[79]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
परम सहृदय निमाई की निर्दयता

वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि।
लोकोत्तराणां चेतांसि को हि विज्ञातुमीश्‍वर:।।

पता नहीं, भगवान ने विषमता में ही महानता छिपा रखी है क्या? ‘महतो महीयान्’ भगवान ‘अणोरणीयान्’ भी कहे जाते हैं। निराकर होने पर भी प्रभु साकार-से दीखते हैं। अ‍कर्ता होते हुए भी सम्पुर्ण विश्‍व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के एकमात्र कारण वे ही कहे जाते हैं। अजन्मा होने पर भी उनके शास्त्रों में जन्म कहे और सुने जाते हैं। इस प्रकार की विषमता में ही तो कहीं ईश्‍वरता छिपी हुई नहीं रहती। महापुरुषों के जीवन में भी सदा ऐसी ही विषमता देखने में आती हैं। मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के सम्पूर्ण चरित्र का पढ़ जाइये, उसमें स्थान-स्थान पर भारी विषमता ही भरी हुई मिलेगी।

श्रीमद्रामायण में विषमता का भारी भण्‍डार ही हैं अत्यन्त सुकुमार होने पर भी राम भंयकर राक्षसों का बात-की-बात में वध कर डालते हैं। तपस्वी होते हुए भी धनुष-बाण को हाथ से नहीं छोड़ते। मैत्री करने पर भी सुग्रीव को भय दिखाते हैं। सम्पूर्ण जीवन ही उनका विषमतामय है। जो राम अपनी माताओं को प्राणों से भी प्यारे थे, जो पिता की आज्ञा को कभी नहीं टालते थे, जिनका कोमल हृदय किसी को दु:खी देख ही नहीं सकता था, वे ही वन जाते समय इतने कठोर हो गये कि उन पर माता के वाक्य-बाणों का, उनके अविरत बहते हूए अश्रुओं का, पिता की दीनता से ही हुई प्रार्थना का, विलखते हुए नगरवासियों के करूण-क्रन्दन का, तपस्वी और ॠत्विज वृद्ध ब्राह्मणों के हंस के समान श्‍वेत बालों वाली दुहाई का, राजकर्मचारी और भगवान वसिष्ठ की भाँति-भाँति की नगर में रहने वाली युक्तियों का तनिक भी असर नहीं पड़ा। वे सभी को रोते-विलखते छोड़कर, सभी को शोकसागर में डुबाकर अपने हृदय को वज्र से भी अधिक कठोर बनाकर वन के लिये चले ही गये। इससे उनकी कठोरता का परिचय मिलता है।

सीतामाता के हरण के समय के उनके क्रोध को पढ़कर कलेजा काँपने लगता है, मानो वे अपनी प्राणप्यारी प्रिया के पीछे सम्पुर्ण विश्‍व-ब्रह्माण्‍ड को बात-की-बात में अपने अमोघ बाणों से नष्‍ट ही कर डालेंगे। स्फटि‍क-शिला पर बैठकर अपनी प्रिया के लिये वे कितने अधीरता को सुनकर पाषाण भी पिघल गये थे। लंका पर चढ़ाई के पूर्व, हनुमान के आने पर सीता जी के लिये वे कितने व्याकुल-से दिखायी पड़ते थे! उनकी छोटी-छोटी बातों को स्मरण करके रोते रहते थे। उस समय कौन नहीं समझता था कि सीता को पाते ही ये एकदम उन्हें गले से लगाकर खूब रुदन न करेंगे और उन्हें प्रेमपूर्वक अपने अंक में न बिठा लेंगे। किंतु रावण के वध के अनन्तर उनका रंग ही पलट गया।

सीता के सामने आने पर उन्होंने जैसी कठोर, कड़ी और अकथनीय बातें कह डालीं, उन्हें सुनकर कौन उन्हें सहृइय और प्रेमी कह सकता है? यथार्थ में देखा जाय तो यही उनकी महत्ता का द्योतक है? जिसे हम प्राणों से भी अधिक प्यार करते हैं यदि उसके परित्याग करने का समय दैवात आकर उपस्थित हो जाय, तो बात-की-बात में हंसते हुए उसे त्याग देना इसी का नाम तो यथार्थ प्रेम है। जो दृढ़ता के साथ ‘स्वीकार’ करने की सामर्थ्‍य रखता है उसमें त्याग की भी उतनी ही अधिक शक्ति होनी चाहिये।

भक्तों के साथ महाप्रभु का ऐसा अपूर्व प्रेम देखकर कोई स्वप्न में भी इस बात का अनुमान नहीं कर सकता था कि ये एक दिन इन सबको त्यागकर भी चले जांयगे। वे भक्तों से हृदय खोलकर मिलते। भक्तों के प्राणों के साथ अपने प्राणों को मिला देते। उनके आलिंगन में, नृत्य में, नगर-भ्रमण में, ऐश्‍वर्य में, भक्तों के साथ भोजन में, सर्वत्र ओत-प्रोत भाव से प्रेम-ही-प्रेम भरा रहता।

विष्‍णुप्रिया जी समझती थी, पतिदेव मुझसे ही अत्यधिक स्नेह करते हैं, वे मेरे प्रेमपाश में दृढ़ता से बंधे हुए हैं। माता समझती थीं, निमाई मुझे छोड़कर कहीं जा ही नहीं सकता। उसे मेरे बिना एक दिन भी तो कहीं रहना अच्छा नहीं लगता। दूसरे के हाथ से भोजन करने में उसका पेट ही नहीं भरता! जब तक मेरे हाथ से कुछ नहीं खा लेता तब तक उसकी तृप्ति ही नहीं होती। इस प्रकार सभी प्रभु को अपने प्रेम की रज्जु में दृढ़ता के साथ बँधा हुआ समझते थे। किंतु वे महापुरुष थे। उनके लिये यह सब लीला थी। उनका कौन प्रिय और कौन अप्रिय? वे तो चराचर विश्‍व में अपने प्यारे प्रेम का ही दर्शन करते थे। प्रेम ही उनका आराध्‍यदेव था। प्राणियों की श‍कल-सूरत से उनका अनुराग नहीं था, वे तो प्रेम के पुजारी थे! पुजारी क्या थे, प्रेम-स्वरूप ही थे। उन्होंने एकदम संन्यास लेने का निश्‍चय कर लिया। सभी को अपनी-अपनी भूल का अनुभव होने लगा। उस पर हमारे ही समान सभी प्राणियों का समानभाव से अधिकार है, सभी उसके द्वारा प्रेमपीपूष पाकर प्रसन्न हो सकते हैं।

महाप्रभु के संन्यास लेने का समाचार सम्पूर्ण नवद्वीप नगर में फैल गया। बहुत-से लोग प्रभु के दर्शनों के लिये आने लगे। महाप्रभु अब भक्तों के सहित संकीर्तन में सम्मिलित नहीं होते थे। भक्तगण स्वयं ही मिलकर संकीर्तन करते और प्रात:-सायं प्रभु के दर्शनों के लिये उनके घर पर आया करते थे।

जिस दिन महामहिम श्रीस्वामी केशव भारती प्रभु के घर आये थे, उसी दिन प्रभु ने संन्यास लेने की तिथि निश्चित कर ली थी। उस समय सूर्य दक्षिणायन थे। दक्षिणायन-सूर्य में शुभ संस्कार और इस प्रकार के वैदिक कृत्य और अनुष्‍ठान नहीं किये जाते, इसलिये प्रभु उत्तरायण-सूर्य होने की प्रतीक्षा करने लगे। समय बीतते कुछ देर नहीं लगती। धीरे-धीरे भक्तों को तथा प्रभु के सम्बन्धियों को शोक-सागर में डूबा देने वाला वह समय सन्निकट आ पहुँचा। प्रभु ने नित्यानन्द जी को गृह-परित्याग करने वाली तिथि की सूचना दे दी और उनसे आग्रहपूर्वक कह दिया- ‘हमारी माता, हमारे मौसा चन्द्रशेखर आचार्य, गदाधर, मुकुन्द और ब्रह्मानन्द- इन पांचों को छोड़कर आप और किसी को भी इस बात को न बतावें।’ नि‍त्यानन्द जी तो इनके स्वरूप ही थे। उन्होंने इनकी आज्ञा शिरोधार्य की और दु:खी होकर उस भाग्यहीन दिन की प्रतीक्षा करने लगे।

महाप्रभु के लिये आज का दिन नवद्वीप में अन्तिम दिन है। कल अब गौरहरि न तो निमाई पण्डित रहेंगे और न शचीपुत्र। वे अकीली विष्‍णुप्रिया के पति न रहकर प्राणिमात्र के प्रिय हो जायेंगे। कल वे भक्तों के ही वन्दनीय न होकर जगद्वन्दनीय बन जायंगे। किसी को क्या पता था कि अब नवद्वीप नदियानागर से शून्य बन जायगा। प्रात:काल हुआ, प्रभु नित्यकर्म से निवृत्त होकर भक्तों के साथ श्रीवास पण्डित के घर चले गये। वहाँ सभी भक्त आकर एकत्रित हुए। सभी ने प्रभु के साथ मिलकर संकीर्तन किया। फिर भक्तों को साथ लेकर प्रभु गंगा-किनारे चले गये और वहाँ देर तक श्रीकृष्‍ण-कथा का रसास्वादन करते रहे। अनन्तर सभी भक्तों के समूह के सहित अपने घर पर आये। न जाने उस दिन सभी के हृदयों में कैसी एक अपूर्व-सी प्रेरणा हुई कि उस रात्रि में प्रभु के प्राय: सभी अन्तरंग भक्त आकर एकत्रित हो गये। खोल बेचने वाले श्रीधर कहीं से थोड़ा चिउरा लेकर आये और बड़े ही प्रेम से आकर प्रभु के चरणों में उसे भेंट किया। अपने अकिंचन भक्त का अन्तिम समय में ऐसा अपूर्व उपहार पाकर प्रभु परम प्रसन्न हुए और हंसते हुए कहने लगे- ‘श्रीधर! ये ऐसे सुन्दर चिउरा तुम कहाँ से ले आये?’ इतना कहकर प्रभु ने उन्हें माता को दिया। उसी समय एक भक्त बहुत-सा दूध ले आया।

प्रभु दूध को देखते ही खिलखिलाकर हंस पड़े और प्रसन्नता प्र‍कट करते हुए कहने लगे- ‘श्रीधर! तुम बड़े शुभ मूहुर्त में चिउरा लेकर चले थे, लो दूध भी आ गया।’ यह कहकर प्रभु ने माता को चिउरा की खीर बनाने को कहा। माता ने जल्दी से भोजन बनाया, प्रभु ने भक्तों के स‍हित महाभागवत श्रीधर के लाये हुए चिउरे की खीर खायी। वही उनका नवद्वीप में शचीमाता के हाथ का अन्तिम भोजन था। भोजन के अनन्तर सभी भ‍क्त अपने-अपने घरों को चले गये। महाप्रभु जी भी अपने शयन-गृह में जाकर लेट गये।

वियोगजन्य दु:ख की आशंका से भयभीता हिरणों की भाँति डरते-डरते विष्‍णुप्रिया ने प्रभु के शयन-गृह में प्रवेश किया। उनकी आँखों में से निरन्तर अश्रु बह रहे थे।
प्रभु ने हंसते हुए कहा- ‘प्रिये! मैं तुम्हारे हंसते हुए मुख-कमल को एक बार देखना चाहता हूँ। तुम एक बार प्रसन्न होकर मेरी ओर देखो।’

विष्‍णुप्रिया जी चुप ही रहीं, उन्होंने प्रभु की बात का कुछ भी उत्तर नहीं दिया। तब प्रभु आग्रह के स्वर में कहने लगे- ‘विष्‍णुप्रिया! तुम बोलती क्यों नहीं, क्या सोच रही हो?’

आँसू पोछते हुए विष्‍णुप्रिया ने कहा- ‘प्रभो! न जाने क्यों आज मेरा दिल धड़क रहा है। मेरा हृदय आप-से-आप ही फटा-सा जाता है। पता नहीं क्या बात है?’
प्रभु ने बात को टालते हुए कहा- ‘तुम सदा सोच करती रहती हो, उसी का यह परिणाम है। अच्छा, तुम हँस दो, देखो अभी तुम्हारा सभी शोक-मोह दूर होता है या नहीं?’
विष्‍णुप्रिया जी ने प्रेमपूर्ण कुछ रोष के स्वर में कहा- ‘रहने भी दो! तुम तो ऐसे ही मुझे बनाया करते हो। ऐसे समय में तो तुम्हें ही हँसी आ सकती है। मेरा तो हृदय रुदन कर रहा है। फिर कैसे हँसूँ? हँसी तो भीतर की प्रसन्नता से आती है।’

विष्‍णुप्रिया जी को पता चल गया कि अवश्‍य ही पतिदेव आज ही मुझे अनाथिनी बनाकर गृह-त्याग करेंगे, किंतु उन्होंने प्रभु के सम्मुख इस बात को प्र‍कट नहीं किया। वे रात्रि भर प्रभु के चरणों को दबाती रहीं। प्रभु ने भी आज उन्हें बड़े प्रेम के साथ अनेकों बार गाढ़लिंगन कर-कर के परम सुखी बना दिया। किंतु विष्‍णुप्रिया को पति के आज के इन आलिंगनों में विशेष सुख का अनुभव नहीं हुआ। जिस प्रकार शूली पर चढ़ने वाले को उस समय भाँति-भाँति की स्वादिष्‍ट मिठाइयाँ रुचिकर प्रतीत नहीं होतीं, उसी प्रकार विष्‍णुप्रिया को वह पति का इतना अधिक स्नेह और अधिक पीड़ा पहुँचाने लगा।

माता को तो पहले से ही पता था कि निमाई आज घर छोड़कर चला जायगा, वे दरवाजे की चौखट पर पड़ी हुई रात्रिभर आह भरती रहीं। विष्‍णुप्रिया भी प्रभु के पैरों को पकडे़ रात्रि भर ज्यों-की-त्यों बैठी रहीं।

माघ का महीना था, शुक्लपक्ष का चन्द्रमा अस्त हो चुका था। दो घड़ी रजनी शेष थी। सम्पूर्ण नगर के नर-नारी सुख की निद्रा में सोये हुए थे; किंतु महाप्रभु को नींद कहाँ, वे तो संन्यास की उमंग में भूख-प्यास, सुख-निद्रा आदि को एकदम भुलाये हुए थे। विष्‍णुप्रिया उनके पैरों को पकडे़ बैठी हुई थीं। प्रभु उनसे छूटकर भाग निकलने का सुअवसर ढूढ़ रहे थे। भावी बड़ी प्रबल है, जो होनहार होता है, वैसे ही उसके लिये साधन भी जुट जाते हैं, रात्रि भर की जागी हुई विष्‍णुप्रिया को नींद आ गयी। वह प्रभु की शय्यापर ही उनके चरणों में पड़कर सो गयीं। रात्रि भर की जागी हुई थीं, इसलिये पड़ते ही गाढ़ निद्रा ने आकर उनके ऊपर अपना अधिकार जमा लिया।

प्रभु ने इसे ही बड़ा अच्छा सुअवसर समझा। बहुत ही धीरे से प्रभु ने अपने चरणों को विष्‍णुप्रिया जी की गोद में से उठाया। पैर के उठाते ही विष्‍णुप्रिया जी कुछ हिलीं। उसी समय प्रभु ने दूसरे पैर को ज्यों-का-त्यों ही उनकी छाती पर रखा रहने दियां थोड़ी देर में फिर धीरे-धीरे दूसरे भी पैर को उठाया। अब के विष्‍णुप्रिया जी को कुछ भी पता नहीं चला। प्रभु बहुत ही धीरे से शय्या पर से नीचे उतरे। पास में खूंटी पर टंगे हुए अपने वस्त्र पहने और एक बार फिर अपनी प्राणप्यारी की ओर दृष्टिपात किया। सामने एक क्षीण ज्योति का दीपक टिमटिमा रहा था। मानो वह भी प्रभु के वियोगजन्य दु:ख के कारण दु:खी होकर रो रहा है। दीपक मन्द-मन्द प्रकाश विष्‍णुप्रिया जी के मुख पर पड़ रहा था, इससे उनके मुख की कान्ति और भी अधिक शोभायमान हो रही थी। प्रभु इस प्रकार गाढ़ निद्रा में पड़ी हुई अपनी प्राणप्यारी के चन्द्रमा के समान खिले हुए मुख को देखकर एक बार कुछ झिझके।

वे सोचने लगे- ‘मैं इस अबोध बालिका के ऊपर यह कैसा अनर्थ कर रहा हूँ। इसे बिना सूचित किये हुए इसकी बेहोशी में मैं इसे सदा के लिये त्याग रहा हूँ। यह मेरा काम बड़ा ही कठोर और निन्दनीय है।’ फिर अपने को सावधान करके वे सोचने लगे- ‘जीवों के कल्याण के निमित्त ऐसी कठोरता मुझे करनी ही पड़ेगी। जब एक ओर से कठोर न बनूँगा तो संसार का कल्याण कैसे होगा? माया में बंधे हुए जीवों को त्याग-वैराग्य का पाठ कैसे पढा़ सकूंगा? लोग मेरे इसी कार्य से तो त्याग-वैराग्य की शिक्षा प्राप्त कर सकेंगें।’

इतना सोचकर वे मन-ही-मन विष्‍णुप्रिया जी को आशीर्वाद देते हुए शयन-घर से बाहर हुए। दरवाजे पर शचीमाता बेहोश-सी पड़ी रुदन कर रही थीं। उनकी आँखों में भला नींद कहाँ? वे तो पुत्र-विछोहरूपी शोक-सागर में डुबकियाँ लगा रहीं थीं। कभी ऊपर उछल आतीं और कभी फिर जल में डुबकियाँ लगाने लगतीं। प्रभु ने बेहोश पड़ी हुई दु:खिनी माता के चरणों में मन-ही-मन प्रणाम किया। धीरे से उनकी चरण-धूलि उठाकर मस्तक पर चढा़यी, फिर उनकी प्रदक्षिणा की और मन-ही-मन प्रार्थना की- ‘हे माता! तुमने मेरे लिये बड़े-बड़े़ कष्‍ट उठाये। मुझे खिला-पिलाकर, पढा़-लिखाकर इतना बड़ा किया। फिर भी मैं तेरी कुछ भी सेवा नहीं कर सका। माता! मैं तुम्हारा जन्म-जन्मान्तरों तक ऋणी रहूँगा, तुम्हारे ऋण से कभी भी मुक्त नहीं हो सकूंगा।’ इतना कहकर वे जल्दी से दरवाजे के बाहर हुए और दौड़कर गंगा-किनारे पहुँचे।

वे ही जाडे़ के दिन थे, जिन दिनों प्रभु के अग्रज विश्‍वरूप घर छोड़कर गये थे वही समय था और वही घाट उस समय नाव कहाँ मिलती। विश्‍वरूप जी ने भी हाथों से तैरकर ही गंगा जी को पार किया था। प्रभु ने भी अपने बड़े भाई के ही पथ का अनुसरण करना निश्‍चय किया। उन्होंने घाट पर खडे़ होकर पीछे फिरकर एक बार नवद्वीप नगरी के अन्तिम दर्शन किये। वे हाथ जोड़कर गद्गदकण्‍ठ से कहने लगे- ‘हे ताराओं से भरी हुई रात्रि! तू मेरे गृह-त्याग की साक्षी है। ओ दसों दिशाओ! तुम मुझे घर से बाहर होता हुआ देख रही हो। हे धर्म! तुम मेरी सभी चेष्‍टाओं को समझने वाले हो। मैं जीवों के कल्याण के निमित्त घर-बार छोड़ रहा हूँ।

हे विश्वब्रह्माण्‍ड के पालनकर्ता! मैं अपनी वृद्धा माता और युवती पत्नी को तुम्हारे ही सहारे पर छोड़ रहा हूँ। तुम्हारा नाम विश्‍वम्भर है। तुम सभी प्राणियों का पालन करते हो और करते रहोगे। इसलिये मैं निश्चित होकर जा रहा हूँ।’ यह कहकर प्रभु ने एक बार नवद्वीप नगरी को और फिर भगवती भागीरथी को प्रणाम किया और जल्दी से गंगा जी के शीतल जल के बहते हुए प्रवाह में कूद पड़े और तैरकर उस पार हुए। उसी प्रकार वे गीले वस्त्रों से ही कटवा (कण्‍टक नगर) केशव भारती के गंगा तट वाले आश्रम पहुँच गये। जिस निर्दय घाटने विश्‍वरूप और विश्‍वभर दोनों भाइयों को पार करके सदा के लिये नवद्वीप के नर-नारियों से पृथक कर दिया, वह आज तक भी नवद्वीप में ‘निर्दय घाट’ के नाम से प्रसिद्ध होकर अपनी लोक-प्रसिद्ध निर्दयता का परिचय दे रहा है।

क्रमशः अगला पोस्ट [80]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram The ruthlessness of Param Shardiya Nimai

They are harder than thunderbolt and softer than flowers. Who is able to know the minds of those beyond this world

Don’t know, has God hidden greatness in disparity itself? ‘Mahto Mahiyan’ God is also called ‘Anoraniyan’. In spite of being incorporeal, the Lord is visible through the corporeal form. Despite being non-doer, He is said to be the only reason for the origin, condition and annihilation of the entire world. Even though he is unborn, his birth is said and heard in the scriptures. Godliness does not remain hidden somewhere in this kind of disparity. Such disparity is always seen in the lives of great men as well. Read the complete character of Maryada Purushottam Lord Shri Ram, you will find huge disparity in it at every place.

There is a huge store of contrasts in Shrimadramayana, even though he is very soft, Ram kills the demons in a matter-of-fact manner. Despite being an ascetic, he does not leave his bow and arrow. They show fear to Sugriva even after being friendly. His whole life is a contrast. Ram, who was dearer to his mothers than life itself, who never disobeyed his father’s orders, whose soft heart could not see anyone sad, he himself became so harsh while going to the forest that he was punished by his mother. – Of the arrows, of their incessantly flowing tears, of the father’s humble prayer, of the wailing cries of the townspeople, of the swan-like cry of ascetic and sage aged brahmins, of the royal servant and of Lord Vasistha. All kinds of city-dwelling tricks didn’t have any effect. Leaving everyone weeping and wailing, drowning everyone in the ocean of sorrow, he went to the forest, making his heart harder than a thunderbolt. This shows his hardness.

The heart starts trembling after reading his anger at the time of Sitamata’s abduction, as if he would destroy the entire universe-universe behind his beloved beloved with his infallible arrows. Sitting on the crystal rock, listening to the impatience of his beloved, even the stones melted. How distraught he looked for Sita on the arrival of Hanuman before his march to Lanka! He used to cry remembering his small things. At that time, who did not think that as soon as he found Sita, he would not immediately hug her and cry profusely and would not make her sit in his lap with love. But after the slaying of Ravana, his complexion changed.

When he came in front of Sita, he said such harsh, harsh and unspeakable things, who can call him kind and loving after listening to him? If seen in reality, is this the sign of their importance? The one whom we love more than life, if it is time to leave him, if the deity comes and is present, then to leave him laughing while talking, then this is the name of real love. One who has the power to ‘accept’ with firmness must have the same power of renunciation.

Seeing such an incomparable love of Mahaprabhu with the devotees, no one could have guessed even in his dreams that one day he would leave all these and go away. He would meet the devotees with open heart. He would have mixed his life with the life of the devotees. In His embrace, in dance, in city tour, in opulence, in food with the devotees, love-only-love was filled everywhere.

Vishnupriya ji used to understand that husband loves me very much, he is strongly bound in my love. Mother used to think that Nimai cannot go anywhere leaving me. He does not like to stay anywhere without me even for a day. Eating from other’s hand doesn’t fill his stomach! He is not satisfied until he eats something from my hand. In this way everyone considered the Lord firmly tied in the rope of their love. But he was a great man. It was all a leela for him. Who is his favorite and who is his dislike? He used to see only his beloved love in the pasture world. Love was his only deity. He was not attached to the appearance of creatures, he was a worshiper of love! What were the priests, they were the form of love. He decided to retire immediately. Everyone started experiencing their own mistake. All beings like us have equal rights on him, everyone can be happy to be loved by him.

The news of Mahaprabhu’s retirement spread throughout Navadweep city. Many people started coming to have darshan of the Lord. Mahaprabhu no longer used to participate in sankirtana along with the devotees. Devotees themselves used to do Sankirtan together and used to come to his house in the morning and evening to have darshan of the Lord.

The day His Excellency Sri Swami Keshav Bharati came to Prabhu’s house, the same day Prabhu had fixed the date of retirement. At that time the Sun was in Dakshinayan. Auspicious rituals and such Vedic rituals and rituals are not performed in Dakshinayan-Sun, so the Lord started waiting for Uttarayan-Sun to appear. Time does not take long to pass. Gradually, the time came near to drown the devotees and the relatives of the Lord in the ocean of sorrow. Prabhu informed Nityanand ji about the date of leaving the house and said to him insistently – ‘ Except our mother, our warts Chandrashekhar Acharya, Gadadhar, Mukund and Brahmanand – you should not tell this to anyone else. Nityanand ji was his form only. They obeyed him and started waiting for that fateful day in sorrow.

Today is the last day for Mahaprabhu in Navadvipa. Tomorrow now Gaurahari will be neither Nimai Pandit nor Shachiputra. Instead of being the husband of Vishnupriya alone, he will become dear to every living being. Tomorrow, instead of being worshipable only by the devotees, they will become world worship. How did anyone know that Navadweep would now become zero from Nadiyanagar. It was early in the morning, after retiring from daily work, the Lord went to Shrivas Pandit’s house with the devotees. All the devotees came and gathered there. Everyone performed sankirtan together with the Lord. Then taking the devotees with him, the Lord went to the banks of the Ganges and kept reciting the story of Shri Krishna there for a long time. Anantar came to his house along with a group of all the devotees. Don’t know what kind of an unprecedented inspiration took place in everyone’s hearts that day that almost all the intimate devotees of the Lord came together that night. Shell seller Sridhar brought some Chiura from somewhere and presented it at the feet of the Lord with great love. The Lord was very pleased to receive such a unique gift from his unrepentant devotee at the last moment and laughingly said – ‘Shridhar! From where did you get these beautiful chiuras?’ Having said this, the Lord gave them to the mother. At the same time a devotee brought a lot of milk.

Prabhu laughed out loud on seeing the milk and expressed his happiness and said- ‘Sridhar! You went with Chiura in a very auspicious time, take the milk has also arrived.’ Saying this, the Lord asked the mother to make Chiura’s kheer. Mother quickly prepared the food, the Lord along with the devotees ate the rice pudding brought by Mahabhagwat Sridhar. That was his last meal from Sachimata’s hand in Navadweep. After the meal, all the devotees went to their respective homes. Mahaprabhu ji also went to his bedroom and lay down.

Fearful like a deer fearing separation, Vishnu Priya entered the bedroom of the Lord. Tears were continuously flowing from his eyes. The Lord laughed and said – ‘Dear! I want to see your smiling face once. You look at me once happy.

Vishnupriya ji remained silent, she did not reply anything to the words of the Lord. Then the Lord started saying in the voice of request – ‘Vishnupriya! Why don’t you speak, what are you thinking?

Wiping her tears, Vishnupriya said – ‘Lord! Don’t know why my heart is pounding today. My heart bursts on its own. Do not know what is the matter? Avoiding the matter, the Lord said – ‘You always keep thinking, this is the result of that. Well, you laugh, see whether all your sorrow and attachment go away or not?’ Vishnupriya ji said in a voice full of anger – ‘Let it be! You make me like this. At such a time only you can laugh. My heart is crying. How to laugh then? Laughter comes from inner happiness.

Vishnupriya ji came to know that husband would certainly make me an orphan today itself and abandon her home, but she did not reveal this to the Lord. She kept pressing the feet of the Lord throughout the night. Today the Lord also made him extremely happy by hugging him many times with great love. But Vishnupriya did not feel much pleasure in these embraces of her husband today. Just as the one who climbs on the cross does not find many delicious sweets at that time, in the same way, so much affection of her husband and so much pain started to hurt Vishnupriya.

Mother already knew that Nimai would leave the house today, she kept on sighing all night lying on the door frame. Vishnupriya also sat holding the feet of the Lord as she was all night.

It was the month of Magh, the moon of Shuklapaksha had set. Rajni had two hours left. The men and women of the whole city were fast asleep; But where did Mahaprabhu get sleep, he had completely forgotten hunger-thirst, happiness-sleep etc. in the enthusiasm of renunciation. Vishnupriya was sitting holding his feet. Prabhu was looking for an opportunity to escape from them. The future is very strong, the one who is promising, the means are also gathered for him, Vishnupriya, who was awake all night, fell asleep. She fell asleep at the feet of the Lord on the bed itself. She had been awake all night, so as soon as she fell, a deep sleep came and took hold of her.

The Lord considered this as a very good opportunity. Very slowly the Lord lifted His feet from Vishnupriya ji’s lap. Vishnupriya ji moved a bit as soon as she lifted her feet. At the same time, the Lord kept the other leg as it was on his chest and after a while, slowly raised the other leg as well. Now Vishnupriya ji did not know anything. Prabhu got down from the bed very slowly. He put on his clothes hanging on a peg nearby and once again looked at his beloved. A lamp of a faint light was flickering in front of him. As if he too is crying out of grief because of the pain of separation from the Lord. Dim light of the lamp was falling on the face of Vishnupriya ji, due to which the radiance of her face was becoming even more beautiful. The Lord hesitated once to see the moon-like face of his beloved lying in deep sleep like this.

They started thinking- ‘What kind of disaster am I doing on this innocent girl. Without informing it in its unconsciousness I am giving it up forever. This work of mine is very harsh and reprehensible.’ Then after warning himself, he started thinking – ‘I have to do such harshness for the welfare of the living beings. If I don’t become tough from one side, how will the world be benefited? How will I be able to teach the lesson of renunciation and disinterest to the living beings who are bound in Maya? People will be able to get the education of renunciation and disinterest through this work of mine.

Thinking this much, he came out of the bed-room blessing Vishnupriya ji in his mind. Sachimata was crying faintly at the door. Where is the sleep in their eyes? She was taking a dip in the ocean of grief in the form of son-disappearance. Sometimes she used to jump up and sometimes she used to dive into the water. The Lord prostrated at the feet of the sorrowful mother who was lying unconscious. Gently picked up the dust from her feet and put it on her head, then did her circumambulation and prayed in her heart – ‘O Mother! You took a lot of trouble for me. Made me so big by feeding, educating and writing. Still I could not serve you in any way. Mother! I will be indebted to you for many births, I will never be able to get rid of your debt.’ Having said this, he quickly went out of the door and ran to the banks of the Ganges.

Those were the days of winter, the days when Lord Vishwarup had left home and the same ghat where the boat could be found at that time. Vishwaroop ji also crossed Ganga ji by swimming with his hands. Prabhu also decided to follow the path of his elder brother. Standing on the ghat, he turned back and once again had the last darshan of Navadweep city. With folded hands, they started saying in a loud voice – ‘O night full of stars! You are the witness of my abandonment. O ten directions! You see me going out of the house. Hey religion! You are the one who understands all my efforts. I am leaving home and times for the welfare of living beings.

O maintainer of the universe! I am leaving my old mother and young wife on your support. Your name is Vishwambhar. You take care of all living beings and will continue to do so. That’s why I am going with certainty.’ Saying this, the Lord once bowed down to Navadvipa city and then to Bhagwati Bhagirathi and quickly jumped into the flowing flow of cool water of Ganga ji and swam across. In the same way, he reached Katwa (Kantak city) Keshav Bharti’s ashram on the banks of the Ganges with wet clothes. The merciless Ghat who crossed both the brothers of the world and the world and separated them from the men and women of Nabadwip for ever, is still showing its folk-famous cruelty by being famous as ‘Nirday Ghat’ in Navadwip.

respectively next post [80] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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