।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
संन्यास-दीक्षा
देहेऽस्थिमांसरुधिरेऽभिमतिं त्यज त्वं
जायासुतादिषु सदा ममतां विमुंच।
पश्यानिशं जगदिदं क्षणभंगनिष्ठं
वैराग्यरागरसिको भव भक्तिनिष्ठ:।।
वैराग्य में कितना मजा है, इसे वही पुरुष जान सकता है, जिसके हृदय में प्रभु के पादपद्मों में प्रीति होने की इच्छा उत्पन्न हो गयी हो, जिसे संसारी विषय-भोग काटने के लिये दौड़ते हों, वही वैराग्य में महान सुख का अनुभव कर सकता है। जिसकी इन्द्रियाँ सदा विषय-भोगों की ही इच्छा करती रहती हों, जिसका मन सदा संसारी पदार्थों का ही चिन्तन करता रहता हो, वह भला वैराग्य के सुख को समझ ही क्या सकता है। मन जब संसारी भोगों से विरक्त होकर सदा महान त्याग के लिये तड़पता रहे, जिसका वैराग्य पानी के बुद्बुदों के समान क्षणिक न होकर स्थायी हो, वही त्याग के असली सुख का अनुभव करने का सर्वोत्तम अधिकारी है। जो जोश में आकर क्षणिक वैराग्य के कारण त्याग-पथ का अनुसरण करने लगते हैं, उनका अन्त में पतन हो जाता है, इसीलिये तो कहा है- ‘त्याग वैराग्य के बिना टिक ही नहीं सकता।’ इसलिये जो वैराग्य-राग-रसिक नहीं बना वह भगवत-राग-रस का पूर्ण रसिया भक्तिनिष्ठ भागवत बन ही नहीं सकता। हृदय त्याग के लिये इस प्रकार अकुलाता रहे, जिस प्रकार जल में बहुत देर डूब की लगाये रहने पर प्राण श्वास लेने के लिये अकुलाने लगते हैं।
महाप्रभु को संन्यास-दीक्षा देने के लिये भारती महाराज राजी हो गये। यह देखकर प्रभु की प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा। वे प्रेम में बेसूध बने हुए सम्पूर्ण रात्रि भगवन्नाम का कीर्तन करते रहे और आनन्द के उल्लास में आसन से उठ-उठकर पागल की तरह नृत्य करते रहे। जिस प्रकार नवागत वधू से मिलने के लिये अनूरागी युवक बेचैनी के साथ रात्रि होने की प्रतीक्षा करता रहता है, उसी प्रकार महाप्रभु संन्यास-धर्म में दीक्षित होने के लिये उस रात्रि के अन्त होने की प्रतीक्षा करते रहे। उस रात्रि में प्रभु को क्षणभर के लिये भी निद्रा नहीं आयी। निरन्तर संकीर्तन करते रहने के कारण प्रभु के नेत्र कुछ आप-से-आप ही मुंदने-से लगे। इतने में ही आम्र की डालों पर बैठे हुए पक्षियों ने अपने कोमल कण्ठों से भाँति-भाँति के स्वरों में गायन आरम्भ किया। मानो वे महाप्रभु के संन्यास ग्रहण करने के उपलक्ष्य में पहले से ही मंगलाचरण कर रहे हों।
पक्षियों के कलरव को सुनकर प्रभु की तन्द्रा दूर हूई और वे आसन पर से उठकर बैठ गये। पास में ही बेसूध पड़े हुए आचार्यरत्न, नित्यानन्द आदि को प्रभु ने जगाया। सबके जग जाने पर प्रभु नित्यकर्मों से निवृत्त हुए। गंगा जी में स्नान करने के निमित्त अपने सभी साथियों के सहित प्रभु ने अपने भावी गुरुदेव के चरण-कमलों में प्रणाम किया और बड़ी ही नम्रता से दोनों हाथों की अंजलि बांधे हुए उनसे निवेदन किया- ‘भगवन्! मैं उपस्थित हूँ, अब आज्ञा दीजिये मुझे क्या-क्या करना होगा।’
कुछ विवशता-सी प्रकट करते हुए भारती जी ने कहा- ‘अब संन्यास-दीक्षा के निमित्त जिन-जिन सामग्रियों की आवश्यकता हो, उन्हें एकत्रित करना चाहिये। इसका प्रबन्ध मैं अभी किये देता हूँ।’ यह कहकर उन्होंने एक आदमी को सब सामान लाने के निमित्त कटवा के लिये भेजा।
कण्टक-नगर-निवासी नर-नारियों को कल तक यही पता था कि भारती जी उस युवक संन्यास-दीक्षा के लिए को देने के लिये कभी सहमत न होंगे; किंतु आज जब प्रात: ही उन लोगों ने यह समाचार सुना कि भारती तो उस ब्राह्मण-युवक को संन्यासी बनाने के लिये राजी हो गये और आज ही उसे शिखा-सूत्र से रहित करके द्वार-द्वार से भिक्षा मांगने वाला गृह-त्यागी विरागी बना देंगे, तब तो उनके दु:ख का ठिकाना नहीं रहा। न जाने उन ग्रामवासियों को प्रभु के प्रति दर्शन मात्र से ही क्यों ममता हो गयी थी। वे सभी प्रभु को अपना घर का-सा सगा-सम्बन्धी ही समझने लगे। बात-ही-बात में बहूत-से स्त्री-पुरुष आश्रम में आकर एकत्रित हो गये। स्त्रियाँ एक ओर खड़ी होकर आंसू बहा रही थीं। पुरुष आपस में मिलकर भाँति-भाँति की बातें कर रहे थे।
कोई तो कहता- ‘अजी! इस युवक को ही समझाना चाहिये। जैसे बने, समझा-बुझाकर इसे इसकी माता के समीप पहुँचा आना चाहिये।’ इस पर दूसरा कहता- ‘वह समझे तब तो समझावें। जब उसके सगे-सम्बन्धी ही उसे नहीं समझा सके, तो हम-तुम तो भला समझा ही क्या सकते हैं।’
इतने ही में एक बूढा़ बोल उठा- ‘अजी! हम सब इतने आदमी हैं, संन्यास का कार्य ही न होने देंगे, बस, निबट गया किस्सा।’ इस पर किसी विचारवान ने कहा- ‘भाई! यह कैसे हो सकता है। हम ऐसे शुभ काम में जबरदस्ती कैसे कर सकते हैं। ऐसे पुण्य-कर्मों में यदि कुछ सहायता न बन सके तो इस तरह विघ्न करना तो ठीक नहीं है। हम लोग मुंह से ही समझा सकते हैं। जबरदस्ती करना हमारा धर्म नहीं।’ इस पर उद्धत स्वभाव का युवक जोरों से बोल उठा- ‘अजी! धर्म गया ऐसी-तैसी में। ऐसे धर्म में तो तेल डालकर आग लगा देनी चाहिये। बने हैं, कहीं के धर्मात्मा। यदि ऐसी ही बात है, तो तुम ही क्यों नहीं संन्यास ले लेते। क्यों दिनभर यह ला, वह ला, इसे रख, उसे उठा करते रहते हो।’ ‘औरों को बुढ़िया सिख-बुधि देय, अपनी खाट भीतरो लेय।’
‘तुम अपने बेटा-बेटियों को छोड़कर संन्यासी हो जाओ तब तो हम भी जानें।’ इतना कहकर वह लोगों की ओर देखता हुआ उसी आवेश के साथ कहने लगा- ‘देखो भाई! इन्हें बकने दो, इनकी तो बुद्धि सठिया गयी है। भला, जिसके घर में युवती स्त्री हो, दूसरी सन्तान से रहित बूढ़ी विधवा माता हो ऐसे चौबीस वर्ष के नवयुवक को घर-घर का भिखारी बना देना किस धर्मशास्त्र में लिखा होगा। यदि किसी में लिखा भी हो तो बाबा! हम ऐसे धर्मशास्त्र को दूर से ही दण्डवत करते हैं। ऐसा धर्मशास्त्र इन बाबा को ही मुबारक हो। ये अपने बड़े लड़के को संन्यासी बना दें या इनकी अवस्था है, ये ही बन जायँ। हम अपनी आँखों के सामने तो इस ब्राह्मणकुमार को शिखा-सूत्रत्याग कर गेरूए रंग के वस्त्र न पहनने देंगे।
भारती महाराज यदि सीधी तरह मान जायँ तब तो ठीक ही है, नहीं तो भारती जी का गला दबाकर तो मैं इन्हें गांव से बाहर कर आऊंगा और आप लोग नाव में बिठाकर इस युवक को इसके घर पर पहुँचा आयें। भारती को मना लेने का ठेका तो मैं अपने जिम्मे लेता हूँ।’
उस युवक की ऐसी जोशपूर्ण बातें सुनकर सुनने वालों में से बहुतों को जोश आ गया और वे ‘ठीक है, ठीक है, ऐसा ही करना चाहिये।’ ऐसा कह-कहकर उसकी बातों का समर्थन करने लगे।
इस पर उसी विचारवान वृद्ध ने कहा- ‘भाई! ऐसा करने से काम न चलेगा। यदि हम अपनी कमज़ोरी से धर्म न कर सकें तो क्या उसे दूसरों को भी न करने दें। यदि अपने भाग्य-दोष से हम नकटे हो तो दूसरे की नाक को भी न देख सकें। ये सब जोश की बातें हैं। हम लोग इतना ही कर सकते हैं कि भारती जी को समझा-बुझाकर दीक्षा देने से रोक दें।’ वृद्ध की यह बात सबको पसंद आयी और सभी मिलकर भारती जी के पास पहुँचे। सभी भारती जी को प्रणाम करके बैठ गये। दूसरी ओर महाप्रभु नीचे को सिर किये हुए बैठे थे, उनके समीप में ही चन्द्रशेखर आचार्य तथा नित्यानन्द जी आदि एक पुरानी-सी फटी चटाई पर बैठे थे। भारती के समीप बैठकर लोग परस्पर एक-दूसरे के मुख की ओर देखने लगे। सब लोगों के अभिप्राय को जानकर उसी विचारवान वृद्ध पुरुष ने हाथ जोडे़ हुए कहा- ‘स्वामी जी महाराज! हम लोग आपसे कुछ निवेदन करना चाहते हैं।’ प्रसन्नता प्रकट करते हुए जल्दी से भारती जी महाराज बोल उठे- ‘हाँ, हाँ कहो, जरूर कहो। जो कहना चाहते हो, निस्संकोच-भाव से कह डालो।’
वृद्ध ने कहा- ‘महाराज! आप सब कुछ जानते हैं, आपसे कोई बात छिपी थोडे़ ही है। हमें इन ब्राह्मण-कुमार के ऊपर बड़ी दया आ रही है। इनकी घर में वृद्धा माता है, युवती स्त्री है, घर पर दूसरा कोई आदमी नहीं। उनके निर्वाह के लिये कोई बंधी हुई वृत्ति नहीं। इनकी स्त्री के अभी तक कोई संतान नहीं। ऐसी अवस्था में भी ये आवेश में आकर संन्यास ले रहे हैं, इससे हम सबों को बड़ा दुख हो रहा है। ये सभी बातें हमने इनके सम्बन्धियों के ही मुख से सुनी है। आपसे भी ये बातें छिपी न होंगी। इसलिये हमारी यही प्रार्थना है कि ये चाहे कितना भी आग्रह करें आप इन्हें संन्यास-दीक्षा कभी न दें।
उन सब लोगों की बातें सुनकर भारती जी ने बड़े ही दु:ख के साथ विवशता-सी प्रकट करते हुए कहा- ‘भाइयो! तुमने जितनी बातें कही हैं, वे सब मुझे पहले से ही मालूम हैं। मैं स्वयं इन्हें संन्यास देने के पक्ष में नहीं हूँ और न मैं अपनी राजी से इन्हें दीक्षा दे रहा हूँ। एक तो इनकी इच्छा को टाल देने की मुझमें सामर्थ्य नहीं। दूसरे इन्हें कोई धर्म का तत्त्व समझा ही नहीं सकता। ये स्वयं बड़े भारी पण्डित हैं, यदि कोई मूर्ख होता, तो आप लोग सन्देह भी कर सकते थे कि मैंने बहका दिया हो। ये धर्माधर्म के तत्त्व को भलीभाँति जानते हैं।
गृहस्थी में रहते हुए भी वर्णाश्रम-धर्म का पालन करते हुए ये वेदों में बताये हुए कर्मों के द्वारा अपने धर्म का आचरण कर सकते हैं। किन्तु अब तो ये महात्याग की दीक्षा के ही लिये तुले हुए हैं! मेरी शक्ति के बाहर की बात है। हाँ, आप लोग स्वयं इन्हें समझावें, यदि ये आप लोगों की बात मानकर घर लौटने को राजी हो जायंगे तो मुझे बड़ी भारी प्रसन्नता होगी। आप लोग इस बात को तो हृदय से निकाल ही दीजिये कि मैं स्वयं इन्हें दीक्षा दे रहा हूँ। यह देखो, इनके सामने जो ये आचार्य बैठे हुए हैं ये इनके पिता के समान सगे मौसा होते हैं, जब ये ही इन्हें न समझा सके और उलटे इनके आज्ञानुसार सभी संन्यास के कर्मों को कराने के लिये तैयार बैठे हैं तो फिर मेरी-तुम्हारी तो सामर्थ्य ही क्या है?’
भारती जी के मुख से ऐसी युक्ति युक्त बातें सुनकर सभी प्रभु के मुख की ओर कातर-दृष्टि से निहारने लगे। बहुत-से पुरुष तो प्रभु की ऐसी दशा देखकर रो रहे थे। प्रभु ने उस सभी ग्रामवासियों को अपने स्नेह के कारण दु:खी देखकर बड़ी ही कातर वाणी में कहा- ‘भाइयो! आप मेरे आत्मीय हैं, सखा हैं, बन्धु हैं। आपका मेरे ऊपर इतना अधिक स्नेह है, यह सोचकर मेरा हृदय गद्गद हो उठा है। आप लोग जो कह रहे हैं, उन सभी बातों को मैं स्वयं समझ रहा हूं, किन्तु भाइयो! मैं मजबूर हूँ, मैं अब अपने वश में नहीं हूँ। श्रीकृष्ण मुझे पकड़कर ले आये हैं। आप सभी भाई ऐसा आशीर्वाद दीजिये कि मैं अपने प्यारे श्रीकृष्ण को पा सकूं। मैं वृन्दावन में जाऊंगा, व्रजवासियों के घरों से टुकडे़ मांगकर खाऊंगा। वृन्दावन के बाहर कदम्ब के वृक्षों के नीचे वास करूंगा। यमुना जी का सुन्दर श्याम रंगवाला स्वच्छ जल पीऊंगा और अहर्निश श्रीकृष्ण के सुमधुर नामों का संकीर्तन करूंगा। जब तक मेरे प्राणप्यारे श्रीकृष्ण न मिलेंगे तब तक मैं सुखी नहीं हो सकता। मुझे शान्ति नहीं मिल सकती। श्रीकृष्ण-विरह में मेरा हृदय जल रहा है, वह श्रीकृष्ण के सुन्दर, शीतल सम्मिलन मुख से ही शान्त हो सकेगा। आप सभी एक बार हृदय से मुझे आशीर्वाद दें।’ यह कहते-कहते प्रभु जोरों से भगवान के नामों का उच्चारण करते-करते बड़े ही करूण-स्वर से क्रन्दन करने लगे। सभी मनुष्य मन्त्रमुग्ध-से बन गये। आगे और किसी को कुछ कहने का साहस ही नहीं हुआ।
जब लोगों ने देखा कि महाप्रभु किसी प्रकार भी बिना संन्यास लिये नहीं मानेंगे, तो सभी ने उनके इस शुभ काम में सहायता करने का निश्चय किया। भारती जी से पूछकर कोई तो आस-पास के संन्यासियों को बुलाने चला गया। कोई पूजन की साम्रगी के ही लिये दौड़ा गया। कोई जल्दी से केला और आम्रपल्लव ही ले आया। कोई दूध की हांड़ी ही उठा लाया। कोई बहुत-सी मिठाई ही ले आया। इस प्रकार बात-की-बात में ही भारती जी का सम्पूर्ण आश्रम खाद्य पदार्थों से तथा पूजन की साम्रगी से भर गया। जिसके घर में जो भी चीज थी वह उसी को लेकर आश्रम पर आ पहुँचा। एक ओर हलवाई भण्डार के लिये भोज्य पदार्थ बनाने लगा और दूसरी ओर संन्यासी और पण्डित मिलकर संन्यास की दीक्षा के निमित्त वेदी आदि बनाने लगे।
आश्रम के सामने आम्र के सुन्दर बगीचे में हवन की वेदियाँ बनायी गयीं। वे रोली, हल्दी, चूना तथा लाल, पीले, हरे आदि विविध प्रकार के रंगों से चित्रित की गयीं। स्थान-स्थान पर कदलीस्तम्भ गाडे़ गये। प्रभु ने सभी कर्म करने के निमित्त पं० चन्द्रशेखर आचार्यरत्न को अपना प्रतिनिधि बनाया। आचार्यरत्न ने डबडबाई आँखों से बड़े ही कष्ट के साथ विवश होकर प्रभु की इस कठोर आज्ञा का भी पालन किया। महाप्रभु ने गंगाजी में स्नान करके पहले देवता और ऋषियों को तृप्त किया, फिर अपने पितरों को शास्त्र-मर्यादा के अनुसार श्राद्ध-तर्पणद्वार सन्तुष्ट किया। प्रभु ने प्रत्यक्ष देखा कि पितृलोक से उनके पिता-पितामह आदि पूर्वजों ने स्वयं आकर उनके दिये हुए पिण्डों को ग्रहण किया और प्रसन्नता प्रकट करते हुए उन्हें आशीर्वाद दिया।
वेदी के चारों ओर सुन्दर-सुन्दर अनेकों याग-वृक्षों की समिधाएँ, भाँति-भाँति के सुगन्धित पुष्प, मालाएँ, अक्षत, धूप, नैवेद्य, पूगीफल, नारिकेल, ताम्बूल, कई प्रकार के मेवे, तिल, जौ, चावल, घृत आदि हवन की सामग्री, कुश, दूर्वा, घट, सकोरे आदि सभी सामान फैले हुए रखे थे। वेदी को घेरे हुए बहुत-से ॠत्विज ब्राह्मण और संन्यासी बैठे हुए थे, इतने में ही एक आदमी हरिदास नाम के नापित को साथ लिये हुए आश्रम पर आ पहुँचा। हरिदास को देखते ही भारती जी जल्दी से कहने लगे- ‘बड़ा अतिकाल हो गया है, अभी बहुत-सा कृत्य शेष है, आप जल्दी से क्षौर करा लीजिये।’
प्रभु वेदी के निकट से उठकर एक ओर चटाई पर क्षौर कराने के लिये बैठे। हरिदास नापित भी पास में ही अपनी पेटी को रखकर बैठ गया। हरिदास वैसे तो जाति का नापित था, किन्तु उसका कटवा ग्राम में बड़ा भारी प्रभाव था। वह पहले से ही भगवद्भक्त था और सभी नाइयों का पंच था। नाइयों की बड़ी-बड़ी पंचायतों में उसे ही निर्णय करने के लिये बुलाया जाता और सभी लोग उसकी बातों को मानते थे।
नापित ने पहले तो एक बार सजे हुए सम्पूर्ण आश्रम की ओर देखा। फिर संन्यासी और ब्राह्मणों से घिरी हुई वेदी की ओर उसने दृष्टि डाली और फिर बड़े ही ध्यान से महाप्रभु के मुख-कमल की ओर निहारने लगा। महाप्रभु के दर्शन से उसकी तृप्ति ही नहीं होती थी, वह ज्यों-ज्यों प्रभु की मनोहर मूर्ति को देखता त्यों-ही-त्यों उसका हृदय प्रभु की ओर अत्यधिक आकर्षित होता जाता था। थोड़ी देर तक वह इसी प्रकार टकटकी लगाये अविचल भाव से प्रभु के श्रीमुख की ओर निहारता रहा। तब प्रभु ने देखा यह तो काठ की मूर्ति ही बन गया तब आप उसे सम्बोधन करके बोले- ‘भाई! देर क्यों करते हो? विलम्ब हो रहा है। जल्दी कार्य करो।’
नापित ने कुछ अन्यमनस्कभाव से कहा- ‘क्या करूँ महाराज?
प्रभु ने कहा- ‘क्षौर करो और क्या करते, इसीलिये तो तुम्हें बुलाया है?’
नापित ने कहा- ‘आपके बाल तो बहुत बड़े-बड़े़ हैं, मालूम पड़ता है आप तो बालों को बनवाते ही नहीं।’
प्रभु ने कहा- ‘यह तो ठीक है, किन्तु संन्यास के समय सम्पूर्ण बालों को बनवाने का शास्त्रीय विधान है।’
नापित ने कहा- ‘तो महाराज जी! साफ बात है, आप चाहे बुरा मानिये या भला। मुझसे यह निर्दय काम कभी न होगा। आप आज्ञा करें तो मैं अपने छुरे से अपने प्रिय पुत्र का वध कर सकता हूँ; किन्तु इन काले-काले घुंघराले बालों को काटने की मुझमें सामर्थ्य नहीं। प्रभो! इन रेशम-से लच्छेदार केशों के ऊपर मेरा छूरा नहीं चलेगा। वह फिसल जायगा। यह काम मेरी शक्ति से बाहर है। कटवा ग्राम में और भी बहुत-से नाई रहते हैं, उनमें से किसी को बुला लीजिये। मुझसे इस काम की स्वप्न में भी आशा न रखिये।’
प्रभु ने अधीरता प्रकट करते हुए कहा- ‘हरिदास! तुम मेरे इस शुभ कार्य में रोडे़ मत अटकाओ। मैं श्रीकृष्ण से मिलने के लिये व्याकुल हो रहा हूँ, तुम मेरे इस काम में सहायक बनकर अक्षय सुख के भागी बनो।
मेरे इस काम में सहायता करने से तुम्हारा कल्याण होगा। भगवान तुम्हें यथेच्छ धन-सम्पत्ति प्रदान करेंगे और मेरे आशीर्वाद से तुम सदा सुखी बने रहोगे।’
हरिदास नापित ने सूखी हंसी हंसकर कहा- ‘धन तो मेरे है नहीं, सन्तान चाहे मेरी आज ही मर जायँ और मेरे सम्पूर्ण शरीर में चाहे गलित कुष्ठ ही क्यों न हो जाय, प्रभो! मुझसे यह काम नहीं होने का। धन, सम्पत्ति और स्वर्ग का लोभ देकर आप किसी और को बहका सकते हैं, मुझे इनकी इच्छा नहीं। आप नगर से दूसरा नापित बुला क्यों नहीं लेते?’
प्रभु ने कहा- ‘हरिदास! बिना मुण्डन-संस्कार के संन्यास-कर्म सम्पन्न ही नहीं हो सकता। संन्यास-कर्म में तुम्हीं तो एक प्रधान साक्षी हो। तुम मुझ दीन-हीन-दु:खी कंगाल पर दया क्यों नहीं करते? मेरे प्राण श्रीकृष्ण के लिये तड़प रहे हैं। तुम इस प्रकार मुझे निराश कर रहे हो। भैया! देखो, मैं अपनी धर्मपत्नी से अनूमति ले आया हूँ, मेरी माता ने मुझे संन्यासी होने की आज्ञा दे दी है। मेरे पितृतुल्य पूज्य मौसा आचार्यरत्न स्वयं अपने हाथों से संन्यास के कृत्य करा रहे हैं। पूज्यपाद गुरुवर भारती जी ने भी मेरी प्रार्थना स्वीकार कर ली है। अब तुम क्यों मेरे इस शुभ कार्य में विघ्न उपस्थित करते हो? तुम मुझे संन्यासी होने से क्यों रोकते हो?’
नापित ने कहा- ‘प्रभो! मैं आपको कब रोकता हूँ। आप भले ही संन्यासी बन जाइये, किन्तु मेरा कथन इतना ही है, कि मुझसे यह पाप-कर्म नहीं हो सकता। किसी दूसरे नापित से आप करा सकते हैं।’
प्रभु ने कहा- ‘यह बात नहीं है। हरिदास! यह काम तुम्हारे ही द्वारा होगा। तुम्हें जो भय हो उसे मुझसे कहो।’
आँखों में आंसू भरे हुए नापित ने कहा- ‘सबसे बड़ा भय तो मुझे इन इतने सुन्दर घुँघराले बालों को सिर से पृथक करने में ही हो रहा है। दूसरे मैं इसमें अपने धर्म की प्रत्यक्ष क्षति देख रहा हूँ। जिस छुरे से भी आपके पवित्र बालों का मुण्डन करूंगा, उसे ही फिर सर्वसाधारण लोगों के सिरों से कैसे छुवाऊंगा? जिस हाथ से आपके सिर का स्पर्श करूँगा, उससे फिर सब किसी की खोपड़ी नहीं छू सकता। बाल बनाकर ही मैं अपने परिवार का भरण-पोषण करता हूँ। फिर मेरा काम किस प्रकार चलेगा?’
प्रभु ने कहा- ‘हरिदास! तुम आज से इस नापितपने के कार्य को छोड़कर और कोई दूसरा छोटा-मोटा रोजगार कर लेना। मेरे इस संन्यास के प्रधान कार्य में तुम्हें ही सहायक बनना पड़ेगा।’
अब तक तो नापित अपने-आपको रोके हुए था; किन्तु अब उससे नहीं रहा गया। वह जोरों के साथ रुदन करने लगा। रोते-रोते वह कहने लगा- ‘प्रभो! आप यह तो मेरी गर्दन पर छूरी चला रहे हैं। हाय! इन सुन्दर केशों को मैं आपके सिर से किस प्रकार अलग कर सकूँगा? प्रभो! मुझे क्षमा कीजिये, मैं इस काम को करने में एक दम असमर्थ हूँ।’
प्रभु ने जब देखा कि यह तो किसी भी तरह से राजी नहीं होता, तब उन्होंने अपने ऐश्वर्य से काम लिया और उसे क्षौर करने के लिये आज्ञा देते हुए कहा- ‘हरिदास! अब देर करने का काम नहीं है, जल्दी से क्षौर करो।’
हरिदास अब विवश था, उसने कांपते हुए हाथों से प्रभु के चिकने और घुंघराले बालों को स्पर्श किया। वह अश्रु बहाता जाता था और क्षौर करता जाता था। कभी क्षौर करते-करते ही रुक जाता और जोरों से भगवन्नामों का उच्चारण करता हुआ रोने लगता। जब प्रभु आग्रहपूर्वक उसे समझाते तब फिर करने लगता। थोड़ी देर पश्चात फिर उठाकर नृत्य करने लगता। इस प्रकार क्षौर करते-करते कभी गाता, कभी नाचता, कभी रोता और कभी हंसता। इस प्रकार कहीं सायंकाल तक वह महाप्रभु के क्षौर-कर्म को कर सका।
क्षौर-कर्म समाप्त हो जाने पर प्रभु ने हरिदास नापित का प्रेम के सहित गाढा़लिंगन किया। प्रभु का आलिंगन पाते ही वह एकदम बेहोश होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा और बहुत देर तक वह चेतनाशून्य पुरुष की भाँति पड़ा रहा। थोड़ी देर में होश आने पर वह उठा और उसने क्षौर करने का अपना सभी सामान उसी समय कलिमलहारिणी भगवती भागीरथी के प्रवाह में प्रवाहित कर दिया और जोरों के साथ हरिध्वनि करने लगा।
इस प्रकार थोड़ी देर ही प्रभु का संसर्ग होने से वह महाभागवत नापित सदा के लिये अमर बन गया। आज भी कटवा के निकट ‘मधुमोदक’ नाम से उन मुडे़ हुए केशों की और उस परम भाग्यशाली नापित की समाधियाँ लोगों को त्याग, वैराग्य और प्रेम का पाठ पढ़ती हुई उस हरिदास के अपूर्व अनुराग की घोषणा कर रही हैं। गौर-भक्त उन समाधियों के दर्शनों से अपने नेत्रों को सफल करते हैं और वहाँ की पावन धूलि को अपने मस्तक पर चढा़ते हुए उस घटना के स्मरण से रोते-रोते पछाड़ खाकर गिर पड़ते हैं। धन्य हैं। तभी तो कहा है-
पारस में अरू संत में, संत अधिक कर मान।
यह लोहा सुबरन करे, वह करे आप समान।।
महाप्रभु गौरांग के गुणों के साथ हरिदास की अहैतु की भक्ति भी अमर हो गयी। गौर-भक्तों में हरिदास भी पूज्य बन गया।
क्रमशः अगला पोस्ट [83]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram sannyas initiation
Give up your attachment to body, bones, flesh and blood Always release your affection for your wife, children and others. Look at this world always destined to break in the moment Be fond of detachment and passion and be devoted to devotion.
How much pleasure there is in renunciation, only that man can know, in whose heart the desire to have love for the Lord’s lotus feet has arisen, who runs to cut off worldly objects, he can experience great happiness in renunciation. . Whose senses are always desirous of sensual pleasures, whose mind is always thinking of worldly things, how can he understand the happiness of disinterest. When the mind, being detached from worldly pleasures, is always yearning for great renunciation, whose disinterest is not momentary like water bubbles but permanent, he is the best entitled to experience the real happiness of renunciation. Those who start following the path of renunciation due to momentary renunciation in enthusiasm, they end up downfall, that is why it is said – ‘Renunciation cannot survive without disinterest.’ He cannot become a Bhagwat devoted to Bhagwat-Raga-Rasa full of passion. The heart should be quivering for renunciation, just as the soul starts quivering to breathe after being immersed in water for a long time.
Bharti Maharaj agreed to give sannyas-initiation to Mahaprabhu. Seeing this, there was no limit to the happiness of the Lord. He kept on chanting the Lord’s name all night, being unconscious in love and dancing like a madman, getting up from his seat in the ecstasy of joy. Just as the young man in love waits anxiously for the night to meet the new bride, similarly Mahaprabhu kept waiting for the end of that night to be initiated into sannyas-religion. That night the Lord could not sleep even for a moment. Due to continuous chanting, the Lord’s eyes began to close on their own. Meanwhile, the birds sitting on the branches of the mango tree started singing in different voices with their soft voices. As if they are already invoking Mahaprabhu on the occasion of his retirement.
Hearing the chirping of the birds, Lord’s sleep went away and he got up from the seat and sat down. The Lord woke up Acharyaratna, Nityananda etc. who were lying unconscious nearby. When everyone woke up, the Lord retired from his routine. For the purpose of taking a bath in Ganga ji, the Lord along with all his companions bowed down at the lotus feet of his future Gurudev and very humbly requested him by tying both hands – ‘ God! I am present, now order what I have to do. Expressing some compulsion, Bharti ji said- ‘Now whatever materials are needed for the purpose of sannyas-diksha, they should be collected. I will arrange for it now.’ Saying this he sent a man to Katwa to bring all the things.
The male and female residents of Kantak-city knew till yesterday that Bharti ji would never agree to give that young man for sannyas-diksha; But today morning when they heard the news that Bharti has agreed to make that Brahmin-youth a sanyasi and today itself they will make him a recluse who begs for alms from door to door by depriving him of education. , then there was no place for their sorrow. Don’t know why those villagers got affection towards the Lord just by having a darshan. All of them started considering the Lord as their own relative. In no time, many men and women gathered at the ashram. The women were standing on one side shedding tears. The men were talking among themselves about various things.
Some would say- ‘Oh! Only this young man should be explained. As it is, after persuading it, it should be brought near its mother.’ On this the other would say – ‘If he understands then at least explain. When even his relatives could not make him understand, then how can you and I make him understand.’
Just then an old man said – ‘Aji! We are all such people, we will not allow the work of retirement to happen, that’s it, the story is over.’ On this some thinker said- ‘Brother! How can this happen. How can we force such auspicious work. If no help can be made in such good deeds, then it is not right to create obstacles in this way. We can explain through words only. It is not our religion to force.’ Religion went like this or that. In such a religion, one should put oil on fire. They have become, somewhere religious. If this is the case, then why don’t you take retirement. Why bring this, bring that, keep this, keep lifting it all day long.
‘If you leave your sons and daughters and become a sannyasin, then we will also know.’ After saying this, looking at the people, he started saying with the same enthusiasm – ‘Look brother! Let them talk, their intelligence has become stubborn. Well, in which theology would it be written to make such a young man of twenty-four years old a beggar from house to house, in whose house there is a young woman, an old widow mother without other children. Even if it is written in someone, then Baba! We worship such theology from afar. Congratulations to this Baba for such theology. He should make his elder son a monk or his condition is that he should become one. In front of our eyes, we will not allow this Brahmin Kumar to wear saffron colored clothes by giving up his education.
If Bharti Maharaj agrees directly, then it is okay, otherwise I will strangle Bharti ji and bring him out of the village and you people should bring this young man to his house by making him sit in a boat. I will take it upon myself to pacify Bharti.’
Hearing such enthusiastic words of that young man, many of the listeners got excited and they started supporting his words by saying ‘Okay, okay, it should be done like this’.
On this the same thoughtful old man said – ‘Brother! Doing this will not work. If we can’t do religion with our weakness, then shouldn’t we let others do it too. If we are close due to our own bad luck, then we cannot even see the nose of others. These are all things of passion. The only thing we can do is to persuade Bharti ji to stop giving diksha.’ Everyone liked this talk of the old man and all together reached Bharti ji. Everyone sat down after saluting Bharti ji. On the other hand Mahaprabhu was sitting with his head down, Chandrashekhar Acharya and Nityanand ji etc. were sitting near him on an old torn mat. Sitting near Bharti, people started looking at each other’s faces. Knowing the opinion of everyone, the same thoughtful old man said with folded hands – ‘Swamiji Maharaj! We want to make a request to you.’ Expressing happiness, Bhartiji Maharaj quickly spoke – ‘Yes, say yes, definitely say. Feel free to say whatever you want to say.
The old man said – ‘ Maharaj! You know everything, nothing is hidden from you. We are feeling great pity for these Brahmins and Kumars. There is an old mother in his house, a young woman, there is no other man in the house. There is no bound instinct for their sustenance. His wife has no children yet. Even in such a situation, he is retiring in a fit of rage, it is causing great pain to all of us. We have heard all these things from the mouth of his relatives only. These things will not be hidden from you too. That’s why it is our prayer that no matter how much they insist, you should never give them sannyas initiation.
After listening to the words of all those people, Bharti ji expressed his helplessness with great sadness and said- ‘Brothers! I already know all the things you have said. I myself am not in favor of giving them sannyas, nor am I giving initiation to them with my consent. Firstly, I do not have the ability to postpone their wishes. Others cannot understand them as the elements of religion. He himself is a great pundit, if there was a fool, then you people could even doubt that I have misled you. He knows very well the principle of religion.
While living at home, following Varnashram-Dharma, they can practice their religion by the deeds mentioned in the Vedas. But now they are bent on taking the initiation of great renunciation! It is beyond my power. Yes, you people should explain to them yourself, if they agree to return home after listening to you, then I will be very happy. You people should at least remove this thing from your heart that I myself am giving initiation to them. Look at this, these Acharyas who are sitting in front of him are like his father’s relatives, when he himself could not explain to him and on the contrary, he is ready to get all the rituals of sannyas done according to his orders, then mine and yours are capable. What is it?’
Hearing such tactful words from the mouth of Bharti ji, everyone started staring at the face of the Lord. Many men were crying seeing such a condition of the Lord. Seeing all those villagers sad because of his affection, the Lord said in a very sad voice – ‘Brothers! You are my soulmate, friend, brother. My heart is filled with joy thinking that you have so much affection for me. I myself am understanding all the things you guys are saying, but brothers! I am helpless, I am no longer in my control. Shri Krishna has caught me and brought me. All of you brothers give such blessings that I can find my beloved Shri Krishna. I will go to Vrindavan, ask for pieces from the houses of Vrajvasis and eat them. I will reside under the Kadamba trees outside Vrindavan. I will drink the beautiful dark colored clean water of Yamuna ji and chant the melodious names of Aharnish Shri Krishna. I cannot be happy until I meet my beloved Shri Krishna. I can’t find peace. Shri Krishna-My heart is burning in separation, it can be calmed only by the beautiful, cool meeting face of Shri Krishna. All of you bless me once from your heart.’ Saying this, while chanting the names of God loudly, the Lord started crying in a very compassionate voice. All human beings became mesmerized. I didn’t have the courage to say anything further to anyone.
When people saw that Mahaprabhu would not agree without taking sannyas, everyone decided to help him in this auspicious work. After asking Bharti ji, someone went to call the nearby sannyasins. Some ran for the material of worship. Somebody hurriedly brought only banana and amrapallav. Someone just brought a pot of milk. Someone brought a lot of sweets. In this way, Bharti ji’s entire ashram was filled with food items and worship material. Whoever had whatever was in his house, he reached the ashram with only that. On the one hand, the confectioner started making food items for the store and on the other hand, the sannyasis and pundits together started making altars etc. for the initiation of sannyas.
Havan altars were made in the beautiful mango garden in front of the ashram. They were painted with roli, turmeric, lime and different types of colors like red, yellow, green etc. Kadalistambh were buried at different places. The Lord appointed Pt. Chandrashekhar Acharyaratna as his representative to do all the work. With tears in his eyes, Acharyaratna was forced to obey even this harsh order of the Lord with great pain. Mahaprabhu first satisfied the gods and sages by bathing in Gangaji, then satisfied his forefathers according to the norms of the scriptures. The Lord directly saw that his forefathers and forefathers etc. from Pitrlok themselves came and received the pinds given by him and blessed him expressing happiness.
Around the altar there are many beautiful arrangements of Yag-trees, different types of fragrant flowers, garlands, akshat, incense, naivedya, pugifal, coconut, tambul, many types of nuts, sesame, barley, rice, ghee etc. are used for Havan. Samagri, Kush, Durva, Ghat, Sakore etc. all the things were kept spread. Many ritvij brahmins and sanyasis were sitting around the altar, in the meantime a man came to the hermitage accompanied by a measured named Haridas. On seeing Haridas, Bharti ji quickly said – ‘It is too late, there is still a lot of work to be done, you should get it done quickly.’
Prabhu got up from near the altar and sat on one side of the mat to perform Kshaur. Haridas Napit also sat nearby keeping his box. Although Haridas was a member of caste, but he had a huge influence in Katwa village. He was already a devotee of the Lord and was the arbiter of all the barbers. In the big panchayats of barbers, he was called to take decisions and all the people obeyed his words.
Napit first looked at the whole ashram decorated once. Then he looked at the altar surrounded by sanyasis and brahmins, and then began to gaze intently at the lotus face of Mahaprabhu. He was not satisfied with the darshan of Mahaprabhu, as soon as he looked at the beautiful idol of the Lord, his heart was more and more attracted towards the Lord. For a while, he kept gazing like this and gazing at the Srimukh of the Lord with an unwavering attitude. Then the Lord saw that it had become a wooden idol, then you addressed him and said – ‘Brother! Why do you delay? It’s getting delayed. Act quickly.
Napit said with some distraction – ‘ What should I do, Maharaj? The Lord said – ‘Kshaur, what else would you do, that’s why I have called you?’ Napit said- ‘Your hair is very long, it seems that you do not get your hair done at all.’
The Lord said- ‘It is fine, but at the time of retirement there is a scriptural law to get all the hair done.’ Napit said – ‘ So Maharaj ji! It is clear, whether you believe it bad or good. This cruel act would never happen to me. If you order, I can kill my dear son with my knife; But I am not able to cut these black curly hairs. Lord! My knife will not work on these silk-waxed hairs. He will slip. This work is beyond my power. There are many other barbers living in Katwa village, call any one of them. Don’t expect this work from me even in your dreams.
Expressing impatience, the Lord said – ‘Haridas! Don’t put obstacles in this auspicious work of mine. I am getting anxious to meet Shri Krishna, you become a part of Akshay happiness by being helpful in this work of mine. Helping me in this work will benefit you. God will give you as much wealth as you want and with my blessings you will always be happy.’
Haridas Napit laughed dryly and said – ‘ Money is not mine, even if my children die today and even if my whole body becomes leprosy, Lord! I can’t do this job. You can mislead someone else by giving greed for money, wealth and heaven, I do not wish for them. Why don’t you get another measured call from the city?’
The Lord said – ‘ Haridas! Sannyas-karma cannot be completed without shaving-rites. You are the main witness in sannyas-karma. Why don’t you have mercy on me, poor, poor and sad? My life is yearning for Shri Krishna. You are disappointing me like this. Brother Look, I have taken permission from my wife, my mother has given me permission to become a monk. My paternal respected Mousa Acharyaratna himself is getting the acts of sannyas done with his own hands. Pujyapad Guruvar Bharti ji has also accepted my prayer. Now why do you present obstacles in this auspicious work of mine? Why do you stop me from becoming a monk?’ Napit said – ‘ Lord! When do I stop you You may become a monk, but my statement is this much, that I cannot commit this sin. You can get it measured by another person.
The Lord said – ‘It is not a matter. Haridas! This work will be done by you only. Tell me what you fear.’ With tears in his eyes, Napit said- ‘The biggest fear I am having is to separate these beautiful curly hairs from my head. Secondly, I see a direct loss of my religion in this. How can I touch the heads of ordinary people with the knife with which I shave your holy hair? The hand with which I will touch your head, cannot touch anyone’s skull again. I feed my family only by making hair. Then how will my work go on?
The Lord said – ‘ Haridas! From today you leave this measurement work and do some other small job. You will have to be my helper in the main task of my retirement. Till now the measured was restraining himself; But now he could not do it. He started crying loudly. While crying, he started saying – ‘Lord! You are stabbing my neck. Oh! How can I separate these beautiful hairs from your head? Lord! I am sorry, I am absolutely unable to do this work.’
When the Lord saw that he would not agree in any way, then he acted with his majesty and while ordering him to eat, said- ‘Haridas! Now there is no work to delay, do Kshaur quickly.
Haridas was now constrained, he touched the smooth and curly hair of the Lord with trembling hands. He used to shed tears and used to do Kshaur. Sometimes while doing Kshaur, he would stop and while chanting the names of God loudly, he would start crying. When the Lord persistently explained to him, then he used to do it again. After a while, he started dancing again. In this way, while doing Kshaur, he sometimes sings, sometimes dances, sometimes cries and sometimes laughs. In this way, he was able to perform Kshor-karma of Mahaprabhu till somewhere in the evening.
After the kshaura-karma was over, the Lord deeply embraced Haridas Napit with love. As soon as he got the embrace of the Lord, he fainted and fell on the earth and for a long time he remained like a man without consciousness. After regaining consciousness in a short while, he got up and at the same time, at the same time, he put all his utensils in the flow of Kalimalharini Bhagwati Bhagirathi and started making Haridhwani loudly.
In this way, by being in contact with the Lord for a short time, that Mahabhagwat Naipat became immortal forever. Even today, near Katwa, the tombs of those twisted hairs and that most fortunate Napit by the name of ‘Madhumodak’ are announcing the incomparable affection of that Haridas while reciting the lesson of renunciation, quietness and love to the people. Gaur-devotees make their eyes successful by seeing those mausoleums and while offering the holy dust there on their heads, remembering that incident, they fall down crying. Blessed are you That’s why it is said-
Among other saints in Paras, saints are more respected. This iron subran does it, he does it like you.
Along with the qualities of Mahaprabhu Gauranga, the causeless devotion of Haridas also became immortal. Haridas also became worshipable among Gaur-devotees.
respectively next post [83] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]