।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
दक्षिण के तीर्थों का भ्रमण (2)
परोपकृतिकैवल्ये तोलयित्वा जनार्दन:।
गुर्वीमुपकृतिं मत्वा ह्यवतारान दशाग्रहीत।।
साधारण मनष्य जिन कामों को करते हैं, उन्हीं को महापुरुष भी किया करते हैं। किन्तु साधारण लोगों के कार्य अपने सुख के लिये होते हैं और महापुरुषों के काम समस्त जीवों के कल्याण के निमित्त होते हैं। महात्मा तो स्वयं तीर्थस्वरूप हैं, उन्हें तीर्थ यात्रा की आवश्यकता ही क्या? उन्हें न तो स्वर्ग की ही इच्छा है और न पवित्र होने की। करोड़ों स्वर्ग उनके संकल्प से उत्पन्न हो सकते हैं और जगत की पवित्र करने की शक्ति उनमें स्वयं ही मौजूद है। ऐसी स्थिति में उनका तीर्थ भ्रमण केवल मात्र परोपकार और जीवों के उद्धार के ही निमित्त होता है, इसीलिये महाप्रभु श्रीनीलाचल को छोड़कर सुदूर दक्षिणप्रान्त के तीर्थों में भ्रमण करते रहे। वे जहाँ भी पधारे, वही तीर्थ धन्य हो गये और वहाँ के नर नारी कृतकृत्य हो गये।
चातुर्मास्य बिताकर महाप्रभु वेंकट भट्ट से विदा लेकर श्रीरंगम होते हुए ॠषभ पर्वत पर गये। वहाँ पर उन्होंने सुना कि स्वामी परमानन्दपुरी महाराज यहीं ठहरे हुए हैं।
इस संवाद को सुनकर प्रभु पुरी महाराज के दर्शनों के लिये उनके निवास स्थान पर गये और वहाँ जाकर उनकी चरण वन्दना की। पुरी महाराज ने प्रभु को प्रेमपूर्वक आलिंगन किया और तीन दिन तक दोनों साथ ही रहकर कृष्ण-कथा, कृष्ण कीर्तन करते रहे। पुरीमहाराज ने कहा- ‘मेरी इच्छा है कि मैं श्रीपुरुषोत्तम भगवान के दर्शन करके गंगा स्नान के निमित्त नवद्वीप जाऊँ।’
महाप्रभु जी ने कहा- ‘आप तब तक चलें, नवद्वीप से लौटकर आप फिर पुरी ही आवें। मैं भी सेतुबन्ध रामेश्वर के दर्शन करता हुआ शीघ्र ही पुरी आने का विचार कर रहा हूँ, यदि भगवत कृपा हुई तो हम दोनों साथ ही साथ नीलाचल में रहेंगे।’ यह कहकर प्रभु तो सेतुबन्ध रामेश्वर की ओर चले और पुरीमहाराज ने जगन्नाथपुरी का रास्ता पकड़ा।
महाप्रभु ने अनेक वन, पर्वत और ग्रामों में होते हुए शैलपर्वत पर पहुँचे। वहाँ ब्राह्मण-ब्राह्मणी का वेष धारण किये हुए शिव पार्वती का प्रभु ने आतिथ्य ग्रहण किया, वहाँ से कामकोष्ठीपुरी होते हुए वे दक्षिण मथुरा पहुँचे।
वहाँ पर एक ब्राह्मण ने प्रभु को निमन्त्रित किया। वह ब्राह्मण प्रतिक्षण रोता रोता ‘सीताराम, सीताराम’ रटता रहता था। प्रभु ने उसका निमंत्रण सहर्ष स्वीकार किया। और मध्याह्न-स्नान करके उसके घर भिक्षा करने पहुँचे। महाप्रभु ने जाकर देखा, उसने कुछ भी भोजन नहीं बनाया है। उदासभाव से चुपचाप बैठा है।
महाप्रभु ने हँसकर कहा- ‘विप्रवर ! आपने अभी तक भोजन क्यों नहीं बनाया है?’
अत्यन्त ही सरलता के साथ ब्राह्मण ने कहा- ‘प्रभो ! यहाँ अयोध्यापुरी की तरह वैभव थोड़ा ही है, जो दास दासी सब काम क्षणभर में कर दें। यहाँ तो अरण्यवास है, लक्ष्मण जी जंगलों से फल-फूलों लावेंगे, तब कहीं सीतामाता रन्धन करेंगी, तब मेरे सरकार प्रसाद पावेंगे।’
महाप्रभु उस भक्त ब्राह्मण के ऐसे विशुद्ध भाव को देखकर अत्यन्त ही प्रसन्न हुए और उसकी भूरि भूरि प्रशंसा करते हुए प्रेम में उन्मत्त होकर नृत्य करने लगे। अब वह ब्राह्मण उठा और अस्त-व्यस्त भाव से भोजन बनाने लगा। तीसरे पहर जाकर कहीं भोजन बना। उसने बड़ी श्रद्धा-भक्ति के सहित प्रभु को भिक्षा करायी। प्रभु को भिक्षा कराकर वह निराहार ही बना रहा। उसने कुछ भी प्रसाद नहीं पाया। तब प्रभु ने पूछा- ‘विप्रवर ! आपने प्रसाद नहीं पाया, यह क्या बात है? आप इतने दुखी क्यों है? अपने दुख का मुझे ठीक ठीक कारण बताइये ?’ उस ब्राह्मण ने रोते रोते कहा- ‘प्रभो ! जगज्जननी सीतामाता को दुष्ट रावण अपने पापी हाथों से पकड़ ले गया। उस दुष्ट राक्षस ने माता का स्पर्श किया, इससे बढ़कर मेरे लिये और दु:ख हो ही क्या सकता है, मैं अब जीवन धारण न करूँगा। जब मुझे यह बात स्मरण होती है तभी मेरा कलेजा फटने लगता है।’
महाप्रभु उसके ऐसे दृढ़ अनुराग को देखकर मुग्ध हो गये। ओहो ! कितना ऊंचा भाव है, इसे महापुरुष के सिवा कोई समझ ही क्या सकते हैं? प्रभु ने उसे धैर्य बंधाते हुए कहा- ‘विप्रवर ! आप इनते भारी विद्वान होकर भी ऐसी भूली-भूली बातें करते हैं। भला जगज्जननी सीता माता को चुरा ले जाने की शक्ति किसी में हो ही कैसे सकती?’ यह तो भगवान की एक लीला थी। आप भोजन करें और इस बात को मन में से निकाल दें। महाप्रभु के आग्रह से उसने थोड़ा बहुत प्रसाद पा लिया, किन्तु उसे पूर्ण सन्तोष नहीं हुआ।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण में तो स्पष्ट सीतामाता का हरण लिखा हुआ है। इसीलिये वह ब्राह्मण चिन्तित ही बना रहा। महाप्रभु भी दूसरे दिन आगे को चल दिये। दक्षिण मथुरा से चलकर महाप्रभु ने कृतमाला तीर्थ में स्नान किया और महेन्द्र पर्वत पर जाकर परशुराम भगवान के दर्शन किये। वहाँ से सेतुबन्ध रामेश्वर के दर्शन करते हुए वे धनुस्तीर्थ में पहुँचे और उस तीर्थ में स्नान करके श्रीरामेश्वर में पहुँचे। वहाँ शिव जी के दर्शन करके प्रभु लौट ही रहे थे कि कुछ ब्राह्मणों को वहाँ बैठे हुए देखा। वहाँ पर कूर्मपुराण की कथा हो रही थी। प्रभु भी कथा सुनने के लिये बैठ गये। दैवयोग से उस समय सीता जी के हरण का प्रसंग हो रहा था। प्रभु ने कूर्मपुराण में सुना- ‘जिस समय जनकनन्दिनी सीता जी ने दशग्रीव रावण को देखा तब उन्होंने अग्नि की आराधना की। उसी समय अग्नि ने सीता को अपने पुर में रख लिया और उसकी छाया को बाहर रहने दिया। राक्षसराज रावण सीता जी की उस छाया को ही हरकर ले गया था। जब रावण को मारकर भगवान ने सीता जी की अग्नि परीक्षा की, तब अग्नि ने असली सीता जी को निकालकर दे दिया। वास्तव में रावण सीता जी की छाया को ही हरकर ले गया था। असली सीता का तो उसने स्पर्श तक नहीं किया।’
भक्तवत्सल महाप्रभु इस प्रसंग को सुनकर अत्यन्त ही प्रसन्न हुए। उन्होंने सोचा- ‘इसकी प्रतिलिपि करके उस परमभक्त रामदास को दिखानी चाहिये।’ फिर प्रभु ने सोचा-‘यदि मैं नवीन पत्र पर प्रतिलिप करके ले गया तो बहुत सम्भव है, नूतन श्लोक समझकर उसे विश्वास न हो।’ इसलिये प्रभु ने उस कथा कहने वाले ब्राह्मण से कहा- ‘हम इस पृष्ठ की नकल करके आपको दे देंगे। इस पुराने पृष्ठ को आप हमें दे दें।
कथावाचक ने प्रभु की इस बात को स्वीकार कर लिया और प्रभु ने उसकी नूतन प्रतिलिप करके तो उस कथावाचक को दे दी और वह पुराना पृष्ठ अपने पास रख लिया।
उस पृष्ठ को लेकर दयालु गौरांग फिर दक्षिण मथुरा में रामभक्त ब्राह्मण के घर आये और उसे कूर्मपुराण के पुराने पृष्ठ को दिखाते हुए प्रभु ने कहा- ‘लीजिये अब तो आपको सन्तोष होगा। यह तो कूर्मपुराण में ही लिखा है कि रावण सीता की छाया को हरकर ले गया था।’
महाप्रभु की दयालुता को देखकर वह ब्राह्मण प्रेम में व्याकुल होकर रुदन करने लगा। प्रभु के पैरों को पकड़कर उसने रोते-रोते कह- ‘आज आपने मेरे दु:खों को दूर किया। आप मेरे इष्टदेव श्रीरघुनाथ जी ही हैं। मेरे इष्टदेव के सिवा ऐसी असीम कृपा दूसरा कोई कर ही नहीं सकता। आज आपके अमोघ दर्शन से मैं कृतार्थ हो गया। आपने अनुग्रह करके शोकसागर में डूबते हुए मुझ निराश्रय का उद्धार कर दिया। प्रभो ! मैं आपकी स्तुति ही क्या कर सकता हूँ?
उस ब्राह्मण की ऐसी स्तुति सुनकर प्रभु ने कहा- ‘विप्रवर ! मैं आपकी भक्ति देखकर बहुत ही अधिक सन्तुष्ट हुआ हूँ। ऐसा सच्चा भक्त मुझे और कहीं नहीं मिला।’ इस प्रकार उस ब्राह्मण को सन्तुष्ट और कृतार्थ करके महाप्रभु आगे के तीर्थों में जाने का विचार करने लगे।
क्रमशः अगला पोस्ट [109]
••••••••••••••••••••••••••••••••••
[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Pilgrimages to the South (2)
Janardana, weighing in the solitude of helping others. Considering the Guru as a help, he took the tenth of the incarnations.
The great men also do the things which are done by ordinary people. But the actions of ordinary people are for their own happiness and the actions of great men are for the welfare of all living beings. Mahatma himself is a pilgrimage, what is the need of pilgrimage to him? They have neither the desire of heaven nor of becoming pure. Millions of heaven can arise from his resolution and the power to purify the world is present in him. In such a situation, his pilgrimage tour is only for the sake of charity and salvation of the living beings, that is why Mahaprabhu left Srinilachal and kept visiting the pilgrimages of the far south region. Wherever he went, that pilgrimage became blessed and the men and women there became grateful.
After spending Chaturmasya, Mahaprabhu took leave of Venkata Bhatta and went to Rishabh Parvat via Srirangam. There he heard that Swami Parmanandpuri Maharaj was staying here.
Hearing this dialogue, Prabhu went to Puri Maharaj’s residence for darshan and worshiped his feet there. Puri Maharaj lovingly embraced the Lord and for three days both of them stayed together and recited Krishna-Katha, Krishna-Kirtan. Purimaharaj said- ‘I wish to visit Lord Shri Purushottam and go to Navadweep to bathe in the Ganges.’
Mahaprabhu ji said- ‘You go till then, after returning from Navadweep, you come to Puri again. I am also thinking of coming to Puri soon after having darshan of Setubandha Rameshwar, if God blesses, we both will live together in Nilachal.’ Saying this, the Lord went towards Setubandha Rameshwar and Purimaharaj took the way to Jagannathpuri.
Mahaprabhu reached the rock mountain after passing through many forests, mountains and villages. There Lord Shiva, disguised as a Brahmin-Brahmin, received the hospitality of Parvati, from there he reached South Mathura via Kamakoshthipuri.
There a Brahmin invited the Lord. That Brahmin used to cry every moment, ‘Sitaram, Sitaram’. The Lord gladly accepted his invitation. And after mid-day bath reached his house to beg. Mahaprabhu went and saw, he has not prepared any food. Sitting silently with sadness.
Mahaprabhu smiled and said – ‘ Vipravar! Why haven’t you cooked the food yet?’
Very simply the Brahmin said – ‘Lord! There is little splendor here like in Ayodhyapuri, the maids and servants can do all the work in a moment. Here it is Aranyavas, Laxman ji will bring fruits and flowers from the forests, then somewhere Sitamata will do Randhan, then my government will get prasad.’
Mahaprabhu was extremely pleased to see such a pure gesture of that devotee Brahmin and started dancing madly in love while praising him. Now that Brahmin got up and started cooking food in a chaotic manner. After going to third o’clock, food was prepared somewhere. He offered alms to the Lord with great devotion. By offering alms to the Lord, he remained fasting. He did not get any prasad. Then the Lord asked – ‘ Vipravar! You didn’t get the prasad, what’s the matter? why are you so sad Tell me the exact reason for your sorrow?’ That Brahmin said while crying – ‘Lord! The wicked Ravana caught hold of the worldly mother Sita with his sinful hands. That evil demon touched the mother, what can be more sad for me than this, I will not live anymore. My heart starts breaking when I remember this.’
Mahaprabhu was mesmerized to see such strong affection of his. Ooh! How high is this feeling, how can anyone understand it except a great man? Lord gave him patience and said – ‘ Vipravar! Even after being such a great scholar, you do such silly things. How can anyone have the power to steal away the worldly mother Sita?’ This was a play of God. You eat and put this thing out of your mind. With the request of Mahaprabhu, he got some prasad, but he was not completely satisfied.
In Shrimadvalmiki Ramayana, the abduction of Sitamata is clearly written. That’s why that Brahmin remained worried. Mahaprabhu also went ahead on the second day. Moving from South Mathura, Mahaprabhu took bath in Kritmala Tirtha and went to Mahendra Parvat and had darshan of Lord Parshuram. From there, seeing Setubandh Rameshwar, he reached Dhanustirth and after bathing in that pilgrimage reached Shri Rameshwar. The Lord was returning after seeing Lord Shiva there when he saw some Brahmins sitting there. The story of Kurmapuran was taking place there. Prabhu also sat down to listen to the story. By chance, at that time the incident of abduction of Sita ji was taking place. The Lord told in Kurmapuran- ‘When Janakandini Sita ji saw Dashagriva Ravana, she worshiped fire. At the same time, Agni kept Sita in his pur and allowed her shadow to remain outside. The demon king Ravana had taken away that very shadow of Sita ji. When God tested Sita ji by killing Ravana, then the fire took out the real Sita ji and gave it to her. In fact, Ravana had taken away the shadow of Sita ji. He did not even touch the real Sita.
Bhaktavatsal Mahaprabhu was extremely pleased to hear this incident. He thought- ‘It should be copied and shown to that great devotee Ramdas.’ Then the Lord thought- ‘If I copy it on a new sheet and take it, it is quite possible that he may not believe it thinking it to be a new verse.’ That’s why the Lord told that story. Said to the Brahmin – ‘ We will copy this page and give it to you. You give this old page to us.
The storyteller accepted this thing of the Lord and the Lord made a fresh copy of it and gave it to the storyteller and kept the old page with him.
With that page, Dayalu Gauranga again came to the house of Rambhakta Brahmin in South Mathura and showing him the old page of Kurmapuran, the Lord said – ‘Take it now, you will be satisfied. It is written in the Kurmapurana itself that Ravana had abducted Sita’s shadow.’
Seeing the kindness of Mahaprabhu, that Brahmin started crying in distraught love. Holding the feet of the Lord, he said while crying- ‘Today you removed my sorrows. You are my presiding deity Shri Raghunath ji. No one else can do such infinite grace except my God. Today I am grateful for your unfailing darshan. By your grace, you saved me, a helpless person who was drowning in the ocean of grief. Lord! What can I do to praise you?
Hearing such praise of that Brahmin, the Lord said – ‘ Vipravar! I am very much satisfied seeing your devotion. I have not found such a true devotee anywhere else.’ In this way, having satisfied and accomplished that Brahmin, Mahaprabhu started thinking of going to further pilgrimages.
respectively next post [109] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]