।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
महाप्रभु वल्लभाचार्य और महाप्रभु गौरांगदेव
श्रीगौरवल्लभभगवत्परायणौ
महाप्रभु भक्तिप्रियौ सुनायकौ।
भक्तिपरौ कृष्णकथातिगायकौ
भक्तिविहीनस्य प्रसीदतां मे।।
महाप्रभु गौरांगदेव अपने सुमधुर संकीर्तन और उद्दण्ड नृत्य से प्रयागवासी नर-नारियों को पावन और प्रसन्न बनाते हुए कुछ काल तक त्रिवेणीतट के समीप ही रहे। वहाँ जब अधिक भीड़-भाड़ होने लगी, तब आप एकान्त में रहने की इच्छा से दारागंज के समीप दशाश्वमेध घाट के पास आकर रहने लगे। प्रभु की प्रसिद्धि प्रयाग के प्रायः सभी प्रतिष्ठित पण्डितों और धनीमानी सज्जनों के कानों तक पहुँच गयी थी, अतः बहुत-से लोग प्रभु के दर्शन और संकीर्तन देखने की इच्छा से उनके समीप आने लगे। भगवान वल्लभाचार्य ने भी महाप्रभु की प्रशंसा सुनी कि एक गौड़ देशीय युवक संन्यासी अपने भक्तिभावमय संकीर्तन और नृत्य से दर्शकों के मन को चुम्बक की तरह अपनी ओर खींच लेते हैं, तब उनकी भी प्रभु-दर्शनों की इच्छा हुई। ऐसे कृष्ण-भक्त महापुरुष के दर्शनों के लिये आये। आते ही उन्होंने संन्यासी समझकर महाप्रभु के चरणों में प्रणाम किया और एक ओर चुपचाप बैठ गये। महाप्रभु ने भी इनकी ख्याति पहले से ही सुन रखी थी। जब उन्हें पता चला कि ये ही आचार्यशिरोमणि श्रीमद्वल्लभ भट्ट हैं, तब तो वे इनसे लिपट गये और प्रेमालिंगन करते हुए इनके पाण्डित्य तथा प्रभाव की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे।
तब महाप्रभु ने अपने पास में बैठे हुए रूप और अनूप-इन दोनों भाइयों का आचार्य से परिचय कराया। इन दोनों भाइयों का परिचय पाते ही आचार्य इन्हें आलिंगन करने के लिये इनकी ओर बढ़े। आचार्य को अपनी ओर आते देखकर ये दोनों भाई अत्यन्त ही संकोच के साथ पीछे हटते हुए दीनता के साथ कहने लगे- ‘भगवन! आप हमें स्पर्श न कीजिये, हम ब्राह्मण-कुल में उत्पन्न होने पर भी यवनों के संसर्ग से यवन-प्रायः बन गये हैं। हमारे सभी आचार-व्यवहार अब तक यवनों के-से ही रहे हैं। आप आचार्य हैं, कुलीन ब्राह्मण हैं, पण्डित हैं, लोकपूज्य हैं, हम आपके स्पर्श करने योग्य नहीं हैं- इतना कहते-कहते ये दोनों भाई दूर से ही लेटकर आचार्य-चरणों में प्रणाम करने लगे।
आचार्य इनकी इतनी भारी शालीनता, नम्रता और दीनता को देखकर आश्चर्यचकित हो गये और उसी समय श्रीमद्भागवत के ‘अहो तब श्वपतोअतो गरीयान’ इस श्लोक को गायन करते हुए जल्दी से उनकी ओर दौड़े और उनका प्रेम पूर्वक आलिंगन करते हुए उनके भक्तिभाव की प्रशंसा करने लगे। इसके अनन्तर आचार्य ने महाप्रभु से अपने घर पधारकर भिक्षा करने की प्रार्थना की। प्रभु ने अपने सभी साथियों के सहित आचार्य का निमंत्रण स्वीकार किया और वे अपने सभी भक्तों को साथ लेकर आचार्य के वासस्थान अरैल के लिये चले। यमुना जी को पार करके अरैल के लिये जाना होता है, इसलिये श्री मद्वल्लभाचार्य जी ने उसी समय एक सुन्दर-सी नौका मंगायी और उस पर प्रभु के सभी भक्तों के सहित प्रभु को बिठाकर आप एक ओर बैठ गये। श्री यमुना के मेघवर्ण के श्याम रंग वाले सुन्दर सलिल को देखते ही भावावेश में आकर नौका पर ही प्रभु नृत्य करने लगे। नौका डगमग-करने लगी। सभी भक्त भयभीत हो उठे, किन्तु महाप्रभु अपने भाव को संवरण करने में समर्थ न हो सके, वे नृत्य करते-करते प्रेम में उन्मत्त होकर एकदम बीच यमुना जी की तीक्ष्ण धारा में कूद पड़े। नाव में चारों ओर से हाहाकार मच गया। महाप्रभु का सुवर्ण के समान कान्तियुक्त शरीर यमुना जी के नीले रंग के जल में उछलता और डूबता बड़ा ही भला मालूम होने लगा। महाप्रभु यमुना जी के प्रवाह में बहने लगे। उसी समय मल्लाह जल में कूद पड़े और प्रभु को जिस किसी भाँति पकड़कर नाव पर चढ़ाया। सभी उस पार अरैल पहुँचे।
आचार्य के शिष्य, सेवक तथा ग्राम वासियों ने महाप्रभु का खूब ही स्वागत-सत्कार किया। आचार्य ने एक सद्गृहस्थ की भाँति बड़ी ही श्रद्धा के साथ महाप्रभु की अभ्यर्थना की और उन्हें प्रेम पूर्वक भिक्षा करायी। प्रभु के भिक्षा कर लेने पर महाप्रभु का उच्छिष्ट महाप्रसाद अन्य सभी साथी भक्तों ने पाया। सभी को भोजन कराने के अनन्तर आचार्य महाप्रभु ने समीप पहुँचे और अतिथि-सेवा-महत्त्व जताने के निमित्त वे प्रभु के पैर दबाने के लिये उद्यत हुए महाप्रभु ने अपने पैरों को सिकोड़ते हुए अत्यन्त ही लज्जित भाव से कहा- आचार्य! आप मुझे लज्जित क्यों कर रहे हैं ? आप आचार्य हैं, पूज्य हैं, वयोवृद्ध हैं, मेरे पिता के समान हैं, आप मेरे साथ यह क्या अनर्थ कर रहे हैं?’
अत्यन्त ही सरलता के साथ आचार्य ने कहा- ‘भगवन! आप संन्यासी होने के कारण आश्रम गुरु हैं, फिर मेरे सौभाग्य से आप अतिथि होकर मेरी कुटिया में पधारे हैं। शास्त्रों में चाण्डाल अतिथि को भी नारायण समझकर पूजा करने का विधान है, फिर आप तो साक्षात नारायण के स्वरूप ही हैं। आपकी पादचार्य से मैं कृतकृत्य हो जाऊँगा।’
महाप्रभु वैसे ही बड़े सरल और संकोची स्वभाव के थे, बड़ों के सामने तो उनकी शीलता, लज्जा और सरलता अत्यन्त ही बढ़ जाती। अपनी स्वाभाविक नम्रता से उन्होंने कहा- ‘आचार्य देव! मैं आज आपके यहाँ भगवान का प्रसाद पाकर अत्यन्त ही संतुष्ट हुआ। मेरा परम सौभाग्य है जो यहाँ आकर आपके आतिथ्य ग्रहण करने का सुअवसर मुझे प्राप्त हो सका। मुझे तो तीर्थों का फल प्रत्यक्ष मिल गया। आप-जैसे महापुरुषों के दर्शन ही साधारण लोगों को दुर्लभ हैं, फिर जिसे आपकी कृपा की प्राप्ति हो गयी है, उसके सौभाग्य का तो कहना ही क्या हैं!’ इस प्रकार दोनों ही महापुरुष परस्पर एक-दूसरे की स्तुति कर रहे थे। अनन्तर महाप्रभु की आज्ञा से आचार्य प्रसाद पाने चले गये। प्रसाद पाकर वे फिर प्रभु के पास आकर श्रीकृष्ण-कथा आदि करने लगे।
उसी समय तिरूहुत निवासी रघुपति उपाध्याय नामक एक मैथिल पण्डित प्रभु की प्रशंसा सुनकर वहीं अरैल में उनके दर्शनों के लिये आये। वे एक अच्छे कवि थे और साधु-महात्माओं के चरणों में अनुराग रखते थे। प्रभु के चरणों में प्रणाम करके वे एक ओर बैठ गये।
प्रभु ने उनका परिचय पाकर उनसे कहा- ‘सुना है आप बड़े प्रसिद्ध कवि हैं, असल में वही काव्य काव्य कहा जा सकता है, जिसमें श्रीकृष्ण की लीला और गुणों का वर्णन हो। आप कोई स्वरचित श्रीकृष्ण सम्बन्धी श्लोक सुनाइये।’
दोनों हाथों की अंजलि बांधे हुए अत्यन्त ही दीनता के साथ उन उपाध्याय कवि ने कहा- ‘प्रभो! कविता मैं क्या जानूँ ? वैसे ही इधर-उधर के पद जोड़ लेता हूँ। श्रीकृष्ण की लीला तो अवर्णनीय है, उनके सभी गुण अचिन्त्य हैं, उनका मैं मायामोह में फंसा हुआ अज्ञानी जीव वर्णन ही क्या कर सकता हूँ? एक पद है, पता नहीं वह आपको पसंद आवेगा या नहीं।’ प्रभु ने जल्दी से कहा- ‘आपके ऊपर श्रीकृष्ण भगवान की कृपा है। तभी तो इतनी भारी प्रतिभा होते हुए भी आप इतने विनम्र हैं। सुनाइये, आप जो भी कुछ सुनावेंगे वही अमृत तुल्य होगा।’
प्रभु ने कहने पर महामहिम उपाध्याय कवि अपने कोकिलकूजित कमनीय कण्ठ से श्रीकृष्ण के पिता नन्दबाबा की स्तुति-सम्बन्धी इस प्रेममय पद्य का बड़े ही स्वर के सहित गायन करने लगे-
श्रुतिमपरे स्मृतिमितरे भारतमन्ये भजन्तु भवभीतः।
अहमिह नन्दं वन्दे यस्यालिन्दे परं ब्रह्मा।।
इस श्लोक को सुनते प्रभु लेटे-से एकदम उठकर बैठे हो गये और उपाध्याय का जोरों से आलिंगन करते हुए कहने लगे- ‘वाह! वाह! धन्य है। अहा, नन्द जी के भाग्य की सराहना कौन कर सकता है ? कैसे कहा ‘अहमिह नन्दं वन्दे यस्यालिन्दे परं ब्रह्मा।।’ सचमुच बड़ा ही सुन्दर श्लोक है। कृपा करके और भी कोई ऐसा ही सुनाइये।’
कवि की कही हुई कविता की आप यथोचित प्रशंसा भर कर दीजिये, उसी से उसे परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है। यथोचित प्रशंसा ही पद्य का सर्वोत्कृष्ट पुरस्कार है। उपाध्याय उसी स्वर से गाने लगे-
सम्प्रति कथयितुमीशे सम्प्रति को वा प्रतीतिमायातु।
गोपतितनयाकुंजे गोपवधूटीविटं ब्रह्म।।
पण्डित प्रवर श्रीरघुपति उपाध्याय के इन परम प्रेममय पदों को सुनकर प्रभु प्रसन्नता प्रकट करते हुए उनसे कुछ प्रश्न पूछने लगे। प्रभु ने कहा- ‘कविवर महोदय! टाप की प्रखर प्रतिभा की प्रशंसा करना बुद्धि के परे की बात है। मैं आपसे यह पूछना चाहता हूँ कि आप सब रूपों में सर्वश्रेष्ठ रूप किसे समझते हैं?’
उपाध्याय ने कहा- ‘प्रभो! सांवरे की श्याम रंग की सलोनी सूरत को ही मैं सर्वश्रेष्ठ समझता हूँ।’
प्रभु ने फिर पूछा- ‘अच्छा, वासस्थानों में सर्वश्रेष्ठ वासस्थान किसे समझते हैं?’
उपाध्याय ने कहा- ‘मधुमयी मधुपुरी के माधुर्य के सम्मुख सभी पुरियाँ फीकी पड़ जाती हैं; अतः मधुपरी ही सर्वश्रेष्ठ वासस्थान है।’ प्रभु ने पूछा- ‘यह तो ठीक है, किन्तु भगवान की बाल, पौगण्ड और किशोर- इन अवस्थाओं में से किस अवस्था को आप सर्वश्रेष्ठ समझते हैं?’
उपाध्याय ने गद्गद कण्ठ से कहा- ‘प्रभो! यह भी कोई पूछने की बात है; उस कारे की कमनीय कौमारावस्था ही तो परमध्येय और सर्वश्रेष्ठ है। उसी के ध्यान से तो मन आनन्दसागर में उन्मत्त होकर विहार कर सकता है।’
‘प्रभु ने अत्यन्त ही प्रसन्न होकर पूछा- ‘बस, एक बात और बताइये। रसों में सर्वश्रेष्ठ रस किसे समझते हैं?’
अत्यन्त ही दीनता के साथ उपाध्याय कहने लगे- ‘प्रभो! यह कहने की बात नहीं है, यह तो अनुभवगम्य विषय है। भला, श्रृंगार के सामने सर्वश्रेष्ठ और सर्वसम्मत दूसरा रस हो ही कौन-सा सकता है? और रस तो नाममात्र के रस हैं। वास्तव में रस जिसे कह सकते हैं, वह तो आदिरस श्रृंगाररस ही है। इन उत्तरों को सुनकर प्रभु प्रेम में उन्मत्त होकर ऊपर को उछलने लगे और उछलते-उछलते उपाध्याय का आलिंगन करते हुए आप श्री माधवेन्द्रपुरी महाराज के इस श्लोक को पढ़ने लगे-
श्याममेव परं रूपं पुरी मधुपुरी वरा।
वयः कैशोरकं ध्येयमाद्य एव परो रसः।।
इस प्रकार प्रभु और उपाध्याय के प्रश्नोंत्तरों को सुनकर उपस्थित सभी पुरुषों को बड़ी भारी प्रसन्नता हुई। सायंकाल का समय सन्निकट आ पहुँचा। प्रभु ने आचार्य से लौटने की आज्ञा मांगी। इस पर ग्रामवासी अन्य ब्राह्मण भी प्रभु के निमंत्रण का आग्रह करने लगे। तब आचार्य ने कहा- ‘भाई! इन्हें यहाँ रखना मैं उचित नहीं समझता। ये प्रेम में विभोर होकर यमुना जी में कूद पड़ते हैं। यहाँ से यमुना जी के सदा दर्शन होते रहते हैं, इसलिये मैं जहाँ से इन्हें लाया हूँ, वहीं पहुँचा आऊँगा, तब फिर जिसकी इच्छा हो, इन्हें वह ले आवे।’
आचार्य की बात सुनकर सभी चुप हो गये। आचार्य ने अपनी स्त्री, बच्चे तथा परिवार के सभी आदमियों के सहित प्रभु की अभ्यर्चना की और उन्हें नाव पर बिठाकर दशाश्वमेध घाट पर पहुँचा आये।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Mahaprabhu Vallabhacharya and Mahaprabhu Gaurangdev
Sri Gauravallabha Bhagavatparayanau The great Lord is a devout listener. They are devout and sing the story of Krishna Please be pleased with me who am devoid of devotion.
Mahaprabhu Gaurangdev stayed near the Trivenitat for some time making the men and women of Prayag pious and happy with his melodious sankirtan and bold dance. When there was a lot of crowd, then with the desire to live in solitude, you started living near Dashashwamedh Ghat near Daraganj. Prabhu’s fame had reached the ears of almost all the eminent pundits and wealthy gentlemen of Prayag, so many people started coming near to see Prabhu’s darshan and sankirtan. Lord Vallabhacharya also heard the praise of Mahaprabhu that a Gaud country youth monk draws the hearts of the audience towards him like a magnet with his devotional sankirtan and dance, then he also had a desire to see the Lord. Such Krishna-devotees came to have darshan of the great man. As soon as he came, he bowed at the feet of Mahaprabhu thinking that he was a monk and sat quietly on one side. Mahaprabhu had already heard about his fame. When he came to know that this is Acharyashiromani Shrimadvallabh Bhatt, then he hugged him and started praising his erudition and influence while embracing him.
Then Mahaprabhu introduced both the brothers Roop and Anoop to Acharya, sitting next to him. On getting the introduction of these two brothers, Acharya moved towards them to embrace them. Seeing the Acharya coming towards them, these two brothers retreated with extreme hesitation and humbly said – ‘ God! You don’t touch us, even though we were born in Brahmin-clan, we have become Yavana-Prayah by association with Yavanas. All our conduct and behavior till now have been of the Yavanas. You are Acharya, you are a noble Brahmin, a scholar, you are worshiped by the people, we are not worthy of your touch – saying this, both these brothers started bowing at the feet of Acharya by lying down from a distance.
Acharya was surprised to see such great decency, humility and humility of him and at the same time singing this verse of Shrimad Bhagwat ‘Aho tab svapatato gariyan’ quickly ran towards him and hugging him lovingly started praising his devotion. After this, Acharya requested Mahaprabhu to come to his house and do alms. Prabhu along with all his companions accepted the invitation of AchArya and went to Arail, the abode of AchArya, taking all his devotees along with him. One has to cross Yamuna ji and go to Arail, so Shri Madvallabhacharya ji called for a beautiful boat at the same time and after making the Lord sit on it along with all the devotees of the Lord, you sat on one side. As soon as he saw the beautiful Salil of the dark complexion of the clouds of Shri Yamuna, the Lord started dancing on the boat itself in ecstasy. The boat began to waver. All the devotees got scared, but Mahaprabhu was not able to control his feelings, while dancing, he jumped into the sharp current of Yamuna ji, madly in love. There was an outcry from all sides in the boat. Mahaprabhu’s body shining like gold seemed very good to jump and drown in the blue water of Yamuna ji. Mahaprabhu started flowing in the flow of Yamuna ji. At the same time the sailors jumped into the water and somehow caught the Lord and put him on the boat. Everyone reached Arail on the other side.
Acharya’s disciples, servants and villagers welcomed Mahaprabhu a lot. Acharya prayed to Mahaprabhu with great devotion like a good householder and made him do alms with love. All the other fellow devotees received Mahaprabhu’s leftover Mahaprasad after the Lord had alms. After feeding everyone, Acharya Mahaprabhu reached near and in order to express the importance of guest-service, he tried to press the feet of the Lord. Why are you making me feel ashamed? You are Acharya, respected, elderly, like my father, what are you doing to me?’
Acharya said very simply – ‘ God! Because you are a monk, you are the teacher of the ashram, then it is my good fortune that you have come to my cottage as a guest. In the scriptures, there is a law to worship Chandal guest considering them as Narayan, then you are the form of Narayan. I will be indebted to your footsteps.’
Similarly, Mahaprabhu was of very simple and shy nature, in front of the elders, his modesty, modesty and simplicity would have increased a lot. With his natural humility he said – ‘ Acharya Dev! I am very satisfied after getting the prasad of God at your place today. It is my great fortune that I could get the opportunity to come here and receive your hospitality. I got the fruits of the pilgrimages directly. It is rare for ordinary people to see great men like you, then what can we say about the good fortune of the one who has received your grace!’ In this way both the great men were praising each other. Acharya went to get Prasad by the order of Anantar Mahaprabhu. After getting the Prasad, they again came to the Lord and started doing Shri Krishna-Katha etc.
At the same time, a Maithil Pandit named Raghupati Upadhyay, a resident of Tiruhut, hearing the praise of the Lord, came there to visit Arail. He was a good poet and had affection at the feet of sages and sages. After bowing down at the feet of the Lord, he sat on one side.
After getting his introduction, the Lord told him- ‘I have heard that you are a very famous poet, in fact only that poetry can be called poetry, which describes the pastimes and qualities of Shri Krishna. You recite any self-written shloka related to Shri Krishna.
With utmost humility, that Upadhyay poet said with tying both hands – ‘ Lord! What should I know about poetry? Similarly, I add posts here and there. Shri Krishna’s leela is indescribable, all his qualities are unimaginable, how can I, an ignorant creature trapped in illusion, describe him? There is a post, don’t know whether you will like it or not. The Lord quickly said – ‘ Lord Krishna has blessed you. That’s why you are so humble in spite of being such a huge talent. Recite, whatever you narrate will be like nectar.’
On being told by the Lord, His Excellency Upadhyay the poet began to sing this loving verse in praise of Sri Krishna’s father Nandbaba with a loud voice in his kokilkujit praiseworthy voice-
Let others worship the Sruti, others the Smriti, others the Bharata, fearing death. I here salute Nanda in whose lap is the Supreme Brahman.
Hearing this verse, the Lord got up from his lying down and sat up and started hugging Upadhyay tightly and said- ‘Wow! Wow! Blessed. Oh, who can appreciate Nandji’s luck? How did you say ‘Ahmih Nandam Vande Yasyalinde Param Brahma’. Really a beautiful verse. Please tell someone else like this too.
You fill the praise of the poem said by the poet, that’s why he gets ecstasy. Reasonable praise is the best reward of poetry. Upadhyay started singing in the same tone –
Let me tell you now, Lord, and let me perceive who I am now. Brahma, the bride of the cowherd, in the garden of the daughter of the cowherd.
After listening to these supremely loving verses of Pandit Pravar Shrirgupati Upadhyay, the Lord expressed his pleasure and started asking him some questions. The Lord said – ‘ Mr. Poet! To praise the intense talent of Top is beyond the intellect. I want to ask you, which of all forms do you consider to be the best?’
Upadhyay said – ‘ Lord! I consider Savre’s dark colored Saloni Surat to be the best.’
The Lord again asked – ‘Ok, which is considered the best abode among the abodes?’
Upadhyay said- ‘All puris fade in front of the sweetness of Madhumayi Madhupuri; That’s why Madhupari is the best abode. The Lord asked – ‘It is okay, but which of these stages do you consider the best?’
The Upadhyay said in a thunderous voice – ‘Lord! This too is something to ask; The inferior virginity of that car is the supreme and the best. By meditating on him, the mind can wander madly in the ocean of joy.’
‘ The Lord asked very pleased – ‘ Just tell me one more thing. Which is considered the best among the juices?’
Upadhyay started saying with utmost humility – ‘Lord! It is not a matter of saying, it is an experiential matter. Well, what can be the best and unanimous second juice in front of makeup? And the juices are nominal juices. In fact, what can be called juice is Adiras Shringararas only. Hearing these answers, the Lord started jumping up in a frenzy of love and while jumping and hugging the Upadhyay, you started reciting this verse of Shri Madhavendrapuri Maharaj-
The city of Madhupuri is the best of all beauty Age is the goal of adolescence and today is the supreme taste.
In this way, listening to the questions and answers of Prabhu and Upadhyay, all the men present were very happy. Evening time has almost arrived. Prabhu asked Acharya for permission to return. On this, the villagers and other Brahmins also started requesting for the invitation of the Lord. Then Acharya said – ‘Brother! I do not think it appropriate to keep them here. They jump into Yamuna ji after being engrossed in love. Yamuna ji is always visible from here, that’s why I will reach there from where I have brought them, then whoever wishes, they can bring them.’
Everyone became silent after listening to Acharya. Acharya along with his wife, children and all the men of the family prayed to the Lord and took them on a boat and brought them to Dashashwamedh Ghat.
respectively next post [139] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]