।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
भक्तों की लीलाएँ
तत्तद्भावानुमाधुर्य्ये श्रुते धीर्यदपेक्षते ।
नात्र शास्त्रं न युक्तिंच तल्लोभोत्पत्तिलक्षणम् ।।
प्रकृति से परे जो भाव हैं, उन्हें शास्त्रों में अचिन्त्य बताया गया है! वहाँ जीवों की साधारण प्राकृतिक बुद्धि से काम नहीं चलता, उन भावों में अपनी युक्ति लड़ाना व्यर्थ-सा ही है। यह तो प्रकृति के परे के भावों की बात हैं बहुत-सी प्राकृतिक घटनाएँ भी ऐसी होती हैं, जिनके सम्बन्ध में मनुष्य ठीक-ठीक कुछ कह ही नहीं सकता। क्योंकि कोई मनुष्य पूर्ण नहीं है। पूर्ण तो वही एकमात्र परमात्मा है। मनुष्य की बुद्धि सीमित और संकुचित है। जितनी ही जिसकी बुद्धि होगी, वह उतना ही अधिक सोच सकेगा। तर्क की कसौटी पर कसकर किसी बात की सत्यता सिद्ध नहीं हो सकती। किसी बात को किसी ने तर्क से सत्य सिद्ध कर दिया, किंतु उसी को उससे बड़ा तार्किक एकदम खण्डन कर सकता है। अत: इसमें श्रद्धा ही मुख्य कारण है; जिस स्थान पर जिसकी जैसी भी श्रद्धा जम गयी, उसे वहाँ सत्य और ठीक मालूम पडने लगा। रागानुगा भक्ति की उत्पत्ति हो जाने पर मनुष्य को अपने इष्ट की लीलाओं के प्रति लोभ उत्पन्न हो जाता है। लोभी अपने कार्य के सामने विघ्न-बाधाओं की परवा ही नहीं करता। वह तो आँख मूँदे चुप-चाप बढा़ ही चलता है।
भक्तों की श्रद्धा में और साधारण लोगों की श्रद्धा में आकाश-पाताल का अन्तर है, भक्तों को जिन बातों में कभी शंका का ध्यान तक भी नहीं होता, उन्हीं बातों को साधारण लोग ढोंग, पाखण्ड, झूठ अथवा अर्थवाद कहकर उसकी उपेक्षा कर देते हैं। वे करते रहें, भक्तों को इससे क्या? जब वे शास्त्र और युक्तियों तक की अपेक्षा नहीं रखते तब साधारण लोगों की उपेक्षा की ही परवा क्यों करने लगे। महाप्रभु के संकीर्तन के समय भी भक्तों को बहुत-सी अद्भुत घटनाएं दिखायी देती थीं, जिनमें से दो-चार नीचे दी जाती हैं।
एक दिन प्रभु ने श्रीवास के घर संकीर्तन के पश्चात आम की एक गुठली को लेकर आंगन में गाड़ दिया। देखते-ही-देखते उसमें से अकुंर उत्पन्न हो गया और कुछ ही क्षण में वह अकुंर बढ़कर पूरा वृक्ष बन गया। भक्तों ने आश्चर्य के सहित उस वृक्ष को देखा। उसी समय उस पर फल भी दीखने लगे और वे बात-की-बात में पके हुए-से दीखने लगे। प्रभु ने उन सभी फलों को तोड़ लिया और सभी भक्तों को एक-एक बांट दिया। आमों को देखने से ही तबीयत प्रसन्न होती थी, बड़े-बड़े़ सिंदूरिया-रंग के वे आम भक्तों के चित्तों को स्वत: ही अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे। उनमें से दिव्य गन्ध निकल रही थी।
भक्तों ने उनको प्रभु का प्रसाद समझकर प्रेम से पाया। उन आमों में न तो गुठली थी, न छिलका। बस, चारों ओर ओतप्रोत भाव से अद्भुत माधुर्यमय रस-ही-रस भरा था। एक आम के खाने से ही पेट भर जाता, फिर भक्तों को अन्य कोई वस्तु खाने की अपेक्षा नहीं रहती। रहना भी न चाहिये, जब प्रेम-वाटिका के सुचतुर माली महाप्रभु गौरांग के हाथ से लगाये हुए वृक्ष का भक्ति-रस से भरा हुआ आम खा लिया, तब इन सांसारिक खाद्य-पदार्थो की आवश्यकता ही क्या रहती है? इस प्रकार यह आम्र-महोत्सव श्रीवास के घर बारहों महीने होता था, किंतु जिसे इस बात का विश्वास नहीं होता, ऐसे अभक्त को उस आम्र के दर्शन भी नहीं होते थे, मिलना तो दूर रहा। आज तक भी नवद्वीप में एक स्थान आम्रघट्ट या आम्र घाटा नाम से प्रसिद्ध होकर उन आमों का स्मरण दिला रहा है। उन सुन्दर सुस्वादु और दर्शनीय तथा बिना गुठली-छिलका के आमों के स्मरण से हमारे तो मुंह में सचमुच में पानी भर आया।
एक दिन संकीर्तन के समय मेघ आने लगे। आकाश में बड़े-बड़े़ बादल आकर चारों ओर घिर गये। असमय में आकाश को मेघाच्छन्न देखकर भक्त कुछ भयभीत-से हुए। उन्होंने समझा सम्भव है, मेघ हमारे इस संकीर्तन के आनन्द में विघ्न उपस्थित करें। प्रभु ने भक्तों को समझकर उसी समय एक हुंकार मारी। प्रभु के हुंकार सुनते ही मेघ इधर-उधर हट गये और आकाश बिलकुल साफ हो गया।
अब एक घटना ऐसी है, जिसे सुनकर सभी संसारी प्राणी क्या अच्छे-अच्छे परमार्थ-मार्ग के पथिक भी आश्चर्यचकित हो जायँगे। इस घटना से पाठकों को पता चल जाएगा कि भगवद्भक्ति में कितना माधुर्य है। जिसे भगवत्कृपा का अनुभव होने लगा है, ऐसे अनन्य भक्त के लिये माता-पिता, दारा-पुत्र तथा अन्यान्य सभी बन्धु-बान्धवों के प्रति तनिक भी मोह नहीं रह जाता। वह अपने इष्टदेव को ही सर्वस्व समझता है!
इष्टदेव की प्रसन्नता में ही उसे प्रसन्नता है, वह अपने आराध्यदेव की प्रसन्नता के निमित्त सबका त्याग कर सकता है। दुष्कर-से-दुष्कर समझे जाने वाले कार्य को प्रसन्नतापूर्वक कर सकता है।
एक दिन सभी भक्त मिलकर श्रीवास के आंगन में प्रेम के सहित संकीर्तन कर रहे थे। उस दिन न जाने क्यों, सभी भक्त संकीर्तन में एक प्रकार के अलौकिक आनन्द का अनुभव करने लगे। सभी भक्त नाना वाद्यों के सहित प्रेम में विभोर हुए शरीर की सुधि भुलाकर नृत्य कर रहे थे। इतने ही में प्रभु भी संकीर्तन में आकर सम्मिलित हो गये।
प्रभु के संकीर्तन में आ जाने से भक्तों का आनन्द और भी अधिक बढ़ने लगा। प्रभु भी सब कुछ भूलकर भक्तों के सहित नृत्य करने लगे। प्रभुके पीछे-पीछे श्रीवास भी नृत्य कर रहे थे। इतने में ही एक दासी ने धीरे से आकर श्रीवास को भीतर चलने का संकेत किया। दासी के संकेत को समझकर श्रीवास भीतर चले गये। भीतर उनका बच्चा बीमार पड़ा हुआ था। उनकी स्त्री बच्चे की सेवा-शुश्रूषा में लगी हुई थी। शचीमाता भी वहाँ उपस्थित थी। बच्चे की दशा अत्यन्त ही शोचनीय थी। श्रीवास ने बच्चे की छाती पर हाथ रखा, फिर उसकी नाड़ी देखी और अन्त में उस बच्चे के मुंह की ओर देखने लगे। श्रीवास को पता चला गया कि बच्चा अन्तिम सांस ले रहा है। बच्चे की ऐसी दशा देखकर घर की सभी स्त्रियाँ घबड़ाने लगीं। श्रीवास जी ने उन सबको धैर्य बंधाया और वे उसी तरह बच्चे के सिराहने बैठकर उसके सिर पर हाथ फेरने लगे। थोड़ी ही देर में श्रीवास ने देखा, बच्चा अब सांस नहीं ले रहा है। उसके प्राण-पखेरू इस नश्वर शरीर को त्यागकर किसी अज्ञात लोक में चले गये हैं। यह देखकर बच्चे की माँ और उसकी सभी चाची रुदन करने लगीं।
हाय! इकलौते पुत्र की मृत्यु पर माता को कितना भारी शोक होता है, इसका अनुभव कोई मनुष्य कर ही कैसे सकता है? माता का हृदय फटने लगता है। उसका शरीर नहीं रोता है, किंतु उसका अन्त:करण पिघलने लगता है, वही पिघल-पिघलकर आंसुओं के रूप में स्वत: ही बहने लगता है। उस समय उसे रोने से कौप रोक सकता है? वह बाहरी रुदन तो होता ही नहीं, वह तो अन्तर्ज्वाला की भभक होती है, जिससे उसका नवनीत के समान स्निग्ध हृदय स्वत: ही पिघल उठता है। मरे हुए अपने इकलौते पुत्र को शय्या पर पड़े देखकर माता का हृदय फटने लगा, वह जोर से चीत्कार मारकर पृथ्वी पर मूर्च्छित होकर गिर पड़ी। अपनी पत्नी को इस प्रकार पछाड़ खाते देखकर तथा घर की अन्य सभी स्त्रियोंको रुदन करते देखकर श्रीवास जी दृढ़ता के साथ उन सबको समझाते हुए कहने लगे- ‘देखना, खबरदार! किसी ने सांस भी निकाली तो फिर खैर नहीं है। देखती नहीं हो, आंगन में प्रभु नृत्य कर रहे हैं। उनके आनन्द में भंग न होना चाहिये। मुझे पुत्र के मर जाने का उतना शोक कभी नहीं हो सकता, जितना प्रभु के आनन्द में विघ्न पड़ने से होगा। यदि संकीर्तन के बीच में कोई भी रोयी तो मैं अभी गंगा जी में कूदकर प्राण दे दूँगा। मेरी इस बात को बिलकुल ठीक समझो।’
हाय! कितनी भारी कठोरता है! भक्त देवी! तेरे चरणों में कोटि-कोटि नमस्कार है। जिस प्रेम और भक्ति में इतनी भारी स्निग्धता और सरसता है, उसमें क्या इतनी भारी कठोरता भी रह सकती है? जिसका एकमात्र प्राणों से भी प्यारा, नयनों का तारा, सम्पूर्ण घर को प्रकाशित करने वाला इकलौता पुत्र मर गया हो और उसका मृत देह माता के सम्मुख ही पड़ा हो, उस माता से कहा जाता है कि तू आंसू भी नहीं बहा सकती। जोर से रोकर अपने हृदय की ज्वाला को भी कम नहीं कर सकती। कितना भारी अन्याय है, कैसी निर्दय आज्ञा है? कितनी भारी कठोरता है? किंतु भक्त को अपने इष्टदेव की प्रसन्नता के निमित्त सब कुछ करना पड़ता है। पतिपरायणा बेचारी मालिनी देवी मन मसोसकर चुप हो गयी! उसने अपनी छाती पर पत्थर रखकर कलेजे को कड़ा किया। भीतर की ज्वाला को भीतर ही रोका और आंसुओं को पोंछकर चुप हो गयी।
पत्नी के चुप हो जाने पर श्रीवास धीरे-धीरे उसे समझाने लगे- ‘इस बच्चे का इससे बढ़कर और बड़ा भारी सौभाग्य क्या हो सकता है, जो साक्षात गौरांग जब आंगन में नृत्य कर रहे हैं, तब इसने शरीर-त्याग किया है। महाप्रभु ही तो सबके स्वामी हैं। उनकी उपस्थिति में शरीर-त्याग करना क्या कम सौभाग्य की बात है?’
मालिनी देवी चुपचाप बैठी हुई पति की बातें सुन रही थीं। उसका हृदय फटा-सा जा रहा था। श्रीवास जी ने फिर एक बार दृढ़ता के साथ कहा- ‘सबको समझा देना। प्रभु जब तक नृत्य करते रहें तब तक कोई भी रोने न पावे। प्रभु के आनन्द-रस में तनिक भी विघ्न पड़ा तो इस लड़के के साथ ही मेरे इस शरीर का भी अन्त ही समझना!’ इतना कहकर श्रीवास जी फिर बाहर आंगन में आ गये और भक्तों के साथ मिलकर उसी प्रकार दोनों हाथों को ऊपर उठाकर संकीर्तन और नृत्य करने लगे।
चार घड़ी रात्रि बीतने पर बच्चे की मृत्यु हुई थी। आधी रात्रि से कुछ अधिक समय तक भक्तगण उसी प्रकार कीर्तन करते रहे, किंतु इतनी बड़ी बात और कितनी देर तक छिपी रह सकती है। धीरे-धीरे भक्तों में यह बात फैलने लगी। एक से दूसरे के कान में पहुँचती, जो भी सुनता, वही कीर्तन बंद करके चुप हो जाता। इस प्रकार धीरे-धीरे सभी भक्त चुप हो गये। ढोल-करताल आदि सभी वाद्य भी आप-से-आप ही बंद हो गये। प्रभु ने भी नृत्य बंद कर दिया। इस प्रकार कीर्तन को आप-से-आप ही बंद होते देखकर प्रभु श्रीवास की ओर देखते हुए कुछ कहने लगे- ‘पण्डित जी! आपके घर में कोई दुर्घटना तो नहीं हो गयी है? न जाने क्यों हमारा मन संकीर्तन में नहीं लग रहा है। हृदय में एक प्रकार की खलबली-सी हो रही है।’
अत्यन्त ही दीनभाव से श्रीवास पण्डित ने कहा- ‘प्रभो! जहाँ आप संकीर्तन कर रहे हों, वहाँ कोई दुर्घटना हो ही कैसे सकती है? सम्पूर्ण दुर्घटनाओं के निवारणकर्ता तो आप ही हैं। आप के सम्मुख भला दुर्घटना आ ही कैसे सकती है? आप तो मंगलस्वरूप है। आप की उपस्थिति में तो परम मंगल-ही-मंगल होने चाहिये।’
प्रभु ने दृढ़ता के साथ कहा- ‘नहीं, ठीक बताइये। मेरा मन व्याकुल हो रहा है। हृदय आप-से-आप ही निकल पड़ना चाहता है। अवश्य की कोई दुर्घटना घटित हो गयी है।’
प्रभु के इस प्रकार दृढ़ता के साथ पूछने पर श्रीवास चुप हो गये, उन्होंने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। तब धीरे से एक भक्त ने कहा- ‘प्रभो श्रीवास का इकलौता पुत्र परलोकवासी हो गया है।’
सम्भ्रम के साथ श्रीवास के मुख की ओर देखते हुए प्रभु ने चौंककर कहा- ‘हैं क्या कहा? श्रीवास के पुत्र का परलोकवास? कब हुआ? पण्डितजी! आप बतलाते क्यों नहीं? असली बात क्या है?’
श्रीवास फिर भी चुप ही रहे, तब उसी भक्त ने फिर कहा- ‘प्रभो! इस बात को तो ढाई प्रहर होने को आया। आपके आनन्द में विघ्न होगा, इसलिये श्रीवास पण्डित ने यह बात किसी पर प्रकट नहीं की।’
इतना सुनते ही प्रभु की दोनो आँखों से अश्रुओं की धारा बहने लगी। गद्गद-कण्ठ से प्रभु ने कहा- ‘श्रीवास! आपने आज श्रीकृष्ण को खरीद लिया। ओहो! इतनी भारी दृढ़ता! इकलौते मरे पुत्र को भीतर छोड़कर आप उसी प्रेम से कीर्तन कर रहे हैं। धन्य है आपकी भक्ति को और बलिहारी है आपके कृष्ण-प्रेम को। सचमुच आप-जैसे भक्तों के दर्शनों से ही कोटि जन्मों के पापों का क्षय हो जाता है, यह कहकर प्रभु फूट-फूटकर रोने लगे।
प्रभु को इस प्रकार रोते देखकर गद्गद-कण्ठ से श्रीवास पण्डित ने कहा- ‘प्रभो! मैं पुत्रशोक को तो सहन करने में समर्थ हो सकता हूँ, किंतु आपके रुदन को नहीं सह सकता। हे सम्पूर्ण प्राणियों के एकमात्र आश्रसदाता। आप अपने कमल-नयनों से अश्रु बहाकर मेरे हृदय को दु:खी न बनाइये। नाथ! मैं आपको रोते हुए नहीं देख सकता।’
इतने में ही कुछ भक्त भीतर जाकर श्रीवास पण्डित के मृत पुत्र के शरीर को आंगन में उठा लाये। प्रभु उसके सिरहाने बैठ गये और अपने कोमल कर से उसका स्पर्श करते हुए जीवित मनुष्य से जिस प्रकार पूछते हैं, उसी प्रकार पूछने लगे- ‘क्यों जीव! तुम कहाँ हो? इस शरीर को परित्याग करके क्यों चले गये?’ उस समय प्रभु के अन्तरंग भक्तों को मानो स्पष्ट सुनायी देने लगा कि वह मृत शरीर जीवित पुरुष की भाँति उत्तर दे रहा है। उसने कहा- ‘प्रभो! हम तो कर्माधीन हैं! हमारा इस शरीर में इतने ही दिन का संस्कार था। अब हम बहुत उत्तम स्थान में हैं और खूब प्रसन्न हैं।’
प्रभु ने कहा- ‘कुछ काल इस शरीर में और क्यों नहीं रहते?’
मानो जीव ने उत्तर दिया- ‘प्रभो! आप सर्वसमर्थ हैं। आप प्रारब्ध को भी मेट सकते हैं, किंतु हमारा इस शरीर में इतने ही दिन का भोग था। अब हमारी इस शरीर में रहने की इच्छा भी नहीं है, क्योंकि अब हम जहाँ हैं, वहाँ यहाँ से अधिक सुखी हैं।’
जीव का ऐसा उत्तर सुनकर सभी लोगों का शोक-मोह दूर हो गया। तब प्रभु ने श्रीवास पण्डित को सान्त्वना देते हुए कहा- ‘पण्डित जी! आप तो स्वयं सब कुछ जानते हैं। आपका इस पुत्र के साथ इतने ही दिनों का संस्कार था। अब तक आप इस एक को ही अपना पुत्र समझते थे। अब हम और श्रीपाद नित्यानन्द आपके दोनों ही पुत्र हुए। आज से हम दोनों को आप अपने सगे पुत्र ही समझें।’ प्रभु की ऐसी बात सुनकर श्रीवास प्रेम के कारण विह्वल हो गये और उनकी आँखों में से प्रेमाश्रु बहने लगे। इसके अनन्तर भक्तों ने उस मृत शरीर का विधिवत संस्कार किया।
ओहो! कितना ऊँचा आदर्श है? इकलौते पुत्र के मर जाने पर भी जिनके शरीर को संताप-पीड़ा नहीं हो सकती, क्या वे संसारी मनुष्य कहे जा सकते हैं? क्या उनकी तुलना मायाबद्ध जीव के साथ की जा सकती है? सचमुच में वे श्यामसुन्दर के सदा के सुहृद और सखा हैं। ऐसे भगवान के प्राणप्यारे भक्तों को संताप कहाँ? जिनका मन-मधुप उस मुरलीमनोहर के मुखरूपी कमल की मकरन्द मधुरिमा का पान कर चुका है, उसे फिर संसारी संतापरूपी वनवीथियों में व्यर्थ घूमने से क्या लाभ? वह तो उस अपने प्यारे की प्रेमवाटिका में विचरण करता हुआ सदा आनन्द का रसास्वादन करने में ही मस्त बना रहेगा। श्रीमद्भागवत में हरिनामक योगेश्वर ठीक ही कहा है-
भगवत उरुविक्रमाङ्घ्रिशाखा-
नखमणिचन्द्रिकया निरस्ततापे।
हृदि कथमुपसीदतां पुन: स
प्रभवति चन्द्र इवोदितेअर्कताप:।।
अर्थात भगवत-सेवा से परम सुख मिलने के कारण, उन भगवान के अरुण कोमल चरणारविन्दों के मणियों के समान, चमकीले नखों की चन्द्रमा के समान शीतल किरणों की कान्ति से एक बार जिसके हृदय के सम्पुर्ण संताप नष्ट हो चुके हों, ऐसे भक्त के हृदय में संसारी सुखों के वियोगजन्य दु:ख-संताप की स्थिति हो ही कैसे सकती है? जिस प्रकार रात्रि में चन्द्रमा के उदय होने पर सूर्य का ताप किंचिन्मात्र भी नहीं रहता, उसी प्रकार भगवत-कृपा के होने पर संसारी तापों का अत्यन्तभाव हो जाता है।
इस प्रकार भक्तों की सभी लीलाएँ अचिन्त्य हैं, वे मनुष्य की बुद्धि के बाहर की बातें हैं। जिनके ऊपर भगवत-कृपा होती है, जिन्हें भगवान ही अपना कहकर वरण कर लेते हैं, उन्हीं की किसी महापुरुष के प्रति भगवत-भावना होती है और वे ही उस अनिर्वचनीय आनन्द के रसास्वादन के अधिकारी भी बन सकते हैं। प्रभु की सभी लीला में प्रेम-ही-प्रेम भरा रहता था, क्योंकि वे प्रेम की सजीव-साकार मूर्ति ही थे।
शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी प्रभु के अनन्य भक्तों में से थे। वे कभी-कभी ऐसा अनुभव करते थे कि प्रभु की हमारे ऊपर जैसी होनी चाहिये वैसी कृपा नहीं है। उनके मनोगत भाव को समझकर प्रभु ने एक दिन उनसे कहा- ‘ब्रह्मचारी जी! कल हम तुम्हारें ही यहाँ भोजन करेंगे, हमारे लिये और श्रीपाद नित्यानन्द के लिये तुम ही कल भोजन बना रखना।’ ब्रह्मचारी जी को इस बात से हर्ष भी अत्यधिक हुआ और साथ ही दु:ख भी। हर्ष तो इसलिये हुआ कि प्रभु ने हमें भी अपनी सेवा का योग्य समझा और दु:ख इसलिये हुआ कि प्रभु कुलीन ब्राह्मण हैं, वे हमारे भिक्षुक के हाथ का भात कैसे खायेंगे? इसीलिये उन्होंने दीन-भाव से कहा- ‘प्रभो! हम तो भिक्षुक हैं, आपको भोजन कराने के योग्य नहीं हैं। नाथ! हम इतनी कृपा के सर्वथा अयोग्य हैं।’
प्रभु ने आग्रह के साथ कहा- ‘तुम चाहे मानो, चाहे मत मानो, हम तो कल तुम्हारे ही यहाँ खायेंगें। वैसे न दोगे, तो तुम्हारी थाली में से छीनकर खायेंगे।’ यह सुनकर ब्रह्मचारी जी बड़े असमंजस में पड़े। उन्होंने और भी दो-चार अन्तरंग भक्तों से इस सम्बन्ध में पूछा। भक्तों ने कहा- ‘प्रेम में नेम कैसा? प्रभु के लिये कोई नियम नहीं है। वे अनन्य भक्तों के तो जूठे अन्न को खाकर भी बड़े प्रसन्न होते हैं, आप प्रेमपूर्वक भात बनाकर प्रभु को खिलाइये।’
भक्तों की सम्मति मानकर दूसरे दिन ब्रह्मचारी जी ने बड़ी पवित्रता के साथ स्नान-संध्या–वन्दनादि करके प्रभु के लिये भोजन बनाया। इतने में ही नित्यानन्द जी के साथ गंगास्नान करके प्रभु आ गये। प्रभु ने नित्यानन्द जी के साथ बड़े ही प्रेम से भोजन पाया। भोजन करते-करते आप कहते जाते थे- इतने दिनों से दाल, भात और शाक खाते रहें हैं, किंतु आज के-जैसा स्वादिष्ट भोजन हमने जीवन भर में कभी नहीं पाया। चावल कितने स्वादिष्ट हैं। कड़ाखोल कितना बढ़िया बना है। इस प्रकार प्रशंसा करते-करते दोनों ने भोजन समाप्त किया। ब्रह्मचारी जी ने भक्तिभाव से दोनों के हाथ धुलाये। खा-पीकर दोनों ही ब्रह्मचारी जी की कुटिया की छतपर सो गये।
ब्रह्मचारी जी की कुटिया बिलकुल गंगा जी के तट पर ही थी। छत पर गंगाजी के शीतल कणों से मिली हुई ठण्डी-ठण्डी वायु आ रही थी। नित्यानन्द जी के सहित प्रभु वहाँ आसन बिछाकर लेट गये।
विजय आखरिया नामक एक भक्त प्रभु के समीप ही लेटे हुए थे। विजयकृष्ण जाति के कायस्थ थे। वे पुस्तकें लिखने का काम करते थे। उस समय छापेखाने तो थे ही नहीं। सभी पुस्तकें हाथ से ही लिखी जाती थीं।
जिनका लेख सुन्दर होता, वे पुस्तकें लिखकर ही अपना जीवन-निर्वाह करते थे। विजय भी पुस्तकें ही लिखा करते थे। प्रभु के प्रति इनके हृदय में बड़ी भक्ति थी। प्रभु भी अत्यधिक प्यार करते थे। इन्होंने प्रभु की बहुत-सी पुस्तकें लिखी थीं। सोते-ही-सोते इन्हें एक दिव्य हाथ दिखायी देने लगा। वह हाथ चिन्मय था, उसकी उंगलियों में भाँति-भाँति के दिव्य रत्न दिखायी दे रहे थे। आखरिया को उस चिन्मय हस्त के दर्शन से परम कुतूहल हुआ। वह उठकर चारों ओर देखने लगे। तब भी उन्हें वह हाथ ज्यों-का-त्यों ही प्रतीत होने लगा। वह उस अद्भुत रूप-लावण्युक्त दिव्य हस्त के दर्शन से पागल-से हो गये। प्रभु ने हंसकर पुछा- ‘विजय! क्या बात है? क्यों इधर-उधर देख रहे हो? कोई अद्भुत वस्तु दिखायी दे रही है क्या? शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी बड़े भगवत-भक्त हैं, इनके यहाँ श्रीकृष्ण सदा सशरीर विराजते हैं। तुम्हें उन्हीं के तो दर्शन नहीं हो रहे हैं?’ प्रभु की बात सुनकर विजय ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। उत्तर दें भी तो कहाँ से? उन्हें तो अपने शरीर तक का होश नहीं था, प्रभु की बातें सुनकर वह पागलों की भाँति कभी तो हंसते, कभी रोते और कभी आप ही बड़बड़ाने लगते। ब्रह्मचारी जी तथा नित्यानन्द जी ने भी उठकर उनकी ऐसी दशा देखी। वे समझ गये, प्रभु की इनकी ऊपर कृपा हो गयी है।
इस प्रकार विजय सात दिन तक इसी तरह पागलों की-सी चेष्टाएँ करते रहे। उन्हें शरीर का कुछ भी ज्ञान नहीं था। न तो कुछ खाते-पीते ही थे और न रात्रि में सोते ही थे। पागलों की तरह सदा रोते ही रहते और कभी-कभी जोरों से हंसने भी लगते। सात दिन के बाद उन्हें बाह्य ज्ञान हुआ। तब उन्होंने अन्तरंग भक्तों पर यह बात प्रकट की।
इसी प्रकार श्रीवास पण्डित के घर एक दर्जी रहता था। नित्यप्रति कीर्तन सुनते-सुनते उसकी कीर्तन में तथा महाप्रभु के चरणों में प्रगाढ़ भक्ति हो गयी। प्रभु जब भी उधर से निकलते तभी वह भक्ति-भावसहित उन्हें प्रणाम करता। एक दिन उसे भी प्रभु के दिव्यरूप के दर्शन हुए। उस अलौकिक रूप के दर्शन करके वह मुसलमान दर्जी कृतकृत्य हो गया और पागलों की तरह बाजार में कई दिन तक ‘देखा है’ ‘देखा है’ कहकर चिल्लाता फिरा।
इस प्रकार प्रभु अपने अन्तरंग भक्तों में भाँति-भाँति की प्रेम-लीलाएँ करते रहे। उनके शरणापन्न भक्तों को ही उनके ऐसे-ऐसे रूपों के दर्शन होते थे। अन्य साधारण लोगों की दृष्टि में तो वे निमाई पण्डित ही थे। बहुतों की दृष्टि में तो ढोंगी भी थे। यद्यपि उनका न तो किसी से विशेष राग था, न द्वेष, तो भी जो एकदम उन्हीं के बन जाते, उन्हें उनके दिव्य-दिव्य रूपों के दर्शन होने लगते।
भगवान के सम्बन्ध में भी यही बात कही जाती है कि भगवान के लिये सभी समान हैं, प्राणी मात्र पर वे कृपा करते हैं, किंतु जो सबका आश्रय त्यागकर एकदम उन्हीं का पल्ला पकड़ लेते हैं, उनकी वे सम्पुर्ण मन:कामनाओं को पूर्ण कर देते हैं। जैसे कल्पवृक्ष सबके लिये समान रूप से सुख देने वाला होता है, किंतु मनोवांछित फल तो वह उन्हीं लोगों को प्रदान करता है, जो उसके नीचे बैठकर उन फलों का चिन्तन करते हैं। चाहे उसके निकट ही घर बनाकर क्यों न रहो, जब तक उसकी छत्र-छाया में प्रवेश न करोगे, जब तक उसके मूल में बैठकर चिन्तन न करोगे, तब तक अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति हो ही नहीं सकती। प्रभु के पाद-पद्मों का आश्रय लेने पर ही उसकी कृपा के हम अधिकारी बन सकते हैं।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram pastimes of the devotees
That is what one’s intelligence requires when one hears the sweetness of that feeling. There is no scripture or logic here that characterizes the origin of greed
The feelings that are beyond nature, have been described as inconceivable in the scriptures! There the ordinary natural intelligence of the living beings does not work, it is futile to fight with those feelings. This is a matter of feelings beyond nature, many natural incidents also happen in relation to which man cannot say anything exactly. Because no man is perfect. He is the only God who is complete. Man’s intelligence is limited and narrow. The more intelligence one has, the more he can think. The truth of anything cannot be proved strictly on the test of logic. Someone has proved something to be true through logic, but the same can be completely refuted by a greater logician. Therefore, faith is the main reason in this; The place where whoever’s faith was established, he started to know the truth and right there. After the birth of raganuga bhakti, a man gets greedy for the pastimes of his beloved. The greedy does not care about the obstacles in front of his work. He keeps on moving silently with his eyes closed.
There is a world-wide difference between the faith of the devotees and the faith of the common people, the things in which the devotees never even have a doubt, the common people ignore them by calling them hypocrisy, hypocrisy, lies or economicism. They keep doing it, what is it to the devotees? When they don’t even expect scriptures and tips, then why did they care about the neglect of ordinary people. Devotees used to see many wonderful incidents even during the sankirtan of Mahaprabhu, two or four of which are given below.
One day after the Sankirtan at Srivas’ house, the Lord took a mango kernel and buried it in the courtyard. In no time, a sprout arose from it and in a few moments that sprout grew into a full tree. The devotees looked at that tree with wonder. At the same time, fruits also started appearing on it and they started appearing ripe. The Lord plucked all those fruits and distributed one each to all the devotees. The very sight of mangoes used to make the health happy, those big vermilion-coloured mangoes were automatically attracting the hearts of the devotees towards them. Divine smell was emanating from them.
The devotees found him with love considering it as the Prasad of the Lord. There was neither a stone nor a peel in those mangoes. Simply, all around was full of amazingly melodious juice and juice. The stomach is filled by eating only one mango, then the devotees do not expect to eat anything else. One should not even stay, when one has eaten mangoes filled with the nectar of devotion from the tree planted by Mahaprabhu Gaurang, the graceful gardener of the Garden of Love, then what is the need of these worldly foods? In this way, this mango festival used to be held for twelve months at Srivas’s house, but the devotee who did not believe in this, such a devotee could not even see that mango, let alone meet him. Even today, a place in Navadvipa known as Amraghat or Amr Ghata is reminding us of those mangoes. Our mouths literally watered at the recollection of those beautiful, delicious and sight-seeing and seedless mangoes.
One day clouds started coming at the time of sankirtan. Big clouds appeared in the sky and surrounded everyone. Seeing the sky covered with clouds at untimely times, the devotees were somewhat frightened. He understood that it is possible that the clouds may present obstacles in the joy of our Sankirtan. Understanding the devotees, the Lord shouted at the same time. On hearing the roar of the Lord, the clouds moved away and the sky became completely clear.
Now there is such an incident, listening to which all the worldly beings, even the good pilgrims of the path of God will be surprised. From this incident the readers will come to know that there is so much sweetness in Bhagavad Bhakti. For such an exclusive devotee who has begun to experience the grace of the Lord, there is not even an iota of attachment towards parents, sons and brothers and all other relatives. He considers his God as everything!
He is happy only in the happiness of God, he can sacrifice everything for the happiness of his Aaradhyadev. He can happily do what is considered to be the most difficult task. One day all the devotees together were doing sankirtan with love in the courtyard of Shrivas. That day, for some unknown reason, all the devotees started experiencing a kind of supernatural joy in the sankirtan. All the devotees were dancing with the help of various instruments, forgetting the thought of their bodies, immersed in love. In the meantime, the Lord also joined in the sankirtan.
The joy of the devotees started increasing even more after the Lord came in the sankirtan. Forgetting everything, the Lord also started dancing along with the devotees. Shrivas were also dancing behind the Lord. Meanwhile, a maid came slowly and signaled Shrivas to walk inside. Understanding the signal of the maid, Srivas went inside. His child was lying sick inside. His wife was engaged in the service and care of the child. Sachimata was also present there. The condition of the child was very pathetic. Srivas put his hand on the child’s chest, then checked his pulse and finally looked at the child’s face. Srivas came to know that the child was taking his last breath. Seeing such condition of the child, all the women of the house started to panic. Shrivas ji gave patience to all of them and in the same way they sat at the head of the child and started patting his head. In a short while Shrivas saw, the child is not breathing now. His life-birds have left this mortal body and gone to some unknown world. Seeing this, the child’s mother and all her aunts started crying.
Oh! How can any human being experience the immense grief that a mother goes through on the death of her only son? Mother’s heart starts bursting. His body does not cry, but his conscience starts melting, the same melts and starts flowing automatically in the form of tears. Who can stop him from crying at that time? It is not an external cry at all, it is the burning of the inner flame, due to which his heart, as auspicious as Navneet, automatically melts. Seeing her only son lying dead on the bed, the mother’s heart started bursting, she screamed loudly and fell unconscious on the earth. Seeing his wife being defeated in this way and seeing all the other women of the house crying, Shreevas ji started convincing them all with firmness – ‘Look, be careful! Even if someone exhales, then it is not good. Don’t you see, the Lord is dancing in the courtyard. His joy should not be disturbed. I can never grieve as much for the death of my son as for the disturbance in the joy of the Lord. If anyone cries in the middle of the Sankirtan, I will die right now by jumping into Ganga ji. Take my words quite well.’
Oh! What a heavy hardness! Devotee Goddess! Millions of salutations at your feet. In the love and devotion which has so much sweetness and sweetness, can there be so much harshness in it? Whose only son, who is dearer than life, the star of eyes, the only son who illuminates the whole house, has died and his dead body is lying in front of the mother, it is said to that mother that you cannot even shed tears. Crying loudly cannot even reduce the flame of her heart. What a grave injustice, what a cruel commandment! How heavy is hardness? But the devotee has to do everything for the pleasure of his presiding deity. Patiparayana poor Malini Devi became silent by heart! He hardened his heart by keeping a stone on his chest. Stopped the inner flame inside and became silent after wiping the tears.
When the wife became silent, Shrivas slowly began to explain to her – ‘ What can be a greater good fortune for this child, who has left his body when Gauranga is dancing in the courtyard. Mahaprabhu is the master of all. Is it less fortunate to die in his presence?’ Malini Devi was sitting quietly listening to her husband’s words. His heart was bursting. Shrivas ji once again said with firmness – ‘ Make everyone understand. As long as the Lord continues to dance, no one should be able to cry. If there is even a slight disturbance in the joy of the Lord, consider this boy as well as the end of this body of mine!’ Saying this, Shrivas ji again came out in the courtyard and joined the devotees in the same way by raising both hands and chanting. Started dancing.
The child died after four hours of the night. The devotees continued to chant in the same way for a little more than midnight, but for how long such a big thing can remain hidden. Slowly this thing started spreading among the devotees. It reached the ear of one to another, whoever heard it, stopped the kirtan and became silent. In this way gradually all the devotees became silent. All the instruments like Dhol-Kartal etc. also stopped automatically. Prabhu also stopped dancing. In this way, seeing the kirtan coming to an end on its own, looking at Lord Shrivas, he started saying something – ‘Pandit ji! Has there been any accident in your house? Don’t know why our mind is not engaged in chanting. There is a kind of disturbance in the heart.
Shrivas Pandit said with great humility – ‘ Lord! How can any accident happen where you are doing sankirtana? You are the remover of all accidents. How can an accident happen in front of you? You are auspicious. In your presence there should be ultimate auspiciousness.’ The Lord said with firmness – ‘ No, tell it right. My mind is getting restless. The heart wants to get out of itself. Some accident must have happened.’
Srivas became silent when the Lord asked with such firmness, he did not answer anything. Then slowly a devotee said- ‘The only son of Prabho Shrivas has become a resident of the hereafter.’ Looking at Shrivas’s face with confusion, the Lord said in surprise – ‘What did you say? The other world of the son of Shrivas? when did it happen? Panditji! Why don’t you tell? What is the real thing? Srivas still remained silent, then the same devotee again said – ‘Lord! This thing came to be two and a half hours. There will be disturbance in your happiness, so Shrivas Pandit did not reveal this thing to anyone.
On hearing this, tears started flowing from both the eyes of the Lord. The Lord said in Gadgad-Kanth – ‘Shrivas! You have bought Shri Krishna today. Ooh! Such great persistence! Leaving the only dead son inside, you are doing kirtan with the same love. Blessed is your devotion and sacrificial is your Krishna-love. Truly the sins of crores of births are destroyed by seeing devotees like you, saying this the Lord started crying bitterly. Seeing the Lord crying like this, Shrivas Pandit said with gadgad – ‘ Lord! I may be able to bear the bereavement of a son, but I cannot bear your crying. O the only provider of all beings. Don’t make my heart sad by shedding tears from your lotus eyes. God! I can’t see you crying.’
Meanwhile, some devotees went inside and brought the body of the dead son of Srivasa Pandit to the courtyard. The Lord sat at his head and touching him with His gentle hand, started asking in the same way as he asks a living man – ‘Why Jeev? where are you? Why did you go away leaving this body?’ At that time the intimate devotees of the Lord could clearly hear that the dead body was answering like a living man. He said – ‘Lord! We are dependent on our actions! We had the sanskars of only so many days in this body. Now we are in a very good place and very happy.
The Lord said- ‘Why don’t you stay in this body for some time?’ As if the creature replied – ‘ Lord! You are omnipotent. You can erase the destiny too, but we had only this many days of enjoyment in this body. Now we don’t even want to live in this body, because where we are now, we are happier than here.’ Hearing such an answer from the creature, all the people’s grief and fascination went away. Then the Lord consoled Shrivas Pandit and said – ‘Pandit ji! You yourself know everything. You had rituals with this son for so many days. Till now you considered only this one as your son. Now we and Shripad Nityananda are both your sons. From today onwards, consider both of us as your own sons.’ Hearing such words of the Lord, Shrivas became overwhelmed with love and tears of love started flowing from his eyes. After this, the devotees duly cremated that dead body.
Ooh! How high is the ideal? Even after the death of the only son, whose body does not suffer pain, can they be called a worldly man? Can He be compared with an illusory soul? In fact, he is Shyamsundar’s eternal friend and friend. Where is the anger of such dear devotees of God? Whose mind-honey has drunk the sweetness of the nectar of the lotus in the face of that Muralimnohar, then what is the use of roaming around in vain in the forests of worldly sorrows? He will always remain engrossed in relishing the bliss while wandering in the garden of his beloved. Harinam Yogeshwar has rightly said in Shrimad Bhagwat-
Bhagavat Uruvikramaanghrishakha- In the heat rejected by the nail-beaded moon. How could he be satisfied in his heart again The heat of the rising sun shines like the moon
That is, due to the ultimate happiness in the service of God, in the heart of such a devotee, whose heart’s sorrows have been destroyed once by the radiance of the moon-like cool rays of the soft feet of that God, How can there be a state of sorrow and anguish due to separation from worldly pleasures? Just as when the moon rises in the night, the heat of the sun does not remain even a little bit, in the same way, due to the grace of God, worldly heat becomes extreme.
Thus all the pastimes of the devotees are inconceivable, they are beyond the understanding of man. Those who are blessed by God, who are chosen by God as their own, only they have feelings of God towards a great man and only they can become entitled to taste that indescribable joy. All the pastimes of the Lord were filled with love and love, because he was the living embodiment of love.
Shuklamber Brahmachari was one of the exclusive devotees of the Lord. Sometimes they used to feel that the Lord is not as kind to us as it should be. Understanding his occult feelings, the Lord said to him one day – ‘Brahmachari ji! Tomorrow we will have food at your place, prepare food for us and Shripad Nityananda tomorrow.’ Brahmachari ji was very happy and sad at the same time. We were happy because the Lord considered us worthy of his service and sad because the Lord is a noble Brahmin, how will he eat rice from the hands of our beggar? That’s why he humbly said – ‘Lord! We are beggars, we are not eligible to feed you. God! We are totally unworthy of such kindness.
The Lord said with insistence – ‘Whether you believe it or not, we will eat at your place tomorrow. If you don’t give it anyway, they will snatch it from your plate and eat it.’ Brahmachari ji was very confused after hearing this. He also asked two to four intimate devotees about this. Devotees said- ‘How is the name in love? There is no rule for the Lord. They are very happy even after eating fake food of exclusive devotees, you make rice with love and feed it to the Lord. Following the advice of the devotees, on the second day, Brahmachari ji prepared food for the Lord after taking bath-sandhya-vandanadi with great purity. In the meantime, the Lord came after bathing in the Ganges with Nityanand ji. Prabhu ate food with Nityanand ji with great love. While having food, you used to say – for so many days we have been eating pulses, rice and vegetables, but we have never had food as tasty as today. Rice is so delicious. How nicely the kadakhol is made. While praising in this way, both of them finished their meal. Brahmachari ji washed the hands of both with devotion. After eating and drinking both of them slept on the roof of Brahmachari ji’s hut.
Brahmachari ji’s cottage was exactly on the banks of Ganga ji. Cool air mixed with the cool particles of Gangaji was coming on the roof. Along with Nityanand ji, Prabhu lay down there by spreading the seat. A devotee named Vijay Akharia was lying near the Lord. Vijaykrishna was a Kayastha by caste. He used to write books. At that time there were no printing presses. All the books were written by hand.
Those whose writing was beautiful, they used to live their life only by writing books. Vijay also used to write books. He had great devotion towards the Lord in his heart. The Lord also loved very much. He had written many books of Prabhu. While sleeping, he started seeing a divine hand. That hand was shining, different types of divine gems were visible in its fingers. At last, seeing that beautiful hand, I was very curious. He got up and started looking around. Even then, that hand seemed to him to be the same. He became mad at the sight of that wonderful divine hand. The Lord smiled and asked – ‘Victory! What is the matter? Why are you looking here and there? Are you seeing something amazing? Shuklamber Brahmachari is a great devotee of Bhagwat, Shri Krishna always resides physically at his place. You are not seeing him, are you?’ Vijay did not answer anything after listening to the Lord. Even if you answer, from where? He was not even conscious of his body, listening to the words of the Lord, he would sometimes laugh like a madman, sometimes cry and sometimes he would start babbling. Brahmachari ji and Nityanand ji also got up and saw his condition. They understood that God has blessed them.
In this way, for seven days, Vijay kept trying like a madman. He had no knowledge of the body. Neither used to eat or drink anything nor used to sleep at night. Always used to cry like mad and sometimes started laughing out loud. After seven days he got external knowledge. Then he revealed this to the intimate devotees.
Similarly, a tailor used to live in the house of Shrivas Pandit. While listening to kirtan daily, he developed deep devotion in his kirtan and at the feet of Mahaprabhu. Whenever the Lord came out from there, he used to bow down to him with devotion. One day he also saw the divine form of the Lord. Seeing that supernatural form, that Muslim tailor became a workman and went around the market like a madman shouting ‘dekha hai’, ‘dekha hai’ for many days.
In this way the Lord continued to perform various love pastimes in His intimate devotees. Only his devotees who took refuge in him used to see such and such forms of his. In the eyes of other ordinary people, he was a Nimai Pandit. In the eyes of many, he was also a hypocrite. Although he had neither special attachment nor hatred towards anyone, yet those who became totally his, would see his divine forms.
The same thing is said in relation to God that everyone is equal for God, He shows mercy only to the living beings, but those who leave everyone’s shelter and take care of Him completely, He fulfills all their wishes. . Just as the Kalpavriksha gives happiness to everyone equally, but it bestows the desired fruits only to those people who sit under it and think of those fruits. Even if you live near it by building a house, unless you enter under its shadow, unless you meditate sitting in its core, the desired thing cannot be achieved. We can become entitled to His grace only by taking shelter of the feet of the Lord.
respectively next post [74] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]