to punish only those who do kirtan, then we are all committing the same crime, punish us with pleasure. That is why we have come prepared.

Qazi said- ‘The king did not have such an order, but many of your pundits had come and complained to me that this is an unscientific act. Earlier songs of ‘Mangalchandi’ were sung. Now Nimai Pandita goes about singing the sacred mantras of the Lord’s name openly and preaching to all the varnas. By doing this there will be famine in the country; That’s why I had published an order against Sankirtan. Some Mullahs and Qazis also considered it bad.

Hearing this, the Lord asked – ‘Ok, then why don’t you stop all the people from Sankirtan!’ Kazi became silent after hearing this question. After thinking for a while, he said – ‘This is a very secret matter, if you walk in solitude, I will tell you.’

The Lord said- ‘Here everyone is his own man. You consider them as my intimate. Don’t hesitate in front of them. Tell me, what’s the matter?’

When the Lord said this, Qazi said – ‘Gaurhari! Now I don’t hesitate to call you Gaurhari. Devotees call you Gaurhari, so you are really Hari. When you used to chant Krishna-Kirtan, some Mullahs complained to me that this Nimai destroys everyone by saying ‘Krishna-Krishna’. Do some remedy for this. Then I was forced to go to a devotee’s house and beat the drum and appointed people against Sankirtan, on the same day night I had a very frightening dream. It was as if a big heavy lion was coming near me and saying that ‘If from today you oppose Sankirtan, I will break your stomach like that drum.’ Saying this, he started tearing my stomach with his sharp claws. Just then my eyes opened! The marks of those nails are still visible on my body.’ Saying this, the Qazi lifted his body’s clothes and showed those marks in front of all the devotees.

Hearing such words from the Qazi’s mouth, the Lord hugged the Qazi tightly and showing infinite grace on him said – ‘Mama ji! You have become Param Vaishnav. It is written in our scriptures that one who chants the names of God with any excuse, in laughter, in sorrow or otherwise, all his sins are destroyed [1] You have heard ‘Hari’, ‘Krishna’ ‘ have pronounced these melodious names. Your intelligence has become so pure because of the pronunciation of these names.

Qazi’s every hair blossomed after getting the love of the Lord. He could see a kind of new life being communicated in his body. He started feeling more and more smoothness, tenderness and purity in himself. Then the Lord said – ‘ Well then uncle! This is what I have to say to you that you should never oppose Sankirtan.’ The Qazi started saying in a gleeful voice – ‘Gaurhari! You are the embodiment of Narayan, I swear in front of you that I can leave my family, I can leave my family and caste, but from today I will not oppose even Sankirtan. You tell people to do kirtan without any hesitation.’

Hearing such words of Qazi, all the devotees present started jumping with happiness. The Lord once again gave a deep hug to the Qazi and you along with the devotees again started moving forward in the same way. Kazi also started walking behind Prabhu shedding tears of love and when people said ‘Hari Bol’, he also started making a loud sound of ‘Hari Bol’. While chanting in this way, Lord Shridhar reached in front of the devotee’s house with a banana shell. Bhakt-Vatsal Prabhu entered the house of that helpless devotee. The poor devotee was sitting on one side singing loudly the melodious names of the Lord. On seeing the Lord, he was overwhelmed with love and quickly fell at the lotus feet of the Lord.

Seeing Shridhar lying near his feet, the Lord said lovingly to him – ‘Shridhar! We have come to your house, won’t you feed us?’ The poor man started thinking, ‘Hi! The Lord has come at such an untimely time that he cannot even chew two fistfuls in this poor man’s house. Now what should I feed the Lord.’ The devotee was thinking that picking up the water kept in the cracked iron vessel nearby, the Lord said – ‘Shridhar! what are you thinking Don’t you see, you have kept this vessel full of nectar.’ Saying this, the Lord drank all that water. Shridhar was crying and saying – ‘ Lord! This water is not worthy of you, Nath! The water in this broken vessel is impure.’ But when was the Lord going to listen? All things of the devotee are pure and most dear to him. There is no discrimination between good and bad in them. All the devotees started appreciating the fortune of Shridhar and the devotees of the Lord started praising Vatsalata. Shridhar also fell on the earth after being overwhelmed with love.

Qazi had come here along with the Lord. Now the Lord asked him to return. He returned humbly bowing down to the Lord. From that day not only he, but all the people under his control stopped opposing Sankirtan. Navadvipa is ruled by Chandkhan Qazi for a long time. The people under the Qazi’s control still contribute to Krishna-Sankirtan. The Samadhi of Chandkhan Qazi still remains at Velpukar or Brahmanpukar-sthan. Even now Vaishnavs consider themselves grateful by going near the tomb of that Mahabhagwat fortunate Qazi by applying the dust of that place on their heads. That love-scene comes alive in the hearts of passionate devotees as soon as they go near his tomb and starts dancing as it is. Blessed is the love of Mahaprabhu Gaurangdev, in front of whom even the adversaries bow down and make themselves happy under his umbrella and blessed is such great fortune of Qazi whom Mahaprabhu lovingly gives deep hugs by calling him uncle.

respectively next post [73] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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