।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
भक्तवृन्द और गौरहरि
निवारयाम: समुपेत्य माधवं
किं नोऽकरिष्यन् कुलवृद्धबान्धवा:।
मुकुन्दसंगान्निमिषार्धदुस्त्यजाद्
दैवेन विध्वंसितदीनचेतसाम्।।
महाप्रभु का वैराग्य दिनों दिन बढ़ता ही जाता था, उधर विरोधियों के भाव भी महाप्रभु के प्रति अधिकाधिक उत्तेजनापूर्ण होते जाते थे। दुष्ट-प्रकृति के कुछ पुरुष प्रभु के ऊपर प्रहार करने का सुयोग ढूंढ़ने लगे। महाप्रभु ने ये बातें सुनी और उनके हृदय में उन भाइयों के प्रति महान दया आयी। वे सोचने लगे- ‘ये इतने भूले हुए जीव किस प्रकार रास्ते पर आ सकेंगे? इनके उद्धार का उपाय क्या है, ये लोग किस भाँति श्रीहरि की शरण में आ सकेंगे।’
एक दिन महाप्रभु भक्तों के सहित गंगा-स्नान के निमित्त जा रहे थे। रास्ते में प्रभु ने दो-चार विरोधियों को अपने ऊपर ताने कसते हुए देखा। तब आप हंसते हुए कहने लगे- ‘पिप्पली के टुकडे़ इसलिये किये थे कि उससे कफकी निवृत्ति हो, किंतु उसका प्रभाव उलटा ही हुआ। उससे कफकी निवृत्ति न होकर और अधिक बढ़ने ही लगा। इतना कहकर प्रभु फिर जोरों के साथ हंसने लगे। भक्तों में से किसी ने भी इस गूढ़ वचन का रहस्य नहीं समझा। केवल नित्यानन्द जी प्रभु की मनोदशा देखकर ताड़ गये कि जरूर प्रभु हम सबको छोड़कर कहीं अन्यत्र जाने की बात सोच रहे हैं। इसीलिये उन्होंने एकांत में प्रभु से पूछा-‘प्रभो! आप हमसे अपने मन की कोई बात नहीं छिपाते। आजकल आपकी दशा कुछ विचित्र ही हो रही है। हम जानना चाहते हैं, इसका क्या कारण है?’
नित्यानंद जी की ऐसी बात सुनकर गद्गद-कण्ठ से प्रभु कहने लगे- ‘श्रीपाद! तुमसे छिपाव ही क्या है? तुम तो मेरे बाहर चलने वाले प्राण ही हो। मैं अपने मन की दशा तुमसे छिपा नहीं सकता! मुझे कहने में दु:ख हो रहा है। अब मेरा मन यहाँ नहीं लग रहा है। मैं अब अपने अधीन नहीं हूँ। जीवों का दु:ख अब मुझसे देखा नहीं जाता। मैं जीवों के कल्याण के निमित्त अपने सभी संसारी सुखों का परित्याग करूँगा। मेरा मन अब गृहस्थ में नहीं लगता है। अब मैं परिव्राजक-धर्म का पालन करूंगा। जो लोग मेरी उत्तरोतर बढ़ती हुई कीर्ति से डाह करने लगे हैं, जो मुझे भक्तों के सहित आनन्द-विहार करते देखकर जलते है, जो मेरी भक्तों के द्वारा की हुई पूजा को देखकर मन-ही-मन हमसे विद्वेष करते हैं, वे जब मुझे मूँड़ मुड़ाकर घर-घर भिक्षा के टुकड़े माँगते देखेंगे, तो उन्हें अपने बुरे भावों के लिये पश्चात्ताप होगा। उसी पश्चात्ताप के कारण वे कल्याण-पथ के पथिक बन सकेंगे। इन मेरे घुंघराले काले-काले बालों ने ही लोगों के विद्वेषपूर्ण हृदय को क्षुभित बना रखा है।
भक्तों द्वारा आंवले के जल से धोये हुए और सुगन्धित तैलों से तर हुए ये बाल ही ही भूले-भट के अज्ञानी पुरुषों के हृदय में विद्वेष की अग्नि भभकाते हैं। मैं इन घुंघराले बालों को नष्ट कर दूंगा। शिखासूत्र का त्याग करके मै। वीतराग संन्यासी बनूँगा। मेरा हृदय अब संन्यासी होने के लिये पड़प रहा है। मुझे वर्तमान दशा में शांति नहीं, सच्चा सुख नहीं। मैं अब पूर्ण शांति और सच्चे सुख की खोज में संन्यासी बनकर द्वार-द्वार पर भटकूंगा। मैं अपरिग्रही संन्यासी बनकर सभी प्रकार के परिग्रहों का त्याग करूँगा। श्रीपाद! तुम स्वयं त्यागी हो, मेरे पूज्य हो, बड़े हो, मेरे इस काम में रोडे़ मत अटकाना।’
प्रभु की ऐसी बात सुनते ही नित्यानन्द जी अधीर हो गये। उन्हें शरीर का भी होश नहीं रहा। प्रेम के कारण उनके नेत्रों में से अश्रु बहने लगे। उनका गला भर आया। रुँधे हुए कण्ठ से उन्होंने रोते-रोते कहा- प्रभो! आप सर्वसमर्थ हैं, सब कुछ कर सकते हैं। मेरी क्या शक्ति है, जो आपके काम में रोडे़ अटका सकूं? किंतु प्रभो! ये भक्त आपके बिना कैसे जीवित रह सकेंगे? हाय! विष्णुप्रिया की क्या दशा होगी! बूढ़ी माता जीवित न रहेंगी। आपके पीछे वह प्राणों का परित्याग कर देंगी। प्रभो! उनकी अन्तिम अभिलाषा भी पूर्ण न हो सकेगी। अपने प्रिय पुत्र से उन्हें अपने शरीर के दाह-कर्म का भी सौभाग्य प्राप्त न हो सकेगा। प्रभो! निश्चय समझिये, माता आपके बिना जीवित न रहेंगी।’
प्रभु ने कुछ गम्भीरता के स्वर में नित्यानंद जी से कहा- ‘श्रीपाद! आप तो ज्ञानी हैं, सब कुछ समझते हैं। सभी प्राणी अपने-अपने कर्मों के अधीन हैं। जितने दिनों तक जिसका जिसके साथ संबंध होता है, वह उतने ही दिनों तक उसके साथ रह सकता है। सभी अपने-अपने प्रारब्ध कर्मों से विवश हैं।’
प्रभु की बातें सुनकर नित्यानंद जी चुप रहे। प्रभु उठकर मुकुंद के समीप चले आये। मुकुंददत्त का गला बड़ा ही सुरीला था। प्रभु को उनके पद बहुत पसंद थे। वे बहुधा मुकुन्ददत्त से भक्ति के अपूर्व-अपूर्व पद गवा-गवाकर अपने मन को संतुष्ट किया करते थे। प्रभु को अपने यहाँ आते हुए देखकर मुकुन्द ने जल्दी से उठकर प्रभु की चरण-वंदना की और बैठने के लिये सुंदर आसन दिया। प्रभु ने बैठते ही मुकुंददत्त से कोई पद गाने के लिये कहा। मुकुंद बड़े स्वर के साथ गाने लगे। मुकुंद के पद को सुनकर प्रभु प्रेम में गद्गद हो उठे। फिर प्रेम से मुकुन्दत्त का आलिंगन करते हुए बोले- ‘मुकुन्द! अब देखें तुम्हारे पद कब सुनने को मिलेंगे?’
आश्चर्यचकित होकर सम्भ्रम के सहित मुकुन्द कहने लगे-‘क्यों-क्यों प्रभों! मैं तो आपका सेवक हूँ, जब भी आज्ञा होगी तभी गाऊँगा!’
आँखों में आँसू भरे हुए प्रभु ने कहा- ‘मुकुन्द! अब हम इस नवद्वीप को त्याग देंगे, सिर मुड़ा लेंगे। काषाय वस्त्र धारण करेंगे। द्वार-द्वार से टुकड़े माँगकर अपनी भूख को शांत करेंगे और नगर के बारह सूने मकानों में टूटी कुटियाओं में तथा देवताओं के स्थानों में निवास करेंगे। अब हम गृह त्यागी वैरागी बनेंगे।’ मानो मुकुन्द के ऊपर वज्राघात हुआ हो। उस हृदय को बैधने वाली बात सुनते ही मुकुन्द मूर्च्छित-से हो गये। उनका शरीर पसीने से तर हो गया। बड़े ही दु:ख से कातर स्वर में वे विलख-विलखकर कहने लगे-‘प्रभु! हृदय को फाड़ देने वाली आप यह कैसी बात कह रहे हैं? हाय! इसीलिये आपने इतना स्नेह बढ़ाया था क्या? नाथ! यदि ऐसा ही करना था, तो हम लोगों को इस प्रकार आलिंगन करके, पास में बैठा के, प्रेम से भोजन कराके, एकांत में रहस्य की बातें कर-करके, इस तरह से अपने प्रेमपाश में बांध ही क्यों लिया था? हे हमारे जीवन के एकमात्र आधार! आपने बिना हम नवद्वीप में किसके बनकर रह सकेंगे? हमें कौन प्रेम की बातें सुनावेगा? हमें कौन संकीर्तन की पद्धति सिखावेगा? हम सबको कौन भगवन्नाम का पाठ पढ़ावेगा? प्रभों! आपके कमलमुख के बिना देखे हम जीवित न रह सकेंगे। यह अपने क्या निश्चय किया है? हे हमारे जीवनदाता! हमारे ऊपर दया करो।’
प्रभु ने रोते हुए मुकुन्द को अपने गले से लगाया। अपने कोमल करों से उनके गरम-गरम आंसुओं को पोछते हुए कहने लगे- ‘मुकुन्द! तुम इतने अधीर मत हो। तुम्हारे रुदन को देखकर हमारा हृदय फटा जाता है। हम तुमसे कभी पृथक न होंगे। तुम सदा हमारे हृदय में ही रहोगे।’
मुकुन्द को इस प्रकार समझाकर प्रभु गदाधर के समीप आये। महाभागवत गदाधर ने प्रभु को इस प्रकार आसमय में आते देखकर कुछ आश्चर्य-सा प्रकट किया और जल्दी से प्रभु की चरण-वंदना करके उन्हें बैठने को आसन दिया। आज ये प्रभु की ऐसी दशा देखकर कुछ भयभीत-से हो गये। उन्होंने आजतक प्रभु की ऐसी आकृति कभी नहीं देखी थी। उस समय की प्रभु की चेष्टा में दृढ़ता थी, ममता थी, वेदना थी और त्याग, वैराग्य, उपरति और न जाने क्या-क्या भव्य भावनाएँ भरी हुई थीं। गदाधर कुछ भी न बोल सके। तब प्रभु आप-से-आप ही कहने लगे- गदाधर! तुम्हें मैं एक बहुत ही दु:खपूर्ण बात सुनाने आया हूँ। बुरा मत मानना! क्यों, बुरा तो न मानोगे?’ मानो गदाधर के ऊपर यह दूसरा प्रहार हुआ। वे उसी भाँति चुप बैठे रहे। प्रभु की इस बात का भी उन्होंने कुछ उत्तर नहीं दिया। तब प्रभु कहने लगे- ‘मैं अब तुम लोगों से पृथक हो जाऊँगा। अब मैं इन संसारी भोगों का परित्याग कर दूँगा और यतिधर्म का पालन करूँगा।’
गदाधर तो मानो काठ की मूर्ति बन गये। प्रभु की इस बात को सुनकर भी वे उसी तरह मौन बैठे रहे इतना अवश्य हुआ कि उनका चेतनाशून्य शरीर पीछे की दीवाल की ओर स्वयं लुढ़क पड़ा। प्रभु समीप ही बैठे थे, थोड़ी ही देर में गदाधर का सिर प्रभु के चरणों में लोटने लगा। उनके दोनों नेत्रों से दो जल की धाराएँ निकलकर प्रभु के पाद-पद्मों को प्रक्षालित कर रही थीं। उन गरम-गरम अश्रुओं के जल से प्रभु के शीतल-कोमल चरणों में एक प्रकार की ओर अधिक ठंढक-सी पड़ने लगी। उन्होंने गदाधर के सिर को बलपूर्वक उठाकर अपनी गोदी में रख लिया और उनके आंसू पोंछते हुए कहने लगे- ‘गदाधर! तुम इतने अधीर होगे तो भला मैं अपने धर्म को कैसे निभा सकूँगा? मैं सब कुछ देख सकता हूँ, कितु तुम्हें इस प्रकार विलखता हुआ नहीं देख सकता।
मैंने केवल महान प्रेम की उपलब्धि करने के ही निमित्त ऐसा निश्चय किया है। यदि तुम मेरे इस शुभ संकल्प में इस प्रकार विघ्न उपस्थित करोगे तो मैं भी कभी उस काम को न करूँगा। तुम्हें दु:खी छोड़कर मैं शाश्वत सुख को भी नहीं चाहता। क्या कहते हो? बोलते क्यों नहीं। रुँधे हुए कण्ठ बड़े कष्ट के साथ लड़खड़ाती हुई वाणी में गदाधर ने कहा- ‘प्रभों! मैं कह ही क्या सकता हूँ? आपकी इच्छा के विरुद्ध कहने की किस की सामर्थ्य है? आप स्वतंत्र ईश्वर हैं।’
प्रभु ने कहा-‘मैं तुमसे आज्ञा चाहता हूँ।’ गदाधर अब अपने वेग को और अधिकन रोक सके। वे ढाह मार-मारकर जारों से रुदन करने लगे। प्रभु भी अधीर हो उठे। उस समय का दृश्य बड़ा ही करुणापूर्ण था। प्रभु की प्रेममय गोद में पड़े हुए गदाधर अबोध बालक की भाँति फूट-फूटकर रुदन कर रहे थे। प्रभु उनके सिर पर हाथ फेरते हुए उन्हें ढाढ़स बंधा रहे थे। प्रभु अपने अश्रुओं को वस्त्र के छोर से पोंछते हुए कह रहे थे- ‘गदाधर! तुम मुझसे पृथक न रह सकोगे। मैं जहाँ भी रहूँगा तुम्हें साथ ही रखूँगा। तुम इतने अधीर क्यों होते हो? तुम्हारे बिना तो मुझे वैकुण्ठ का सिंहासन भी रुचिकर नहीं होगा। तुम इस प्रकार की अधीरता को छोड़ों।’ ‘मंगलमय भगवान सब भला ही करेंगे।’ यह कहते-कहते गदाधर का हाथ पकड़े हुए प्रभु श्रीवास के घर पहुँचे। गदाधर की दोनों आँखे लाल पड़ी हुई थी। नाक में से पानी बह रहा था। शरीर लड़खड़ाया हुआ था; कहीं पैर रखते थे, कहीं जाकर पड़ते थे। सम्पूर्ण देह डगमगा रही थी। प्रभु के हाथ के सहारे से वे यंत्र की तरह जले जा रहे थे।
प्रभु उस समय सावधान थे। श्रीवास सब कुछ समझ गये। उनसे पहले ही नित्यानंद जी ने आकर यह बात कह दी थी। वे प्रभु को देखते ही रुदन करने लगे। प्रभु ने कहा- ‘आप मेरे पिता के तुल्य हैं। जब आप ही इस तरह मुझे हतोत्साहित करेंगे तो मैं अपने धर्म का पालन कैसे कर सकूँगा? मैं कोई बुरा काम करने नहीं जा रहा हूँ। केवल अपने शरीर के स्वार्थ के निमित्त भी संन्यास नहीं ले रहा हूँ। आजकल मेरी दशा उस महाजन साहूकारकी-सी है, जिसका नाम तो बड़ा भारी हो, किंतु पास में पैसा एक भी न हो। मेरे पास प्रेम का अभाव है। आप सब लोगों को संसारी भोग्य पदार्थों की न तो इच्छा ही है और न कमी ही। आप सभी भक्त प्रेम के भूखे हैं। मैं अब परदेश जा रहा हूँ। जिस प्रकार महाजन परदेशों में जाकर धन कमा लाता है और उस धन से अपने कुटुम्ब-परिवार के सभी स्वजनों का समान भाव से पालन-पोषण करता है, उसी प्रकार मैं भी प्रेमरूपी धन कमाकर आप लोगों के लिये लाऊँगा। तब हम सभी मिलकर उसका उपभोग करेंगे।’
कुछ क्षीण स्वर में श्रीवास पण्डित ने कहा- ‘प्रभो! जो बड़भागी भक्त आपके लौटने तक जीवित रह सकेंगे वे ही आपकी कमाई का उपभोग कर सकेंगे। हम लोग तो आपके बिना जीवित रह ही नहीं सकते।’
प्रभु ने कहा- ‘पण्डित जी! आप ही हम सबके पूज्य हैं। मुझे कहने में लज्जा लगती है, किंतु प्रसंग वश कहना ही पड़ता है कि आपके ही द्वारा हम सभी भक्त इतने दिनों तक प्रेम के सहित संकीर्तन करते हुए भक्ति-रसामृत का आस्वादन करते रहे। अब आप ऐसा आशीर्वाद दीजिये कि हम अपने व्रत को पूर्णरीत्या पालन कर सकें।’
इतने में ही मुरारी गुप्त भी वहाँ आ गये। वे तो इस बात को सुनते ही एकदम बेहोश होकर गिर पड़े। बहुत देर के पश्चात चैतन्य लाभ होने पर कहने लगे- ‘प्रभो! आप सर्वसमर्थ हैं, किसी की मानेंगे थोड़े ही। जिसमें आप जीवों का कल्याण समझेंगे, वह चाहे आपके प्रियजनों के लिये कितनी भी अप्रिय बात क्यों न हो, उसे भी कर डालेंगे, किंतु हे हम पतितों के एकमात्र आधार! हमें अपने हृदय से न भुलाइयेगा। आपके श्रीचरणों की स्मृति बनी रहे, ऐसा आशीर्वाद और देते जाइयेगा। आपके चरणों का स्मरण बना रहे तो यह नीरस जीवन भी सार्थक है। आपके चरणों की विस्मृति में अंधकार है और अंधकार ही अज्ञानता का हेतु है।’
प्रभु ने मुरारी का गाढालिंगन करते हुए कहा- ‘तुम तो जन्म-जन्मांतरों के मेरे प्रिय सुहृद् हो। यदि तुम सबको ही भुला दूंगा तो फिर स्मृति को ही रखकर क्या करूँगा। स्मृति तो केवल तुम्हीं प्रेमी बन्धुओं के चिन्तन सभी अन्तरंग भक्तों में यह बात बिजली की तरह फैल गयी। जो भी सुनता, वहीं हाथ मलने लगता। कोई ऊर्ध्व श्वास छोड़ता हुआ कहता- ‘हाय! अब यह कमलयन फिर प्रेमभरी चितवन से हमारी ओर न देख सकेंगे।’ कोई कहता- ‘क्या गौरहरि के मुन-मन-मोहन मनोहर मुख के दर्शन अब फिर न हो सकेंगे?’ कोई कहता- ‘हाय! इन घुंघराले केशों को कौन निर्दयी नाई सिर से अलग कर सकता है? बिना इन घुघंराले बालों वाला यह घुटा सिर भक्तों के हृदयों में कैसी दाह उत्पन्न करेगा? कोई कहता- ‘प्रभु काषाय वस्त्र की झोली बनाकर घर-घर टुकड़े मांगते हुए किस प्रकार फिरेंगे?’ कोई कहता- ‘ये अरुण रंगे के कोमल चरण इस कठोर पृथ्वी पर नंगे किस प्रकार देश-विदेशों में घूम सकेंगे?’
कोई-कोई पश्चात्ताप करता हुआ कहता- ‘हम अब उन घुँघराले काले-काले कन्धों तक लटकने वाले बालों में सुगन्धित तैल न मल सकेंगे क्या? क्या अब हमारे पुण्यों का अंत हो गया? क्या अब नवद्वीप का सौभाग्य-सूर्य नष्ट होना चाहता है? क्या नदियानागर अपनी इस लीला-भूमि का परित्याग करके किसी अन्य सौभाग्यशाली प्रदेश को पावन बनावेंगे ? क्या अब नवद्वीप पर क्रुर ग्रहों की वक्रदृष्टि पड़ गयी? क्या अब भक्तों का एकमात्र प्रेमदाता हम सबको विलखता हुआ ही छोड़कर चला जायगा? क्या हम सब अनाथों की तरह तड़प-तड़पकर अपने जीवन के शेष दिनों को व्यतीत करेंगे? क्या सचमुच में हम लोग जाग्रत-अवस्था में ये बातें सुन रहे हैं या हमारा यह स्वप्न का भ्रम ही है? मालूम तो स्वप्न-सा ही पड़ता है।’ इस प्रकार सभी भक्त प्रभु के भावी वियोगजन्य दु:ख का स्मरण करते हुए भाँति-भाँति से प्रलाप करने लगे।
क्रमशः अगला पोस्ट [77]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram devotees and gaurahari
Let’s stop: we’ll get to Madhava What will our family elders and relatives do to us From the association of Mukunda with half a moment of abandonment They were destroyed by fate and of poor minds
Mahaprabhu’s disinterest was increasing day by day, on the other hand, the feelings of the opponents were also getting more and more excited towards Mahaprabhu. Some men of evil nature started looking for an opportunity to attack the Lord. Mahaprabhu heard these things and felt great compassion for those brothers in his heart. They started thinking- ‘How will these so forgotten creatures come on the way? What is the solution for their salvation, how will these people be able to come under the shelter of Sri Hari.’
One day Mahaprabhu was going to bathe in the Ganges along with the devotees. On the way, Prabhu saw two-four opponents taunting him. Then you started laughing and said – ‘Pippali was cut into pieces to get rid of phlegm, but it had the opposite effect. Instead of retiring from it, the phlegm started increasing more and more. Having said this, the Lord again started laughing out loud. None of the devotees understood the secret of this mysterious word. Only Nityanand ji was shocked to see the mood of the Lord that surely the Lord is thinking of leaving all of us and going somewhere else. That’s why he asked the Lord in solitude – ‘Lord! You don’t hide anything on your mind from us. Nowadays your condition is getting a bit strange. We want to know, what is the reason for this?
Hearing such words of Nityanand ji, the Lord started saying out of glee – ‘Shripad! What is there to hide from you? You are the life that walks outside of me. I can’t hide my state of mind from you! I am sorry to say. Now I don’t feel like here. I’m not in control anymore. The sorrow of the living beings is no longer visible to me. I will give up all my worldly pleasures for the welfare of living beings. My mind is no longer attached to the household. Now I will follow Parivrajak-Dharma. Those who are envious of my ever-increasing fame, who are envious of seeing me having fun with the devotees, who harbor enmity against me seeing the worship done by my devotees, when I shave my head If they turn around and see people asking for pieces of alms from house to house, they will repent for their bad feelings. Because of that repentance, they will be able to become the path of welfare. These curly black hairs of mine have made people’s malicious hearts angry.
These hairs washed by the devotees with Amla water and moistened with fragrant oils kindle the fire of hatred in the hearts of the ignorant men of the forgotten world. I will destroy these curly hairs. By renouncing the Shikhasutra, I I will become a vitarag sannyasin. My heart is now yearning to become a monk. I do not have peace in the present condition, no true happiness. I will now wander from door to door as a sannyasin in search of perfect peace and true happiness. I will renounce all types of acquisitions by becoming a non-attaching monk. Shripad! You yourself are a renunciate, you are my worshipper, you are big, don’t put obstacles in my work.’
Nityanand ji became impatient after hearing such a thing from the Lord. He was not even conscious of his body. Because of love, tears started flowing from his eyes. He got a lump in his throat. Crying with a choked voice, he said – Lord! You are omnipotent, you can do everything. What is my power, that I can create obstacles in your work? But Lord! How will these devotees survive without you? Oh! What will be the condition of Vishnupriya! The old mother will not survive. She will give up her life behind you. Lord! Even his last wish will not be fulfilled. He will not be able to get the good fortune of cremation of his body from his beloved son. Lord! Be sure, mother will not survive without you.
The Lord said to Nityanand ji in a serious tone – ‘Shripad! You are knowledgeable, you understand everything. All beings are subject to their own deeds. As long as the one with whom he has a relationship, he can stay with him for that many days. Everyone is bound by their own destiny.’
Nityanand ji remained silent after listening to the Lord’s words. The Lord got up and came near Mukund. Mukundadatta’s throat was very melodious. The Lord liked his posts very much. He often used to satisfy his mind by reciting wonderful verses of devotion to Mukundadatta. Seeing the Lord coming to his place, Mukund quickly got up and worshiped the feet of the Lord and gave a beautiful seat to sit. As soon as Prabhu sat down, he asked Mukundatta to sing a verse. Mukund started singing with a loud voice. Hearing the post of Mukund, the Lord became overwhelmed with love. Then hugging Mukundatta with love, said – ‘Mukund! Now let’s see when will we get to hear your posts?’
Surprised and confused, Mukund started saying – ‘Why, why Lord! I am your servant, I will sing whenever I am ordered!’
With tears in his eyes, the Lord said – ‘Mukund! Now we will leave this Navadweep, we will bow our heads. Will wear orange clothes. Will satisfy his hunger by asking for pieces from door to door and will reside in twelve deserted houses of the city, in broken huts and in the places of the gods. Now we will become householders and renunciates.’ It was as if a thunderbolt had struck Mukund. Mukund fainted as soon as he heard that heart-wrenching statement. His body became drenched in sweat. With great sorrow, he started saying in a bitter voice – ‘Lord! How are you saying this heart breaking thing? Oh! That’s why you had extended so much affection? God! If this was to be done, then why did you bind us in this way by hugging us, making us sit next to you, feeding us with love, talking secrets in solitude, in this way? O the only support of our life! Whom would we be able to live in Navadweep without you? Who will tell us the words of love? Who will teach us the method of chanting? Who will teach all of us the lesson of God’s name? Lord! We will not be able to live without seeing your lotus face. What have you decided? Oh our life giver! Have mercy on us.’
Prabhu hugged Mukund while crying. Wiping his hot tears with his soft hands, he said – ‘Mukund! Don’t be so impatient Our heart breaks seeing your cry. We will never be separated from you. You will always be in our hearts.
By explaining this to Mukund, the Lord came near Gadadhar. Mahabhagwat Gadadhar expressed some surprise seeing the Lord coming in such an untimely manner and quickly worshiped the feet of the Lord and offered him a seat. Today, seeing such a condition of the Lord, he became somewhat fearful. He had never seen such a figure of the Lord till date. At that time there was firmness in the efforts of the Lord, there was affection, there was pain and there was renunciation, disinterest, uparati and don’t know what grand feelings were filled. Gadadhar could not say anything. Then the Lord started saying to himself – Gadadhar! I have come to tell you a very sad story. Do not mind! Why, won’t you mind?’ As if this was another blow on Gadadhar. They kept sitting silently like that. He did not give any answer to this talk of the Lord. Then the Lord started saying – ‘ I will now be separated from you people. Now I will give up these worldly pleasures and follow the Yatidharma.’
It is as if Gadadhar has become a wooden idol. Even after hearing these words of the Lord, he remained silent in the same way, so much so that his unconscious body itself rolled towards the back wall. Prabhu was sitting nearby, in a short while Gadadhar’s head started rolling at the feet of Prabhu. Two streams of water were coming out from both his eyes and were bleaching the lotus feet of the Lord. Due to the water of those hot tears, the cool and soft feet of the Lord started to feel more cold in a way. He forcefully lifted Gadadhar’s head and kept it on his lap and wiping his tears said – ‘Gadadhar! If you are so impatient then how can I follow my religion? I can see everything, but cannot see you crying like this.
I have taken this decision only for the sake of achieving great love. If you present obstacles in this auspicious resolution of mine, then I too will never do that work. Leaving you unhappy, I don’t even want eternal happiness. What do you say? Why don’t you speak. Gadadhar said in stuttering speech with great pain – ‘ Lord! What can I say? Who has the power to say against your will? You are an independent God.’
The Lord said – ‘I want your permission.’ Gadadhar could now stop his speed more. They started crying from the jars by collapsing. The Lord also became impatient. The scene at that time was very compassionate. Lying in the loving lap of the Lord, Gadadhar was crying bitterly like an innocent child. Prabhu patting his head was consoling him. Wiping his tears with the edge of his cloth, the Lord was saying – ‘Gadadhar! You will not be able to stay apart from me. I will keep you with me wherever I am. why are you so impatient Without you, even the throne of Vaikuntha would not appeal to me. You leave this kind of impatience.’ ‘The auspicious God will do good to all.’ Saying this, holding the hand of Gadadhar, the Lord reached Srivas’s house. Gadadhar’s both eyes were red. Water was flowing from the nose. The body was staggered; Used to set foot somewhere, used to go somewhere. Whole body was shaking. With the help of the hand of the Lord, they were burning like a machine.
Prabhu was careful at that time. Shrivas understood everything. Before him, Nityanand ji had come and said this. They started crying on seeing the Lord. The Lord said- ‘You are equal to my father. How can I follow my religion when you discourage me like this? I’m not going to do anything bad. I am not taking sannyas even just for the sake of my body. Nowadays, my condition is like that of a moneylender, whose name is very heavy, but there is not even a single penny nearby. I lack love. All of you have neither desire nor lack of worldly enjoyments. All of you devotees are hungry for love. I am going abroad now. Just as a moneylender earns money by going to foreign countries and takes care of all his relatives with equal respect from that money, in the same way I will also earn money in the form of love and bring it to you. Then we will all enjoy it together.’
Shrivas Pandit said in a weak voice – ‘Lord! Only those devotees who are fortunate enough to survive till your return will be able to enjoy your earnings. We cannot live without you.’
The Lord said – ‘Pandit ji! You are our worshipper. I am ashamed to say this, but in context I have to say that it was only through you that all of us devotees continued to relish the nectar of bhakti-rasamrit while doing sankirtan with love for so many days. Now you bless us in such a way that we can follow our fast completely.
Meanwhile, Murari Gupta also came there. On hearing this, he fell completely unconscious. After a long time, when Chaitanya got benefit, he started saying – ‘Lord! You are almighty, very few will obey anyone. In which you will consider the welfare of the living beings, no matter how unpleasant it may be for your loved ones, you will also do it, but O we the only support of the fallen! Do not forget us from your heart. May the memory of your holy feet remain, will continue to give such blessings. Even this monotonous life is meaningful if the remembrance of your feet remains. There is darkness in the forgetfulness of your feet and darkness is the cause of ignorance.’
The Lord hugged Murari deeply and said – ‘ You are my dear friend of many births. If I forget you all, then what will I do keeping the memory only. This thing spread like lightning among all intimate devotees. Whoever listens, starts shaking hands there. Someone exhaling vertically says- ‘Hi! Now this Kamalayan will not be able to look at us with love-filled Chitwan.’ Some say- ‘Will we not be able to see Gaurahari’s Mun-Man-Mohan Manohar face again?’ Some say- ‘Hi! Who can part these frizzy hairs from the ruthless barber’s head? Without these curly hairs, what kind of burning will this kneeling head create in the hearts of the devotees? Some say- ‘How will Prabhu make a bag of kashay cloth and roam from house to house asking for pieces?’ Some say- ‘How will these soft feet of Arun Range be able to roam on this harsh earth naked in the country and abroad?’
Some would say repentantly – ‘Can’t we apply scented oil to those curly black-black hairs hanging down to our shoulders? Have our virtues come to an end now? Does Navadvipa’s fortune-sun want to be destroyed now? Will Nadiya Nagar leave this land of his pastimes and make some other fortunate state holy? Now Navadweep is under the evil eye of cruel planets? Will the only bestower of love for the devotees leave us all crying? Will we all spend the rest of our lives in agony like orphans? Are we really listening to these things in the waking state or is it just an illusion of our dreams? It seems like a dream.’ In this way, all the devotees started raving in different ways, remembering the sorrow of future separation from the Lord.
respectively next post [77] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]