।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
नवानुराग और गोपी-भाव
क्वचिदुत्पुलकस्तूष्णीमास्ते संस्पर्शनिर्वृत:।
अस्पन्दप्रणयानन्दसलिलामीलितेक्षण:।।
आसीन: पर्यटन्नश्नञ्शयान: प्रपिबन् ब्रुवन्।
नानुसंधत्त एतानि गोविन्दपरिरम्भित:।।
महाप्रभु जब से गया से लौटकर आये थे, तभी से सदा प्रेम में छके-से, बाह्य-ज्ञानशून्य-से तथा बेसुध-से बने रहते थे! किंतु भक्तों के साथ संकीर्तन करने में उन्हें अत्यधिक आनन्द आता। कीर्तन में वे सब कुछ भूल जाते। जहाँ उनके कानों में संकीर्तन की सुमधुर ध्वनि सुनायी पड़ी कि उनका मन उन्मत्त होकर नृत्य करने लगता। संकीर्तन के वाद्यों को सुनते ही उनके रोम-रोम खिल जाते और वे भावावेश में आकर रात्रिभर अखण्ड नृत्य करते रहते। न शरीर की सुधि और न बाहरी जगत का बोध; बस, उनका शरीर यन्त्र की तरह घूमता रहता। इससे भक्तों के भी आनन्द का पारावार नहीं रहता। वे भी प्रभु के सुखकारी मधुर नृत्य के साथ नाचने लगते। इस प्रकार बारह-तेरह महीने तक प्रभु बराबर भक्तों को लेकर कथा-कीर्तन में कालयापन करते रहे।
काजी के उद्धार के अनन्तर प्रभु की प्रकृति में एकदम परिवर्तन दिखायी देने लगा। अब उनका चित्त संकीर्तन में नहीं लगता था। भक्त ही मिलकर कीर्तन किया करते थे। प्रभु संकीर्तन में सम्मिलित भी नहीं होते थे। कभी-कभी वैसे ही संकीर्तन के बीच में चले आते और कभी-कभी भक्तों के आग्रह से कीर्तन करने भी लगते, किंतु अब उनका मन किसी दूसरी ही वस्तु के लिये तड़पता रहता था। उस तड़पन के सम्मुख उनका मन संकीर्तन के ताल-स्वर के सहित नृत्य करने के लिये साफ इनकार कर देता था।
अब प्रभु पहले की तरह भक्तों के साथ घुल-घुलकर प्रेम की बातें नहीं किया करते। अब तो उनकी विचित्र दशा थी। कभी तो वे अपने-आप ही रुदन करने लगते और कभी स्वयं ही खिलखिलाकर हंस पड़ते। कभी रोते-रोते कहने लगते-
हे नाथ हे रामनाथ व्रजनाथार्तिनाशन।
मग्नमुद्धर गोविन्द गोकुलं वृजिनार्णवात्।।
‘हे नाथ! हे रामनाथ! हे व्रजनाथ! हे गोविन्द! दु:खसागर में डूबे हुए इस व्रज का तुम्हीं उद्धार करो। हे दीनानाथ! हे दु:खितों के एकमात्र आश्रय! हमारी रक्षा करो।’
कभी राधा-भाव में भावित होकर रुदन करने लगते, कभी एकान्त में अपने कोमल कपोल को हथेली पर रखकर अन्यमनस्क भाव से अश्रु ही बहाते रहते। कभी राधा-भाव में आप कहने लगते- ‘हे कृष्ण! तुम इतने निष्ठुर हो, मैं नहीं जानती थी। मैं रास में तुम्हारी मीठी-मीठी बातों से छली गयी। मुझ भोली-भाली अबला को तुम इस प्रकार धोखा दोगे, इसका मुझे क्या पता था? हाय! मेरी बुद्धिपर तब न जाने क्यों पत्थर पड़ गये के मैं तुम्हारी उन मीठी-मीठी बातों में आ गयी। कहाँ तुम अखिल ऐश्वर्य के स्वामी और कहाँ मैं एक वन में रहने वाले ग्वाल की लड़की। तुमसे अनजान में स्नेह किया। हा प्राणनाथ! ये प्राण तो तुम्हारे ही अर्पण हो चुके हैं। ये तो सदा तुम्हारे ही साथ रहेंगे, फिर यह शरीर चाहे कहीं भी पड़ा रहे। प्यारे! तुम कोमल हृदय के हो, सरस हो, सरस हो, सुन्दर हो, फिर तुम मेरे लिये कठोर हृदय के निष्ठुर और वक्र स्वभाव वाले क्यों बन गये हो? मुझे इस प्रकार की विरह-वेदना पहुँचाने में तुम्हें क्या मजा मिलता है?’ इस प्रकार घंटों प्रलाप करते रहते!
कभी अक्रूर वृन्दावन में श्रीकृष्ण को लेने के लिये आये हैं और गोपियाँ भगवान के विरह में रुदन कर रही हैं। इसी भाव को स्मरण करके आप गोपी-भाव से कहने लगते- ‘हाय देव! तूने क्या किया? हमारे प्राणप्यारे, हमारे सम्पूर्ण व्रज के दुलारे मनमोहन को तू हमसे पृथक क्यों कर रहा है? ओ निर्दयी विधाता! तेरी इस खोटी बुद्धि को बार-बार धिक्कार है, जो तू इस प्रकार प्रेमियों का मिलाकर फिर उन्हें विरह-सागर में डुबा-डुबाकर बुरी तरह से तड़पाता रहता है!
हाय! प्यारे कृष्ण! अब चले ही जायंगे क्या? क्या अब वह मुरली की मनोहर तान सुनने को न मिलेगी? क्या अब उस पीताम्बर की छटा दिखायी न पड़ेगी? क्या अब मोहन के मनोहर मुख को देखकर हम सम्पूर्ण दिन के दु:ख-संतापों को न भुला सकेंगी? क्या अब कृष्ण हमारे घर में माखन खाने न आवेंगे? क्या अब सांवरे की सलोनी सूरत को देखकर सुख के सागर में आनन्द की डुबकियां न लगा सकेंगी? यह क्रूरकर्मा अक्रूर कहाँ से आ गया? इसका ऐसा उलटा नाम किसने रख दिया। जो हमसे हमारे प्राणप्यारे को अलग करेगा, उसे अक्रूर कौन कह सकता है? वह तो महाक्रूर है या यह सब विधाता की ही क्रूरता है! बेचारे अक्रूर का इसमें क्या दोष?’ ऐसा कह-कहकर वे जोरों से चिल्लाते लगते।
कभी श्रीकृष्ण के भाव में होकर गोपों के साथ व्रज की लीलाओं का अनुकरण करने लगते। कभी प्रह्लाद के आवेश में आकर दैत्य-बालकों को शिक्षा देने का अनुकरण करके पास में बैठे हुए भक्तों को भगवन्नाम-स्मरण और कीर्तन का उपदेश करने लगते। कभी ध्रुव का स्मरण करके उन्हीं के भाव में एक पैर से खडे़ होकर तपस्या-सी करने लगते। फिर कभी विरहिणी की दशा का अभिनय करने लगते। एकदम उदास बन जाते। हाथों के नखों से पृथ्वी को कुरेदने लगते। भक्त तो अहिंसा-प्रिय, शान्त और प्राणिमात्र पर दया करने वाले होते हैं।
शचीमाता इनकी ऐसी दशा देखकर बड़ी दु:खी होतीं। वे पुत्र की मंगलकामना के निमित्त सभी देवी-देवताओं की पूजा करतीं। इसे कोई रोग समझकर वैद्यों से परामर्श करतीं। भक्तों से अत्यन्त ही दीन-भाव से कहतीं- ‘न जाने निमाई को क्या हो गया है, अब वह पहले की भाँति कीर्तन भी नहीं करता और न किसी से हंसता-बोलता ही है। उसे हो क्या गया? तुम लोग उसका इलाज क्यों नहीं कराते। किसी वैद्य को दिखाओ?’
बेचारे भक्त भोली-भाली माता की इन सीधी-सरल मातृस्नेह से सनी हुई बातों को सुनकर हंसने लगते। वे मन-ही-मन कहते- ‘जगत की चिकित्सा तो ये करते हैं, इनकी चिकित्सा कौन कर सकता है? इनके रोग की दवा तो आज तक किसी वैद्य ने बनायी ही नहीं और न कोई संसारी वैद्य बना ही सकता है। इनकी ये ही जानते हैं! साँवलिया ही इनकी नाड़ी पकडे़गा तब ये हंसने लगेंगे।’ वे माता को भाँति-भाँति से समझाते, किंतु माता की समझ में एक भी बात नहीं आती। वह सदा अधीर-सी बनी रहतीं।
एक दिन महाप्रभु भावावेश में जोरों से ‘गोपी-गोपी’ कहकर रुदन कर रहे थे। वे गोपी-भाव में ऐसे विभोर हुए कि उनके मुख से ‘गोपी-गापी’ इस शब्द के अतिरिक्त कोई दूसरा शब्द निकलता ही नहीं था। उसी समय एक प्रतिष्ठित छात्र इनके समीप इनके दर्शन के लिये आये। वे महाप्रभु के साथ कुछ काल तक पड़े भी थे। वैसे तो शास्त्रीय विद्या में पूर्ण पारंगत पण्डित समझे जाते थे, किंतु भक्ति-भाव में कोरे थे। प्रेम-मार्ग का उन्हें पता नहीं था। प्रभु तो उस समय बाह्य-ज्ञान-शून्य थे, उन्हें भावावेश में पता ही नहीं था कि कौन हमारे पास आया और हमारे पास से उठ गया। उन विद्याभिमानी छात्र ने महाप्रभु की ऐसी अवस्था देखकर कुछ गर्वित भाव से कहा- ‘पण्डित होकर आप यह क्या अशास्त्रीय व्यवहार कर रहे हैं?’ ‘गोपी-गोपी’ कहने से क्या लाभ? कृष्ण-कृष्ण कहो, जिससे उद्धार हो और शास्त्र की मर्यादा भी भंग न हो।’
महाप्रभु को उस समय कुछ भी पता नहीं था कि यह कौन है। भावावेश में उन्होंने यही समझा कि यह भी कोई उद्धव के समान श्याम सुन्दर का सखा है और हमें धोखे में डालने के लिये आया है। इससे प्रभु को उसके ऊपर क्रोध आ गया और एक बड़ा-सा बांस लेकर उसके पीछे मारने के लिये दौडे़। विद्याभिमानी छात्र महाशय अपना सभी शास्त्रीय ज्ञान भूल गये और अपनी जान बचाकर वहाँ से भागे।
महाप्रभु भी उनके पीछे-ही-पीछे उन्हें पकड़ने के लिये दौडे़। प्रहार के भय से छात्र महोदय मुट्ठी बांधकर भागे। कन्धे पर का दुपट्टा गिर गया। बगल में से पोथी निकल पड़ी। हांफते और चिल्लाते हुए वे जोरों से भागे जा रहे थे। लोग उन्हें इस प्रकार भागते देखकर आश्चर्य के साथ उनके भागने का कारण पूछते, कोई इनकी ऐसी दशा देखकर ठहाका मारकर हंसने लगते, किंतु ये किसी की कुछ सुनते ही नहीं थे। ‘जान बची लाखों पाये, मियां बुद्धु अपने घर आये।’
प्रभु को इस प्रकार इन छात्र महाशय के पीछे दौड़ते देखकर भक्तों ने उन्हें पकड़ लिया! प्रभु उसी भाव में मूर्च्छित होकर गिर पड़े। विद्यार्थी महो दय ने बहुत दूर भागने के अनन्तर पीछे फिरकर देखा। जब उन्होंने प्रभु को अपने पीछे आते हुए नहीं देखा तब वे खडे़ हो गये। उनकी सांसें जोरों से चल रही थी। सम्पूर्ण शरीर पसीने से लथपथ हो रहा था। अंग-प्रत्यंग से पसीने की धारें-सी बह रही थीं, लोगों ने उनकी ऐसी दशा देखकर उनसे भाँति-भाँति के प्रश्न करने आरम्भ कर दिये। किंतु ये प्रश्नों का उत्तर क्या देते? इनकी तो सांस फूली हुई थी। मुख में से बात ही नहीं निकल सकती थी। कुछ लोगों ने दयार्द्र होकर इन्हें पंखा झला और थोड़ा ठंडा पानी पिलाया। पानी पीने पर इन्हें कुछ होश हुआ, सांसें भी ठीक-ठीक चलने लगीं। तब एक ने पूछा- ‘महाशय! आपकी ऐसी दशा क्यों हूई? किसने आपको ऐसी ताड़ना दी?’
उन्होंने अपने हृदय की द्वेषाग्नि को उगलते हुए कहा- ‘अजी! क्या बताऊँ? हमने सुना था कि जगन्नाथ मिश्र का लड़का निमाई बड़ा भक्त बन गया है। वह पहले हमारे साथ पढ़ता था।’ हमने सोचा- ‘चलो, वह भक्त बन गया है, तो उसके दर्शन ही कर आवें। इसीलिये हम उसके दर्शन करने गये थे, किंतु वह भक्ति क्या जाने?’ हमने देखा, ‘वह अशास्त्रीय पद्धति से ‘गोपी-गोपी’ चिल्ला रहा है।’ हमने कहा- ‘भाई! तुम पढे़-लिखे होकर ऐसा शास्त्रविरुद्ध काम क्यों कर रहे हो।’ बस, इतने पर ही उसने आव गिना न ताव लट्ठ लेकर जंगलियों की तरह हमारे ऊपर टूट पड़ा। यदि हम जान लेकर वहाँ से भागते नहीं, तो वह तो हमारा वहीं काम तमाम कर डालता। इसी का नाम भक्ति है? इसका नाम तो क्रूरता है। क्रूर हिंसक व्याध ही ऐसा व्यवहार करते हैं। भक्त तो अहिंसा-प्रिय, शान्त और प्राणिमात्र पर दया करने वाले होते हैं।
उनके मुख से ऐसी बातें सुनकर कुछ हंसने वाले तो धीरे से कहने लगे- ‘पण्डित जी! थोड़ा-सा और भी उपदेश क्यों नहीं किया?’ कुछ हंसते हुए कहते- ‘पण्डित जी! उपदेश की दक्षिणा तो बड़ी सख्त मिली। घाटे में रहे। क्यों ठीक है न, चलो, खैर हुई बच आये। अब सवा रूपये का प्रसाद जरूर बांटना।’
कुछ ईर्ष्या रखने वाले खल पुरुष अपनी छिपी हुई ईर्ष्या को प्रकट करते हुए कहने लगे- ‘ये दुष्ट और कोई भला काम थोडे़ ही करेंगे? बस, साधु-ब्राह्मणों पर प्रहार करना ही तो इन्होंने सीखा है। रात्रि में तो छिप-छिपकर न जाने क्या-क्या करते रहते हैं और दिन में साधु-ब्राह्मणों को त्रास पहुँचाते हैं। यही इनकी भक्ति है। पण्डित जी! तुम्हारे हाथ नहीं है क्या? उनके साथ दस-बीस बुद्धिहीन भक्त हैं तो तुम्हारे कहने में हजारों विद्यार्थी हैं। एक बार इन सबकी अच्छी तरह से मरम्मत क्यों नहीं करा देते। बस, तब ये सब कीर्तन-फीर्तन भूल जायंगे। जब तक इनकी नसें ढीली न होंगी, तब तक ये होश में गुस्से में दुर्वासा बने हुए उन विद्याभिमानी छात्र महाशय ने गर्जकर कहा- ‘मेरे कहने में हजारों छात्र हैं। मेरे आँख के इशारे से ही इन भक्तों में से किसी की भी हड्डी तक देखने को न मिलेगी। आप लोग कल ही देंखे, इसका परिणाम क्या होता है। कल बच्चुओं को मालूम पड़ जायगा कि ब्राह्मण के ऊपर प्रहार करने वाले की क्या दशा होती है?’
इस प्रकार वे महाशय बड़बड़ाते हुए अपनी छात्र-मण्डली में पहुँचे। छात्र तो पहले से ही महाप्रभु के उत्कर्ष को न सह सकने के कारण उनसे जले-भुने बैठे थे। उनके लिये महाप्रभुका इतना बढ़ता हुआ यश असहनीय था। उनके हृदय में महाप्रभु की देशव्यापी कीर्ति के कारण डाह उत्पन्न हो गयी थी। अब इतने बड़े योग्य विद्यार्थी के ऊपर प्रहार की बात सुनकर प्राय: दुष्ट स्वभाव के बहुत-से छात्र एकदम उत्तेजित हो उठे और उसी समय महाप्रभु के ऊपर प्रहार करने जाने के लिये उद्यत हो गये। कुछ समझदार छात्रों ने कहा- ‘भाई! इतनी जल्दी करने की कौन-सी बात है, इन पर प्रहार भी नहीं हुआ है। दो-चार दिन और देख लो। यदि उनका सचमुच में ऐसा ही व्यवहार रहा और अब से आगे किसी अन्य छात्र पर इस प्रकार प्रहार किया तब तुम लोगों को प्रहार का उत्तर प्रहार से देना चाहिये। अभी इतनी शीघ्रता नहीं करनी चाहिये।’ इस प्रकार उस समय तो छात्र शान्त हो गये। किंतु उनके प्रभु के प्रति विद्वेष के भाव बढ़ते ही गये। कुछ दुष्टबुद्धि के मायापुर-निवासी ब्राह्मण भी छात्रों के साथ मिल गये। इस प्रकार प्रभु के विरुद्ध एक प्रकार का बड़ा भारी दल ही बन गया।
भावावेश के अनन्तर प्रभु को सभी बातें मालूम हुईं। इससे उन्हें अपार दु:ख हुआ। वे घर-बार तथा इष्ट-मित्र और अपने साथी भक्तो से पहले से ही उदासीन थे। इस घटना से उनकी उदासी और भी अधिक बढ़ गयी। अब उन्हें संकीर्तन के कारण फैली हुई अपनी देशव्यापी कीर्ति काटने के लिये दौड़ती हुई-सी दिखायी देने लगी। उन्हें घर-बार, कुटुम्ब-परिवार तथा धर्मपत्नी और माता से एकदम विराग हो गया। उनका मन-मधुप अब घिरी हुई सुगन्धित वाटिका को छोड़कर खुली वायु में स्वच्छन्दता के साथ जंगलों की कंटीली झाड़ियों के ऊपर विचरण करने के लिये उत्सुकता प्रकट करने लगा। वे जीवों के कल्याण के निमित्त घर-बार को छोड़कर संन्यासी बनने की बात सोचने लगे।
क्रमशः अगला पोस्ट [75]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Navanarag and Gopi-Bhav
Sometimes he lifts his eyebrows and remains silent satisfied with the touch His eyes closed, waters of unshakable love and joy. Sitting, walking, lying down, drinking, talking. Embraced by Govinda he did not pursue these things
Ever since Mahaprabhu had returned from Gaya, since then he always remained in love with six, without external knowledge and unconscious! But he takes great pleasure in doing sankirtan with the devotees. In kirtan they forget everything. Where the melodious sound of Sankirtan was heard in his ears that his mind started dancing madly. On listening to the instruments of Sankirtan, his hair and hair blossomed and he used to dance whole night long in ecstasy. Neither the mind of the body nor the sense of the outer world; Simply, his body kept rotating like a machine. Due to this, there is no limit to the joy of the devotees. They also started dancing with the pleasing sweet dance of the Lord. In this way, for twelve-thirteen months, the Lord continued to engage in Katha-Kirtan with an equal number of devotees.
After the salvation of Kazi, a complete change was visible in the nature of the Lord. Now his mind was not engaged in chanting. Only the devotees used to do kirtan together. Prabhu did not even participate in sankirtan. Sometimes he used to come in the middle of sankirtan and sometimes started doing kirtan on the request of the devotees, but now his mind used to yearn for something else. In front of that agony, his mind clearly refused to dance with the rhythm and voice of Sankirtan.
Now the Lord doesn’t talk about love while mingling with the devotees like before. Now he was in a strange condition. Sometimes they would start crying on their own and sometimes they would laugh out loud on their own. Sometimes crying and saying-
O Lord, O Ramanatha, destroyer of suffering, Lord of Vraja. O Govinda rescue Gokula from the ocean of misery
O Nath! Hey Ramnath! Hey Vrajnath! Hey Govind! You only save this Vraj drowned in the ocean of sorrow. Hey Dinanath! O the only refuge of the afflicted! protect us.’
Sometimes he used to cry in Radha-Bhav, sometimes he used to shed tears in solitude by keeping his soft cheeks on his palm. Sometimes in Radha-Bhav you start saying- ‘O Krishna! I didn’t know you were so cruel. I was tricked by your sweet words in the dance. How did I know that you would cheat me, an innocent girl like this? Oh! I don’t know why my intellect got stoned when I got caught in those sweet talks of yours. Where are you the master of all opulence and where am I the girl of a cowherd living in a forest. Loved you unknowingly. Ha Prannath! This life has been offered to you only. He will always be with you, no matter where this body is lying. Sweetheart! You are soft hearted, you are beautiful, you are beautiful, then why have you become cruel and crooked with a hard heart for me? What pleasure do you get in giving me such heartache?
Once upon a time Akrura has come to Vrindavan to take Shri Krishna and the gopis are crying in separation from God. Remembering this feeling, you start saying to Gopi-‘ Hi Dev! what did you do? Why are you separating our beloved Manmohan from us, the darling of our entire Vraj? O cruel creator! This false intelligence of yours is cursed again and again, which you keep on troubling badly by mixing lovers in this way and then drowning them in the ocean of separation!
Hi! Dear Krishna! Will you go now? Will she not get to hear the melodious tunes of Murli now? Will the shadow of that Pitambar not be visible now? Will we not be able to forget the sorrows and sorrows of the whole day after seeing Mohan’s charming face? Will Krishna not come to our house to eat butter now? Will she not be able to take a dip in the ocean of happiness after seeing the beauty of Sawre’s Saloni? Where did this cruel karma Akrura come from? Who gave it such an opposite name? Who can call him cruel who separates our beloved from us? He is a great cruel or is it all the cruelty of the creator! What is the fault of poor Akrura?
Sometimes, being in the spirit of Shri Krishna, he used to follow the pastimes of Vraj with the gopas. Sometimes, in the passion of Prahlad, imitating the teaching of demon-children, he started preaching the name of God and chanting to the devotees sitting nearby. Sometimes remembering Dhruva, standing on one leg in his spirit, he used to do penance. Then sometimes they used to act in the condition of Virhini. He would have become very sad. Started scratching the earth with the nails of the hands. Devotees are non-violence-loving, peaceful and kind to all living beings.
Sachimata would have been very sad to see his condition like this. She used to worship all the gods and goddesses for the good wishes of the son. Considering it as a disease, she used to consult doctors. She told the devotees very humbly – ‘Don’t know what has happened to Nimai, now he doesn’t even do kirtan like before and doesn’t laugh and talk to anyone. what happened to him? Why don’t you guys get him treated? Show it to a doctor?’
The poor devotees started laughing listening to these simple and simple words of the innocent mother, imbued with motherly affection. They used to say to themselves- ‘He heals the world, who can heal him? No doctor has made the medicine for their disease till date, nor can any worldly doctor make it. Only they know theirs! He would start laughing only if Savaliya caught his pulse.’ He tried to explain to his mother in many ways, but the mother could not understand a single thing. She was always impatient.
One day Mahaprabhu was crying loudly saying ‘Gopi-Gopi’ in emotion. He was so engrossed in Gopi-Bhav that no other word could come out of his mouth except the word ‘Gopi-Gapi’. At the same time a distinguished student came near him to have his darshan. He was also lying with Mahaprabhu for some time. By the way, he was considered a well versed scholar in classical education, but he was empty in devotion. They didn’t know the path of love. Prabhu was external-knowledge-zero at that time, he didn’t know who came to us and got up from us in emotion. Seeing such a state of Mahaprabhu, that scholarly student said with some pride – ‘Being a scholar, what unscriptural behavior are you doing?’ What is the benefit of saying ‘Gopi-Gopi’? Say Krishna-Krishna, so that you can be saved and the dignity of the scriptures should not be violated.
Mahaprabhu had no idea at that time who it was. In his excitement, he thought that this one too is a friend of Shyam Sundar like Uddhav and has come to deceive us. Due to this the Lord got angry with him and took a big bamboo and ran after him to kill him. The learned student forgot all his classical knowledge and ran away from there after saving his life.
Mahaprabhu also ran after him to catch him. Due to the fear of being hit, the students ran away with clenched fists. The scarf fell off the shoulder. Pothi came out from the side. They were running away loudly, gasping and shouting. Seeing them running like this, people would ask the reason of their running with surprise, some would laugh out loud seeing their condition, but they would not listen to anyone. ‘Lakhs of lives saved, Miyan Buddhu came to his home.’
Seeing the Lord thus running after these student gentlemen, the devotees caught hold of them! Prabhu fainted in that feeling and fell down. The student looked back after running far away. When he did not see the Lord coming behind him, he stood up. His breathing was going on loudly. The whole body was getting soaked in sweat. Streams of sweat were flowing from every part of his body. Seeing his condition, people started asking him various questions. But what answer would these give to the questions? His breath was full. Nothing could come out of his mouth. Some people fanned him with kindness and gave him some cold water. After drinking water, he regained some consciousness, his breathing also started running smoothly. Then one asked – ‘ Sir! Why did you have such a condition? Who chastised you like this?’
Spewing out the hatred of his heart, he said – ‘Aji! What should I say? We had heard that Jagannath Mishra’s son Nimai has become a great devotee. He used to study with us earlier.’ We thought- ‘Come on, he has become a devotee, so let’s have darshan of him. That’s why we went to see him, but how can he know devotion?’ We saw, ‘He is shouting ‘Gopi-Gopi’ in an unscriptural way.’ We said- ‘Brother! Being educated, why are you doing such an act against the scriptures.’ That’s all, he did not count his movements and attacked us like a barbarian with a stick. If we didn’t run away from there taking our lives, he would have finished our work right there. Is this called devotion? Its name is cruelty. Only cruel, violent hunters behave like this. Devotees are non-violence-loving, peaceful and kind to all living beings.
Hearing such words from his mouth, some who laughed started saying softly – ‘Pandit ji! Why didn’t you preach a little more?’ Some laughingly said – ‘Pandit ji! The Dakshina of preaching was received very hard. be at a loss. Why isn’t it okay, come on, it’s okay to be saved. Now definitely distribute Prasad worth Rs.1.25.
Some jealous Khal men, expressing their hidden jealousy, started saying – ‘These rascals will do little and no good work? They have only learned to attack the saints and brahmins. Don’t know what they do secretly in the night and during the day they trouble the saints and Brahmins. This is their devotion. Pandit ji! Don’t you have hands? There are ten-twenty mindless devotees with them, whereas in your saying there are thousands of students. Why don’t you get them all repaired for once. That’s it, then all these kirtans and pirtans will be forgotten. As long as his nerves are not loosened, till then he became angry in his senses, that learned student sir roared – ‘There are thousands of students in my opinion. Even the bones of none of these devotees will be visible at the behest of my eyes. You guys will see tomorrow itself, what is the result of this. Tomorrow the children will know what is the condition of the one who attacks a Brahmin.’
In this way, he reached his student circle grumbling. The students were already jealous of Mahaprabhu for not being able to bear his glory. Such increasing fame of Mahaprabhu was unbearable for him. Jealousy had arisen in his heart due to the nationwide fame of Mahaprabhu. Now, on hearing about the attack on such a very capable student, many students of evil nature got very excited and at the same time they got ready to go to attack Mahaprabhu. Some sensible students said – ‘Brother! What is the point of doing so in a hurry, they have not even been attacked. See for two-four more days. If he really behaved like this and hit any other student like this from now on then you guys should give hit back. There should be no haste now.’ Thus at that time the students became calm. But the feelings of enmity towards his Lord kept on increasing. Some mischievous Mayapur-dwelling Brahmins also joined the students. In this way, a kind of big heavy party was formed against the Lord.
The Lord came to know about all the things after getting emotional. This made him very sad. He was already indifferent to his home, his best friends and his fellow devotees. This incident increased his sadness even more. Now she could be seen running to reap her countrywide fame due to Sankirtan. He became completely disenchanted with his home, his family and his wife and mother. His mind-honey now started showing eagerness to leave the surrounded fragrant garden and move freely in the open air over the thorny bushes of the forests. For the welfare of the living beings, he started thinking of leaving home and becoming a monk.
Next post respectively [75] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]