।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
श्री सनातन को शास्त्रीय शिक्षा
अथ स्वस्थाय देवाय नित्याय हतपाप्मने।
त्यक्तक्रमविभागाय चैतन्यज्योतिषे नमः।।
महाप्रभु की असीम कृपा प्राप्त हो जाने पर श्री सनातन जी को कुछ शास्त्रीय प्रश्न पूछने की जिज्ञासा हुई। उन्होंने दोनों हाथों की अंजलि बांधे हुए कहा-‘प्रभो! मैं साधनविहीन, परमार्थ-पथ से अनभिज्ञ और संसारी विषयी लोगों का संसर्ग करने वाला परमार्थ सम्बन्धी प्रश्न करना भी नहीं जानता। अतः जिस प्रकार आपने ही दया करके विषयों में आसक्त हुए हम पशुओं को घर जाकर सोते-से जगा दिया, उसी प्रकार अब हमारे इस पशुपने को मेटकर मनुष्यता प्रदान कीजिये, हमारे योग्य जो शिक्षा उचित समझें वही मुझे दीजिये। हम कौन हैं? हमारा क्या कर्तव्य है? भगवान के साथ हमारा क्या सम्बन्ध है? भगवान का क्या स्वरूप है आदि सभी बातों को मुझे संक्षेप में समझा दीजिये।’
प्रभु ने कहा- ‘सनातन! तुम पर भगवत-कृपा है। तुम्हें शंका ही क्या हो सकती है? तुम जानते हुए भी लोक कल्याण के निमित्त ये प्रश्न कर रहे हो। अस्तु, साधु पुरुषों का यह स्वभाव ही होता है। उनकी सभी चेष्टाएं जगत-हित के ही निमित्त होती हैं, पूछो, तुम क्या पूछना चाहते हो?’
‘प्रभो! मैं यह जानना चाहता हूँ कि जीवों में यह विभिन्नता प्रतीत होती है, वह क्यों होती है।’
प्रभु ने कहा- ‘सनातन! शास्त्रों में मुक्त, नित्य, मुमुक्षु और बद्ध- ये चार प्रकार के जीव बताये हैं। सनक-सनन्दनादि ये मुक्त जीव हैं, इन्हें संसार में रहते हुए भी संसार-बन्धन कभी व्याप नहीं सकता। ये अहर्निश श्रीकृष्ण-संकीर्तन में ही संलग्न रहते हैं। मनु, प्रजापति, इन्द्र और सप्तर्षि आदि सभी नित्य जीव हैं, सृष्टि के निमित्त ये सदा क्रियाशील बने रहते हैं। जो इस अनित्य संसार के नश्वर और क्षणभंगुर भोगों को छोड़ कर प्रभुपादपद्मों का आश्रय ग्रहण करना चाहते हैं वे मुमुक्षु जीव हैं। उनमें प्रायः सभी परमार्थ-पथ के पथियों की गणना हो सकती है। इनके अतिरिक्त जो स्वभाव के ही अनुसार जन्मते और मरते रहते हैं, जिन्हें कर्तव्या कर्तव्य का विवेक नहीं, वे बद्ध जीव कहाते हैं। विषयों में फंसे हुए अज्ञानी पुरुष, पशु, पक्षी आदि सभी जीव इसी श्रेणी में हैं, ये साधन-भजन नहीं कर सकते। उन्हीं के लिये कहा है-
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
शास्त्रों में जीवों की चौरासी लाख योनियाँ बतायी गयी हैं। भगवत-पादपद्मों से पृथक होकर प्राणी इन नाना योनियों में परिभ्रमण करता रहता है। चिरकाल से भगवत-विच्छेद होने के कारण इसकी वृत्ति बहिर्मुख हो गयी है, यह माया पति को भूलकर माया के बन्धन में पड़ गया है और भगवान की अत्यन्त ही दुरूह गुणमयी दैवी माया उसे नाना योनियों में घुमाती रहती है।’ सनातन जी ने पूछा- ‘प्रभो! इसे माया से छूटकारा कैसे हो? जब जीव माया के अधीन ही होकर घूमता है, तब तो उसके निस्तार का कोई उपाय ही नहीं।’
प्रभु ने कहा- ‘हाँ, उपाय है और एक ही उपाय है। जो माया को छोड़कर मायापति की शरण में चला जाय उसकी माया छूट जाती है।’
सनातन- ‘प्रभो! मैं यही तो पूछ रहा हूँ, मायापति की शरण में कैसे जाया जाय?’
प्रभु ने कहा- ‘भाई! इसमें तो कृपा ही मुख्य मानी गयी है- (1) शास्त्रकृपा, (2) गुरुकृपा और (3) परमात्माकृपा- ये तीन ही मुख्य कृपा हैं। इन तीनों में से किसी की भी कृपा होने से मनुष्य के संसारी बन्धन ढीले हो सकते हैं और वह प्रभु की ओर अग्रसर हो सकता है।’
सनातन- ‘प्रभो! मैं यह जानना चाहता हूँ, यह जीव प्रभु से विमुख होकर क्यों नाना योनियों में भटकता फिरता है? पृथ्वी पर तो दुःख-ही-दुःख है। स्वर्गादि लोको में तो सुख भी होगा, किन्तु वहाँ भी जीव को शान्ति नहीं, इसकी अन्तिम शान्ति कहाँ जाकर होती हैं?’
प्रभु ने कहा- ‘सनातन! चींटी के लेकर ब्रह्मापर्यन्त सभी जीव माया के गुणों से आबद्ध हैं। स्वर्ग क्या, ब्रह्मलोक तक शान्ति नहीं, परम शान्ति तो प्रभु के पादपद्मों में पहुँचने पर ही प्राप्त हो सकती है।’ सनातन- ‘प्रभो! ब्रह्मा जी को तो शान्ति होगी, वे तो चराचर जगत के ईश्वर हैं, उनके लिये क्या दुःख! ये तो सम्पूर्ण जगत को उत्पन्न करते हैं।’
प्रभु ने हंसकर कहा- ‘सनातन! ईश्वर तो वे ही एक श्रीकृष्ण हैं। न जाने कितने असंख्य ब्रह्मा इस विश्व में प्रतिक्षण उत्पन्न होते हैं और नष्ट हो जाते हैं।’ आश्चर्य के साथ सनातन जी ने कहा- ‘प्रभो! यह आपने कैसी बात कही? सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के ईश्वर ब्रह्मा जी तो अकेले ही हैं। ब्रह्मा असंख्यों हैं, यह बात मेरी समझ में नहीं आयी इसे समझने की मेरी इच्छा है।’
प्रभु ने बड़े ही स्नेह से कहा- ‘अच्छा, तुम यों समझो। जिस काशीपुरी में तुम बैठे हो ऐसी पुण्य और पानाशिनी सात पुरी इस भारत वर्ष में हैं। और लाखों नगर हैं, ऐसे-ऐसे नौ खण्डों वाला यह जम्बूद्वीप’ है; उन खण्डों के नाम-(1) भारतवर्ष, (2) किन्नरवर्ष, (3) हरिवर्ष, (4) कुरुवर्ष, (5) हिरण्मयवर्ष, (6) रम्यकवर्ष, (7) इलावृतवर्ष, (8) भद्राश्ववर्ष और (9) केतुमालवर्ष- ये हैं। इन खण्डों वाले द्वीप को ही जम्बूद्वीप कहते हैं। जम्बूद्वीप से दुगुना प्लक्षद्वीप है, प्लक्षद्वीप से दुगुना शाल्मलीद्वीप और उसे दुगुना कुशद्वीप है, कुशद्वीप से दुगुना क्रौंचद्वीप, क्रौंचद्वीप से दुगुना शाकद्वीप और शाकद्वीप से दुगुना पुष्करद्वीप है। इस प्रकार पृथ्वी पर सात द्वीप और सात समुद्र हैं। कलियुग वाले पुरुष पूरे जम्बूद्वीप को ही समझने में समर्थ नहीं हो सकते। वे क्षीरसागर का ही पार नहीं पाते फिर दधि, घृत, मधु सागर को तो समझ ही क्या सकते हैं। एक-एक द्वीप के बाद एक-एक समुद्र है। जम्बूद्वीप सबसे छोटा द्वीप है।
पृथ्वी पर ये सात द्वीप हैं, इसीलिये पृथ्वी सप्तद्वीपा कही जाती है। इसे भूलोक भी कहते हैं। इसी प्रकार भूसे भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, और सत्यम- ये छः लोक ऊपर हैं और तल, अतल, वितल, सुतल, तलातल, पाताल और रसातल- ये सात लोक नीचे हैं। इन प्रत्येक लोकों में अनेक छोटे-छोटे लोक हैं। स्वर्ग ही देख लो, असंख्यों लोक हैं। रात्रि में जो असंख्य तारे चमकते हैं, ये सब स्वर्ग के पृथक-पृथक लोक हैं। इनमें भी पृथ्वी की तरह असंख्यों जीव हैं। चन्द्रलोक, भौमलोक, ध्रुवलोक, सूर्यलोक- जैसे असंख्यों लोक स्वर्ग में हैं। उन्हें सूर्य के प्रकाश की भी अपेक्षा नहीं रहती। ये सब अपने-अपने प्रकाशों से प्रकाशित होते हैं। लाखों, करोड़ों नहीं, असंख्यों लोक इतने बड़े हैं कि जिनके सामने सूर्य का प्रकाश जुगनू (पटबीजने)-की भाँति प्रतीत होता है। ये सभी लोक स्वर्ग में ही बोले जाते हैं। स्वर्गलोक से ऊपर महर्लोक है; उसमे भी असंख्यों जीव हैं। इसी प्रकार जन, तप और सत्यलोक में असंख्यों छोटे-छोटे स्वतंत्र लोक हैं। नीचे के सात लोकों में भी स्वर्ग के समान सुख है। नरक के लोक भी वहीं है। और नरक भी लाखों प्रकार के हैं। इन चौदह लोकों के स्वामी ब्रह्मा जी हैं, ब्रह्मालोक सबसे श्रेष्ठ है। यह चौदह लोकों वाला ब्रह्मा जी का अण्ड है, इसीलिये ब्रह्माण्ड कहते हैं। इस ब्रह्माण्ड के स्वामी सदा एक ही ब्रह्मा नहीं होते। सौ वर्ष के पश्चात् वे बदल जाते हैं। वे सौ वर्ष भी हमारे नहीं, ब्रह्मा जी के अपने सौ वर्ष।’
सनातन- ‘प्रभो! मैं ब्रह्मा जी के वर्ष का परिणाम जानना चाहता हूँ। ब्रह्मा जी का एक वर्ष हमारे वर्षों से कितने दिन का होता है?’
प्रभु ने कहा- ‘अच्छा तुम हिसाब लगाओ। जो किसी प्रकार भी न दीखे और जिसके किसी तरह भी विभाग न हो सकें, उसे ‘परम अणु’ कहते हैं। दो परमाणुओं को एक अणु होता है, तीन अणुओं का एक ‘त्रिसरेणु’ होता है। हां, ‘त्रिसरेणु’ दीखता है। झरोखे में से सूर्य के प्रकाश के साथ जो छोटे-छोटे कण उड़ते-से दीखते हैं, वे ही त्रसरेणु हैं। वह इतना हल्का होता है कि उसका पृथ्वी पर गिरना असम्भव है, वह आकाश में ही घूमा करता है और सूर्य के प्रकाश के साथ झरोखे में से दीखता है। जितनी देर में तीन ‘त्रसरेणु’ को उल्लंघन करके सूर्य आगे बढ़े उस कालको ‘त्रुटि’ कहते हैं। ऐसी-ऐसी तीन सौ त्रुटियों का एक ‘बोध’ होता है तीन बोध का एक ‘लव’ और तीन लवका एक ‘निमेष’ माना जाता है। तीन निमेष का एक क्षण और पांच क्षण के काल को ‘काष्ठा’ कहते हैं। पंद्रह काष्ठा का एक ‘लघु’ और पंद्रह लघु की एक ‘घड़ी’ होती है। दो घड़ी कर एक मुहूर्त और छः या सात (दिन के घटने-बढ़ने के कारण) घड़ी होने पर मनुष्यों का एक ‘पहर’ होता है। चार पहर का ‘दिन’ और चार पहर की ‘रात्रि’ होती है, इसलिये आठ पहर की एक दिन-रात्रि मानी गयी है। ऐसे सात दिन-रात्रि का एक ‘सप्ताह’ और पंद्रह दिनों का एक पक्ष होता है।
शुक्ल और कृष्ण-भेद से ‘पक्ष’ दो हैं। दो पक्ष का एक ‘मास’ होता है। दो मास की एक ‘ऋतु’ और तीन ऋतुओं का एक ‘अयन’ होता है। उत्तरायण और दक्षिणायन के भेद से अयन दो हैं, इसलिये दो अयनों का मनुष्यों का एक वर्ष होता है। उत्तरायण को ‘देवताओं का दिन’ और दक्षिणायन को ‘देवताओं की रात्रि’ समझनी चाहिये। अर्थात जिसे हम वर्ष कहते हैं, वह ‘देवताओं का एक दिन’ ही होता है। देवताओं के तीन सौ साठ दिनों का एक देव वर्ष होता है, जिसे ‘दिव्य वर्ष’ कहते हैं। देवताओं के वर्षों से चार हजार वर्ष का सत्ययुग, तीन हजार वर्ष का त्रेता, दो हजार वर्ष का द्वापर और एक हजार वर्ष का कलियुग होता है। एक युग बीतने के पश्चात् फौरन ही दूसरा युग नहीं लग जाता, इसलिये उसके आगे-पीछे के समय को सन्धि और सन्ध्यांश कहते हैं। दिव्य वर्षों से सत्ययुग का आठ सौ वर्ष, त्रेता का छः सौ वर्ष, द्वापर का चार सौ वर्ष और कलियुग का दो सौ वर्ष सन्धि-सन्ध्यांश काल माना गया है। चार युगों को मिलाकर ‘चौकड़ी’ कहते हैं।
देवताओं के बारह हजार वर्षों (अर्थात मनुष्यों के तैंतालीस लाख बीस हजार वर्ष)- की एक ‘चौकड़ी’ होती है। ऐसी चौकड़ी जब 71 बीत जाती है, तब एक ‘मन्वन्तर’ होता है। एक मन्वन्तर के समाप्त होते ही पिछले इन्द्र, मनु, सप्तर्षि आदि बदल जाते हैं और नये बनाये जाते हैं। ऐसे चौदह मन्वन्तर बीत जाते हैं, तब ‘ब्रह्मा जी का एक दिन’ होता है और इतनी ही बड़ी उनकी रात्रि। उनके एक दिन में चौदह इन्द्र और चौदह मनु बदल जाते हैं। ब्रह्मा जी के एक दिन को ‘कल्प’ कहते हैं। दिन में वे सृष्टि का काम करते रहते हैं, रात्रि में सब सृष्टि का संहार करके उसे अपने में लीन करके सो जाते हैं, दिन होते ही फिर काम में लग जाते हैं। जिस प्रकार दुकानदार दिन में तो बाहर भाँति-भाँति की वस्तुएँ फैलाकर बैठता है और रात्रि में सबको समेट करके दुकान में बंद कर देता है, प्रातःकाल फिर ज्यों-का-त्यों पसारा फैला देता है, इसी प्रकार ब्रह्मा जी रोज व्यापार करते रहते हैं। ब्रह्मा जी के तीन सौ साठ दिनों का ‘ब्रह्मवर्ष’ होता है। ऐसे वर्षों से एक ब्रह्मा की आयु सौ वर्ष की होती है। कल्प में तो तीन ही लोकों को नाश होता है। ब्रह्मा जी की आयु के बाद इस चौदह भुवन वाले ब्रह्माण्ड का ही नाश हो जाता है, उसे ‘महाप्रलय’ कहते हैं। तब ब्रह्मा जी ब्रह्मलोक के मुक्त पुरुषों के साथ भगवान के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं, फिर नये ब्रह्मा होते हैं।’
प्रभु के मुख से ब्रह्मा जी की आयु सुनकर परम विस्मित हुए सनातन जी ने पूछा- ‘प्रभो! यह तो महान आश्चर्य की बात है। इसे सुनकर तो बड़ा भारी वैराग्य होता है। इस हिसाब से तो हमारी आयु कुछ भी नहीं, जिसे हम सौ वर्ष की परमायु मानते हैं, वह ब्रह्मा जी के एक क्षण क्या ‘लव’ के भी करोड़ वें अंश के बराबर नहीं। इसी पर यह मूर्ख प्राणी इतना गर्व करता है।’
प्रभु ने उत्तेजित भाव से उल्लास के साथ उत्तर दिया। उस समय सनातन को बताते-बताते उनका चेहरा चमक रहा था, आँखों से प्रसन्नता की किरणें जोरों से निकल-निकलकर सनातन जी के शरीर में प्रवेश कर रही थीं। प्रभु ने कहा- ‘सनातन! यह प्राणी जब समझता नहीं, तभी तो माया में फँसकर अपनी क्षुद्र परिधि को ही सब कुछ समझता है। कूप का मेंढक समुद्र का क्या अनुमान लगा सकता है? उसके लिये तो कुएँ से बढ़कर दूसरा कोई समुद्र ही नहीं। तुम प्रत्यक्ष देखते हो। जिसे तुम अपना एक दिन कहते हो, उसी में लाखों ऐसे जीव हैं जो अनेक बार मर जाते हैं और अनेकों बार नया जन्म धारण कर लेते हैं। तुम्हारा एक दिन ही हुआ, उनके अनेक जन्म बीत गये। देवता और ब्रह्मा जी के सामने हमारी आयु तो भुनगों के समान है। इस विषयों में सभी पुराणों में बड़ा ही सुन्दर विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। पुराणों में इसी के समझाने के लिये एक अत्यन्त ही मनोहर कथा आती है। सत्ययुग में रैवत नाम के एक बड़े ही पराक्रमी और सर्वशक्तिमान राजा थे।
ब्रह्मा जी के वरदान से वे सभी लोकों में जा-आ सकते थे। सत्ययुग के मनुष्य आज कल से चौगुने लम्बे होते हैं। उनके एक रेवती नाम की कन्या थी, वह साधारण लड़कियों की अपेक्षा कुछ अधिक लम्बी थी। बहुत खोजने पर भी महाराज को उसके योग्य कोई वर नहीं मिला। तब उन्होंने सोचा-चलो, ब्रह्मा जी से ही कुछ पूछ आवें कि हम इस लड़की का विवाह किसके साथ करें। दो-चार राजकुमार अच्छे तो हैं, उनमें से कौन-सा सर्वश्रेष्ठ होगा, इस बात का निर्णय ब्रह्मा जी से ही करा लावें। यह सोचकर वे अपनी लड़की को साथ लेकर ब्रह्मलोक में पहुँचे। उस समय ब्रह्मा जी अनेक देवता, ऋषि और अन्य लोंको के देवों से घिरे हुए- ‘हाहा, हूहू’ का गान सुन रहे थे। महाराज रैवत भी प्रणाम करके चुपचाप एक ओर बैठ गये। आधी घड़ी के पश्चात् गायन समाप्त हो गया, तब पितामह ब्रह्मा जी ने हंसते हुए राजा रैवत से पूछा- ‘कहो, भाई! कैसे आना हुआ?’
हाथ जोड़े हुए दीन भाव से महाराज ने कहा- ‘भगवन! आपके श्रीचरणों के दर्शनों के निमित्त चला आया।’ सोचा था, इस लड़की के पति के सम्बन्ध में आप से पूछूंगा। आप जिनके लिये आज्ञा करेंगे, उसे ही दे दूंगा।’
मुसकराकर भगवान ब्रह्मादेव जी ने कहा- ‘तुम्हीं बताओ, तुम्हें कौन-सा राजकुमार बहुत पसंद है?’ कुछ सोचकर महाराज ने कहा- ‘प्रभो! अमुक राजकुमार मुझे सबसे अधिक अच्छा लगता है, फिर आप जिसके लिये आज्ञा करेंगे उसे ही इसे दूँगा। आपकी आज्ञा ही लेने तो आया हूँ।’ इतना सुनते ही भगवान ब्रह्मा जी अपनी सफेद दाढ़ी को हिलाते हुए बड़े ही जोरों से हंसने लगे और बोले- ‘राजन! जिस राजकुमार का तुम नाम ले रहे हो, वह कुल तो कबका नष्ट हो गया। अब तो उन वंशों का नाम-निशान भी नहीं रहा। तुम्हारी पुरी को अन्य राजाओं ने अपनी राजधानी बना लिया। अब तो वहाँ कलियुग आ रहा है। तुम इसी समय जाओ, व्रज में भगवान श्रीकृष्ण जी के बड़े भाई शेष जी के अवतार बलराम जी अवतीर्ण हुए हैं, जाकर इस कन्या को उन्हें ही दे दो, वे सब ठीक कर लेंगे।’
भगवान ब्रह्मदेव जी की आज्ञा शिरोधार्य करके और उनके चरणों में प्रणाम करके महाराज पृथ्वी पर आये और रेवती जी को श्री बलराम जी को देकर वे तपस्या करने चले गये। इधर बलराम जी ने अपनी पत्नी को बहुत लम्बी देखकर उसके गले में अपना हल डालकर नीचे खींचकर अपने बराबर बना लिया।’
सनातन जी ने कहा- ‘प्रभो! बड़े आश्चर्य की बात है। ब्रह्मा जी भी स्थायी नहीं रहते। इस जगत के एकमात्र स्वामी की भी अन्त में यह गति होती है।’ प्रभु ने कहा- ‘जो उत्पन्न हुआ है, उसका अन्त अवश्य होगा, चाहे आज हो या कल। हाँ, मैं तुम्हें यह बता रहा था कि जैसा यह चौदह लोक वाला ब्रह्माण्ड है, वैसे असंख्य ब्रह्माण्ड इस विश्व में हैं और उनके स्वामी असंख्य ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं। जैसे गूलर के पेड़ पर असंख्य गूलर के फल लगे रहते हैं, इसी प्रकार विश्व में अनन्त गूलर के समान ब्रह्माण्ड लटके हुए हैं। ब्रह्माण्ड के समस्त प्राणी गूलर के भीतर के भुनगों के समान हैं। महाविष्णु की नाभिकमल में से ब्रह्मा जी उत्पन्न होते हैं और वे सृष्टि करने लगे जाते हैं। असंख्य ब्रह्मा गंगा जी के प्रवाह की तरह निकल-निकलकर सृष्टि में प्रवृत्त होते हैं। उनके नीचे सांस लेने से ब्रह्माण्डों का नाश होता है, ऊपर सांस लेने से ब्रह्मा जी के सहित ब्रह्माण्ड उत्पन्न हो जाता है इसी व्यापार का नाम संसार चक्र है। कुम्हार के चक्र के समान यह संसार चक्र घूमता रहता है, इसी से लोकों की सृष्टि होती रहती है।’
सनातन जी ने परम वैराग्य के स्वर में कहा- ‘प्रभो! इस चक्रसे छुटकारा पाने का उपाय बताइये?’
प्रभु ने कहा- ‘श्री कृष्ण इस चक्र से एकदम पृथक हैं। उन्हें संसार की सृष्टि, स्थिति और प्रलय से कुछ काम नहीं। इसे तो ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि करते रहते हैं। वे तो नित्य ही गोपियों के साथ आनन्द में रासक्रीड़ा करते रहते हैं। वे वृन्दावन को छोड़कर एक पग भी इधर-उधर नहीं जाते इसलिये सर्वात्मना और सर्वभाव से उन्हीं की शरण जाने से इस चक्र से मुक्ति हो सकती है।’
सनातन- ‘प्रभो! मैं उपाय जानना चाहता हूँ।’
प्रभु ने कहा- ‘सनातन! मैंने कह तो दिया। वे तप से, जप से, योग-यज्ञ से तथा पाठ-पूजा से प्रसन्न नहीं होते, उनकी प्रसन्नता का एकमात्र साधन अनन्य होकर उनकी भक्ति करना ही है। बिना प्रेमा भक्ति के कोई उन्हें प्राप्त नहीं कर सकता। जिसे वे अपना कहकर वरण कर लेते हैं, उसे अपनी गोपी वा सखी बनाकर अपनी लीला में सम्मिलित कर लेते हैं, सखी बने बिना उनकी क्रीड़ा का दूसरा कोई अनुभव कर ही नहीं सकता। सखी कोई स्वयं थोड़े ही बन सकता है। जो अपने पुरुषार्थ से उनकी क्रीड़ा में सम्मिलित होने का अभिमान करते हैं, वे उन तक कभी नहीं पहुँच सकते। जब अनन्य होकर, दीन होकर, निराश्रय होकर सभी प्रकार के पुरुषार्थों का परित्याग करके केवल मात्र उन्हीं का आश्रय ग्रहण किया जाय तब कहीं उस ओर पैर बढ़ाने का अधिकार प्राप्त हो सकता है।’
सनातन- ‘प्रभो! अनन्यता कैसे प्राप्त हो, भक्ति का अंकुर कैसे हृदय में उत्पन्न हो ?’
प्रभु ने कहा- ‘सनातन! अनन्यता प्राप्त करने का सर्वोत्तम एक ही उपाय है, जैसे कि परमहंसशिरोमणि जडभरत जी ने राजा रहूगण से कहा है-
रहूगणैतत्तपसा न याति
न चेज्यया निर्वपणाद् गृहाद्वा।
न च्छन्दसा नैव जलाग्निसूर्यैं-
र्विना महत्पादरजोऽभिषेकम्।।
भगवान जडभरत कहते हैं- ‘राजन् रहूगण! महात्माओं की चरणरज में लोटे बिना भगवत-कृपा की प्राप्ति तप से, यज्ञ से, दान से, घर-द्वार छोड़ देने से, वेदों के पढ़ने से, जल, अग्नि या सूर्य के सेवन करने से नहीं हो सकती।’ उसकी प्राप्ति का एक ही साधन है, श्रद्धापूर्वक परम समर्थ भगवद्भक्त साधु पुरुषों की चरणधूलि में लोटा जाय। उसे मस्तक पर धारण किया जाय यही एकमात्र उपाय है। साधु-सेवा के बिना जो भगवत्कृपा का अनुभव करना चाहता है, वह मानो बिना नौका या जहाज के ही अपार सागर को हाथों से तैरकर उस पार जाना चाहता है। इसी बात को लक्ष्य करके भक्तराज प्रह्लाद जी ने अपने पिता हिरण्यकशिपु से कहा है-
नैषां मतिस्तावदुरुक्रमांघ्रिं
स्पृशत्यनर्थापगमो यदर्थः
महीयसां पादरजोऽभिषेकं
निष्किंचनानां न वृणीत यावत्।।
हे तात! जिनके हृदय से विषयों का विकार एक दम दूर हो गया है, ऐसे परम पूजनीय भगवद्भक्तों की चरणरज से जब तक मनुष्य भलीभाँति सिर से पैर तक स्नान नहीं करता तब तक वेदवाक्यों से उत्पन्न हुई भी उसकी बुद्धि उसे प्रभु के पादपद्मों के समीप पहुँचाने में एक दम असमर्थ होती है। अर्थात बिना भगवद्भक्तों की चरण धूलि मस्तक पर धारण किये कोई भी पुरुष श्रीकृष्ण पादपद्मों के स्पर्श करने के निमित्त आगे नहीं बढ़ सकता। तत्त्वदर्शी ज्ञानियों की जब तक श्रद्धा के साथ, भक्ति के साथ प्रेम पूर्वक सेवा नहीं की जाती, उनके चरणों में जब तक स्वाभाविक स्नेह नहीं होता, तब तक वह भगवत-कथा श्रवण करने का भी अधिकारी नहीं होता। भगवान ने अर्जुन को उपदेश करते हुए गीता में स्वयं ही लिखा है-
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।
अर्थात ‘हे अर्जुन! तू दण्डवत-प्रणाम-सेवा और निष्कपट भाव से किये हुए प्रश्न द्वारा उस ज्ञान को जान। (विनीतभाव से पूछने पर) वे तत्त्वदर्शी महात्मागण तुझे उस ज्ञान का उपदेश करेंगे।’ उपदेश का वही अधिकारी है, जिसके हृदय में देवता, द्विज, गुरुजन और भगवत-भक्तों के प्रति श्रद्धा के भाव हैं। जो इनमें श्रद्धा के भाव नहीं रखता, वह परमार्थ की ओर अग्रसर ही नहीं हो सकता। फिर प्रभु कृपा का अधिकारी तो बन ही कैसे सकता है? सनातन! बहुत बातों में क्या रखा है, मैं तुझे सारातिसार बताता हूँ। प्राणिमात्र का परम पुरुषार्थ श्रीकृष्ण-प्रेम की प्राप्ति करना ही है। परम अराध्य वे ही श्री नन्दनन्दन वृन्दावनचन्द्र श्रीकृष्णचन्द्र जी हैं। अपने सभी पुरुषार्थों का आश्रय छोड़कर अनन्य भाव से व्रजांगनाओं की भाँति संसारी सम्बन्धों से मुख मोड़कर पतिभाव से उनकी आराधना करना यही उपासना की उत्तम-से-उत्तम प्रणाली है और पठनीय शास्त्रों में श्रीमद्भागवत ही सर्वोपरि शास्त्र है। क्योकि इसे भगवान व्यासदेव ने सभी पुराणों के अनन्तर जिस प्रकार दही को मथकर उसमें से सारभूत मक्खन को निकाल लेते हैं, उसी प्रकार सर्वशास्त्रों को मथकर उनका सार निकाला है। बस, यही कल्याण का मार्ग है। इसे तुम मेरे मत का सार समझो। इससे अधिक कोई किसी बात का आग्रह करे तो उसे तुम अन्यथा समझना।[1] मेरे इस ज्ञान को हृदय में धारण करो। साधु-महात्मा, संत तथा भगवद्भक्तों के चरणों में दृढ़ अनुराग रखो। वे कैसे भी हों उनकी निन्दा कभी मत करो। सबको ईश्वर-बुद्धि से नम्र होकर प्रणाम करो। तुम्हारा कल्याण होगा, मैं तुम्हें हृदय से आशीर्वाद देता हूँ। मेरे इस अमल-विमल शास्त्र सम्मत ज्ञान का तुम विस्तार के साथ भक्ति के ग्रन्थों में वर्णन करना। मंगलमय भगवान तुम्हारा मंगल करेंगे!’ इतना कहकर महाप्रभु चुप हो गये।
महाप्रभु के चुप हो जाने पर सनातन जी ने भक्तिभाव के सहित महाप्रभु के चरणों में प्रणाम किया और महाप्रभु ने उनके शरीर पर हाथ फेरते हुए उन्हें आशीर्वाद दिया। इस प्रकार दो महीनों तक महाप्रभु के समीप काशी में रहकर सनातन भाँति-भाँति के शास्त्रीय प्रश्न पूछते रहे और प्रभु उन्हें प्रेम पूर्वक सभी गुप्त तत्त्व समझाते रहें। इन दो महीनों में ही सनातन जी ने प्रभु से बहुत-सी भक्तिमार्ग की गूढ़ता तिगूढ़ बातें समझ लीं, जिनका विस्तार के साथ उन्होंने अपने अनेकों ग्रन्थों में वर्णन किया है।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Classical education to Shri Sanatan
Then to the god of health, eternal, destroyed of sins. O light of consciousness, to the division of the abandoned order, I offer my obeisances.
After receiving the infinite grace of Mahaprabhu, Shri Sanatan ji was curious to ask some classical questions. Tying the anklets of both the hands, he said – ‘Lord! I don’t even know how to ask questions related to charity, who are devoid of resources, ignorant of the path of charity and conversant with worldly subjects. Therefore, just as you mercifully awakened us animals who were addicted to subjects after going home from sleep, in the same way, now give us humanity by killing this animal form of ours, give me the education that you think is appropriate for us. Who are we? What is our duty? What is our relation with God? What is the form of God, etc. explain everything to me in brief.’
The Lord said – ‘Eternal! God’s grace is upon you. What can you doubt? Knowingly you are asking these questions for the welfare of the people. Astu, this is the nature of saintly men. All his efforts are for the benefit of the world, ask, what do you want to ask?’
‘Lord! I want to know why there seems to be this diversity in the living beings.’
The Lord said – ‘Eternal! In the scriptures, four types of living beings have been described as Mukta, Nitya, Mumukshu and Baddha. Sanak-Sanandanadi are free creatures, even while living in the world, worldly-bondage can never overpower them. These Aharnish remain engaged only in Shri Krishna-Sankirtan. Manu, Prajapati, Indra and Saptarshi etc. are all eternal creatures, they always remain active for the sake of creation. Those who want to take shelter of Prabhupadapadma, renouncing the mortal and transitory pleasures of this impermanent world, are Mumukshu Jivas. In them almost all the paths of the supreme path can be counted. Apart from these, those who take birth and die according to their nature, who do not have conscience of duty, they are called conditioned souls. Ignorant men, animals, birds etc. all the creatures trapped in the subjects are in this category, they cannot do meditation. It is said for them only-
Again being born, again dying, again lying in the womb of the mother.
Eighty-four lakh species of living beings have been described in the scriptures. Being separated from Bhagwat-Padapadma, the creature keeps roaming in these different vaginas. Due to separation from Bhagwat since time immemorial, its attitude has turned extroverted, forgetting its husband, Maya has fallen into the bondage of Maya and God’s very difficult divine Maya keeps on rotating her in various forms.’ Sanatan ji asked – ‘ Lord! How to get rid of it from Maya? When the creature wanders under the influence of Maya, then there is no way to get rid of it.
The Lord said- ‘Yes, there is a solution and there is only one solution. The one who leaves Maya and goes in the refuge of Mayapati, his illusion is left.
Sanatan-‘ Lord! This is what I am asking, how to go to the shelter of Mayapati?’
The Lord said – ‘Brother! Grace is considered to be the main in this – (1) Shastrakripa, (2) Guru’s grace and (3) God’s grace – these are the three main graces. By the grace of any of these three, a man’s worldly bonds can be loosened and he can move towards the Lord.’
Sanatan-‘ Lord! I want to know, why does this creature turn away from the Lord and wanders in different births? There is only sorrow on earth. There will be happiness in the heavenly worlds, but even there there is no peace for the soul, where does its final peace go?
The Lord said – ‘Eternal! From the ant to Brahma, all living beings are bound by the qualities of Maya. What is heaven, there is no peace till Brahmalok, ultimate peace can be attained only after reaching the lotus feet of the Lord.’ Sanatan-‘ Lord! Brahma ji will be at peace, he is the God of the grazing world, what a sorrow for him! He creates the whole world.’
The Lord laughed and said – ‘Eternal! God is only one Shri Krishna. Don’t know how many innumerable Brahmas are born and destroyed every moment in this world.’ Sanatan ji said with surprise – ‘ Lord! How did you say this? Lord Brahma is the only God of the entire universe. Brahma is innumerable, I have not understood this, I wish to understand it.’
The Lord said with great affection – ‘ Well, you understand like this. The Kashipuri in which you are sitting, there are seven such virtuous and Panashini seven puris in this year of India. And there are lakhs of cities, this is Jambudweep with nine sections like this; The names of those divisions are-(1) Bharatavarsha, (2) Kinnarvarsha, (3) Harivarsha, (4) Kuruvarsha, (5) Hiranmayavarsha, (6) Ramyakvarsha, (7) Ilavritvarsha, (8) Bhadrashvavarsha and (9) Ketumalvarsha- These are The island with these segments is called Jambudweep. Plakshadweep is twice as big as Jambudweep, Shalmali-dweep is twice as big as Plakshadweep and Kushadweep is twice as big as Kushadweep, Kraunchadweep is twice as big as Kushadweep, Shakadweep is twice as big as Kraunchadweep and Pushkardweep is twice as big as Shakadweep. Thus there are seven islands and seven seas on the earth. The men of Kaliyuga cannot be able to understand the whole of Jambudweep. They cannot cross the ocean of milk, then how can they understand the ocean of curd, ghee, honey. There is an ocean after each island. Jambudweep is the smallest island.
There are seven islands on the earth, that is why the earth is called Saptadvipa. It is also called Bhulok. Similarly, Bhuse Bhuvah, Swah, Mahah, Janah, Tapah, and Satyam – these six worlds are above and Tal, Atal, Vital, Sutal, Talatal, Patal and Rasatal – these seven worlds are below. In each of these worlds there are many smaller worlds. Look at heaven itself, there are innumerable worlds. The innumerable stars that shine in the night are different regions of heaven. In these also there are innumerable living beings like the earth. There are innumerable worlds like Chandralok, Bhumalok, Dhruvalok, Suryalok – in heaven. They don’t even expect sunlight. All of them are illuminated by their own lights. Lakhs, not crores, innumerable worlds are so big that in front of them the sunlight appears like a firefly. All these people are spoken in heaven only. Above Swargloka is Maharloka; There are innumerable living beings in that too. Similarly, there are innumerable small independent worlds in Jana, Tapa and Satyaloka. The lower seven worlds also have happiness like heaven. The people of hell are also there. And there are millions of types of hell. Lord Brahma is the master of these fourteen worlds, Brahmalok is the best. This is the egg of Brahma ji with fourteen worlds, that is why it is called universe. The master of this universe is not always only one Brahma. They change after a hundred years. Those hundred years are also not ours, but Brahma’s own hundred years.’
Sanatan-‘ Lord! I want to know the result of Brahma ji’s year. One year of Brahma ji is of how many days compared to our years?’
The Lord said – ‘ Well you calculate. That which cannot be seen in any way and which cannot be divided in any way, is called ‘Param Anu’. Two atoms constitute a molecule, three atoms constitute a ‘Trisrenu’. Yes, ‘Trisrenu’ is visible. The tiny particles which are seen flying through the window with the light of the sun are trasarenu. It is so light that it is impossible for it to fall on the earth, it revolves in the sky and is seen through the window with the light of the sun. The period in which the Sun moves ahead by violating the three ‘Trasarenu’ is called ‘Truti’. There is one ‘realization’ of three hundred errors like this, one ‘love’ of three realizations and one ‘nimesh’ of three love is considered. A moment of three nimesh and a period of five moments is called ‘Kashtha’. There is a ‘Laghu’ of fifteen Kashtha and a ‘Ghari’ of fifteen Laghu. When there are two clocks, one Muhurta and six or seven clocks (due to the increase or decrease of the day), humans have a ‘Pahar’. There is ‘day’ of four hours and ‘night’ of four hours, that’s why one day-night of eight hours has been considered. There is a ‘week’ of seven days and nights and a side of fifteen days.
There are two ‘sides’ of Shukla and Krishna-differently. Two sides have one ‘mass’. There is a ‘Ritu’ of two months and an ‘Ayan’ of three seasons. There are two ions due to the difference between Uttarayan and Dakshinayan, that’s why humans have one year of two ions. Uttarayan should be understood as ‘day of the gods’ and Dakshinayan as ‘night of the gods’. That is, what we call a year, is only ‘a day of the gods’. The deities have a deity year of three hundred and sixty days, which is called ‘divine year’. From the years of the gods, there is Satyayuga of four thousand years, Treta of three thousand years, Dwapara of two thousand years and Kaliyuga of one thousand years. After the passing of one era, another era does not start immediately, that is why the time before and after it is called sandhi and sandhyamsa. From divine years, eight hundred years of Satyayuga, six hundred years of Treta, four hundred years of Dwapar and two hundred years of Kaliyuga have been considered as sandhi-sandhyamsa period. Four ages together are called ‘quartet’.
Twelve thousand years of the deities (i.e. forty three lakh twenty thousand years of human beings) – there is a ‘quartet’. When 71 such quartets are passed, then there is a ‘Manvantara’. As soon as one Manvantara ends, the previous Indra, Manu, Saptarshi etc. are replaced and new ones are created. Fourteen such Manvantars pass, then there is ‘one day of Brahma ji’ and so long is his night. Fourteen Indras and fourteen Manus change in their one day. One day of Brahma ji is called ‘Kalpa’. During the day they keep on doing the work of creation, at night after killing all the creation they go to sleep by absorbing it in themselves, as soon as the day comes, they start working again. Just as a shopkeeper sits outside during the day spreading various things and at night collects them all and locks them in the shop, then in the morning again spreads them as they were, similarly Brahma ji continues to do business everyday. Brahma ji’s ‘Brahmavarsha’ is of three hundred and sixty days. With such years the age of a Brahma is one hundred years. Only three worlds are destroyed in a cycle. After the age of Brahma ji, this fourteen Bhuvan universe itself gets destroyed, it is called ‘Mahapralaya’. Then Brahma ji enters the body of God along with the liberated men of Brahmaloka, then there are new Brahmas.’
Hearing the age of Brahma ji from the mouth of the Lord, Sanatan ji was very surprised and asked – ‘Lord! This is a matter of great surprise. Hearing this, there is great disinterest. According to this, our age is nothing, what we consider to be a hundred years of eternal life, is it not equal to one croreth part of ‘Love’ of Brahma ji. This is what this foolish creature is so proud of.’
The Lord replied with glee in an excited spirit. At that time, while talking to Sanatan, his face was shining, rays of happiness were emanating from his eyes and entering Sanatan ji’s body. The Lord said – ‘Eternal! When this creature does not understand, then only by getting trapped in illusion, it understands everything only in its small periphery. What can Kup’s frog guess about the sea? For him there is no other ocean than the well. You see directly. In what you call your one day, there are millions of such creatures who die many times and take new birth many times. You only had one day, their many births have passed. In front of God and Brahma, our age is like that of beetles. These subjects have been described in beautiful detail in all the Puranas. A very beautiful story comes in the Puranas to explain this. In Satyayuga, there was a very mighty and almighty king named Raivat.
With the boon of Brahma ji, he could move in all the worlds. The people of Satya Yuga are four times as tall as today. He had a daughter named Revati, she was slightly taller than ordinary girls. Even after searching a lot, Maharaj could not find any suitable groom for him. Then he thought – Come on, let’s ask Brahma ji that with whom we should marry this girl. Two-four princes are good, which of them will be the best, let Brahma ji decide this. Thinking of this, he took his girl along with him and reached Brahmalok. At that time Brahma ji was listening to the song of ‘Haha, Huhu’ surrounded by many gods, sages and gods of other worlds. Maharaj Raivat also bowed down and silently sat on one side. After half an hour the singing ended, then Pitamah Brahma ji laughingly asked King Raivat – ‘Say, brother! what brings you here?’
Maharaj said with folded hands – ‘ God! I came to see your holy feet.’ Thought I would ask you about the husband of this girl. I will give it to whomever you command.’
Lord Brahmadev ji smiled and said- ‘You tell me, which prince do you like the most?’ After thinking something Maharaj said – ‘Lord! I like a certain prince the most, then I will give it to whomever you command. I have come to take your orders only.’ On hearing this, Lord Brahma started laughing out loud while shaking his white beard and said- ‘Rajan! The prince whose name you are taking, that clan was destroyed a long time ago. Now there is no name or trace of those dynasties. Other kings made your Puri their capital. Now the Iron Age is coming there. You go at this time, Balram ji, the incarnation of Lord Shri Krishna’s elder brother Shesh ji, has incarnated in Vraj, go and give this girl to him, he will fix everything.’
Maharaj came to the earth by obeying Lord Brahmadev ji and bowing down at his feet and gave Revati ji to Shri Balram ji and went to do penance. Here, seeing his wife very tall, Balram ji put his plow around her neck and pulled her down and made her equal to him.’
Sanatan ji said – ‘ Lord! It is a matter of great surprise. Even Brahma ji does not remain permanent. The only lord of this world also has this speed in the end.’ The Lord said- ‘Whatever has been born will surely come to an end, be it today or tomorrow. Yes, I was telling you that like this universe of fourteen worlds, there are innumerable universes in this world and their lords are innumerable Brahma, Vishnu and Mahesh. As innumerable sycamore fruits hang on a sycamore tree, similarly the universes hang like infinite sycamores in the world. All the living beings of the universe are like beetles inside the sycamore tree. Brahma ji is born from the navel of Mahavishnu and he starts creating. Innumerable Brahmas emerge like the flow of Ganga ji and tend to create. By breathing below them, the universes are destroyed, by breathing above, the universe is created along with Brahma ji, the name of this business is the world cycle. This world cycle keeps on rotating like a potter’s wheel, because of this the worlds keep on being created.’
Sanatan ji said in the voice of ultimate quietness – ‘ Lord! Tell me the way to get rid of this cycle?’
The Lord said- ‘Shri Krishna is completely different from this cycle. He has nothing to do with the creation, condition and annihilation of the world. Brahma, Vishnu and Shiva etc. continue to do this. They always keep playing with the Gopis in joy. He does not move even a single step here and there leaving Vrindavan, therefore one can be freed from this cycle by taking refuge in him with all the mind and all feelings.’
Sanatan-‘ Lord! I want to know the solution.’
The Lord said – ‘Eternal! I said it. They are not pleased by penance, chanting, yoga-yajna and recitation-worship, the only means of their happiness is to worship them exclusively. No one can attain Him without love and devotion. Whom they choose by calling them their own, make them their gopis or companions and involve them in their pastimes, without being a friend, no one else can experience their play. Few can become a friend by themselves. Those who are proud of participating in their play with their efforts can never reach them. When by being exclusive, being humble, being helpless, abandoning all kinds of effort and taking shelter only of them, then one can get the right to move towards that direction.’
Sanatan-‘ Lord! How to attain exclusivity, how can the sprout of devotion arise in the heart?’
The Lord said – ‘Eternal! There is only one best way to achieve exclusivity, as Paramhanshiromani Jadbharat ji has said to King Rahugan-
Rahugana does not go by this austerity not from the burning of the sacrifice or from the house. Not by chant, not by water, fire or sun- Without the dust of the great feet.
Lord Jadbharat says- ‘Rajan Rahugan! God’s grace cannot be attained by penance, by sacrifice, by charity, by leaving home, by reading the Vedas, by consuming water, fire or sun, without falling at the feet of Mahatma’s. There is only one means of attaining it, with devotion one should return to the dust of the feet of the supremely capable devotees of the Lord. The only solution is to wear it on the head. One who wants to experience the grace of God without the service of a saint, is as if without a boat or a ship, he wants to cross the vast ocean by swimming with his hands. Aiming at this point, Bhaktaraj Prahlad ji has said to his father Hiranyakashipu-
Their minds are not so strong The meaning of touching the elimination of evil The anointing of the dust of the feet of the great ones Unless he asks for the poor.
Hey Tat! Until a man bathes properly from head to toe at the feet of such supremely worshipable devotees, from whose heart the vices of subjects have been completely removed, even though his intellect originated from the Vedas, his intellect is able to take him near the lotus feet of the Lord. is unable. That is, without putting the dust of the feet of the devotees on the head, no man can move forward for the sake of touching the lotus feet of Shri Krishna. As long as the Tatvdarshi Jnanis are not served with love, with devotion, until there is natural affection at their feet, they are not even entitled to listen to Bhagavad-Katha. God Himself has written in the Gita while preaching to Arjuna-
Know that by bowing down, by inquiring, by serving. They will teach knowledge to the wise and the seers of the truth.
Means ‘O Arjun! You know that knowledge by bowing-offering-service and asking questions with a sincere spirit. (On being politely asked) those Tatvdarshi Mahatmas will teach you that knowledge.’ Only he is entitled to the instruction, in whose heart there is a feeling of reverence for the Deities, the Dwijs, the Gurus and the Bhagavat-devotees. The one who does not have faith in them, he cannot move towards God. Then how can one become entitled to God’s grace? Eternal! What is kept in many things, I tell you the essence. The ultimate effort of every living being is to attain the love of Shri Krishna. The most adorable is Shri Nandanandan Vrindavanchandra Shri Krishnachandra ji. Leaving the shelter of all your efforts, turning your face away from worldly relations and worshiping them with husband’s attitude, this is the best method of worship and among the readable scriptures, Shrimad Bhagwat is the most important scripture. Because Lord Vyasdev has extracted the essence of all the scriptures by churning them, just as Lord Vyasdev extracts the essence of butter from all the Puranas by churning curd. That’s all, this is the path to well-being. Consider this the essence of my opinion. If someone insists on something more than this, then you should consider it otherwise. [1] Keep this knowledge of mine in your heart. Keep strong affection at the feet of sages, saints and Bhagavad devotees. Never criticize them no matter who they are. Salute everyone humbly with God-intelligence. You will be well, I bless you from my heart. You should describe this practical knowledge of mine in detail in the books of devotion. Auspicious God will bless you! Saying this, Mahaprabhu became silent.
When Mahaprabhu became silent, Sanatan ji bowed down at the feet of Mahaprabhu with devotion and Mahaprabhu blessed him by turning his hand on his body. In this way, staying near Mahaprabhu in Kashi for two months, Sanatan kept asking various classical questions and the Lord lovingly explained all the secret elements to him. Within these two months, Sanatan ji understood many inexplicable aspects of the path of devotion from the Lord, which he has described in detail in his many books.
respectively next post [143] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]