।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
श्री सनातन का अदभूत वैराग्य
शरीरं व्रणवद् बोध्यमन्नं च व्रणलेपनम्।
व्रणशोधनवत् स्नानं वस्त्रं च व्रणपट्टवत्।।
महाप्रभु का सम्पूर्ण जीवन त्यागमय था, त्याग उन्हें सबसे अधिक प्रिय था, संसारी भोगों का जब भी त्याग किया जाये, जितना ही त्याग किया जाये उतना ही अच्छा है, किन्तु त्याग वैराग्य के बिना टिकता नहीं, इसीलिये वे मरकट वैराग्य के विरुद्ध थे। अपने शरणा पन्न भक्तों को वे खूब ठोक-बजाकर देख लेते थे कि इनके जीवन में वैराग्य है कि नहीं। यदि वैराग्य देखते तब तो उसे महान वैराग्य का उपदेश करते और जब उन्हें वैराग्य की कमी प्रतीत होती तो उसे श्रीकृष्ण प्रीत्यर्थ घर में ही रहकर निष्काम भाव से संसारी कर्मों को करते रहने की ही शिक्षा देते। वे जानते थे कि ज्ञानी पुरुष भी अपनी प्रकृति के अनुसार ही व्यवहार करते हैं; इसलिये सब किसी को विषयों से एकदम हट जाने का आग्रह नहीं करते और त्याग न करने वाले को वे बुरा भी नहीं बताते, क्योंकि विषयों का त्याग सब नहीं कर सकते, त्याग करने वाले तो कोई बिरले ही होते हैं।
श्रीरूप और सनातन के व्यवहार से ही प्रभु समझ गये कि इन लोगों के जीवन में महान वैराग्य है। सचमुच ये दोनों भाई पहले जितने अधिक भोगी थे पीछे उससे भी अधिक त्यागी बन गये। श्री सनातन जी के लिये तो सुनते हैं कि घर बनाकर या कुटिया में रहना तो अलग रहा, वे एक दिन से अधिक एक पेड़ के नीचे भी वास नहीं करते थे। बारहों महीने जंगल में किसी पेड़ के नीचे पड़े रहना, दूसरे दिन उसे छोड़कर दूसरे वृक्ष के नीचे चले जाना-यही इनका दैनिक व्यापार था। व्रजवासियों के घरों से रोटियों के छोटे-छोटे टुकड़े मांग लाते। उन्हें यमुना-जल के साथ जिस-किसी भाँति गले से नीचे निगल जाते। जो बचे रहते उन्हें पृथ्वी में गाड़ देते और दूसरे दिन उन्हें जल में मीजकर फिर खा जाते। ओढ़ने को रास्ते में पड़े हुए चिथड़ों की एक गुदड़ी मात्र रखते। पात्रों में उनके पास मिट्टी के एक टोंटनीदार करुवे के सिवा कुछ नहीं रहता। ‘कर करुवा गुदरी गले’ यही इनका बाना था। इसी प्रकार इन्होंने बीसों वर्ष श्री वृन्दावन की पवित्र भूमि में बिताये।
प्रेमावतार गौरांग इनके इस वैराग्य से बड़े सन्तुष्ट होते थे और वृन्दावन से जो भी आता उसी से इनका समाचार पूछते। सनातन को महान वैराग्य की शिक्षा प्रभु ने काशीधाम में ही दी थी। महाप्रभु ने स्पष्ट नहीं कहा। स्पष्ट तो मूर्खों और बुद्धिमान थे, एक देश का शासन उन्हीं की कुशाग्र बुद्धि से होता था। फिर तिसपर भी इनके ऊपर प्रभु की पूर्ण कृपा थी, फिर वे महाप्रभु के संकेत को क्यों न समझते। पाठकों को अगली घटना से इसका पता चल जायेगा।
वैद्य चन्द्रशेखर महाप्रभु और श्री सनातन जी के परस्पर मिलन को देखकर चकित हो गये। महाप्रभु इन मुसलमान साधु से इतने प्रेम से क्यों मिल रहे हैं, सगे भाई की तरह घुल-घुलकर बातें क्यों कर रहे हैं, वैद्य महोदय इन्हीं विचारों में निमग्न थे। वे बीच-बीच में महाप्रभु की दृष्टि बचाकर श्री सनातन की ओर देख लेते थे और नीचे को मुख करके कुछ सोचने लगते। प्रभु वैद्य के मनोगत भाव को ताड़ गये। इसलिये श्री सनातन का परिचय देते हुए कहने लगे- ‘चन्द्रशेखर! तुम इन्हें जानते नहीं हो, ये गौड़ देश के बादशाह के प्रधानमंत्री हैं। महान पण्डित हैं, अद्वितीय भगवद्भक्त हैं, पद, प्रतिष्ठा, धन, सम्पत्ति, कुटुम्ब, परिवार, सभी पर लात मार करके भगवद्भजन करने के लिये निकल पड़े हैं, इनके दो भाई भी इसी प्रकार घर-बार छोड़कर वृन्दावन वास करने गये हैं, वे मुझे प्रयाग में मिले थे। आज इनकी पदधूलि से तुम्हारा घर सचमुच तीर्थ बन गया।’ सनातन जी प्रभु के मुख से अपनी प्रशंसा सुनकर लज्जा के कारण पृथ्वी में गड़े-से जा रहे थे, उनके मुख से एक भी शब्द नहीं निकला। वे नीची दृष्टि किये हुए अपने नख से पृथ्वी को कुरेद रहे थे, मानो वे देख रहे थे कि यदि इसमें कोई बिल मिल जाये तो मैं सीता जी की तरह अन्दर समा जाऊं।
श्री सनातन जी का परिचय पाते ही चन्द्रशेखर जी ने भूमि पर लोटकर उन्हें प्रणाम किया। सनातन जी ने रोते-रोते उनके चरण पकड़ लिये और फूट-फूटकर रोने लगे। एक-दूसरे के चरणों में अपना माथा रगड़ने लगे, एक-दूसरे का आलिंगन करके अपने प्रेम के आवेश को कम करना चाहते थे, किन्तु वह वेग इतना अधिक था कि प्रेमांलिगन, चरणस्पर्श तथा अश्रुविमोचन से शान्त ही नहीं होता था, महाप्रभु इन दोनों के प्रेम को देखकर मन-ही-मन प्रसन्न हो रहे थे। कुछ काल के अनन्तर प्रभु ने कहा- ‘चन्द्रशेखर! तुम सनातन को गंगाजी पर ले जाओ। इनकी दाढ़ी-मूंछ सभी मुड़वा दो। क्षौर कराके इनका स्वरूप विशुद्ध वैष्णवों का-सा बना दो।’ चन्द्रशेखर ने प्रभु की आज्ञा पालन की। वे गंगाजी पर जाकर श्री सनातन जी का क्षौर करा लाये।
सनातन जी के पास उस भूटिया कम्बल के सिवा और कोई नूतन वस्त्र नहीं था। चन्द्रशेखर ने उन्हें नूतन वस्त्र देने चाहे, किन्तु उन्होंने नूतन वस्त्र पहनना स्वीकार नहीं किया। बहुत आग्रह करने पर भी वे राजी नहीं हुए, इस बात से प्रभु को परम प्रसन्नता हुई। इतने में ही तपन मिश्र जी प्रभु को भिक्षा कराने के निमित्त लिवाने आ गये। प्रभु ने हँसते हुए कहा- ‘मिश्र महाशय! अब मेरा परिवार बढ़ रहा है, आज हम दो हो गये। दोनों को भिक्षा करानी होगी।’
कुछ लज्जा के स्वर में विनम्रभाव से नीची दृष्टि किये हुए तपन मिश्र ने कहा- ‘प्रभो! सम्पूर्ण वसुधा ही आपका कुटुम्ब है। मैं तो आपका वेतन-भोगी नौकर हूँ। नौकर राजा की ही वस्तुओं को लाकर स्वामी के सम्मुख समर्पण करता है। इसलिये आपकी वस्तु को जैसे आज्ञा करेंगे, वैसे ही समर्पण कर सकूँगा। दान तो वह दे सकता है, जो स्वतंत्र हो, जिसका किसी वस्तु पर अपनेपन का अधिकार हो। जब सभी चीज स्वामी की है और फिर इसमें नौकर को क्या?’ महाप्रभु उनकी इस बात से बहुत प्रसन्न हुए और उन्हें सनातन जी का परिचय कराया। परिचय पाते ही तपन मिश्र जी उनसे लिपट गये, सनातन जी ने भी उनकी चरण वन्दना की। फिर प्रभु के पीछे-पीछे सनातन जी भी तपन मिश्र के घर चले।
प्रभु भोजन के आसन पर बैठते ही कहने लगे- ‘सनातन को बुलाओ, उसे भी भोजन कराओ।’ दयालु तपन मिश्र तो भाग्यवान सनातन जी को प्रभु को अधरामृत स्पर्श किया हुआ, महाप्रभु का उच्छिष्ट प्रसाद देना चाहते थे, इसलिये उन्होंने कहा- ‘प्रभो! अभी सनातन जी का कुछ कृत्य शेष है, आप भिक्षा कर लें, वे मेरे साथ करना चाहते हैं।’ महाप्रभु ने फिर कुछ नहीं कहा। उन्होंने भिक्षा कर ली।
प्रभु के भिक्षा कर लेने पर तपन मिश्र जी ने प्रभु का उच्छिष्ट महाप्रसाद सनातन जी को दिया। उस महाप्रसाद को पाते ही सनातन जी ऐसा अनुभव करने लगे कि हमारे सभी पाप प्रत्यक्ष रीति से हमारे शरीर से निकल-निकलकर बाहर जा रहे है। प्रसाद पा लेने के अनन्तर सनातन जी को एक प्रकार की अपूर्व ही प्रसन्नता हुई। इतनी प्रसन्नता पहले उन्हें कभी भी प्राप्त नहीं हुई थी।
सनातन जी के प्रसाद पा लेने पर तपन मिश्र अपने घर में से नूतन वस्त्र ले आये और उन्हें हठपूर्वक श्री सनातन जी के शरीर पर पहनाने लगे। सनातन जी उनके पैर पकड़कर अत्यन्त ही करुण स्वर में कहने लगे- ‘मिश्र जी! आप मुझसे आग्रह न करें। मैं जब नूतन वस्त्र नहीं पहनूँगा। यदि आप नहीं मानते हैं तो अपना पहना हुआ कोई पुराना एक वस्त्र मुझे दे दीजिये।’ मिश्र जी विवश हो गये, अन्त में वे अपने घर में से एक पुरानी धोती निकाल लाये। सनातन जी ने उसे पकड़कर दो टुकड़े कर लिये। एक में से तो साफी और लँगोटी बना ली, एक टुकड़े को शरीर से लपेट लिया। अब वे पूरे वैष्णव बन गये।
वह महाराष्ट्रीय ब्राह्मण भी आ पहुँचा। श्री सनातन जी का परिचय पाकर उसने उनका निमंत्रण किया। इस पर सनातन जी ने कहा- ‘मैं एक के यहाँ अब भोजन न करूँगा, ब्राह्मणों के घरों से मधुकरी माँगकर ही लाया करूँगा, आपके घर से भी ले आऊँगा, आप मुझसे विशेष आग्रह न करें।’ इस पर फिर किसी ने सनातन जी से आग्रह नहीं किया। वे मधुकरी माँगकर उदरपूर्ति करने लगे। महाप्रभु इनके वैराग्य को देखकर मन-ही-मन बहुत सन्तुष्ट हुए। सनातन जी प्रभु के चरणों के ही समीप रहने लगे।
सनातन जी के पास बहनोई का दिया हुआ वह सफेद रंग का कम्बल अभी तक था। वह कम्बल बहुत ही बढिया और मुलायम था। उसकी उन बहुत ही चमकीली और रेशम से भी बढ़िया थी। उसका मूल्य था तीन रुपये। उन दिनों तीन रूपये के कम्बल को बहुत बड़े आदमी ही ओढ़ते थे। आजकल वह तीस-चालीस रुपये का होगा। महाप्रभु बार-बार उस कम्बल की ओर देखते।
बुद्धिमान सनातन जी समझ गये कि महाप्रभु को मेरे पास का यह कम्बल भाता नहीं है। वे उसी समय गंगा जी के किनारे गये। वहाँ एक साधु ने अपनी फटी-सी गुदड़ी गंगा जी में धोकर सुखाने डाल दी थी। सनातन जी उसके पास पहुँचकर कहने लगे- ‘भाई। तुम मेरा इतना उपकार करो, मेरे इस कम्बल को ले लो और अपनी यह गुदड़ी मुझको दे दो।’
साधु ने आश्चर्य चकित होकर कम्बल की ओर देखते हुए कहा- ‘महाराज! आप मुझ गरीब से हंसी क्यो करते हैं? मेरी गुदड़ी फट गयी है, कहीं से दूसरी खोजूँगा।’
सनातन जी ने बड़े ही स्नहे से कहा- ‘भाई! तुम हंसी मत समझो, मैं सच-सच कहता हूँ, यदि इस कम्बल के बदले में तुम अपनी गुदड़ी दे दो तो मेरे ऊपर तुम्हारा बड़ा ही उपकार हो।’
साधु ने कहा- ‘आप इस इतने कीमती कम्बल को फटी गुदड़ी के बदले में क्यों देना चाहते हैं
सनातन जी ने कहा- ‘इसमें एक रहस्य है, तुम मुझे दे दो, मुझे ऐसी ही गुदड़ी की जरूरत है।’ साधु ने प्रसन्नतापूर्वक गुदड़ी दे दी। उसे प्रसन्नतापूर्वक ओढ़े हुए सनातन जी चन्द्रशेखर के घर पहुँचे। सनातन जी पर कम्बल न देखकर प्रभु समझ तो गये कि ये कम्बल को फेंककर कहीं से फटी गुदड़ी ले आये हैं, किन्तु फिर भी अनजान की भाँति पूछने लगे- ‘सनातन! तुम्हारा वह कम्बल नहीं दीखता, उसे कहाँ रख दिया?’
कुछ लज्जित भाव से सनातन जी ने कहा- ‘प्रभो! जब आपकी असीम कृपा है, तब विषयरूपी वह कम्बल बच ही कैसे सकता है? वह तो आपकी कृपा के वेग में मेरे पूर्वकृत पापों के सहित बह गया।’
महाप्रभु बड़े सन्तुष्ट हुए और धीरे-धीरे कहने लगे- ‘सनातन जो सद्वैद्य होता है, वह रोगी के अच्छा होने पर भी कुछ दिन और औषधि देता है, थोड़ा भी रोग शरीर में रह जायेगा तो फिर धीरे-धीरे वह बढ़ने लगेगा। इसलिये बुद्धिमान वैद्य रोग के अंश को भी रहने नहीं देता! तुमने सब कुछ त्यागा, तिस पर भी सुन्दर कम्बल की क्षुद्र-सी वासना बनी ही रही। भिक्षा के टुकड़े माँगकर खाना और फिर तीन रूपये का भूटिया कम्बल ओढ़ना- यह शोभा नहीं देता।’
महाप्रभु की अपार अनुकम्पा को स्मरण करके सनातन जी गद्गद हो उठे, उनका गला भर आया, वे प्रभु के पैर पकड़ कर रुदन करने लगे। प्रभु ने उन्हें उठाकर छाती से चिपटा लिया। सभी उपस्थित भक्त श्री सनातन जी के अदभूत वैराग्य की और महाप्रभु की अपार भक्त वत्सलता की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे।
क्रमशः अगला पोस्ट [142]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Shri Sanatan’s amazing quietness
The body is perceived as a wound and food is the ointment for the wound. Bathing is like cleansing wounds and clothing is like bandaging wounds
Mahaprabhu’s whole life was sacrificial, renunciation was most dear to him, whenever renunciation of worldly pleasures is renounced, it is as good as renunciation, but renunciation does not last without renunciation, that is why he was against renunciation. He used to beat the devotees who took refuge in him a lot to see if there was disinterest in their lives or not. If he saw disinterest, then he would have preached great disinterest and when he felt lack of disinterest, he would have taught him to stay in the house of Shri Krishna’s beloved and continue to do worldly deeds with no intention. He knew that even wise men behave according to their nature; That’s why everyone does not urge anyone to completely move away from the subjects and they do not even tell bad things to those who do not renounce, because not everyone can renounce the subjects, those who renounce are very few.
From the behavior of Shrirup and Sanatan, the Lord understood that there is great disinterest in the lives of these people. Really, these two brothers became more renunciates than they were before. It is heard for Shri Sanatan ji that living in a cottage or building a house was different, he did not stay under a tree for more than a day. Lying under a tree in the forest for twelve months, leaving it the next day and going under another tree – this was their daily business. He used to bring small pieces of rotis from the houses of Vrajvasis. Somehow they would have been swallowed down the throat with the Yamuna water. Those who were left would bury them in the earth and the next day they would eat them again after soaking them in water. He used to keep only a bundle of rags lying on the way to cover. Of the utensils, they have nothing except a corked earthenware. ‘Kar Karuva Gudri Gale’ was his bane. Similarly, he spent twenty years in the holy land of Sri Vrindavan.
Premavatar Gaurang was very satisfied with his disinterest and whoever came from Vrindavan used to inquire about his news. Prabhu had given the teachings of great disinterest to Sanatan in Kashidham only. Mahaprabhu did not say clearly. Obviously there were fools and wise men, a country was ruled by their sharp intelligence. Even then, the Lord had full grace on them, then why don’t they understand Mahaprabhu’s signal. Readers will come to know about this from the next incident.
Vaidya Chandrashekhar Mahaprabhu and Shri Sanatan ji were surprised to see the mutual meeting. Why is Mahaprabhu meeting this Muslim monk with so much love, why is he talking like a real brother, Vaidya sir was engrossed in these thoughts. In between, he used to look towards Shri Sanatan by saving the vision of Mahaprabhu and started thinking something by looking down. Prabhu Vaidya’s occult feelings were removed. That’s why while giving the introduction of Shri Sanatan, he started saying – ‘ Chandrashekhar! You don’t know him, he is the prime minister of the king of Gaur country. He is a great scholar, a unique devotee of Bhagwad, kicking away all the position, prestige, wealth, wealth, family, family, he has set out to perform Bhagavadbhajan, his two brothers have also left home and went to Vrindavan to live in the same way, they I met him in Prayag. Today, your home has become a place of pilgrimage due to the dust of his feet.’ Sanatan ji was going to the earth due to shame after hearing his praise from the mouth of the Lord, not a single word came out of his mouth. He was scraping the earth with his fingernail looking down, as if he was seeing that if a hole was found in it, I would get inside like Sita ji.
On getting the introduction of Shri Sanatan ji, Chandrashekhar ji returned to the ground and bowed down to him. While crying, Sanatan ji held his feet and started crying bitterly. They started rubbing their foreheads at each other’s feet, wanted to reduce the passion of their love by hugging each other, but that passion was so high that it could not be pacified by love hugs, touching feet and shedding tears, Mahaprabhu kept both of them happy. Seeing the love, the mind was getting happy. After some time the Lord said – ‘ Chandrashekhar! You take Sanatan to Gangaji. Get all their beards and mustaches shaved. Make them look like pure Vaishnavs by making them alkaline. Chandrashekhar obeyed the Lord. They went to Gangaji and brought Shri Sanatanji’s water.
Sanatan ji did not have any other new clothes except that Bhutia blanket. Chandrashekhar wanted to give him new clothes, but he did not accept to wear new clothes. They didn’t agree even after insisting a lot, the Lord was very pleased with this. Meanwhile, Tapan Mishra ji came to take the Lord for alms. The Lord said smilingly – ‘ Mr. Mishra! Now my family is increasing, today we have become two. Both will have to beg.
Tapan Mishra, humbly looking down in a voice of some shame, said – ‘Lord! Entire Vasudha is your family. I am your salaried servant. The servant surrenders to the master by bringing only the things belonging to the king. That’s why I will be able to surrender your object as you command. Donation can be given by the one who is independent, who has the right of belonging on something. When everything belongs to the master and then what about the servant in it?’ Mahaprabhu was very pleased with his statement and introduced him to Sanatan ji. Tapan Mishra ji hugged him as soon as he was introduced, Sanatan ji also worshiped his feet. Then Sanatan ji also followed the Lord to Tapan Mishra’s house.
As soon as Prabhu sat down on the food seat, he said- ‘Call Sanatan, feed him too.’ Kind-hearted Tapan Mishra wanted to give Bhagya Sanatan ji the leftover prasad of Mahaprabhu, which had touched the Lord, so he said- ‘Prabho ! Sanatan ji still has some work left, you can do alms, he wants to do it with me. Mahaprabhu did not say anything again. He did alms.
Tapan Mishra ji gave the leftover Mahaprasad of the Lord to Sanatan ji after the Lord took alms. On receiving that Mahaprasad, Sanatan ji started feeling that all our sins are going out of our body in a visible way. After receiving the prasad, Sanatan ji felt a kind of unique happiness. He had never received so much happiness before.
After getting the prasad of Sanatan ji, Tapan Mishra brought new clothes from his house and stubbornly started wearing them on the body of Shri Sanatan ji. Holding his feet, Sanatan ji started saying in a very compassionate voice – ‘Mishra ji! Don’t beg me When I will not wear new clothes. If you don’t agree, then give me an old cloth you were wearing.’ Mishra ji was compelled, at last he brought out an old dhoti from his house. Sanatan ji caught him and cut him into two pieces. Out of one he made a safi and loincloth, wrapped one piece around his body. Now he has become a complete Vaishnav.
That Maharashtrian Brahmin also reached. After getting the introduction of Shri Sanatan ji, he invited him. On this, Sanatan ji said- ‘I will not eat food at one’s house anymore, I will bring it only after asking for honey from the houses of Brahmins, I will bring it from your house also, you should not make any special request to me.’ Did not request They started filling their stomach by asking for honey. Mahaprabhu was very satisfied seeing his disinterest. Sanatan ji started living near the feet of the Lord.
Sanatan ji still had the white colored blanket given by his brother-in-law. The blanket was very nice and soft. Hers were very shiny and finer than silk. Its value was three rupees. In those days only very big men used to wear blankets worth three rupees. Nowadays it will be of thirty-forty rupees. Mahaprabhu used to look at that blanket again and again.
Intelligent Sanatan ji understood that Mahaprabhu does not like this blanket near me. At the same time he went to the bank of Ganga ji. There a monk had washed his tattered rags in the Ganges and put them to dry. Sanatan ji reached to him and said – ‘Brother. You do me this much favor, take this blanket of mine and give this cunt of yours to me.’
Surprised, the monk looked at the blanket and said – ‘ Maharaj! Why do you laugh at me poor? My ass is torn, I will find another one from somewhere.’
Sanatan ji said with great affection – ‘Brother! Don’t take it as a joke, I am telling the truth, if you give me your cunt in exchange for this blanket, I will be very grateful to you.’
The sage said- ‘Why do you want to give this precious blanket in exchange for a torn patch?
Sanatan ji said- ‘There is a secret in it, you give it to me, I need such a tickle.’ The sage happily gave the tickle. Wearing it happily, Sanatan ji reached Chandrashekhar’s house. Without seeing Sanatan ji’s blanket, the Lord understood that he had thrown away the blanket and brought a torn gut from somewhere, but still started asking like a stranger – ‘Sanatan! That blanket of yours is not visible, where did you put it?’
Sanatan ji said with some shame – ‘ Lord! When you have infinite grace, then how can that blanket of subject matter survive? He was swept away along with my previous sins in the speed of your grace.
Mahaprabhu was very satisfied and started saying slowly – ‘ The eternal good doctor, he gives medicine for a few more days even if the patient is well, if even a little disease remains in the body, then it will start increasing slowly. That’s why the wise doctor does not allow even a part of the disease to remain! You gave up everything, yet the petty lust of a beautiful blanket remained. Eating by begging for pieces of alms and then wearing a Bhutia blanket worth three rupees – it does not suit.’
Remembering the immense mercy of Mahaprabhu, Sanatan ji became very happy, his throat was full, he started crying holding the feet of the Lord. The Lord picked him up and hugged him to the chest. All the present devotees started praising Shri Sanatan ji’s wonderful quietness and Mahaprabhu’s immense devotion.
respectively next post [142] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]