[124]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
नित्यानन्द जी का गृहस्थाश्रम में प्रवेश

न मय्येकान्तभक्तानां गुणदोषोद्भवा गुणाः।
साधूनां समचित्तानां बुद्धेः परमुपेयुषाम्।।[1]

नैतत् समाचरेज्जातु मनसापि ह्यनीश्वरः।
विनश्यत्याचरन्मौढ्याद्यथा रुद्रोऽब्धिजं विषम्।।[2]

महापुरुषोंके जीवनमें कहीं-कहीं धर्म-व्यतिक्रम पाया जाता है; इनका क्या कारण है ? इसका ठीक-ठीक उत्तर दिया नहीं जाता है; परन्तु उनके वैसे कार्योंके अनुकरण न करनेकी आज्ञा शास्त्रोंमें मिलती है। ब्रह्मातक पहुँचे हुए निर्मलचेता ऋषि-महर्षियोंने वेदमें स्पष्ट रूपसे अपने अनुयायी शिष्योंसे कहा है-

यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपासितव्यानि नो इतराणि।

हमारे जो अच्छे काम हों तुम्हें उन्हीं का आचरण करना चाहिये। अन्य जो हमारे जीवन में निषिद्ध आचरण दीखें उनका अनुकरण कभी भी न करना चाहिये। परन्तु ईश्वर और महापुरुषोंके कार्योंकी निन्दा भी नहीं करनी चाहिये। महर्षियों ने महापुरुषों के कार्यों की आलोचना और निन्दा करने को पाप बताया है। जो महापुरुषों के कार्यों की निन्दा किया करते हैं वे अबोध बन्धु भूल करते हैं। साथ ही वे भी भूल करते हैं जो निन्दकों को सदा कोसा करते हैं। निन्दकों का स्वभाव तो निन्दा करने का है ही। उनकी निन्दा करके तुम अपने सिर पर दूसरा पाप क्यों लेते हो ? निन्दक तो सचमुच उपकारी है। संसार में यदि बूरे कामों की निन्दा होनी बंद हो जाय, तो यह जगत सचमुच रौरव नरक बन जाय। महापुरुष और निन्दा से डरते नहीं, उनका तो लोकनिन्दा कुछ बिगाड़ नहीं सकती। नीच प्रकृति के लोग लोकनिन्दा के भय से बुरे कामों को छिपाकर करते हैं और सर्वधारण लोग लोकनिन्दा के ही भयसे पाप-कर्मों में प्रवृत्त नहीं होती। इसलिये लोकनिन्दा समाजरूपी वृक्ष को सुरक्षित बनाये रहनेके लिये उसके आसपास में लगे हुए काँटों के समान है। इससे पापरूपी पशु उस पेड़को एकदम नष्ट नहीं कर सकते। इसलिये परमार्थ-पथके पथिक को न तो महापुरुषों के ही बुरे आचरणों की निन्दा करनी चाहिये और न उनकी निन्दा करने वाले निन्दकों की ही निन्दा करनी चाहिये। निन्दा-स्तुति से एकदम उदासीन होना ही परम श्रेयस्कर है। यदि कुछ कहे बिना रहा ही न जाय, तो सदा दूसरे के गुणों का ही कथन करना चाहिये और लोगों के छोटे गुणों को भी बढ़ाकर कहना चाहिये और उसे अपने जीवन में परिणत करना चाहिये। अस्तु।

नित्यानन्द जी के रहन-सहन की खूब आलोचना होने लगी। लोग उनकी निन्दा करने लगे। निन्दा का विषय ही था, एक अवधूत त्यागी को ऐसा आचरण करना लोकदृष्टि में अनुचित समझा जाता है। जब वे संन्यास छोड़कर गृहस्थी हो गये तब तो उनकी निन्दा और भी अधिक होने लगी। मालूम पड़ता है, उसी निन्दा के खण्डन में ‘चैतन्य-भागवत’ की रचना हुई है। चैतन्य-भागवत में श्रीचैतन्य-चरित को प्रधानता नहीं दी है, उनमें तो नित्यानन्द जी के गुणों का विशेष रीति से वर्णन है और नित्यानन्द जी पर विश्वास न करने वाले लोगों को भरपेट कोसा गया है।

चैतन्य-भागवत के रचयिता यदि इस प्रसंग की उपेक्षा ही कर देते तो भी महापुरुष नित्यानन्द जी की कीर्ति आज कम नहीं होती। किन्तु लेखक महाशय ऐसा करने के लिये विवश थे। ‘चैतन्य-भागवतके’ रचयिता गोस्वामी श्रीवृन्दावनदास जी नित्यानन्द जी के मंत्र-शिष्य थे। उनके लिये नित्यानन्द जी ही सर्वस्व थे। नित्यानन्द जी के आशीर्वाद से ही गोस्वामी वृन्दावनदास जी का जन्म हुआ था। ये सदा नित्यानन्द जी के ही समीप रहते थे। जिन्हें हम अपना सर्वस्व समझते हैं उनकी साधारण लोग मनमानी निन्दा करें इसे प्रतिभावन पुरुष बहुत कम सह सकते हैं। इसलिये उनकी इस प्रकार की सुन्दर कविता से इनकी अनन्य गुरु-भक्ति ही प्रकट होती है।

नित्यानन्द जी की शिकायत महाप्रभु तक पहुँची थी। प्रभु के एक सहपाठी पण्डित ने नित्यानन्द जी की उनसे भरपेट निन्दा की; किन्तु महाप्रभु ने इस पर विश्वास नहीं किया।

गौड़-देश से दूसरी बार भक्त भी पहले की ही भाँति रथयात्रा के समय महाप्रभु के दर्शनों को गये। उस समय भी नित्यानन्द जी के सम्बन्ध में बहुत-सी बातें होती रहीं। श्रीवास पण्डित ने चलते समय कह दिया कि नित्यानन्द जी अबोधावस्था में ही घर से निकल आये थे। उन्होंने स्वेच्छा से संन्यास नहीं लिया था।

महाप्रभु ने कह दिया- ‘उन्होंने चाहे स्वेच्छा से संन्यास लिया हो या परेच्छा से, उनके लिये कोई विधि निषेध नहीं है।’ रोज ही लोगों के मुख से भाँति-भाँति की बातें सुनकर नित्यानन्द जी को भी कुछ क्षोभ हुआ। उन्होंने अपनी मनोव्यथा शचीमाता से कही। माता ने आज्ञा दी कि नीलाचल जाकर निमाई से मिल आ, वह जैसा कहे वैसा करना। माता की अनुमति से नित्यानन्द जी अपने दस-पांच अन्तरंग भक्तों को साथ लेकर नीलाचल पहुँचे। उन्हें महाप्रभु के सम्मुख जाने में बड़ी लज्जा मालूम पड़ती थी। इसलिये संकोचवश वे महाप्रभु के स्थान पर नहीं गये। बाहर ही एक बागमें बैठे हुए वे पश्चात्ताप के आंसू बहा रहे थे कि उसी समय समाचार पाते भी प्रभु वहाँ दौड़े आये और वे नित्यानन्द जी की प्रशंसा करते हुए उनकी प्रदक्षिणा करने लगे।

प्रभु को प्रदक्षिणा करते देखकर नित्यानन्द जी जल्दी से प्रभु को प्रणाम करने के लिये उठे, किन्तु प्रेम के आवेश में वहीं मूर्च्छित होकर गिर पड़े। उनकी मूर्च्छित दशा में ही प्रभु ने उनकी चरण-धूलि को अपने मस्तक पर चढ़ाया। महाप्रभु के पश्चात् सभी भक्तों ने नित्यानन्द जी की चरण-रज मस्तक पर चढ़ायी। प्रभु उनका पैर पकड़कर बैठ गये। बाह्यज्ञान होने पर नित्यानन्द जी उठे; वे कुछ कहना ही चाहते थे किन्तु प्रेम के आवेश में कुछ भी न कह सके, उनका सिर आप-से-आप ही लुढ़ककर महाप्रभु की गोदी में गिर पड़ा। महाप्रभु उनके मस्तक को बार-बार सूंघने लगे और अपने कर-कमलों से उनके पुलकित हुए अंगों पर धीरे-धीरे हाथ फेरने लगे। दोनों भाई बड़ी देर तक इसी प्रकार प्रेम में बेसुध बने उसी स्थान पर बैठे रहे। फिर महाप्रभु उन्हें हाथ पकड़कर अपने यहाँ ले गये और वे अब पुरी में ही रहने लगे।

गदाधर जी क्षेत्र-संन्यास लेकर यमेश्वर के निर्जन मन्दिर में रहते थे। नित्यानन्द जी उन्हीं के पास ठहरे। गदाधर के लिये वे गौड़-देश से एक मन सुन्दर सुगन्धित अरवा चावल और एक बहुत बढि़या लाल वस्त्र उपहार में देने के लिये साथ लाये थे। गदाधर ने उन सुगन्धित चावलों को सिद्ध किया, इमली के पत्तों की चटनी भी बनायी, सभी सोच रहे थे कि इस समय महाप्रभु न हुए। किसी का इतना साहस नहीं हुआ कि प्रभु को निमंत्रण करें। ये लोग सोच ही रहे थे कि इतने में ही किसी ने द्वार खटखटाया। गदाधर ने जल्दी से किवाड़ खोले। देखा, महाप्रभु खड़े हैं; सभी महाप्रभु की इस भक्तवत्सलता की मन-ही-मन सराहना करने लगे। महाप्रभु जल्दी से स्वयं ही भोजन करने बैठ गये। सभी को साथ ही बैठकर प्रसाद पाने की आज्ञा हुई। महाप्रभु की आज्ञा सभी ने पालन की, सभी प्रभु के साथ बैठकर प्रसाद पाने लगे। प्रसाद पाते-पाते प्रभु कहते जाते थे- ‘अहा, हमारा कैसा सौभाग्य है; श्रीपाद जी के लाये हुए चावल, गदाधर के हाथ से बनाये हुए फिर गोपीनाथभगवान का महाप्रसाद। इस प्रसाद से श्रीकृष्ण-प्रेम की प्राप्ति होती है। इन चावलों की सुन्दर सुगन्धि ही भक्ति को बढ़ाने वाली है।’ महाप्रभु के इस प्रकार प्रसाद पाने से सभी को परम प्रसन्नता प्राप्त हुई।’

रथयात्रा के समय नियमानुसार तीसरी बार भक्तों के आने का समय हुआ। अबके भक्त अपनी स्त्रियों को भी साथ लेकर आये थे। जिसका वर्णन अगले अध्याय में होगा। भक्तों की विदाई के समय नित्यानन्द जी को एकान्त में बुलाकर महाप्रभु ने उनसे कहा- ‘श्रीपाद! आपके लिये विधि-निषेध क्या! आप तो वृन्दावन विहारी गोपकृष्ण के उपासक हैं। बेचारे गँवार ग्वालबाल विधि-निषेध क्या जानें? अब आप एक काम करें, अपना विवाह कर लें और आदर्श गृहस्थ बनकर लोगों के सम्मुख एक सुन्दर आदर्श उपस्थित करें कि गृहस्थ में रहकर भी किस प्रकार भजन, कीर्तन और परमार्थ-चिन्तन किया जाता है।’

गद्गदकण्ठ से अश्रुविमोचन करते हुए नित्यानन्द जी ने कहा- ‘प्रभो! आप तो घर में सन्तानहीन युवती विष्णुप्रिया जी को छोड़कर संन्यासी बन गये हैं ओर मुझे संन्यासी गृहस्थ बनने का उपदेश कर रहे हैं, आपकी लीला जानी नहीं जाती। महाप्रभु ने कहा- ‘श्रीपाद! मैं अब गृहस्थी भोगने के योग्य नहीं रहा। मेरी अवस्था एकदम पागलों की-सी हो गयी है। मुझसे अब किसी भी काम की आशा करना व्यर्थ है। अब सम्पूर्ण गौड़-देश का भार आपके ऊपर है और यह काम आपके गृहस्थ बन जाने पर ही हो सकेगा।’

नित्यानन्द जी ने कहा- ‘प्रभो! मैं आपकी आज्ञा के सम्मुख लोकनिन्दा और शास्त्र-मर्यादा की भी परवा नहीं करता। लोग मेरी निन्दा तो खूब करेंगे कि संन्यासी से अब गृहस्थ बन गया, किन्तु आपकी आज्ञा के सम्मुख मैं इन निन्दा-वाक्यों को अति तुच्छ समझता हूँ। आप जैसी आज्ञा देंगे वैसा ही मैं करूँगा।’

महाप्रभु तो सबके मन की बातें जानते थे, किससे कौन-सा काम कराना उचित होगा, इसका उन्हें ही ज्ञान था। कहाँ तो अपने अंतरंग विरक्त भक्तों को स्त्री-दर्शन करना भी पाप बताते थे और कहा करते थे- ‘हा हन्त हन्त विषभक्षणतोअप्यसाधु’ ‘स्त्रियों का और स्त्रियों से संसर्ग रखने वाले विषयी पुरुषों का दर्शन भी विषभक्षण से भी बुरा है।’ और कहाँ आज वे ही अवधूत नित्यानन्द जी को गृहस्थ बनने की आज्ञा दे रहे हैं।

नित्यानन्द जी ने महाप्रभु की आज्ञा शिरोधार्य की और वे फिर पुरी से लौटकर पानीहाटी में राघव पण्डित के ही यहाँ आकर ठहरे। इस प्रान्त में नित्यानन्द जी का प्रभाव पहले से ही अत्यधिक था। सभी लोग श्रीगौरांग का दूसरा ही विग्रह समझते थे। इसलिये ये भक्तों को साथ लेकर खूब धूम-धाम से संकीर्तन का प्रचार करने लगे। पाठकों को स्मरण होगा; अम्बिका नगर के सूर्यदास पण्डित के यहाँ नित्यानन्द जी पहले भी ठहरे थे और वे इनके चरणों में भक्ति भी बहुत अधिक रखते थे, उन्हीं के यहाँ जाकर फिर ठहरे। उन्होंने परिवारसहित इनका तथा इनके साथियों को खूब आदर-सत्कार किया। उनकी वसुधा और जाह्नवी नामकी दो सुन्दरी और सुशीला कन्याएँ थीं। इन्हीं दोनों कन्याओं का नित्यानन्द जी के साथ विवाह हुआ।

इस प्रकार दो विवाह करके नित्यानन्द जी भगवती भागीरथी के किनारे खड़दा नामक ग्राम में रहने लगे।

भक्तवृन्द इनका बहुत अधिक मान करते थे। यहीं वसुधा के गर्भ से परम तेजस्वी वैष्णव-सम्प्रदाय के प्रवर्तक श्रीवीरचन्द्र जी का जन्म हुआ। उन्होंने नित्यानन्द जी के तिरोभाव के अनन्तर अपना एक अलग ही वैष्णव-सम्प्रदाय बनाया। इनके पश्चात् इनकी पत्नी जाह्नवी देवी भी भक्ति का खूब प्रचार करती रहीं। इस प्रकार नित्यानन्द जी द्वारा गुरुकुल की स्थापना हुई जो किसी-न-किसी रूप में अद्यावधि विद्यमान हैं।

नित्यानन्द जी महाप्रभु के अनन्य उपासक थे, उन्होंने उनकी आज्ञा मानकर लोक-निन्दा सहकर भी विवाह किया और स्त्री-बच्चों में रहकर लोगों को दिखा दिया कि इस प्रकार निर्लिप्त-भाव से रहकर गृहस्थी में भगवद-भजन किया जाता है। वे गृहस्थ होने पर सदा उदासीन ही बने रहते थे। उन्होंने प्रवृत्ति-मार्ग में भी निवृत्ति-मार्ग का आचरण करना बता दिया, निवृत्ति-प्रवृत्ति ये ही दो मार्ग हैं। निवृत्ति-मार्ग का तो कोई लाखों में से एक-आध आचरण कर सकता है। इसीलिये तो भगवान ने ‘कमयोगो विशिष्यते’ कहकर निष्काम मार्ग की स्तुति की है। प्रवृत्ति-मार्ग दो प्रकार का होता है- एक सकाम, दूसरा निष्काम।

आजकल इन्द्रिय-भोगों को भोगते हुए जो गृहस्थ केवल पेट-पालन को ही मुख्य समझते हैं, उनका धर्म न निष्काम है और न सकाम। यह तो पशु-धर्म है; परस्पर के संसर्ग से स्वतः ही सन्तानें बढ़ती रहती हैं। सकाम कर्म वे हैं जो वेदोक्त रीति से स्वर्गादि सुखों की इच्छा से किये जायँ। निष्काम कर्म वे हैं, जो भगवत-प्रीति के ही लिये बिना किसी सांसारिक इच्छा के कर्तव्य समझकर किये जायँ, प्रभु-प्रसन्नता ही जिनका एकमात्र लक्ष्य हो। निष्काम कर्म करने वाले कुल दो प्रकार के होते हैं- एक तो वीर्यजन्य कुल और दूसर शब्दजन्य कुल। जो वंशपरम्परा से उत्पन्न होते हैं, वे वीर्यजन्य कुल कहलाते हैं और जो शिष्य परम्परा से शाखा चलती है, वह शब्दजन्य कुल कहलाते है। आजकल की महन्ती उसी कुलका विकृत और गिरा हुआ स्वरूप है। नित्यानन्द जी द्वारा इन दोनों ही कुलों की सृष्टि हुई। उनके वंशज भी गोस्वामी और वैष्णवों के गुरु हुए और उनकी शिष्य-परम्परा भी अद्यावधि विद्यमान है।

क्रमशः अगला पोस्ट [125]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Nityananda’s entry into Grihastha Ashram

The virtues of the devotees alone are not in Me, arising from virtue or evil. The saintly, of equal minds, who have attained the highest level of intelligence.

He who is not godly should not do this even in his mind He is destroyed by his foolishness, just as Rudra is the poison of the ocean.

Somewhere in the lives of great men, deviation from religion is found; What is the reason for this? It is not answered precisely; But the scriptures command not to follow their actions. Nirmalcheta Rishi-Maharishi, who have reached Brahma, have clearly told their followers and disciples in the Vedas-

You should worship those good deeds we have done and not others

You should follow the good deeds that we do. Others who see prohibited behavior in our life should never be followed. But the works of God and great men should not be criticized either. Maharishis have called it a sin to criticize and condemn the works of great men. Innocent brothers who criticize the works of great men make a mistake. At the same time, those who always curse the detractors also make mistakes. It is the nature of detractors to criticize. Why do you take another sin on your head by condemning them? Criticism is really beneficial. If the condemnation of bad deeds stops in the world, then this world will really become a hell. Great men are not afraid of condemnation, public censure cannot harm them. People of low nature do bad deeds secretly due to the fear of public condemnation and people of universal nature do not indulge in sinful deeds due to the fear of public condemnation. That’s why public censure is like thorns around the social tree to keep it safe. Due to this, sinful animals cannot completely destroy that tree. That’s why the traveler of the path of God should neither criticize the bad behavior of the great men nor should they criticize the detractors who criticize them. It is the best to be completely indifferent to praise and criticism. If something cannot be left without saying, then one should always describe the qualities of others and should also magnify the small qualities of the people and transform them in one’s life. In reality.

There was a lot of criticism of Nityanand ji’s lifestyle. People started criticizing him. It was a matter of condemnation, it is considered inappropriate in the eyes of public to behave like this for an avdhut tyagi. When he left sannyas and became a householder, then his condemnation started increasing even more. It seems that ‘Chaitanya-Bhagwat’ has been composed in the rebuttal of the same condemnation. Sri Chaitanya-Charit has not been given importance in Chaitanya-Bhagwat, in that the qualities of Nityanand ji have been specially described and people who do not believe in Nityanand ji have been cursed.

Even if the author of Chaitanya-Bhagwat had ignored this episode, the fame of great man Nityanand ji would not have diminished today. But the writer sir was forced to do so. The author of ‘Chaitanya-Bhagwatke’ Goswami Shri Vrindavandas ji was a mantra-disciple of Nityananda ji. Nityanand ji was everything for him. Goswami Vrindavandas was born only with the blessings of Nityanand ji. He always used to stay close to Nityanand ji. Ordinary people arbitrarily criticize those whom we consider our everything, very few talented men can tolerate this. That’s why his unique Guru-devotion is revealed by his such beautiful poetry.

Nityanand ji’s complaint had reached Mahaprabhu. A classmate of Prabhu’s Pandit criticized Nityanand ji very much; But Mahaprabhu did not believe it.

Devotees from Gaud-Desh also went to see Mahaprabhu for the second time during the Rath Yatra as before. At that time also many things were happening regarding Nityanand ji. Shrivas Pandit said while walking that Nityanand ji had come out of the house in his innocence. He did not voluntarily retire.

Mahaprabhu said- ‘Whether he has taken sannyas willingly or unwillingly, there is no legal prohibition for him.’ Everyday, Nityanand ji also got a little angry after hearing different things from the mouth of people. He told his heartache to Sachimata. Mother ordered to go to Neelachal and meet Nimai, do as he says. With the permission of the mother, Nityanand ji reached Neelachal with ten or five of his intimate devotees. He used to feel very ashamed to go in front of Mahaprabhu. That’s why he didn’t hesitate to go to Mahaprabhu’s place. Sitting outside in a garden, he was shedding tears of repentance that at the same time, even after getting the news, the Lord came running there and praising Nityanand ji, he started going around him.

Seeing the Pradakshina of the Lord, Nityanand ji quickly got up to bow down to the Lord, but fell unconscious there in the passion of love. In his unconscious state, the Lord offered the dust of his feet on his head. After Mahaprabhu, all the devotees offered Nityanand ji’s lotus feet on their heads. Prabhu sat holding his feet. Nityanand ji woke up after getting external knowledge; He wanted to say something but could not say anything in the passion of love, his head rolled down on its own and fell on Mahaprabhu’s lap. Mahaprabhu started smelling his head again and again and slowly started moving his hands on his ecstatic organs with his lotus hands. Both the brothers sat at the same place for a long time like this, unconscious in love. Then Mahaprabhu took him by the hand and took him to his place and now he started living in Puri.

Gadadhar ji lived in the deserted temple of Yameshwar after taking retirement from the field. Nityanand ji stayed with him only. For Gadadhara, he had brought along a hearty, fragrant Arwa rice and a very fine red cloth as a gift from the country of Gaud. Gadadhar perfected those fragrant rice, also made chutney of tamarind leaves, everyone was thinking that Mahaprabhu did not happen at this time. No one had the courage to invite the Lord. These people were thinking that someone knocked on the door. Gadadhar quickly opened the doors. Saw, Mahaprabhu is standing; Everyone started appreciating this devotional attitude of Mahaprabhu. Mahaprabhu himself quickly sat down to eat. Everyone was allowed to sit together and get the prasad. Everyone obeyed Mahaprabhu, everyone started getting prasad sitting with the Lord. While receiving Prasad, the Lord used to say- ‘Aha, how fortunate we are; Rice brought by Shripad ji, made by Gadadhar’s hand, then Mahaprasad of Lord Gopinath. With this prasad one attains the love of Krishna. The beautiful aroma of these rice is going to increase devotion.’ Everyone got the ultimate happiness by getting Prasad from Mahaprabhu in this way.

According to the rules during the Rath Yatra, it was the time for the devotees to come for the third time. This time the devotees had brought their women along with them. Which will be described in the next chapter. At the time of farewell to the devotees, calling Nityanand ji in solitude, Mahaprabhu said to him – ‘Shripad! What is prohibition for you? You are a worshiper of Vrindavan Vihari Gopakrishna. What should the poor cowherd boy know about the prohibition of the law? Now do one thing, get married and become an ideal householder and present a beautiful ideal in front of the people that how bhajan, kirtan and spiritual thoughts are done even while living at home.’

While releasing tears from Gadgadkanth, Nityanand ji said – ‘ Lord! You have become a sannyasin leaving the childless girl Vishnupriya ji at home and you are preaching me to become a sannyasin householder, your leela is not known. Mahaprabhu said – ‘ Shripad! I am no longer able to enjoy the household. My condition has become completely insane. It is futile to expect any work from me now. Now the burden of the entire Gaur-country is on you and this work can be done only when you become a householder.’

Nityanand ji said – ‘ Lord! I don’t even care about public condemnation and scriptural norms in front of your command. People will criticize me a lot that I have become a householder from a monk, but in front of your command, I consider these blasphemies as very insignificant. I will do as you command.’

Mahaprabhu knew what was in everyone’s mind, he only knew that it would be right to get which work done. Somewhere even seeing women was a sin to his devotees who were not intimate and used to say- ‘Ha Hant Hant Vishbhakshanto Apyasadhu’ ‘The vision of women and of sensual men who have intercourse with women is also worse than consuming poison.’ Where else are they today ordering Avdhoot Nityanand ji to become a householder.

Nityanand ji obeyed Mahaprabhu’s orders and returned from Puri and stayed at Raghav Pandit’s place in Panihati. Nityanand ji’s influence was already immense in this province. Everyone considered Shri Gaurang to be another deity. That’s why he took the devotees along with him and started propagating sankirtan with great fanfare. Readers will remember; Nityanand ji had stayed at the place of Suryadas Pandit of Ambika Nagar earlier also and he used to have a lot of devotion at his feet, went and stayed at his place again. He honored him and his companions along with his family. He had two beautiful and Sushila daughters named Vasudha and Jahnavi. Both these girls got married with Nityanand ji.

In this way, after getting married twice, Nityanand ji started living in a village named Khadda on the banks of Bhagwati Bhagirathi.

Devotees respected him a lot. It was here from Vasudha’s womb that Shri Virchandra ji, the originator of the supremely brilliant Vaishnav sect, was born. After the disappearance of Nityanand ji, he created his own separate Vaishnava sect. After this, his wife Jhanvi Devi also continued to propagate Bhakti a lot. In this way Gurukul was established by Nityanand ji, which is present in some form or the other.

Nityanand ji was an exclusive worshiper of Mahaprabhu, he obeyed him and got married even after facing public condemnation and showed people by living in women and children that in this way Bhagavad-Bhajan is done in the household by being detached. He always remained indifferent when he was a householder. He told to follow the path of retirement even in the path of tendency, these are the two paths. Only one-half out of a million can follow the path of retirement. That’s why God has praised the selfless path by saying ‘Kamayogo Vishishyate’. There are two types of trend-path – one is fruitful, the other is useless.

Now-a-days, the householders who, while indulging in sense-enjoyments, consider only subsistence as the main thing, their dharma is neither aimless nor fruitful. This is animal religion; Due to mutual contact, children keep on increasing automatically. Fruitful deeds are those which are performed according to the Vedas with the desire of heavenly pleasures. Selfless deeds are those, which are done only for the love of God, without any worldly desire, considering it as duty, whose only goal is God’s pleasure. There are two types of clans that do selfless deeds – one is the semen-born clan and the other is the word-born clan. The ones that are born through lineage are called semen-based clans and the ones that run through the disciplic succession are called word-based clans. Today’s Mahanti is the perverted and fallen form of the same clan. Both these clans were created by Nityanand ji. His descendants also became gurus of Goswamis and Vaishnavas and their disciplic tradition also exists today.

respectively next post [125] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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