।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
राजपुत्र को प्रेम दान
कटकाधिपस्य तनयं गौरवर्णं मनोहरम।
आलिंगते सुप्रेम्णा तं गौरचन्द्रं नमाम्यहम।।
मनुष्य का एक स्वभाव होता है कि वह रहस्य की बातें जानने के लियेबड़ा उत्कण्ठित रहता है। जो बात सर्वसाधारण को सुलभ है, उसके लिये किसी की उत्कण्ठा नहीं होती, किन्तु यदि वही एकान्त में रखकर सर्वसाधारण की दृष्टि से हटा दी जाय तो लोगों की उसके प्रति जिज्ञासा बढ़ती ही जायगी। एक बात और है, जो वस्तु जितने ही अधिक परिश्रम से जितनी ही अधिक प्रतीक्षा के पश्चात प्राप्त होती है उसके प्रति उतनी ही अधिक प्रीति भी होती हैं। वस्तुएँ स्वयं मूल्यवान या अमूल्यवान नहीं हैं। उनकी प्राप्ति की सुलभता दुर्लभता देखकर देखकर ही लोगों ने उसका मूल्य स्थापित कर दिया है। यदि हीरा-मोती कंकड़ पत्थरों की भाँति सर्वत्र मिलने लगें, यदि सुवर्ण मिट्टी की भाँति वैसे ही बिना परिश्रम के खोदने से मिल जाया करे तो न तो जनता में इन वस्तुओं का इतना अधिक आदर होगा और न ये बहुमूल्य ही समझी जायँगी। इसीलिये मैं बार बार लोगों से कहता हूँ, अपने को मूल्यवान बनाना चाहते हो तो किसी भी काम में घोर परिश्रम करो, सर्वसाधारण लोगों से अपने को ऊँचा उठा लो, विश्व से प्रेम करना सीखो, तुम मुल्यवान हो जाओगे। संसार में सर्वश्रेष्ठ समझे जाने वाले राजे महाराजे ने तुम्हारे चरणों में लोटेंगे और तुम उनके मान सम्मान की कुछ भी परवा न करोगे।
महाप्रभु ज्यों ज्यों राजा से न मिलने की इच्छा प्रकट करने लगे। त्यों ही त्यों कटकाधिप महाराज प्रतापरुद्र जी की प्रभु दर्शन की उत्सुकता अधिकाधिक बढ़ती गयी। अब वे सोते-जागते प्रभु के ही सम्बन्ध में सोचने लगे। जब सार्वभौम भट्टाचार्य ने कह दिया कि प्रभु स्वयं मिलने के लिये सहमत नहीं हैं, तब महाराज ने सार्वभौम के द्वारा प्रभु के अन्तरंग भक्तों के समीप प्रार्थना की कि वे प्रभु के चित्त को हमारी ओर आकर्षित करें। इसीलिये उन्होंने अत्यन्त स्नेह प्रकट करके राय रामानन्द जी को प्रभु के पास भेजा था। राय महाशय प्रभु के परम अन्तरंग भक्त बन चुके थे। उन्होंने प्रभु से कई बार निवदेन किया, किन्तु प्रभु ने राजा से मिलने की कभी सम्मति नहीं दी।
तब एक दिन नित्यानन्द जी, सार्वभौम, राय रामानन्द तथा अन्य कई अत्यन्त ही समीपी भक्त प्रभु के समीप पहुँचे। प्रभु के पास पहुँचकर किसी को भी साहस नहीं हुआ कि वे महाराज के दर्शन देने की सिफारिश कर सकें। एक दूसरे की ओर आँखों ही आँखों में संकेत करने लगे। तब कुछ साहस करके नित्यानन्द ने कहा- ‘प्रभो! हम कुछ निवदेन करना चाहते हैं। वैसे तो कहने में संकोच होता है, किन्तु जब आपसे ही अपने मनोगत भावों को न कहेंगे तो फिर और किससे कहेंगे, इसलिये आज्ञा हो तो कहें?’
प्रभु ने कहा- ‘श्रीपाद ! आपको संकोच करने की कौन सी बात है, आप जो कहना चाहते हों, निर्भय होकर कहिये।‘
नित्यानन्द जी ने धीरे से कहा- ‘महाराज प्रतापरुद्र जी आपके दर्शन के लिये बड़े ही उत्कण्ठित हो रहे हैं, उन्हें आप दर्शन देने से क्यों मना करते हैं। वे जगन्नाथ जी के भक्त हैं, उनके ऊपर कृपा होनी चाहिये।’
महाप्रभु ने कुछ गम्भीरता के साथ कहा- ‘श्रीपाद ! आपकी तो न जाने मेरे प्रति कैसी धारणा हो गयी है। आप चाहते हैं, मैं जैसे भी हो खूब ख्याति लाभ करूँ। कटक जाकर महाराज से मिलूँ। मुझसे यही नहीं होने का।’
नित्यानन्द जी ने कहा- ‘आपसे कटक जाने को कौन कहता है? यहीं महाराज ठहरे हुए हैं, मन्दिर में ही उन्हें दर्शन दीजिये या वे यहाँ भी आ सकते हैं।’
महाप्रभु ने स्नेह प्रकट करते हुए कहा- ‘मुझे ऐसी आवश्यकता ही क्या है कि उन्हें यहाँ बुलाऊँ। मैं ठहरा भिक्षुक संन्यासी। वे ठहरे महाराजा। मेरा उनका सम्बन्ध ही क्या?’
नित्यानन्द जी ने कहा- ‘वे राजापने से मिलना नहीं चाहते हैं, वे तो आपके भक्त हैं। जैसे सब दर्शन करते हैं। उसी प्रकार उन्हें भी आज्ञा दे दीजिये।’
महाप्रभु ने कुछ हँसकर कहा- ‘आप यह सब बातें कह रहे हैं। पता नहीं, आपको यह क्या नयी बात सूझी है। सचमुच वे बड़े महाभाग हैं, जिनके कल्याण के लिये आप सभी इतने अधिक चिन्तित हैं। किन्तु मैं संन्यासधर्म के विरुद्ध आचरण कैसे करूँ? लोग चाहे दिनभर असंख्यों बुरे बुरे काम करते रहें, किन्तु संन्यासी होकर कोई एक भी बुरा काम करता है तो लोग उसकी बड़ी भारी आलोचना करते हैं। स्वच्छ वस्त्र पर छोटा सा दाग भी स्पष्ट दीखने लगता है। राज दर्शन से लोक परलोक दोनों की ही हानि होती है। लोग भाँति-भाँति की आलोचना करने लगेंगे। और लोगों की बात तो जाने दिजिये, ये हमारे गुरु महाराज दामोदर पण्डित ही हमें खूब डांटेंगे। अच्छा, जाने दीजिये सब बातों को, दामोदर पण्डित आज्ञा दे दें तो मैं राजा से मिल सकता हूँ।’ इतना कहकर महाप्रभु मन्द मुस्कान के साथ दामोदर पण्डित की ओर देखने लगे। दामोदर पण्डित ने अपनी दृष्टि नीची कर ली और वे कुछ भी नहीं बोले। तब महाप्रभु ने कहा- ‘दामोदर जी ! बोलिये, क्या कहते हैं ?’
नीची दृष्टि किये हुए धीरे-धीरे दामोदर पण्डित कहने लगे- ‘आप स्वतन्त्र ईश्वर हैं, जो चाहे सो करें, मुझसे इस विषय में पूछने की क्या बात है। मैं आपको सम्मत्ति ही क्या दे सकता हूँ।’
महाप्रभु ने बात को टालते हुए कहा- ‘भाई ! जाने दिजिये इनकी सम्मति नहीं है।’ नित्यानन्द जी तथा अन्य सभी भक्त समझ तो गये कि प्रभु का हृदय महाराज के गुणों से पिघल गया है और अब उनका महाराज के प्रति स्नेह भी हो गया है, किन्तु बात को यहीं समाप्त होते देखकर नित्यानन्द जी कहने लगे- ‘अच्छा, यदि उन्हें दर्शन की आज्ञा आप नहीं देते हैं तो अपने शरीर का स्पर्श किया हुआ एक वस्त्र ही उन्हें देकर कृतार्थ कीजिये। उसी से उन्हें सन्तोष हो जायगा।’
महाप्रभु ने स्नेह के स्वर में कहा- ‘बाबा ! आपको जो अच्छा लगे वही करें। मैं तो आपके हाथ की कठपुतली हूँ, जैसे नचायेंगे नाचूँगा। आपकी इच्छा के विरुद्ध कर ही क्या सकता हूँ?’ महाप्रभु की इस प्रकार अनुमति पाकर नित्यानन्द जी ने गोविन्द से प्रभु के ओढ़ने का एक बर्हिवास लेकर सार्वभौम भट्टाचार्य के हाथों महाराज के पास पहुँचा दिया। प्रभु के अंग के वस्त्र को पाकर महाराज को बड़ी प्रसन्नता हुई और वे बड़े ही सम्मान के साथ अपने पास रखने लगे।
एक दिन रामानन्द राय ने कहा- ‘प्रभो ! राजपुत्र तो आकर आपके दर्शन कर सकते है?’
प्रभु ने कहा- ‘जैसी आपकी इच्छा, मैं इस सम्बन्ध में आपसे क्या कहूँ, आप स्वतन्त्र हैं जो चाहें सो करें। दोष तो किसी के भी आने में नहीं है, किन्तु अभिमानी के सामने स्वयं भी अभिमान के भाव जाग्रत हो उठते हैं। इसीलिये संन्यासी को राजदरबार में जाना निषेध बताया है। कैसी भी प्रकृति क्यों न हो, मान सम्मान की जगह जाने से कुछ न कुछ तमोगुण आ ही जाता है। बच्चे तो सरल होते हैं, उन्हें मान सम्मान या आदर शिष्टाचार का ध्यान ही नहीं होता। इसीलिये उनसे मिलने में किसी का उद्वेग नहीं होता। यदि राजपुत्र आना चाहे तो उसे आप प्रसन्नतापूर्वक ला सकते हैं।’
प्रभु की आज्ञा पाकर रामानन्द जी उसी समय महाराज के निवास स्थान में गये। उस समय महाराज सपरिवार पुरी में ठहर हुए थे। स्नान यात्रा के तीन दिन पूर्व महाराज को पुरी आ जाना पड़ता है और रथयात्रापर्यन्त वे वहाँ रहते हैं, इसीलिये महाराज आये हुए थे। राय रामानन्द जी की कहीं भी जाने की रोक टोक नहीं थी, वे भीतर चले गये और राजपुत्र से प्रभु के दर्शनों के लिये कहा। राजपुत्र की पहले से ही इच्छा थी। महाराज तथा महारानी की भी आन्तरिक इच्छा थी। इसलिये रामानन्द जी ने राजपुत्र को खूब सजाया। राजपुत्र एक तो वैसे ही बहुत अधिक सुन्दर था। फिर कवि हृदय रामानन्द जी ने अपने हाथों से उसका श्रृंगार किया। राजपुत्र के कमल के समान सुन्दर बड़े बड़े नेत्र थे, माथा चौड़ा था और दोनों भृकुटियाँ कमान के समान चढ़ाव-उतार की थीं। रामानन्द जी ने राजपुत्र के दोनों कानों में मोतियों से युक्त बड़े बड़े कुण्डल पहनाये। गले में मोतियों का हार पहनाया तथा शरीर पर बहुत ही बढ़ियाँ पीले रंग के वस्त्र पहनाये। कामदारी बहुमूल्य पीताम्बर को ओढ़कर राजपुत्र की अपूर्व ही शोभा बन गयी। राय ने राजपुत्र के घुंघराले काले-काले बालों को अपने हाथों से व्यवस्थित करके उनके ऊपर एक छोटा सा मुकुट बाँध दिया। इस प्रकार उसे खूब सजाकर वे अपने साथ प्रभु के दर्शन के लिये ले गये।
महाप्रभु राजपुत्र को देखते ही प्रेम में अधीर हो उठे। उन्हें भान होने लगा, मानो साक्षात श्रीकृष्ण ही उनके समीप आ गये हैं। प्रभु राजपुत्र को देखते ही जल्दी से उठे और श्रीकृष्ण के सखा के भावावेश में उन्होंने जोरों से राजपुत्र का आलिंगन किया। महाप्रभु का प्रेमालिंगन पाते ही राजपुत्र आनन्द में विभोर होकर ‘श्रीकृष्ण, श्रीकृष्ण’ कहकर जोरों से नृत्य करने लगा। उसके सम्पूर्ण शरीर में प्रेम के सभी सात्त्विक भाव एक साथ हो उदित हो उठे। रामानन्द जी ने उसे संभाला। महाप्रभु उससे बहुत देरतक बालकों की भाँति बातें करते रहे। अन्त में फिर आने के लिये बार-बार कहकर प्रभु ने विदा किया। महाराज तथा महारानी ने पुत्र को गोद में बिठाकर स्वयं महाप्रभु के स्नेह का अनुभव किया। उस दिन से राजपुत्र प्राय: प्रभु के दर्शनों के लिये रोज ही आता था। उसकी गणना प्रभु के अन्तरंग भक्त में होने लगी।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Prem Daan to Rajput
The son of the king of Kataka was fair in complexion and beautiful I bow to him who embraces me with love
Man has a nature that he is very eager to know the things of mystery. The thing which is accessible to the common people, no one is eager for it, but if the same thing is kept in solitude and removed from the sight of the common people, then people’s curiosity towards it will increase. There is one more thing, the more hard work the object is obtained after the more waiting, the more love is there for it. The things themselves are not valuable or invaluable. Seeing the ease and rarity of their attainment, people have established their value. If diamonds and pearls are found everywhere like pebbles and stones, if gold is found like soil by digging without effort, then neither these things will be respected so much by the public nor will they be considered precious. That’s why I repeatedly tell people, if you want to make yourself valuable, work hard in any work, elevate yourself above the common people, learn to love the world, you will become valuable. The king who is considered the best in the world will return at your feet and you will not care about his respect.
As soon as Mahaprabhu started expressing his desire not to meet the king. Just then Katkadhip Maharaj Prataparudra ji’s eagerness to have the Lord’s darshan increased more and more. Now they started thinking about the Lord while sleeping and waking up. When Sarvabhauma Bhattacharya said that the Lord himself did not agree to meet, then Maharaja prayed through Sarvabhauma to the intimate devotees of the Lord to attract the mind of the Lord towards us. That’s why he had sent Rai Ramanand ji to the Lord by expressing great affection. Rai Mahasaya had become the most intimate devotee of Prabhu. He requested the Lord many times, but the Lord never allowed him to meet the king.
Then one day Nityananda ji, Sarvabhauma, Rai Ramananda and many other very close devotees came near the Lord. No one had the courage to reach the Lord and recommend to give darshan to Maharaj. They started pointing towards each other in their eyes. Then with some courage, Nityanand said – ‘Lord! We want to make a request. Although there is a hesitation to say, but when you do not tell your occult feelings, then to whom else will you tell, so if you are allowed, then tell? The Lord said – ‘ Shripad! What is there for you to hesitate, whatever you want to say, say it fearlessly. Nityanand ji said softly – ‘Maharaj Prataparudra ji is very eager to have your darshan, why do you refuse to give him darshan. He is a devotee of Jagannathji, he should be blessed.
Mahaprabhu said with some seriousness – ‘ Shripad! Don’t know what kind of impression you have towards me. You want me to gain a lot of fame in whatever way I am. Go to Cuttack and meet Maharaj. This should not happen to me.
Nityanand ji said- ‘Who tells you to go to Cuttack? Maharaj is staying here, give him darshan in the temple itself or he can come here also.’
Expressing affection, Mahaprabhu said- ‘What is the need for me to call him here. I became a mendicant monk. He stayed the king. What is my relation with them?
Nityanand ji said- ‘He does not want to meet Rajapane, he is your devotee. As everyone has darshan. Order them in the same way.’
Mahaprabhu laughed a bit and said – ‘ You are saying all these things. Don’t know, what new thing you have understood. Truly they are the great Mahabhag, for whose welfare all of you are so much concerned. But how do I act against the sannyas dharma? People may do innumerable bad things throughout the day, but being a sannyasin, if someone does even one bad thing, people criticize him very heavily. Even a small stain on a clean cloth becomes clearly visible. Raj darshan causes harm to both the world and the hereafter. People will start criticizing in various ways. Leave aside the talk of other people, it is our Guru Maharaj Damodar Pandit who will scold us a lot. Well, let everything go, if Damodar Pandit gives permission, I can meet the king. Saying this, Mahaprabhu started looking at Damodar Pandit with a soft smile. Damodar Pandit lowered his gaze and did not say anything. Then Mahaprabhu said – ‘Damodar ji! Tell me, what do you say?
Looking down, Damodar Pandit slowly started saying – ‘ You are an independent God, do whatever you want, what is the point of asking me about this. What can I give you only wealth.’ Avoiding the matter, Mahaprabhu said – ‘Brother! Let them go, they have no consent.’ Nityanand ji and all the other devotees understood that the Lord’s heart was melted by the virtues of Maharaj and now he has also developed affection for Maharaj, but seeing the matter ending here, Nityanand ji said They said, ‘Well, if you don’t allow them to have darshan, then do your gratitude by giving them only a cloth that has touched your body. He will be satisfied with that only.
Mahaprabhu said in a voice of affection – ‘ Baba! Do what you like. I am a puppet in your hands, I will dance as you make me dance. What can I do against your wish?’ After getting Mahaprabhu’s permission in this way, Nityanand ji took a piece of Prabhu’s cover from Govind and sent it to Maharaj in the hands of Sarvabhaum Bhattacharya. Maharaj was very happy after getting the cloth of Lord’s body and he started keeping it with great respect.
One day Ramanand Rai said – ‘ Lord! Can the prince come and see you?’
The Lord said- ‘As per your wish, what should I say to you in this regard, you are free to do whatever you want. The fault is not in anyone’s coming, but in front of the arrogant, the feelings of pride are awakened. That’s why it is forbidden for a monk to go to the royal court. No matter what the nature may be, by going to the place of respect, some or the other Tamogun comes. Children are simple, they don’t care about respect or respect and manners. That’s why no one is anxious to meet him. If the prince wants to come, you can bring him happily.
After getting the permission of the Lord, Ramanand ji went to Maharaj’s residence at the same time. At that time Maharaj was staying in Puri with his family. Maharaj has to come to Puri three days before the Snan Yatra and stays there till the Rath Yatra, that is why Maharaj had come. Rai Ramanand ji was not barred from going anywhere, he went inside and asked the prince to have darshan of the Lord. The prince already had a wish. The king and the queen also had an inner desire. That’s why Ramanand ji decorated the prince a lot. The prince was very handsome anyway. Then poet Hriday Ramanand ji decorated it with his own hands. The prince’s eyes were big and beautiful like lotuses, his forehead was broad and both the brows were raised like a bow. Ramanand ji put big earrings with pearls in both the ears of the prince. He wore a pearl necklace around his neck and very fine yellow clothes on his body. The maidservant became the unique beauty of the prince by covering the precious pitambar. Rai arranged the curly black hair of the prince with his hands and tied a small crown on it. In this way, after decorating him a lot, he took him with him to have the darshan of the Lord.
Mahaprabhu became impatient in love on seeing the prince’s son. He began to feel as if Shri Krishna himself had come close to him. Prabhu got up early on seeing the prince and in the spirit of Krishna’s friend, he hugged the prince. As soon as he received Mahaprabhu’s love hug, the prince started dancing loudly saying ‘Shri Krishna, Shri Krishna’. All the sattvik feelings of love arose together in his entire body. Ramanand ji took care of him. Mahaprabhu kept talking to him like a child for a long time. In the end, the Lord bid farewell by asking again and again to come again. The king and the queen themselves felt the affection of Mahaprabhu by making the son sit on their lap. From that day the prince used to come almost daily for the darshan of the Lord. He was counted among the intimate devotees of the Lord.
respectively next post [117] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]