।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
नित्यानन्द जी का गोड़-देश में भगवन्नाम-वितरण
नित्यानन्दमहं वन्दे कर्णे लम्बितमौक्तिकम्।
चैतन्याग्रजरूपेण पवित्रीकृतभूतलम्।।
नित्यानन्द जी का स्वभाव सदा से अबोध बालकों का-सा ही था। वे पुरी में सदा वाल्य-भाव में ही बने रहते। उनमें अनन्त गुण होंगे, किन्तु एक गुण उनमें सर्वश्रेष्ठ था। वे महाप्रभु को अपने प्राणों से भी अधिक प्यार करते थे। प्रभु के चरणों में की उन प्रगाढ़ प्रीति थी। प्रभु के अतिरिक्त वे और किसीको कुछ समझते ही न थे। उनके लिये भगवान, परमात्मा तथा ब्रह्मा जो भी कुछ थे, चैतन्य महाप्रभु ही थे। प्रभु से वे बालकों की भाँति बातें करते। घूमने का उनका पहले से ही स्वभाव था और बच्चों के साथ खेलने में वे सबसे अधिक आनन्द का अनुभव करते थे। सदा बच्चों के साथ खेलते रहते और उनसे जोरों से कहलाते-
‘गौर हरि बोल, गौर हरि बोल, चैतन्यकृष्ण श्रीगौर हरि बोल।’
बच्चे इन नामोंकी धूम मचा देते तब ये उनके मुख से इस संकीर्तन को सुनकर बड़े ही प्रसन्न होते। एक दिन महाप्रभु ने इन्हें समीप बुलाकर कहा- ‘श्रीपाद! मेरा आपके प्रति कितना स्नेह है, इसे मैं ही जानता हूँ। मैं आपको एक क्षण भी अपने से पृथक करना नहीं चाहता, किन्तु जीवों का दुःख मुझसे देखा नहीं जाता। गौड़-देश के मनुष्य तो भगवान को एकदम भूल गये हैं। जो कुछ थोड़े-बहुत पढ़े हैं, वे अपने विद्याभिमान में सदा चूर बने रहते हैं। उन्हें न्याय की शुष्क फक्किकाओं के घोखने से ही अवकाश नहीं मिलता। वे कृष्ण-कीर्तन को घृणा की दृष्टि से देखते हैं। आपके सिवा गौड़-देश का उद्धार और कोई नहीं कर सकता। यह काम आपके ही द्वारा हो सकेगा इसलिये जीवों के कल्याण के निमित्त आपको मुझसे पृथक् होकर गौड़-देश में भगवन्नाम-वितरण करनेके लिये जाना होगा। आप ही ऊँच-नीच का भेदभाव न रखकर सब लोगों को भगवन्नाम का उपदेश दे सकते हैं।’
प्रभु के इस मर्मवेधी वाक्य को सुनकर नित्यानन्द जी की आँखों में आंसू आ गये और वे रुँधे हुए कण्ठ से कहने लगे-‘प्रभो! आप सर्व समर्थ हैं। आपकी लीला जानी नहीं जाती। पता नहीं किसके द्वारा आप क्या कराना चाहते हैं। भला, आपकी अनुपस्थिति में मैं कर ही क्या सकता हूँ। प्रभो! मैं आपके बिना कुछ भी न कर सकूँगा, मुझे अपने चरणों से पृथक न कीजिये।’ महाप्रभु ने कहा- ‘आप समय-समय पर मुझे यहाँ आकर दर्शन दे जाया करें और भगवान के दर्शन कर जाया करें। अब तो आपको गौड़-देश में जाना ही चाहिये।’
नित्यानन्द जी विवश हो गये, उन्होंने विवश होकर महाप्रभु की आज्ञा शिरोधार्य की और अभिरामदास, गदाधरदास, कृष्णदास और पुरन्दर पण्डित आदि भक्तों को साथ लेकर उन्होंने गौड़-देश के लिये प्रस्थान किया। उन्हें अब किसी बात का भय तो था नहीं। महाप्रभुने स्वयं कह दिया है कि मैं सदा आपके साथ रहूँगा, आप बिना किसी भेदभाव के निडर होकर सर्वत्र भवन्नाम-वितरण करें। इस बात पर पूर्ण विश्वास करते हुए नित्यानन्द जी प्रेम में विभोर हुए आगे बढ़ने लगे। वे आनन्द में झूमते हुए, मस्ती में नाचते और गौर की दया को स्मरण करते हुए भक्तों के साथ जा रहे थे। उन्हें अपने लिये कोई कर्तव्य नहीं था, वे जीवों के कल्याण के ही निमित्त अपने प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करके गौड़-देशमें आये थे।
समस्त गौड़-देश भक्तिरसामृत-पान करने के लिये प्यासा-सा बैठा हुआ था। विशेषकर निम्न कहलाने वाले जातियों के लिये भगवद्-भजन का अधिकार ही नहीं था। बड़े-बड़े विद्वान पण्डित उन्हें परमार्थ का अनधिकारी बताकर साधन-भजन का उपदेश ही नहीं करते थे। सभी एक ऐसे मार्ग की खोज में थे, जिसके द्वारा सभी श्रेणी के लोग प्रभु के पादपद्मों तक पहुँचने के अधिकारी हो सकें। ऐसे ही सुन्दर अवसर के समय नित्यानन्द जी ने गौड़-देश में प्रवेश किया। इनकी वाणी में जादू था, चेहरे पर ओज था, शरीर में स्फूर्ति थी और था महाप्रभु के प्रेम का अनन्य दृढ़ विश्वास। इन्हीं सब बातों से गौड़-देश में प्रवेश करते ही इनके उपदेश का असर जादू की भाँति थोड़े ही दिनों में सर्वत्र फैल गया। ये भगवन्नामोपदेश में किसी प्रकार का भेदभाव तो रखते ही नहीं थे। जो चाहे वही इनके पास से आकर त्रितापहारी भगवन्नाम का उपदेश ग्रहण कर सकता है। विशेषकर ये नीची कहलाने वाली जातियों के ऊपर ही सबसे अधिक कृपा करते थे। उच्च जाति के लोग तो अपने श्रेष्ठपने के अभिमान में इनकी बातों पर ध्यान ही नहीं देते थे। निम्नश्रेणी के ही लोग इनकी बातों को श्रद्धापूर्वक सुनते थे, इसलिये ये उन्हें ही अधिक उपदेश करते। इस प्रकार ये लोगों में भगवन्नाम की निरन्तर वर्षा करते हुए और उस कृष्ण-संकीर्तनरूपी अपूर्व रससे लोगों को सुखी बनाते हुए पानीहाटी ग्राम में आये और वहाँ अपने सभी भक्तों के सहित राघव पण्डित के घर ठहरे।
राघव पण्डित स्वयं महाप्रभु के अनन्य भक्त थे, उन्होंने साथियोंसहित नित्यानन्द जी का खूब सत्कार किया और उनके साथ प्रचार के लिये भी बाहर ग्रामों में जाने लगे।
नित्यानन्द जी वहाँ तीन महीने ठहरकर लोगों को श्रीकृष्ण-संकीर्तन का उपदेश करते रहे। वे अपने साथियों के सहित गंगा जी के किनारे-किनारे गाँवों में जाते और वहाँ सभी से श्रीकृष्ण-कीर्तन करने के लिए लिए कहते। ये विशेष पुस्तकी विद्या तो पढ़े नही थे, सीधी-सादी भाषा में सरलतापूर्वक ग्रामीण लोगों को समझाते, इनके समझाने का लोगों पर बड़ा ही अधिक असर होता और वे उसी दिन से कीर्तन करने लग जाते। इसी बीच में आप अम्बिकानगरमें भी संकीर्तन का प्रचार करने गये थे, वहाँ सूर्यदास पण्डित ने खूब आदर-सत्कार किया। ये भक्तों के सहित उनके घर पर रहे। सूर्यदास का समस्त परिवार नित्यानन्द जी के चरणों में बड़ी भारी श्रद्धा रखने लगा।
इस प्रकार पानीहाटी में भगवन्नाम और भगवद्भक्ति की आनन्दमय और प्रेममय धारा बहाकर नित्यानन्द जी अपने परिकर के सहित एड़दह में गदाधरदास के घर ठहरे। इसी गांव में एक मुसलमान क़ाज़ी संकीर्तन का बड़ा भारी विरोधी था। नित्यानन्द जी के प्रभाव से वह भी स्वयं संकीर्तन में आकर नाचने लगा। इससे इनका प्रभाव और भी अधिक बढ़ गया। लोग इनके श्रीचरण में अनन्य श्रद्धा रखने लगे।
चारों ओर ‘श्रीकृष्ण-चैतन्य की जय,’ ‘नित्यानन्द की जय,’ ‘गौरनिताई की जय’ यही ध्वनि सुनायी देने लगी। एड़दह से चलकर नित्यानन्द जी खड़दह में पहुँचे। वहाँ चैतन्यदास और पुरन्दर पण्डित इन दोनों भक्तों ने इनका खूब आदर-सत्कार किया और इनके प्रचार-कार्य में योगदान दिया। इसी प्रकार लोगों को प्रभुप्रेम में प्लावित बनाते हुए महामहिम नित्यानन्द जी सप्तग्रा में पहुँचे।
उस समय बंगाल में सुवर्णवणिक् जाति के लोग अत्यन्त ही नीचे समझे जाते थे। उनके हाथ का जल पीना तो दूर रहा, बड़े-बड़े पण्डित विद्वान उन्हें स्पर्श करने में घृणा करते थे। नित्यानन्द जीने सबसे पहले इन्हीं लोगों को अपनाया। ये लोग सम्पत्तिशाली थे, इस बात के लिये बड़े लालायित बने हुए थे कि किसी प्रकार हमारा भी परमार्थ-पथ में प्रवेश हो सके। नित्यानन्द जी ने इनके अछूतपने को एकदम हटा दिया। वे उद्धरण दत्त नामक एक धनी स्वर्णवणिक्के घर पर जाकर ठहरे और सभी स्वर्णवणिकों को भगवद्भक्ति का उपदेश देने लगे। इनके प्रभाव से स्वर्णवणिकों में बड़ी भारी जागृति हो उठी। यह इनके लिये बड़े ही साहस का काम था। इस बात से उच्च जाति के लोग इन्हें भाँति-भाँति से धिक्कारने लगे, किन्तु इन्होंने किसी की परवा नहीं की। पीछे से इनकी निर्भीकता और सच्ची लगनके सामने सभी लोगों ने इनके चरणों में सिर नवा दिया।
स्वर्णविणकों के अपनाने से इनका नाम चारों ओर फैल गया और लोग भाँति-भाँति से इनके सम्बन्ध में आलोचना-प्रत्यालोचना करने लगे। सप्तग्राम के आस-पास के गांवों में भगवन्नाम का प्रचार करते हुए ये शान्तिपुर में अद्वैताचार्य के घर आये। आचार्य इन्हें देखते ही पुलकित हो उठे और जल्दीसे इनका दृढ़ आलिंगन करते हुए प्रेम के अश्रु बहाने लगे। दोनों ही महापुरुष प्रेम में विभोर हुए एक-दूसरे का जोरों से आलिंगन कर रहे थे। बहुत देरके अनन्तर प्रेम का आवेग कम होने पर आचार्य कहने लगे- ‘निताई! आपने ही वास्तव में महाप्रभु के मनोगत भावों को समझा है, आप महाप्रभु के बाहरी प्राण हैं।’ इस प्रकार नित्यानन्द जी की स्तुति करके आचार्य ने उनसे कुछ काल ठहरने का आग्रह किया। अद्वैताचार्य के आग्रहसे नित्यानन्द जी कुछ काल शान्तिपुर में ठहरकर भगवन्नाम और संकीर्तन का प्रचार करते रहे।
आचार्य से विदा होकर नित्यानन्द जी नवद्वीप में आये। नवद्वीप में इनके प्रवेश करते ही कोलाहाल-सा मच गया। चारों ओर से भक्त आ-आकर उनके पास जुटने लगे। इन्होंने सबसे पहले प्रभु के घर जाकर शचीमाता की चरण-वन्दना की। बहुत दिनों के पश्चात् अपने निताई को पाकर माता के सुखकी सीमा न रही। वह इतने बड़े निताईको गोदीमें बिठाकर बच्चों की भाँति उनके मुख पर हाथ फेरती हुई कहने लगी- ‘बेटा निताई! निमाई मुझे भूल गया तो भूल गया, तैंने भी मेरी सुधि बिसार दी। बेटा! आज इतने दिनों के पश्चात् तेरे मुख को देखकर मुझे परमानंद हुआ है। अब मैं विश्वरूप और निमाई के संन्यास सभी का भूल गयी। मेरे प्यारे बेटा! अब तू यहीं मेरे पास रहकर संकीर्तन का प्रचार कर और भक्तों के साथ कीर्तन कर। मैं सदा तुझे अपनी आँखों के सामने देखकर सुखी हो सकूँगी।
नित्यानन्द जी ने माता की आज्ञा को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लिया और वे नवद्वीप में ही हिरण्य पण्डित के घर रहने लगे। नित्यानन्द जी के नवद्वीप में रहने से शिथिल हुई संकीर्तन की ध्वनि फिर जोरों से शब्दायमान होती हुई आकाश में गूंजने लगी। सभी लोग महाप्रभु के सामने जिस प्रकार संकीर्तन में पागल हो जाते थे, उसी प्रकार फिर बेसुध होकर उद्दण्ड नृत्य करने लगे।
नित्यानन्द जी का प्रभाव बहुत अधिक बढ़ गया। अब इनके रहन-सहन में भी परिवर्तन हो गया।
वे सुन्दर वस्त्राभूषण धारण करने लगे। खान-पान में भी विविध व्यंजन आ गये। इससे उनकी निन्दा भी हुई। इस प्रकार एक ओर जहाँ इनकी इतनी अधिक ख्याति हुई वहाँ निन्दा भी कम नहीं हुई। यह तो संसारका नियम ही है। जितने मुख होते हैं, उतने ही प्रकार की बातें होती हैं, कार्यार्थी धीर पुरुष लोगों की निन्दा-स्तुति की परवा न करके अपने काम में ही लगे रहते हैं। पीछे से निन्दा करने वाले स्वयं ही निन्दा करने से थककर चुप होकर बैठ जाते हैं। महापुरुषों के कामों में लोक-निन्दा से विध्न न होकर उलटी सहायता ही मिलती है। यदि महापुरुषों के कार्यों की इस प्रकार जोरों से आलोचना और निंदा न हुआ करें तो उन्हें आगे बढ़ने में प्रोत्साहन ही न मिले। निन्दा उन्हें उन्नत बनाने के लिये एक प्रकार की औषधि है। किन्तु जो जानबूझकर निन्दित काम करते हैं, ऐसे दम्भी पुरुष कभी भी उन्नत नहीं हो सकते। इसलिये प्रयत्न तो ऐसा ही करते रहना चाहिये कि जहाँ तक हो सके निन्दित कामों से बचते रहें। यदि सच्चे और श्रेष्ठ मार्ग का अनुसरण करते-करते स्वतः ही लोग निन्दा करने लगें, जैसा कि लोगों का स्वभाव है तो उनकी परवा भी न करनी चाहिये। यही बड़े बनने का महान गुरुमंत्र है।
क्रमशः अगला पोस्ट [124]
••••••••••••••••••••••••••••••••••
[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Nityanand ji’s God-distribution of God’s name in the country
I salute the pearl hanging in my ear, the eternal bliss. The earth was purified in the form of the elder brother of consciousness.
Nityanand ji’s nature was always like that of innocent children. He always remained in Puri in Valya-Bhav. He would have infinite qualities, but one quality was the best in him. He loved Mahaprabhu more than his own life. He had deep love at the feet of the Lord. Apart from the Lord, he did not consider anyone else as anything. Whatever God, Paramatma and Brahma were for him, Chaitanya Mahaprabhu was the same. They used to talk to the Lord like children. He already had the nature to roam and felt most joy in playing with children. He always used to play with the children and used to say loudly to them-
‘Gaur Hari Bol, Gaur Hari Bol, Chaitanya Krishna Shree Gaur Hari Bol.’
When the children used to make a splash of these names, then they would have been very happy to hear this sankirtan from their mouth. One day Mahaprabhu called him near and said- ‘Shripad! Only I know how much affection I have for you. I do not want to separate you from me even for a moment, but I cannot see the suffering of the living beings. The people of Gaur country have completely forgotten God. Those who have studied only a little, they always remain shattered in their pride of knowledge. They don’t get respite just by uttering dry fuzzies of justice. They look at Kṛṣṇa-kirtana with hatred. No one else can save Gaur-Desh except you. This work can be done by you only, so for the welfare of the living beings, you will have to separate from me and go to Gaud-Desh to spread the name of God. You alone can preach the name of the Lord to all without making any distinction between high and low.’
Tears welled up in Nityanand ji’s eyes after listening to this heartfelt sentence of the Lord and he started saying with a choked voice – ‘Lord! You are all capable. Your leela is not known. Don’t know by whom you want to do what. Well, what can I do in your absence. Lord! I can’t do anything without you, don’t separate me from your feet.’ Mahaprabhu said- ‘You come here from time to time and give me darshan and go after seeing God. Now you must go to Gaud-Desh.’
Nityanand ji was forced, he obeyed Mahaprabhu’s orders and he left for Gaud-Desh along with devotees like Abhiramdas, Gadadhardas, Krishnadas and Purandar Pandita. He was not afraid of anything now. Mahaprabhu himself has said that I will always be with you, without any discrimination, fearlessly distribute Bhavannaam everywhere. Fully believing this, Nityanand ji started moving ahead full of love. He was going with the devotees swinging in joy, dancing in merriment and remembering the mercy of Gaur. He had no duty for himself, he had come to Gaud-Desh by obeying the orders of his Lord only for the welfare of the living beings.
The entire Gaud country was sitting thirsty to drink Bhaktir Samrit. Bhagavad-Bhajan was not even a right for the lower castes. Big scholars and pundits did not preach Sadhan-Bhajan, calling them unauthorized for God. Everyone was in search of a way through which all categories of people could be entitled to reach the lotus feet of the Lord. At such a beautiful time, Nityanand ji entered Gaud-Desh. There was magic in his speech, there was ooze on his face, there was enthusiasm in his body and there was a unique firm belief in the love of Mahaprabhu. With all these things, as soon as he entered Gaud-Desh, the effect of his preaching spread everywhere like magic in a few days. He did not keep any kind of discrimination in Bhagwanmanopadesh. Anyone who wants can come from him and receive the teachings of Lord Tritaphari. Especially, he used to be most kind to the castes called low. The upper caste people did not pay heed to his words in the pride of their superiority. People of low class used to listen to his words with devotion, that’s why he preached more to them. In this way, showering the Lord’s name on people continuously and making people happy with that wonderful rope of Krishna-sankirtan, he came to Panihati village and stayed there at Raghav Pandita’s house along with all his devotees.
Raghav Pandit himself was an ardent devotee of Mahaprabhu, he along with his companions honored Nityanand ji a lot and started going to villages outside for campaigning with him.
Nityanand ji stayed there for three months and kept preaching Shri Krishna-Sankirtan to the people. Along with his companions, he used to go to the villages along the banks of Ganga ji and ask everyone there to perform Shri Krishna-Kirtan. These special books had not studied Vidya, he used to explain to the villagers easily in simple language, his explanation would have a great effect on the people and they would start doing kirtan from the same day itself. In the meantime, you went to Ambikanagar also to preach Sankirtan, where Suryadas Pandit honored you a lot. He stayed at his house along with the devotees. The whole family of Suryadas started having great faith in the feet of Nityanand ji.
In this way, Nityanand ji along with his family stayed at Gadadhardas’s house in Eddah after flowing a blissful and loving stream of God’s name and God’s devotion in Panihati. In this village, a Muslim Qazi was a great opponent of Sankirtan. Due to the influence of Nityanand ji, he himself started dancing in sankirtan. This increased their influence even more. People started having exclusive faith in his feet.
‘Shri Krishna-Chaitanya ki Jai,’ ‘Nityananda ki Jai,’ ‘Gournitai ki Jai’ were heard all around. Walking from Eddah, Nityanand ji reached Khaddah. There Chaitanya Das and Purandar Pandit, both these devotees respected him a lot and contributed in his propaganda work. In the same way, His Majesty Nityanand ji reached Saptagra making people immersed in the love of God.
At that time the people of Suvarnavarnik caste were considered very low in Bengal. Let alone drinking the water from his hand, great scholars used to hate to touch him. Nityanand Jeene first adopted these people. These people were wealthy, they were very eager for the fact that somehow we too could enter the path of salvation. Nityanand ji completely removed their untouchability. He went and stayed at the house of a rich gold merchant named Kyathan Dutt and started preaching devotion to the Lord to all the gold merchants. Due to his influence, there was a great awakening among the goldsmiths. It was an act of great courage for him. Due to this, the upper caste people started cursing him in many ways, but he did not care about anyone. Everyone bowed down at his feet in front of his fearlessness and true dedication from behind.
With the adoption of Swarnavinkas, his name spread everywhere and people started criticizing and counter-criticizing him in various ways. While preaching the Lord’s name in the villages around Saptagram, he came to Advaitacharya’s house in Shantipur. Acharya was thrilled to see her and quickly embraced her tightly and started shedding tears of love. Both the great men were hugging each other tightly in love. After a long time, when the impulse of eternal love subsided, Acharya started saying – ‘Nitai! You have really understood the hidden feelings of Mahaprabhu, you are the outer life of Mahaprabhu.’ By praising Nityanand ji in this way, Acharya urged him to stay for some time. On the insistence of Advaitacharya, Nityanand ji stayed in Shantipur for some time and kept preaching the name of God and sankirtan.
After bidding farewell to Acharya, Nityanand ji came to Navadweep. There was uproar as soon as he entered Navadvipa. Devotees from all around started gathering near him. He first went to the house of the Lord and worshiped the feet of Sachimata. Mother’s happiness knew no bounds after getting her Nitai after a long time. She made such a big Nitai sit on her lap and started saying while stroking his face like a child – ‘ Son Nitai! If Nimai forgot me then he forgot, you also made me forget my memory. Son! Today, after so many days, I am happy to see your face. Now I have forgotten everyone’s renunciation of Vishwaroop and Nimai. my dear son! Now you stay here with me and propagate sankirtan and do kirtan with the devotees. I will always be happy to see you in front of my eyes.
Nityanand ji happily accepted the order of the mother and he started living in Hiranya Pandit’s house in Navadweep. The sound of Sankirtan, which had weakened due to Nityanand ji’s stay in Navadweep, started resonating loudly in the sky again. The way everyone used to go mad in Sankirtan in front of Mahaprabhu, in the same way again they started dancing furiously.
Nityanand ji’s influence increased a lot. Now their lifestyle has also changed.
They started wearing beautiful clothes. Various dishes have also come in food and drink. He was also criticized for this. In this way, on the one hand, where there was so much fame about him, the condemnation also did not reduce. This is the law of the world. As many mouths are there, so many types of things happen, working patient men remain engaged in their work without caring about the praise and criticism of the people. Those who criticize from behind themselves get tired of criticizing and sit silently. In the works of great men, instead of being hindered by public condemnation, they get the opposite help. If the works of great men were not criticized and condemned loudly in this way, then they would not be encouraged to move forward. Criticism is a kind of medicine to make them progress. But those who deliberately do reprehensible things, such arrogant men can never progress. That’s why efforts should be made in such a way that as far as possible, keep avoiding the condemned works. If while following the true and noble path, people automatically start criticizing, as is the nature of people, then they should not be bothered. This is the great Gurumantra to become great.
respectively next post [124] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]