।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
स्वामी प्रकाशानन्द जी मन से भक्त बने
अद्वैतवीथीपथिकैरुपास्या:
स्वानन्दसिंहासनलब्धदीक्षा:।
हठेन केनापि वयं शठेन
दासीकृता गोपवधूविटेन।।
श्री पाद प्रकाशानन्द जी के नाम से पाठक पूर्व ही परिचित होंगे। इनकी जन्म भूमि तैलंग देश में थी। दक्षिण देश की यात्रा के समय श्री रंग क्षेत्र के समीप बलगण्डी नामक ग्राम में महाप्रभु नें वेंकट भटृ के यहाँ चातुर्मास व्यतीत किया था। वेंकट भट्ट श्री वैष्णव सम्प्रदाय के वैष्णव थे। उनके भक्ति-भाव से प्रसन्न होकर प्रभु ने उनके घर चार मास निवास किया। उन्हीं के पुत्र श्री गोपाल भट्ट प्रभु की बड़ी भारी सेवा की थी और पिता के परलोकगमन के अनन्तर ये प्रभु के आज्ञानुसार घर-बार छोड़कर वृन्दावन वास करने चले गये थे और वहीं अन्त तक श्री राधारमण जी की सेवा-पूजा में लगे रहे।
श्री गोपाल भट्ट जी के पिता तीन भाई थे। सबसे बडे तो इनके पिता श्री वेंकट भट्ट, मध्यम त्रिमल्ल भट्ट और छोटे ये ही श्री पाद प्रकाशानन्द जी महाराज थे। संन्यास के पूर्व इनका घर का नाम क्या था, इसका पता अभी तक नहीं चला। ये संन्यासी हो जाने पर भी अपने भतीजे गोपाल भट्ट से अत्यधिक स्नेह रखते थे। ये जानते थे कि गोपाल एक होनहार युवक है, कालान्तर में यह जगत्प्रसिद्ध पण्डित़ बन सकेगा, किन्तु जब उन्होंने सुनाओ कि एक बंगाली युवक साधु के संसर्ग से गोपाल शास्त्रों का पठन-पाठन छोड़कर ‘कृष्ण-कृष्ण’ रटने लगा हैं, तब उन्हें कुछ मानसिक दु:ख भी हुआ ओर उनकी इच्छा उस युवक संन्यासी से शस्त्रार्थ करने की हुई? प्रेम का आकर्षण कई प्रकार से होता है। कभी तो किसी की प्रशंसा सुनकर मन-ही-मन डाह होता है और उसके प्रति मन में एक स्वाभाविक-सा स्नेह उत्पन्न हो जाता है। जिसके गुणों से हम डाह करते हैं उसी के प्रति हृदय में अपने-आप ही प्रेम उत्पन्न हो रहा है, इससे घबड़ाकर हम उस व्यक्ति की खुल्लमखुल्ला निंदा करने लगते हैं। इसमें हम अपनी स्वाभाविक वृत्ति को दबाना चाहते है, किंतु ऐसा करने से वह और भी अधिक उभरती हैं। द्वेषाभाव से ही सही, चित्त उससे मिलने के लिए के सदा व्याकुल-सा बना रहा है और उसका प्रसंग और उसका प्रसंग आने पर रागवश उसके लिये दो-चार कडवे शब्द अपने-आप ही मुंह से निकल पडते हैं। प्रकाशानन्द जी का प्रभु के प्रति ऐसा ही अनुराग हो गया था। जब उन्होंने सुना कि जिस संन्सासी ने हमारे भ्रातृपुत्र गोपाल को बहकाया है, उसी ने सार्वभौम भट्टाचार्य-जैसे परम विद्वान पण्डित को अपने वश में कर रखा है और वे उसे अवतार समझते हैं, इससे उनकी जिज्ञासा और बढ गयी। उसी जिज्ञासा के फलस्वरूप उन्होंने प्रभु के पास व्यंग्यपूर्ण पत्र भेजे थे, जिन्हें पाठक प्रथम ही पढ़ चुके होंगे।
अब जब उन्होंने सुनाओ कि वही युवक संन्सासी यहाँ काशी मे आया है, तब तो वे किसी प्रकार प्रभु से भेंट करने की बात सोचने लगे। किन्तु भेंट हो कैसे? प्रकाशानन्द जी काशी के प्रतिष्ठित पण्डित और सम्माननीय संन्यासी थे। ये वहाँ के मठधारी संन्यासियों में सर्वश्रेष्ठ संन्यासी समझे जाते थे। ये किसी अनजान संन्यासी के पास मिलने कैसे जाते? वयोवृद्ध, विद्यावृद्ध, प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित होते तो वे सम्भवतया चले भी जाते, परन्तु महाप्रभु युवक थे, उनकी दृष्टि में वे भारी पण्डित भी नहीं थें, प्रसिद्धि भी उनकी इधर नहीं थीं, उन्होंने हेय सम्प्रदाय के भारती संन्यासी से दीक्षा ली थी, इस कारण अपने को प्रसिद्ध पण्डित और प्रतिष्ठित समझने वाले दण्डी संन्यासी प्रकाशानन्द जी प्रभु के निवास स्थान से प्रकाशानन्द जी का मठ कोई बहुत दूर नहीं था। उनका मठ भी बिन्दुमाधव के समीप ही था और प्रभु भी उधर ही तपन मिश्र के यहाँ ठहरे हुए थे। प्रभु ने स्वयं उनके पास जाने की आवश्यकता नहीं समझी, क्योंकि महाप्रभु बड़े ही संकोची थे। बड़ों के सामने बोलने में उन्हें बहुत संकोच होता था। इसलिये उन्होंने सोचा उनके पास जायंगे तो कुछ-न-कुछ वाद-विवाद छिड़ ही जायगा। इसलिये वे भी उनके पास नहीं गये और दस-बारह दिन ठहरकर श्री वृन्दावन को चले गये।
वृन्दावन से लौटकर प्रभु दो महीनों तक काशी में रहे। इस प्रवास में प्रभु बहुत ही साधारण संन्यासी की तरह रहते थे। वे न तो कहीं बाहर भिक्षा के लिये जाते थे और न संन्यासियों के दर्शनों को जाते। केवल चन्द्रशेखर के घर से गंगा स्नान को और विश्वनाथ जी के दर्शनों को जाते और तपन मिश्र के घर भिक्षा करके वहीं भगवन्नाम-संकीर्तन ओर जप करते रहते। इसलिये उनके दो-चार अन्तरंग भक्तों को छोड़कर प्रभु की महिमा किसी पर प्रकट नहीं हुई ! प्रकाशानन्द जी मन-ही-मन सोचते- ‘सचमुच यह कोई अजीब ही संन्यासी हैं। हमारे साथ इतना परिचय होने पर भी यह हमारे मठ में नहीं आता है और न संन्यासियों की सभा में सम्मिलित होता है।’ अवश्य ही कोई विलक्षण पुरुष है।’ जो महाराष्ट्रीय ब्राह्मण प्रभु के चरणों में अत्यधिक अनुराग रखते थे, उनका घर श्री प्रकाशानन्द जी के मठ के समीप ही था। वे प्राय: उनके पास जाया-आया करते और उनका यथाशिक्त द्रव्यादि से सेवा-सुश्रूषा भी किया करते। जब-जब महाप्रभु का प्रसंग छिड़ता तब-तब प्रकाशानन्द जी प्रभु के ऊपर कटाक्ष करते और उनके निन्दा सूचक शब्दों का प्रयोग भी कर बैठते। वैसे उनका हृदय सरस था। कवि-प्रकृति के थे। भावुक थे। मिलनसार थे, प्रणय के ऐकान्तिक उपासक थे; किन्तु अभी तक उनकी भावुकता को अद्वैत वेदान्त की प्रखर युक्तियों ने प्रच्छन्न कर रखा था। अभी तक उनकी सरसता और प्रणयोत्सुकता प्रस्फटित नहीं हुई थी। प्राय: देखा गया है कि ऐसे भारी विद्वानों की भावुकता किसी परम भावुक महापुरुष के संसर्ग से ही एकदम विकसित हो जाती है।
ईसा के प्रधान शिष्य सेण्ट पाल पहले शुष्क और नास्तिक थे, जब उन्होंने ईसा को शूल पर हंसते हुये चढ़ते देखा तब उनकी भावुकता एकदम फूट पड़ी और वे ही पीछे से ईसाई धर्म के सर्वश्रेष्ठ प्रचारक हुए। स्वामी विवेकानन्द पहले नास्तिक प्रकृति के घोर कुतर्की थे, परमहंस रामकृष्णदेव के हाथ फेरते ही न जाने उनकी नास्तिकता कहाँ भग गयी और अन्त में वे ही भगवान रामकृष्णदेव के मिशन को विश्वव्यापी बनाने वाले प्रधान पुरुष हुए। इसी प्रकार स्वामी प्रकाशानन्द जी की भी ललित वृत्तियाँ श्री चैतन्य-चरणों के दर्शन से ही विकसित हुईं। अन्त में उन्होंने श्रीचैतन्य के गुणगान में इतनी सुन्दर कविता लिखी जिससे कठोर-से-कठोर भी हृदय द्रवीभूत हो सकता है। इनके बनाये हुए श्री चैतन्यचन्द्रामृत काव्य की जितनी भी प्रशंसा की जाय उतनी ही कम है। अस्तु।
उस महाराष्ट्रीय सज्जन ने एक दिन बातों-ही बातों में स्वामी जी से कहा- ‘स्वामिन! उन बंगाली वैद्य के यहाँ जो संन्यासी ठहरे हुए हैं, उनके चेहरें में कितना भारी आकर्षण हैं। जो एक बार उन्हें देख लेता है, वही उनका बन जाता है। उनकी बाणी में अपार करुणा है। भगवद्गुण-गान करते-करते वे मूर्च्छित हो जाते हैं। एक दम तन्मय होकर श्रीकृष्ण-कथा कहते हैं।’
प्रकाशानन्द जी ने कहा- ‘अरे, क्या हम उन्हें जानते नहीं? खूब जानते हैं। वे कोई आकर्षण-मन्त्र जानते हैं, इसी से तो उन्होंने सार्वभौम-जैसे विद्वान को बहका लिया; किन्तु यहाँ उनकी दाल नहीं गलने की। इस विश्वनाथ जी की पुरी में उनकी भक्ति को कोई दो कौड़ी में भी न पूछेगा। यहाँ स्त्रियों की तरह नाचने वाले न मिलेंगे। बंगालियों की तरह यहाँ भावुक और भोले-भाले अनपढ़ आदमी नहीं हैं। यहाँ के भंगी-चमार तक ब्रह्मज्ञान बातें जानते हैं। ‘इस बात के सुनने से उन महाराष्ट्रीय सज्जन को बड़ा दु:ख हुआ। वे सोचने लगे- ‘इतने भारी विद्वान और त्यागी पुरुषों के हृदय में भी हाड की अग्नि इतनी प्रबल होती है। इतने ज्ञानी होने पर भी लोग दूसरों की प्रशंसा नहीं सुन सकते। सचमुच प्रतिष्ठा की इच्छा बड़ी ही प्रबल होती है। महान पण्डित-से पण्डित भी अपनी प्रतिष्ठा-स्थापन करने के निमित्त दूसरों की निन्दा करने में संकोच नहीं करते। लोकैषणा कितनी प्रबल है !’ दूसरे दिन दु:खी चित्त से उस भावुक सज्जन ने प्रभु से सभी बातें कहीं और वह करुण स्वर में कहने लगा- ‘प्रभो! स्वामी जी कहते थे यहाँ उनकी भक्ति कों कोई दो कौड़ी में भी न पूछेगा।’
प्रभु ने कहा-‘ हमें दो कौड़ियों से करना ही क्या? मुफ्त तो कोई लेगा? हम तो वैसे ही लुटा देंगे! इस पर भी कोई न लेगा तो फेंककर चले जायँगे। कभी तो कोई उठा ही लेगा।’
प्रभु के ऐसे सरल और विद्वेष से रहित उत्तर को सुनकर महाराष्ट्रीय सज्जन की श्रद्धा प्रभु के चरणों में और भी अधिक बढ़ गयी और वे सोचने लगे कि ‘जब इनकी एक-एक बात का मेरे ऊपर इतना प्रभाव पड़ता हैं, तब यदि प्रकाशानन्द जी से इनका साक्षात्कार हो जाय तब तो उनका उद्धार ही हो जाय। वे मूर्ख नहीं हैं, हठी हैं, सूखी तबीयत के नहीं हैं। प्रभु से बातें करते ही वे पानी-पानी हो जायँगे और सभी निन्दा करना भूलकर इनके सेवक बन जायँगे, किन्तु भेंट हो तो कैसे हो? वे यहाँ आवेंगे नहीं, प्रभु वहाँ जाने को राजी न होंगे। ‘वे सज्जन इसी चिन्ता में पड़ गये। अपने मनोगत भाव उन्होंने तपन मिश्र, चन्द्रशेखर तथा और भी दो-चार प्रभु के भक्तों के सामने प्रकट किये। तपन मिश्र ने कहा- एक युक्ति हो सकती है। कोई सभी संन्यासियों का निमन्त्रण करे और प्रभु से भी वहाँ चलने का बहुत आग्रह करे, तो प्रभु अपने प्रिय भक्त के आग्रह की कभी अवहेलना न करेंगे, अवश्य ही चले जायंगे।
यह सुनकर उस महाराष्ट्रीय सज्जन ने जल्दी से कहा- ‘इसके लिये मैं स्वयं तैयार हूँ। यह कौन-सी बड़ी बात है। किन्तु आप प्रभु को ले चलने का जिम्मा लें।’
तपन मिश्र ने कहा-‘ अजी, हम सभी पैर पकड़ लेंगे, चलेंगे कैसे नहीं। तुम सभी करो।’ वे सज्जन अच्छे धनिक थे। हजार-पांच सौ रूपये खर्च करना उनके लिय कोई कठिन काम नहीं था, फिर ऐसे पुण्य कार्य का अवसर तो बड़े सौभाग्य से मिलता है। इसलिये उन्होंने काशी के सभी मठों के और विरक्त संन्यासियों को निमन्त्रित किया। ठीक समय पर सभी संन्यासी अपने-अपने साथी और शिष्यों के सहित उस सज्जन के घर में आ उपस्थित हुए। महाराष्ट्रीय सज्जन ने सभी के बैठने के लिये गद्दे, तकिये, गलीचे आदि का बड़ा सुन्दर प्रबन्ध किया था। मठधारी महन्त सभी बड़े-बड़े तकियों के सहारे गलीचों पर बैठ गये। उनके इधर-उधर उनके शिष्य बैठे हुए वेदान्त विष्यक बातें करने लगे। कोई ‘विवेक-चूड़ामणि’ का श्लोक बोलता, तो कोई शांकर भाष्य की ही पंक्ति को बोल उठता और निर्विशेष ब्रह्म की सिद्धि में अपने सारे पाण्डित्य को खर्च कर देता। सबके बीच में श्रेष्ठ आसन पर श्रीमत प्रकाशानन्द जी सरस्वती बैठे थे। उस समय दण्ड धारण किये हुए वे देवताओं से घिरे हुए ब्रह्मा जी के समान प्रतीत होते थे अथवा ऐसे मालूम होते थे जैसे नैमिषारण्य के पुण्य तीर्थ में शौनक जी अपने अट्ठासी हजार शिष्यों के मध्य में बैठे हुए उनकी शास्त्र-चर्चा सुन रहे हों। उसी समय वह महाराष्ट्रीय सज्जन प्रभु के समीप पहुँचे। प्रभु के निमन्त्रित तो पहले से ही कर रखा था। अब उन्होंने जाकर कहा- ‘प्रभो! सभी महात्मा आपकी ही प्रतीक्षा कर रहे हैं।’
प्रभु ने संकोच युक्त विवशता के स्तर में कहा- ‘भैया इतने बड़े-बड़े महात्माओं के बीच में मुझे क्यों ले जाते हो? मैं वहाँ क्या करूँगा? तम्हारे घर किसी दिन भिक्षा कर आऊँगा।’
पैर पकड़े अत्यन्त ही कातर वाणी से रोते-रोते उन महाराष्ट्रीय सज्जन ने कहा- ‘प्रभो! मैंने सारा आयोजन तो केवल आपके ही लिये किया है। आप न पधारेंगे तो मेरा सभी व्यर्थ हो जायगा। आप इस दीन-हीन कंगाल के ऊपर कृपा अवश्य करें और अपनी पद-धूलि से इस अधम के सदन को पावन कर इसे कृतार्थ करें। उन सज्जन की प्रार्थना का सभी ने समर्थन किया! भक्तवत्सल प्रभु सहमत हो गये और वे चलने के लिये तैयार हुए। प्रभु सनातन जी के कन्धे पर हाथ रखे हुए थे। पीछे-पीछे चन्द्रशेखर, तपन मिश्र तथा दो-चार भक्त और चल रहे थे। घर के दरवाजे पर पहुँचकर प्रभु ने सनातन जी के कन्धें से हाथ हटा लिया, वे नीची दृष्टि किये हुए धीरे-धीरे धर में पहुँचे। सेवक जल लेकर फौरन प्रभु के पैरों को धोने के लिये बढ़ा। प्रभु ने संकोच से पैरों को खींचते हुए स्वयं ही पैर धो लिये और वहीं अस्त-व्यस्त भाव से मोरी के पास ही कीच में बैठ गये।
संन्यासी-मण्डली में सन्नाटा छा गया। शास्त्रार्थ करना सब भूल गये। सभी एकटक भाव से प्रभु की ओर देखने लगे। तीस-बत्तीस वर्ष की अवस्था का एक परम तेजस्वी रूपलावण्य युक्त युवक संन्यासी बिना किसी दिखावे के चुपचाप मोरी के पास बैठ गया है, इस बात से सभी को परम आश्चर्य हुआ। प्रभु का शरीर बड़ा ही सुकुमार था, उनके दाढ़ी-मूंछें बहुत ही कम निकली थीं, वे एक दम मुड़ी हुई थीं, इसलिये देखने में वे सोलह वर्ष के-बालक प्रतीत होते थे। उनके गुलाब की पंखुडि़यों के समान दो छोटे-छोटे अरुण रंग के समान ओष्ठ दूर से ही अपनी गाढ़ी लालिमा के कारण चमक रहे थे। प्रभु बिना किसी की ओर देखे चुपचाप सिर झुकाये हुए बैठे थे। उपस्थित सभी संन्यासी कोई उंगली के इशारे से, कोई भृकुटी के संकेत से, कोई बहुत ही हल की आवाज से प्रभु के ही सम्बन्ध में कुछ कहने लगे। प्रकाशानन्द जी इनके तेज, रूप-लावण्य, नम्रता, शालीनता और प्रभाव को ही देखकर समझ गये कि ये ही महाप्रभु चैतन्य देव हैं। किन्तु सबके सामने अपनी प्रतिष्ठा को बनाये रखने के निमित्त उन्होंने गृहपति उन महाराष्ट्रीय सज्जन से पूछा- ‘ये स्वामी जी कहाँ से आये हैं? उन्होंने धीरें से कहा- ‘ये वे ही बंगाली स्वामी जी हैं, जिनके सम्बन्ध में मैंने आपसे कहा था।’
प्रसन्नता प्रकट करते हुए प्रकाशानन्द जी ने कहा- ‘ओहो! ये ही श्रीकृष्णचैतन्य भारती हैं। इनकी प्रशंसा तो हम बहुत दिनों से सुन रहे हैं। आज इनके खूब दर्शन हुए। (प्रभु को लक्ष्य करके) आप वहाँ क्यों बैठ गये, यहाँ आइये। आपका वहाँ बैठना शोभा नहीं देता। प्रभु ने सिर को नीचे किये हुए धीरे से उत्तर दिया- ‘भगवन! मैं हीन सम्प्रदाय वाला हूँ, भला आपके बराबर कैसे बैठ सकता हूँ। यहीं ठीक बैठा हूँ।
प्रकाशानन्द जी प्रभु की सरलता और नम्रता को देखकर एक दम मन्त्र-मुग्ध से हो गये। जब दो-तीन बार कहने पर भी प्रभु अपने स्थान से नहीं उठे तब तो प्रकाशानन्द जी स्वयं उठकर गये और प्रभु का हाथ पकड़कर उन्हें अपने सामने ही गद्दी पर बिठा लिया। अत्यन्त ही संकोच के साथ प्रभु विवशता-सी दिखाते हुए सिकुड़कर बैठ गये। प्रभु धीरे-धीरे भगवन्नामों का उच्चारण कर रहे थे। भगवन्नाम-उच्चारण से जिस प्रकार वायु लगने से कमल की पंखुडियाँ हिलती हैं, उसी प्रकार उने बिम्बाफल के समान दोनों अधर हिल रहे थे। कुछ बातें करने की इच्छा से प्रसंग छेड़ते हुए प्रकाशानन्द जी ने कहा- ‘स्वामी जी! मैं आपसे एक शिकायत करना चाहता हूँ; आप पहले आये और मुझसे बिना ही मिले चले गये। साधुओं के सम्बन्धी साधु ही होते हैं। वाराणसी में आपका एक मठ था, उसमें न आकर आप गृहस्थियों के यहाँं ठहरे और मुझसे मिले भी नहीं। मालूम पड़ता है आप मुझे अपना नहीं समझते।’
प्रभु ने इस बात का कुछ भी उत्तर नहीं दिया। उसी समय एक चुलबुल-से युवक संन्यासी ने धीरे से कहा-‘मौनं स्वीकृतिलक्षणम्‘।। इस बात के सुनते ही संन्यासी मण्डली में जोर का कह कहा मच गया। सबके चुपचाप हो जाने पर प्रभु ने धीरे-धीरे लज्जा के स्वर में कहा- ‘आप गुरुजनों के सामने मैं क्या मुख लेकर आंऊ। अपने में इतनी योग्यता नहीं समझी कि आपके दर्शन कर सकूं, इसी संकोच से नहीं आया।’
बात बदलते हुए प्रकाशानन्द जी ने कहा– ‘तुमने कटवा के केशव भारती से ही संन्यास लिया है न? प्रभु ने धीरे से कहा–‘जी हां, वे ही मेरे दीक्षागुरु हैं’
प्रकाशानन्द जी ने कुछ रुक-रूककर कहा –‘एक बात पूछना चाहता हूँ, तुम बुरा न मानो तो पूछूं।
‘प्रभु ने दीनता के स्वर में कहा – ‘आप कैसी बात कर रहे हैं, आप तो मेरे हितकी ही बात पूछेंगे। आप तो गुरुजन हैं, सदा कल्याण ही चाहेंगे।’
प्रकाशानन्द जी ने कहा- ‘हाँ, मैं यह पूछना चाहता हूँ कि संन्यासी का मुख्य धर्म है कि वह भिक्षा पर निर्वाह करता हुआ सदा वेदान्तचिन्तन करता रहे। युक्ति से, शास्त्र प्रमाण से, आप्त पुरुषों के वाक्यों द्वारा इस सत्य से प्रतीत होने वाले जगत की सदा निस्सारता ही को सोचता रहे। तुम वेदान्ता का चिन्तन छोड़कर यह हरि नामस्मरण क्यों कर रहे हो?
प्रभु ने नम्रता के साथ कहा- ‘भगवन! मेरे गुरुदेव ने मुझे ऐसा ही उपदेश दिया है। उन्होंने मुझे वेदान्त शास्त्र का अनधिकारी समझकर इसी मन्त्र का उपदेश दिया और आज्ञा की कि इसी का जप किया करो। उन्होंने कहा था- कलियुग में और कोई सुगम साधन ही नहीं-
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा।।
इसीलिये मैं दिन-रात्रि इसी का जप करने लगा। निरन्तर के जप से या इसी का ध्यान रहने से मेरे दिमाग में कुछ गर्मी-सी चढ़ गयी। मैं पागल-सा हो गया, घर-बार कुछ भी अच्छा नहीं लगने लगा। आँखों में से आप–से-आप अश्रु बहने लगे। तब तो मैं घबड़ाया और मैंने गुरु महाराज से पूछा- ‘भगवन! आपने मुझे यह कैसा मन्त्र दे दिया। इससे तो मैं पागल हो गया। ‘तब उन गुरु महाराज ने श्रीमदभागवत के कुछ श्लोक सुनाकर मुझसे कहा- ‘यह स्थिति बुरी नहीं हैं। यह शुभ लक्षण है। तुम इसी प्रकार जप करते जाओ। ‘अतएव ‘भगवन! मैं उसी दिन से इसी का सदा जप करता रहता हूँ। नित्य जपने से समझ लीजिये या अभ्यास समझ लीजिये, इस नाम में ऐसी आसक्ति-सी हो गयी है कि मैं छोड़ने की कोशिश भी करूँ तो भी यह नहीं छूटता।’
प्रभु की बात सुनकर बात को टालेते हुए प्रकाशानन्द जी कहने लगे– ‘हरि नामस्मरण बड़ा उत्तम है। कलिसन्तरण–उपनिषद में भगवन्नाम की बड़ी महिमा लिखी है, किन्तु तुम ब्रह्मसूत्रो से उदासीन-से क्यों हो? वेदान्त दर्शन को क्यों नहीं मानते?
नम्रता के साथ प्रभु ने कहा- ‘भगवन! ऐसा कौन वेदों को मानने वाला आस्तिक पुरुष होगा जो भगवान व्यास देव जी के ब्रह्म सूत्रो को न मानता हो? ‘प्रकाशानन्द जी ने कहा- ‘वेदान्तसूत्रों में निर्विशेष ब्रह्म का प्रतिपादन किया गया है। अहंग्रह-उपासना द्वारा निर्विशेष ब्रह्म का चिन्तन न करके नाच-गान में रत रहना तो वेदान्त सूत्रों के न मानने के बराबर हैं।’
प्रभु ने कहा- ‘मैं इस बातको नहीं मानता कि ब्रह्मसूत्रो में भगवान व्यास ने केवल निर्विशेष ब्रह्म का ही प्रतिपादन किया है। मेरा मत तो ऐसा है कि इसमें सविशेष गुण विशिष्ट ब्रह्म का ही वर्णन प्रधानता के साथ किया गया होगा।’
कुछ चौंककर और चारों ओर संन्यासियों की ओर देखकर प्रकाशानन्द जी कहने लगे- ‘यह तुम कैसी अशास्त्रीय-सी बात कह रहे हो? ब्रह्मसूत्र के प्रत्येक सूत्र में निर्विशेष निर्गुण ब्रह्म का ही प्रतिपादित किया गया है। भगवान शंकराचार्य ने विस्तार के सहित अपने भाष्य में इसका वर्णन किया है। क्या तुमने शारीरक भाष्य नहीं पढ़ा हैं या शंकराचार्य को ही नहीं मानते हो?
प्रभु ने कहा- मैनें श्री सार्वभौम भट्टाचार्य से शारीर के भाष्य सुना है ओर अपनी तुच्छ बुद्धि के अनुसार कुछ समझा भी है। भला जगदगुरु शंकराचार्य को कौन नहीं मानेगा? वे ही तो दस नामी शंकर सम्प्रदाय के आदि आचार्य और जगन्मान्य गुरु हैं। उनके श्री चरणों में मैं पूर्ण श्रद्धा रखता हूँ।
प्रकाशानन्द जी ने कहा- ‘ये तो न मानना ही हुआ जो उनके भाष्य के विरुद्ध बातें कहते हो। व्यास भगवान के असली भावों को तो शंकर भगवान ने ही समझा हैं, उन्होंने सम्पूर्ण भाष्य में उसी एक निर्गुण निर्विशेष उपाधि रहित अखण्ड सत्ता का वर्णन किया है। जब जगत वास्तव में कुछ है ही नहीं और जीव-ब्रह्म में जब कुछ भेद ही नहीं तब स्तुति कैसी? विनय और प्रार्थना किसकी? सब नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त ब्रह्मस्वरूप ही तो हैं। ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं, जो कुछ भास रहा है, स्वप्न के पदार्थो के समान सब मिथ्या हैं।’
प्रभु ने कहा- ‘भगवान व्यास तो ब्रह्म सूत्रों का भाष्य स्वयं ही किया है और उस भाष्य करने पर ही उन्हें शान्ति प्राप्त हुई और तभी से उन्होंने और कुछ लिखना ही छोड़ दिया है। श्रीमदभागवत ही ब्रह्म सूत्रों का निर्विवाद भाष्य है। यह भगवान व्यास देव की अन्तिम कृति है, इसमें जो कुछ कहा गया है वही सबसे अधिक मान्य है।[1] आप तो सर्वशास्त्रवेत्ता हैं, ठीक-ठीक बताइये श्रीमद्भागवत में निर्विशेष ब्रह्म की प्रधानता हैं या साक्षात श्रीकृष्णचन्द्र को सविशेष पूर्णब्रह्म परमात्मा बताया गया है?
प्रकाशानन्द जी ने कहा- ‘हाँ, यह तो सत्य है कि श्रीमदभागवत को भगवान व्यास देव ने सभी शास्त्रों का सार लेकर बनाया है। श्री नारद जी के उपदेश से उन्होंने भगवान की लीलाओं का वर्णन करने से परम शान्ति भी प्राप्त की है और आत्माराम मुनियों तक के लिये उन्होंने ग्रन्थ के आदि में भगवत-भक्ति करते रहने का संकेत कर के उसका कारण बताया है-
आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमें।
कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणों हरि:।।[1]
अर्थात ‘भगवान गुणों में दिव्यता ही ऐसी है कि कैसे भी अज्ञान रहित आत्माराम मुनि क्यों न हों, वे भी भगवान की अहैतु की भक्ति करते ही है। ‘इस बात को मैं मानता हूँ, किन्तु भगवान शंकराचार्य जी ने जो एक दम सविशेष ब्रह्म को गौण बताकर और परम साध्य निर्विशेष ब्रह्म को ही माना है यह क्यों? यही मेरी शंका है।’
प्रभु ने कहा- ‘भगवान शंकराचार्य श्रीमद्भागवत को भी यथाविधि जानते थे, भागवत के प्रति उनकी परम श्रद्धा थी। इस बात को भी जानते थे कि श्रीमद्भागवत व्यास देव जी द्वारा प्रकट हुआ और उसके प्रतिपाद्य सविशेष सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ही हैं। फिर भी उन्होंने निर्विशेष ब्रहा को ही अपने भाष्य में प्रधानता देते हुए उसे ही चरम लक्ष्य माना है! यह उनकी महानता ही है। महान पुरुषों के सिवा ऐसा साहस कोई दूसरा नहीं कर सकता। उन्होंने लोक कल्याण के ही निमित्त ऐसा किया है।
प्रकाशानन्द जी ने कहा- ‘सूत्रों के अर्थ का अनर्थ करने में कौन-सा लोककल्याण है?’ प्रभु ने धीरे से कहा- ‘भगवन! अर्थ कैसा और अनर्थ कैसा? ये तो सब बुद्धि के विकार हैं। असली पदार्थ कहीं शब्दों द्वारा व्यक्त किया जा सकता है या उसकी सिद्धि तर्क के द्वारा की जा सकती है? असली पदार्थ तो अनुभवगम्य हैं। किसी पद का कुछ अर्थ लगा लें, सभी ठीक हैं। अर्थ लगाने में बुद्धिचातुर्य के सिवा और है ही क्या? अर्थ, लगाना, व्याख्यान करना, भाष्य और पुस्तकों की रचना करना यह सब लौकिकी बुद्धि का काम है, इससे मुक्ति थोड़े ही मिल सकती है? केवल लोगों का मनोरंजन करना है।’
प्रकाशानन्द जी ने कहा- ‘हां, यह बताओ कि भगवन शंकर ने क्या सोचकर जगत को एकदम उड़ा दिया और निर्विशेष ब्रह्म को ही परमसाध्य तत्त्व माना?’
प्रभु ने धीरे-धीरे मधुर स्वर में कहा- ‘भगवन! शंका या तर्क का होना अज्ञान या पूर्व जन्म कृत पापों का फल है। वे महाभाग पुरुष धन्य हैं जिन्हें ईश्वर के अस्तित्त्व में किसी प्रकार की शंका ही नहीं उठती। वे ईश्वर को सर्वशक्मिान और सर्वान्तर्यामी और चराचर विश्व का साक्षी मानकर उन्हीं का चिन्तन करते रहते हैं। उनके लिये पढ़ना, लिखना, बातें करना और ध्यान-उपासना करना आवश्यक नहीं। जो सदा भगवान को सर्वत्र समझ कर और सभी में भगवत-बुद्धि रखकर व्यवहार करेगा, उससे कभी अनर्थ का काम होने का ही नहीं। ग्रन्थभार तो अज्ञान का चिह्न हैं। जिन्हें भगवान के सर्वान्तर्यामीप ने का विश्वास नहीं, जिनके मन में भाँति-भाँति की शंकाएँ सदा उठा ही करती हैं, उन्हीं के लिये शास्त्र हैं कि शास्त्रों के द्वारा वे अपनी तार्किक बुद्धि को श्रद्धामय बना लें। यदि अन्त तक बुद्धि तर्क में ही फंसी रही तो शास्त्रों का पढ़ना व्यर्थ है, शास्त्रों के पठन का फल है तर्कातीत होकर श्रद्धालु बन जाना। जो जैसा तार्किक होता है, उसके लिये वैसे ही शास्त्र की आवश्यता होती है।
दो प्रकार के पुरुष होते हैं- एक ह्दय प्रधान, दूसरे मस्तिष्क प्रधान। ह्दय प्रधान कम होते हैं, मस्तिष्क प्रधान अधिक होते हैं। मस्तिष्क प्रधान वाले बिना तर्क के किसी बात को मानते ही नहीं। जैसे विष की ओषधि विष ही है, अग्नि के जले को तेल लगाकर अग्नि से से ही टीक होता है, उसी प्रकार तर्क वालों की बुद्धि को तर्क द्वारा ही परास्त करना चाहिये। तर्क करते-करते बुद्धि को इतने सूक्ष्य विषय में ले जाना चाहिये कि वहाँ से आगे जाने की बुद्धि की शक्ति ही न रहे। तर्क करने से स्थूल बुद्धि सूक्ष्म हो जाती है और सूक्ष्म बुद्धि ही परमार्थ की ओर बढ़ सकती है।
भगवान शंकर ने तर्क और युक्तियों द्वारा भगवत्तत्त्व को इसी खूबी के साथ वर्णन किया है कि भारी-से भारी तार्किक भी वहाँ से आगे नहीं बढ़ सकता। सचमुच भगवान शंकर ने तर्क का अन्त कर डाला है। वेदान्त श्रवण और पठन का इतना ही प्रयोजन है कि जिनकी बुद्धि तार्किक है वे उसके द्वारा उसे सूक्ष्म और परिष्कृत बनाकर उसे परमार्थगामिनी बनावें। सदा तर्को में ही फंसे रहना लक्ष्य नहीं हैं, क्योंकि परमार्थ का मार्ग तो तर्कातीत है।
अज्ञान में और श्रद्धा में आकाश-पाताल का अन्तर है। अज्ञानी को भी तर्क नहीं उठता; किन्तु वह परमार्थ की ओर थोड़े ही बढ़ सकता हैं, जब तक उसे सच्ची श्रद्धा न हो। और जिसके हृदय में श्रद्धा है, वह कभी अज्ञानी रह ही नहीं सकता; क्योंकि सच्ची श्रद्धा तो विचार का अन्त होने पर होती है। जहाँ तर्क और शंका उठना पूर्व जन्मकृत पापों का फल हैं, वहाँ तर्क उठने पर आलसी और अज्ञानियों की भाँति उसे दबाना भी महापाप है। ऐसा आलसी परमार्थी हो ही नहीं सकता। वह असली श्रद्धालु न होकर श्रद्धालु बनने का ढोंग करता है और ढोंगी से भगवान बहुत दूर रहते हैं।
जो हृदय प्रधान हैं, भावुक हैं, सरल हैं, उनके मन में शंका उठती ही नहीं। वे तो सदा अपने प्यारे का गुणगान ही सुनना चाहते हैं। उन्हें सविशेष वा निर्विशेष की सिद्धि से कोई प्रयोजन नहीं। भक्ति करते चलो। सविशेष-निर्विशेष जैसा भी होगा वह अपने-आप ही प्रकट हो जायगा। उसके लिये तो श्रीकृष्णचरणाम्बुज ही सत्य हैं। जगत चाहे सत्य हो अथवा असत्य, इससे उसे कोई प्रयोजन नहीं।’
प्रकाशानन्द जी ने कहा- तब तो यह दम्भ हुआ कि समझते कुछ और हैं और सिद्ध कुछ और करते हैं। भगवान शंकर तो इस जगत को त्रिकाल में भी सत्य नहीं मानते, वे तो इसे अनिर्वचनीय ब्रह्म की माया का एक भ्रम पूर्ण पसारा समझते हैं। ऐसा मानने वाले वे सविशेष ब्रह्म की उपासना करने को कैसे कहेंगे?’
प्रभु ने कहा- ‘कहेंगे क्या? उन्होंने स्वयं की है, हृदय की गति की कोई रोक सकता है? जगत नहीं है हम ब्रह्म ही हैं, ये मस्तिष्क के विचार हैं, उनके हृदय तो पूछिये। वे स्वयं कहते हैं-
सत्यपि भेदापगमे नाथ तवाहं न मामकीनस्त्वम्।
सामुद्रो हि तरंग: क्वचन समुद्रो न तारंग।।
चाहे जीव-ब्रह्म में भेद न हो, तो भी हे नाथ! मैं तुम्हारा हूँ तुम स्वयं मेरे नहीं हो, ‘समुद्र की तरंगें’ तो सब कहते हैं, किन्तु तरंगों का समुद्र ऐसा कोई नहीं कहता।’ यह उन महापुरुष के वाक्य हैं जो जीवन भर जीव-ब्रह्म की एकता को ही सिद्ध करते रहे थे।’
आश्चर्य के सहित प्रकाशानन्द जी ने कहा- ‘यह तो आचार्य का विनोद है, जैसे यहाँ कल्पित जगत है, वैसे ही व्यवहार में उन्होंने यह बात की दी। असल में जब जगत का अस्तित्व ही नहीं तो कैसी विनय और कैसी प्रार्थना? सदा अपने को ब्रह्म ही समझते रहने का अभ्यास करते रहना चाहिये।’
प्रभु ने कहा- ‘भगवन! आपका यह कहना ठीक तो है, किन्तु मैं फिर उसी बात को दुहराता हूँ कि यह संसार से क्षुब्ध हुई बुद्धि को बहलाने की बात है। सच्ची शान्ति तो हृदय की आह से होती है। जब सभी तर्को को भूलकर एकान्त में भगवान शंकराचार्य जी की भाँति इस प्रकार दीन होकर प्रार्थना करे, तभी हृदय को सच्ची शान्ति मिल सकती है। आचार्य-चरण अपनी प्रसिद्ध षटपदी में प्रभु से प्रार्थना करते हैं-
मत्स्यादिभिरवतारैरवतारवता सदा वसुधाम्।
परमेश्वर परिपाल्यो भवता भवतापभीतोऽहम्।।
संसार को त्रिकाल में भी सत्य न मानने वाले भगवान शंकराचार्य कहते हैं- आप मत्स्यादि अवतार धारण करके सदा पृथ्वी का परिपालन करते रहते हैं। हे प्रभो! संसार तापों से सन्तप्त हुआ मैं आपकी शरण आया हूँ, आप मेरी रक्षा करें। यह सच्चे हृदय की आावाज है।’
प्रकाशानन्द जी ने कहा- ‘यथार्थ में तो यह जगत असत्य ही है ओर जीव ही ब्रह्म है। किन्तु जो लोग इसे नहीं समझते और असत्य जगत को ही सत्य समझते हैं, उनके लिये जैसे भगवान शंकर ने संसार की व्यावहारिक सत्ता मानी है, उसी प्रकार यह व्यावहारिक प्रार्थना है। वैसे तो मुक्ति ही जीव का चरम लक्ष्य है और भ्रम दूर होते ही इस अज्ञान का नाश हो जाता है और अज्ञान के नाश होते ही जीव ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। हो क्या जाता है उसे अपने असली स्वरूप का बोध हो जाता है।’
प्रभु ने अत्यन्त ही नम्रता के साथ कहा- ‘भगवन! आप ज्ञानी हैं, पण्डित हैं, शास्त्रज्ञ हैं, हम सबके गुरु हैं। आपके सामने मैं कह ही क्या सकता हूँ? किन्तु मैं फिर कहूँगा, यह हृदय की बात नहीं है। विचारों का परिष्कृत स्वरूप है, भगवन! प्रेम ही ब्रह्म का सच्चा स्वरूप है। प्रेम की उपलब्धि ही जीव का चरम लक्ष्य है। वह करने की चीज नहीं। उसका गान वाणी से नहीं, हृदय से होता है, वह कहा नहीं जाता, अनुभव किया जाता है, उसकी सिद्धि नहीं की जाती, वह स्वत: सिद्ध है; उसे साधनों द्वारा कोई प्राप्त नहीं कर सकता, उसकी प्राप्ति तो प्रभु-कृपा से ही होती है। मैं फिर कहता हूँ भगवान शंकर ने केवल मस्तिष्क प्रधान पुरुषों की बुद्धि को अत्यन्त सूक्ष्य करने के ही निमित्त शारीर के भाष्य की रचना की है। उनका हृदय तो प्रभु प्रेम सामने मुक्ति आदि को तुच्छ समझता है। वे स्वयं कहते हैं-
काम्योपासनयार्थयन्त्यनुदिनं किंचित् फलं स्वेप्सितं
केचित् स्वर्गमथापवर्गमपरे योगादियज्ञादिभि:
अस्माकं युदनन्दनाड्.घ्रियुगलध्यानावधानार्थिनां
कि लोकेन दमेन किं नृपतिना स्वर्गापवर्गैश्च किम्।।
‘बहुत लोग प्रतिदिन अनेक कामनाओं के सहित उपासना करके मनोवांछित फल चाहते हैं, कुछ लोग यज्ञ-यागादि के द्वारा स्वर्ग की इच्छा करते हैं। बहुत-से योगादि के द्वारा मुक्ति की प्रार्थना करते हैं, किन्तु हमें तो नन्दनन्दन श्रीकृष्णचन्द्र के पदारविन्दों के ध्यान में ही तत्परता के साथ संलग्न रहने की इच्छा है। हमें उत्तम लोकों से क्या? हमें राजा बन जाने से, स्वर्ग से और यहाँ तक कि मोक्ष से क्या लेना? हमें तो सतत उन्हीं अरुण वर्ण के चरणों का ध्यान बना रहे!’
इस श्लोक को कहते-कहते प्रभु का गला भर आया। उनके शरीर में सभी सात्त्विक विकारों का उदय हो उठा। उन्होंने अपने भाव को संवरण करना चाहा, किन्तु वे उसमें समर्थ न हो सके। प्रभु की आँखें ऊपर चढ़ गयीं। शरीर से पसीना निकलने लगा। बेहोश होकर वे वहीं एक तकिय के सहारे लुढ़क गये। उनकी ऐसी दशा देखकर प्रकाशानन्द जी आश्चर्य चकित हो गये और अपने वस्त्र से स्वयं उनको हवा करने लगे। उपस्थित सभी संन्यासियों पर प्रभु की बातों का और उनकी इस अदभुत दशा का बड़ा ही गहरा प्रभाव पड़ा। बहुत-से तो उसी समय ‘हरि-हरि’ करके नाचने लगे। प्रकाशानन्द जी के हृदय में भी खलबली मच गयी। उनका मन बार-बार कह रहा था- ‘अरे मूर्ख! तेरे अज्ञान को मिटाने के निमित्त साक्षात श्री हरि संन्यासी का वेष धारण करके तेरे सामने उपस्थित हैं, तू इनके पादपद्मों को पकड़कर अपने पूर्वकृत पापों के लिये क्षमा- याचना क्यों नहीं करता। ‘किन्तु इतनी भारी प्रतिष्ठा का लालच अभी उनके हृदय में से समूल नष्ट नहीं हुआ था। वे हृदय से तो प्रभु के चरणों के दास बन चुके थे। हृदय तो उन्होंने उसी समय श्री कृष्ण चैतन्य-नामधारी हरि के चरणाम्भोजों में समर्पित कर दिया था, किन्तु शरीर को अभी लोकजज्जावश बचाये हुए थे।
उसी समय प्रभु को होश हुआ। वे कुछ लज्जित-से हुए तकिये से हटकर एक ओर बैठ गये। उसी समय भोजन के लिये बुलावा आ गया, सभी भोजन करने बैठ गये। प्रभु ने बड़े ही संकोच से संन्यासियों के साथ बैठकर भिक्षा पायी। अन्त में वे श्री प्रकाशानन्द जी के चरणों में प्रमाण करके भक्तों के सहित चन्द्रशेखर के घर चले गये।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Swami Prakashanand ji became a devotee from the heart
Advaitavithipathikairupasya: Initiation obtained from the throne of Swananda. We are stubbornly deceived by someone enslaved by the cowgirl bride.
Readers will already be familiar with the name of Shri Pada Prakashanand ji. His birthplace was in the country of Tailang. During his visit to South country, Mahaprabhu had spent Chaturmas at Venkata Bhatri’s place in Balagandi village near Sri Rang Kshetra. Venkata Bhatt was a Vaishnava of the Sri Vaishnava sect. Pleased with his devotion, the Lord resided in his house for four months. His son Mr. Gopal Bhatt had done great service to the Lord and after his father’s departure to the afterlife, he left home and went to live in Vrindavan as per the Lord’s order and remained engaged in the service and worship of Shri Radharaman ji till the end.
Shri Gopal Bhatt’s father had three brothers. The eldest was his father Mr. Venkat Bhatt, the middle one was Trimall Bhatt and the youngest was Mr. Pada Prakashanand Ji Maharaj. What was his family name before his retirement, it is not yet known. Even after becoming a monk, he used to have great affection for his nephew Gopal Bhatt. They knew that Gopal is a promising young man, who will eventually become a world-renowned scholar, but when they heard that Gopal had stopped studying the scriptures and started chanting ‘Krishna-Krishna’ due to the association of a Bengali youth monk, then he felt some mental anguish. He was also sad and he wanted to fight with that young monk? The attraction of love comes in many ways. Sometimes, on hearing someone’s praise, there is jealousy in the heart and a natural affection arises in the mind towards him. Love is automatically arising in the heart for the one whose qualities we envy, we start criticizing that person openly because of this. In this we want to suppress our natural instincts, but by doing so they emerge even more. Just because of malice, the mind is always anxious to meet him and when his occasion and his occasion comes, two or four bitter words automatically come out of his mouth out of anger for him. Prakashanand ji had such affection towards the Lord. When he heard that the ascetic who had seduced his brother Gopal, he had captured the most learned Pandit like Sarvabhaum Bhattacharya and considered him to be an incarnation, this increased his curiosity. As a result of the same curiosity, he had sent satirical letters to the Lord, which the readers must have read first.
Now when they heard that the same young monk has come here in Kashi, then they started thinking of meeting the Lord somehow. But how to meet? Prakashanand ji was a respected pundit and respected monk of Kashi. He was considered the best among the monastic monks there. How would he go to meet an unknown monk? Had he been old, learned, famous and respected, he might have gone away, but Mahaprabhu was a young man, in his view he was not even a great scholar, fame was not in his reach, he had taken initiation from the Bharti monk of the Hay sect, that’s why Prakashanand ji’s monastery was not far away from the residence of Dandi monk Prakashanand ji Prabhu, who considered himself a famous scholar and respected. His monastery was also near Bindumadhav and the Lord was also staying there with Tapan Mishra. The Lord Himself did not see the need to go to him, because Mahaprabhu was very shy. He was very hesitant to speak in front of elders. That’s why they thought that if they go to him, some or the other dispute will break out. That’s why they also did not go to him and went to Shri Vrindavan after staying for ten-twelve days.
After returning from Vrindavan, the Lord stayed in Kashi for two months. In this stay, Prabhu lived like a very simple monk. He neither used to go anywhere outside for alms nor did he go to see the ascetics. Only from Chandrashekhar’s house he used to go to bathe in the Ganges and to see Vishwanath ji and used to do alms at Tapan Mishra’s house and chant the Lord’s name and chant there. That’s why the glory of the Lord was not revealed to anyone except his two or four intimate devotees. Prakashanand ji thought to himself – ‘ Really he is a strange monk. Despite being so familiar with us, he does not come to our monastery and does not participate in the assembly of the ascetics.’ Must be some strange man.’ The house of the Maharashtrian Brahmin, who used to have a lot of affection for the feet of the Lord, was near the monastery of Shri Prakashanand ji. He often used to visit him and also used to serve him with whatever he could. Whenever the topic of Mahaprabhu came up, then Prakashanand ji used to sarcasm on Prabhu and also used words indicating his condemnation. By the way, his heart was mustard. Poets were of nature. Were emotional. Was sociable, was a solitary worshiper of love; But till now his sentimentality was masked by the intense methods of Advaita Vedanta. Till now, his creativity and romanticism had not blossomed. It has often been seen that the sentimentality of such great scholars develops completely only after the contact of a supremely sentimental great man.
St. Paul, the chief disciple of Christ, was at first dry and an atheist, when he saw Christ laughingly climbing the spike, his sentimentality burst forth and he later became the best preacher of Christianity. Swami Vivekananda was first an agnostic by nature, he did not know where his atheism went as soon as Paramhansa Ramakrishnadev turned his hand and in the end he became the main person who made Lord Ramakrishnadev’s mission world-wide. Similarly, the fine instincts of Swami Prakashanand ji also developed from the darshan of Shri Chaitanya’s feet. In the end, he wrote such a beautiful poem in praise of Sri Chaitanya, which can melt even the most hardened heart. Shri Chaitanyachandramrita Kavya composed by him cannot be praised as much. In reality.
One day that Maharashtrian gentleman said to Swami ji in a matter of words – ‘Swamin! There is so much attraction on the faces of those sannyasins who are staying at the Bengali doctor’s place. One who sees him once, becomes his. There is immense compassion in his words. They faint while singing the praises of the Lord. Being completely engrossed, he tells the story of Shri Krishna.
Prakashanand ji said- ‘Hey, don’t we know him? Know a lot They know some charm-mantra, that’s why they seduced the universal-like scholar; But here his pulse did not melt. In this Vishwanath ji’s Puri, no one will ask for his devotion even for two pennies. Here you will not find people who dance like women. There are no sentimental and naive illiterate men here like the Bengalis. Even the Bhangi-Chamar here know the things of Brahmagyan. Hearing this, that Maharashtrian gentleman felt very sad. They started thinking- ‘The fire of bone is so strong even in the hearts of such great scholars and renunciates. Even after being so knowledgeable, people cannot listen to the praise of others. Really the desire for prestige is very strong. Even great pundits do not hesitate to criticize others for the sake of establishing their reputation. How strong is the attraction! The next day, with a sad heart, that emotional gentleman told all the things to the Lord and he started saying in a compassionate voice – ‘Lord! Swami ji used to say that here no one would ask for his devotion even for two pennies.
The Lord said – ‘What do we have to do with two pennies? Will anyone take it for free? We will loot like that! Even if no one takes it, they will throw it away. Someday someone will pick it up.
Hearing such a simple and non-vengeful answer from Prabhu, the Maharashtrian gentleman’s devotion increased even more at the feet of Prabhu and he started thinking that ‘when his every word has so much effect on me, then if Prakashanand ji had his If there is an interview, then only they will be saved. They are not stupid, stubborn, not of dry health. As soon as they talk to the Lord, they will become watery and everyone will forget to criticize and become their servants, but how can you be if you meet? They will not come here, the Lord will not agree to go there. ‘ That gentleman fell into this worry. He revealed his occult feelings in front of Tapan Mishra, Chandrashekhar and two or four other devotees of the Lord. Tapan Mishra said – There can be a trick. If someone invites all the sannyasins and requests the Lord to go there, then the Lord will never ignore the request of his dear devotee, he will definitely go.
Hearing this, that Maharashtrian gentleman quickly said – ‘I myself am ready for this. What a big deal this is. But you take the responsibility of carrying the Lord.’
Tapan Mishra said – ‘Aji, we will all hold our feet, how will we not walk. You all do.’ That gentleman was very rich. It was not a difficult task for him to spend 1000-500 rupees, then it is very fortunate to get the opportunity to do such a good deed. That’s why he invited other disinterested sanyasis from all the monasteries of Kashi. At the right time all the sanyasis along with their companions and disciples came to that gentleman’s house. The Maharashtrian gentleman had made a beautiful arrangement of mattresses, pillows, rugs etc. for everyone to sit on. All the monastic monks sat on the rugs with the help of big pillows. Sitting around him, his disciples started talking about Vedanta. Some used to recite the verse of ‘Vivek-Chudamani’, while some used to recite the line of Shankar Bhasya and would have spent all their scholarship in the accomplishment of impersonal Brahman. Shrimat Prakashanand ji Saraswati was sitting on the best seat in the middle of all. At that time he looked like Brahma ji surrounded by deities holding the rod or looked like Shaunak ji sitting in the middle of his eighty-eight thousand disciples in the holy place of Naimisharanya, listening to his discussion on the scriptures. At the same time that Maharashtrian gentleman reached near the Lord. The invitation of the Lord had already been done. Now he went and said – ‘Lord! All the great souls are waiting for you.’
Prabhu said in a level of hesitant compulsion – ‘Brother, why do you take me in the midst of such great souls? what will i do there Some day I will come to your house after begging.’
Holding his feet, that Maharashtrian gentleman said – ‘Lord! I have done all the arrangements only for you. If you don’t come, then everything will be in vain. You must have mercy on this humble poor and make this house of Adham holy by the dust of your feet and make it fruitful. Everyone supported the prayer of that gentleman! Bhaktavatsal Prabhu agreed and he got ready to go. Prabhu was keeping his hand on Sanatan ji’s shoulder. Chandrashekhar, Tapan Mishra and two or four other devotees were walking behind. After reaching the door of the house, the Lord removed his hand from Sanatan ji’s shoulder, he slowly reached the ground with a low look. The servant immediately proceeded to wash the feet of the Lord with water. Prabhu washed his feet by dragging his feet with hesitation and sat down in the mud near the cesspool with a confused feeling.
There was silence in the hermitage. Everyone forgot to read the scriptures. Everyone started looking towards the Lord with a strange feeling. Everyone was astounded by the fact that a young monk of the age of thirty-thirty-two years of age with extremely dazzling beauty, without any pretense, silently sat beside the cesspool. Prabhu’s body was very soft, his beard and mustache were very little, they were bent completely, that’s why he looked like a sixteen year old boy. Like the petals of her rose, her two small azure colored lips were shining from a distance because of their intense redness. Prabhu was sitting quietly with his head bowed without looking at anyone. All the sannyasins present started saying something about the Lord, some with the gesture of the finger, some with the sign of the brow, some with a very loud voice. Prakashanand ji understood that this is Mahaprabhu Chaitanya Dev after seeing his brightness, beauty, humility, decency and influence. But in order to maintain his reputation in front of everyone, the householder asked the Maharashtrian gentleman – ‘Where has this Swamiji come from? He said softly – ‘This is the same Bengali Swami ji, about whom I had told you.’
Expressing happiness, Prakashanand ji said – ‘Oh! This is Shri Krishna Chaitanya Bharti. We have been hearing his praise for a long time. Had a lot of darshan today. (Aiming at Lord) Why are you sitting there, come here. It doesn’t suit you to sit there. Prabhu answered softly with his head down – ‘ God! I belong to an inferior community, how can I sit equal to you. I am sitting right here. Seeing the simplicity and humility of Prabhu, Prakashanand ji became mesmerized. When Prabhu did not get up from his place even after saying two or three times, then Prakashanand ji himself got up and took Prabhu’s hand and made him sit on the throne in front of him. With extreme hesitation, Prabhu sat down shrinking showing helplessness. Prabhu was slowly chanting the names of the Lord. Just as the petals of a lotus move when the wind touches the Lord’s name, in the same way, both the limbs were moving like a bimbaphal. Prakashanand ji said while teasing the context with the desire to talk something – ‘Swami ji! I want to make a complaint to you; You came first and left without meeting me. The relatives of saints are only saints. You had a monastery in Varanasi, instead of coming there, you stayed at the house of householders and did not even meet me. It seems you don’t consider me your own.’
Prabhu did not answer anything to this. At the same time a flirtatious young monk softly said – ‘Maun Swikritilakshanam’. On hearing this, there was a loud commotion in the community of monks. When everyone became silent, the Lord slowly said in a voice of shame – ‘ What face should I bring in front of you teachers. I didn’t consider myself capable enough to have your darshan, that’s why I didn’t come.’ Changing the matter, Prakashanand ji said- ‘You have taken retirement from Keshav Bharti of Katwa, haven’t you? The Lord said softly – ‘Yes, he is my Dikshaguru’ Prakashanand ji said after a while – ‘ I want to ask one thing, if you don’t mind, let me ask.
‘ The Lord said in a voice of humility – ‘ What are you talking about, you will only ask about my welfare. You are a teacher, always want welfare.
Prakashanand ji said- ‘Yes, I want to ask that the main religion of a monk is that he should always keep thinking about Vedanta while living on alms. Always think about the futility of the world which seems to be from this truth through the words of close men, from the evidence of the scriptures. Why are you chanting this name of Hari leaving the thought of Vedanta?
The Lord humbly said – ‘ God! My Gurudev has given me the same advice. Considering me to be an unauthorized person of Vedanta Shastra, he preached this mantra and ordered me to chant it. He had said- there is no other easy means in Kaliyug-
The name of Hari, the name of Hari, the name of Hari alone. In Kali there is no other movement.
That’s why I started chanting it day and night. Due to continuous chanting or due attention to this, my mind got some kind of heat. I became insane, nothing seemed to be going well again and again. Tears started flowing from your eyes. Then I got scared and I asked Guru Maharaj – ‘ God! What kind of mantra did you give me? This made me mad. ‘ Then that Guru Maharaj told me some verses of Shrimad Bhagwat – ‘ This situation is not bad. This is auspicious sign. You go on chanting like this. ‘ Therefore ‘ God! From that day onwards, I always keep chanting this. Think of it as a practice or practice of chanting regularly, I have become so attached to this name that even if I try to leave it, it does not leave.’
After listening to the Lord, avoiding the matter, Prakashanand ji started saying – ‘It is very good to recite the name of Hari. In Kalisantaran-Upanishad, great glory of God’s name is written, but why are you indifferent to Brahmasutras? Why don’t you believe in Vedanta philosophy? With humility the Lord said – ‘ God! Who would be such a believer man who believes in the Vedas, who does not believe in the Brahma sutras of Lord Vyas Dev ji? ‘ Prakashanand ji said-‘ Impersonal Brahma has been rendered in the Vedanta Sutras. By not thinking of the impersonal Brahman through ego-worship, to remain engrossed in dancing and singing is tantamount to disobeying the Vedanta Sutras.’
The Lord said- ‘I do not believe that Lord Vyasa has rendered only the impersonal Brahman in the Brahmasutras. My opinion is such that it must have been the description of Brahma with its special qualities.
Somewhat startled and looking at the sannyasins around, Prakashanand ji started saying – ‘What kind of unethical thing you are saying? In each sutra of Brahmasutra, impersonal Nirguna Brahma is propounded. Lord Shankaracharya has described it in detail in his commentary. Have you not read Sharirak Bhashya or do not believe in Shankaracharya at all?
The Lord said – I have heard the commentaries on the body from Shri Sarvabhaum Bhattacharya and have also understood something according to my little intelligence. Who would not believe in Jagadguru Shankaracharya? He is the Adi Acharya and the universal Guru of the ten famous Shankar Sampradaya. I have full faith in his holy feet. Prakashanand ji said- ‘It is not acceptable that you say things against his commentary. Shankar Bhagwan has understood the real feelings of Vyas Bhagwan, he has described the same Nirguna Nirspecial Titleless unbroken entity in the entire Bhashya. When the world is nothing in reality and when there is no difference between Jiva and Brahman, then how can there be praise? Whose humility and prayer? All are eternal, pure, Buddha, free Brahmaswaroop. There is nothing other than Brahman, whatever is perceived, like the things of a dream, is all false.’
The Lord said- ‘Lord Vyasa himself has commented on the Brahma Sutras and he got peace only after doing that comment and since then he has stopped writing anything else. Shrimad Bhagwat is the indisputable commentary of the Brahma Sutras. This is the last work of Lord Vyas Dev, whatever has been said in it is the most valid.[1] You are the master of all scriptures, tell me exactly in Shrimad Bhagwat whether impersonal Brahma is the priority or in person Shri Krishnachandra has been described as special Purna Brahm Paramatma. ?
Prakashanand ji said- ‘Yes, it is true that Lord Vyas Dev has created Shrimad Bhagwat by taking the essence of all the scriptures. By the advice of Shri Narad ji, he has also attained ultimate peace by describing the pastimes of God and for the soul-conscious sages, he has indicated the reason for doing devotion to God in the beginning of the book-
The sages of Atmarama and Nirgrantha are also in the Urukrama. They perform unreasonable devotion to the Supreme Personality of Godhead, the Supreme Personality of Godhead.
That is, ‘The divinity in God’s qualities is such that no matter how ignorant Atmaram Muni may be, they also worship God without reason. ‘I agree to this point, but Lord Shankaracharya, who has considered only the impersonal Brahman as secondary and the ultimate achievement, why this? That is my doubt.
Prabhu said- ‘Lord Shankaracharya knew Shrimad Bhagwat as well, he had utmost devotion towards Bhagwat. It was also known that Shrimad Bhagwat was revealed by Vyas Dev ji and its propounder is especially Sachchidanandaswarup Shri Krishna. Still, giving importance to the impersonal Brahman in his commentary, he has considered him as the ultimate goal! This is his greatness. No one else can do such courage except great men. He has done this only for the welfare of the people.
Prakashanand ji said- ‘What public welfare is there in destroying the meaning of the sutras?’ The Lord said softly – ‘ God! How is meaning and how is disaster? All these are disorders of the intellect. Can the real substance be expressed by words or can it be accomplished by logic? Real things are experiences. Apply some meaning to a post, all is well. Is there anything other than cleverness in applying meaning? Meaning, applying, giving lectures, commentaries and composing books, all this is the work of worldly intelligence, can there be little freedom from this? Only to entertain people.
Prakashanand ji said- ‘Yes, tell me, with what thinking Lord Shankar destroyed the world completely and considered the impersonal Brahman as the supreme element?’
The Lord slowly said in a sweet voice – ‘ God! The presence of doubt or logic is the result of ignorance or sins committed in previous births. Blessed are those Mahabhag men who do not have any doubt in the existence of God. They think of God as the omnipotent and all-pervading and witness of the ever-moving world. It is not necessary for them to read, write, talk and meditate. The one who always behaves considering God as everywhere and having God-intelligence in everyone, will never be able to do anything untoward. The weight of books is a sign of ignorance. Those who do not believe in the omnipresence of God, in whose mind various kinds of doubts always arise, there are scriptures only for them to make their rational intelligence reverent through the scriptures. If till the end the intellect remains trapped in logic, then reading the scriptures is futile, the result of reading the scriptures is to become a devotee by going beyond reason. The one who is logical, the same scripture is required for him.
There are two types of men – one is heart-oriented, the other is brain-oriented. Heart dominant are less, brain dominant are more. Brain-oriented people don’t believe anything without logic. Just as the antidote for poison is poison, and the burn of fire is cured by fire itself, in the same way, the intellect of the rationalists should be defeated by reason only. While reasoning, the intellect should be taken to such a subtle subject that there is no power left for the intellect to go ahead. By reasoning, the gross intelligence becomes subtle and only the subtle intelligence can move towards the ultimate goal.
Lord Shankar has described Bhagvatattva through logic and tricks with such a quality that even the heaviest logician cannot move forward from there. Truly Lord Shankar has put an end to logic. The only purpose of hearing and reading Vedanta is that those whose intellect is logical, make it subtle and refined through it and make it a destination for God. It is not the goal to always be trapped in arguments, because the path of God is beyond reason.
There is a world of difference between ignorance and faith. Arguments do not arise even to the ignorant; But he can only move a little towards Paramarth, unless he has true faith. And one who has faith in his heart can never remain ignorant; Because true faith happens when the thought comes to an end. Where the arising of logic and doubts are the result of sins committed in the past, there it is also a great sin to suppress logic when it arises, like the lazy and ignorant. He cannot be such a lazy benefactor. He pretends to be a devotee without being a real devotee and God stays far away from a pretender. Doubts do not arise in the minds of those who are heart-oriented, sentimental and simple. They always want to hear the praise of their beloved. He has no interest in the attainment of the special or the impersonal. Keep on doing devotion. Whatever it is like, special or non-special, it will appear on its own. For him only the feet of Shri Krishna is the truth. Whether the world is true or false, it does not matter to him.
Prakashanand ji said – Then it became arrogant that they think they are something else and prove something else. Lord Shankar does not consider this world as truth even in Trikaal, he considers it to be an illusion full of illusion of indescribable Brahman. How can those who believe in this specially ask to worship Brahma?’
The Lord said – ‘What will you say? They have done it themselves, can anyone stop the heartbeat? There is no world, we are only Brahma, these are the thoughts of the brain, at least ask their heart. They themselves say-
O lord I am yours and you are not mine The ocean is a wave: sometimes the ocean is not a wave.
Even if there is no difference between Jiva and Brahman, still O Nath! I am yours, you yourself are not mine, everyone says ‘waves of the sea’, but no one says the sea of waves like this.’ These are the words of that great man who had been proving the unity of Jiva-Brahm throughout his life.
With astonishment, Prakashanand ji said – ‘This is the humor of Acharya, as if it is a fictional world, in the same way he has given this thing. In fact, when the world does not exist, then what kind of humility and what kind of prayer? One should always practice considering himself as Brahman.’ The Lord said – ‘ God! It is right for you to say this, but I repeat the same thing again that it is a matter of pacifying the mind which is disturbed by the world. True peace comes from the sigh of the heart. When, forgetting all arguments, one prays humbly like Lord Shankaracharya in solitude, then only the heart can get true peace. Acharya-Charan prays to the Lord in his famous Shatpadi-
He always descended to the earth by incarnations like fish O lord you are protecting me and I am afraid of you
Lord Shankaracharya, who does not accept the world as truth even in Trikaal, says – You always maintain the earth by taking the incarnation of a fish. Oh, Lord! Satisfied with the heat of the world, I have come to your shelter, you protect me. This is the voice of the true heart.’ Prakashanand ji said- ‘In reality this world is unreal and the soul itself is Brahman. But for those who do not understand this and consider the unreal world as truth, as Lord Shankar has accepted the practical power of the world, in the same way this is a practical prayer. By the way, liberation is the ultimate goal of the soul and as soon as the illusion is removed, this ignorance is destroyed and as soon as the ignorance is destroyed, the soul becomes the form of Brahman. Whatever happens, he realizes his true nature.
The Lord said with utmost humility – ‘ God! You are knowledgeable, pundit, scholar, we all have a teacher. What can I say in front of you? But I will say again, it is not a matter of the heart. Sophisticated nature of thoughts, God! Love is the true form of Brahman. The attainment of love is the ultimate goal of the soul. That is not the thing to do. It is not sung by words, it is done by the heart, it is not said, it is experienced, it is not accomplished, it is self-evident; No one can achieve it by means, it is achieved only by the grace of God. I say again that Lord Shankar has composed the description of the body only for the purpose of making the intelligence of the brain-oriented men extremely subtle. Their heart considers salvation etc. in front of God’s love as insignificant. They themselves say-
They seek some fruit every day for the worship of desire Some attain heaven and liberation, others by yoga and sacrifice: Our Yudanandanad.ghri pair of meditation seekers What is the use of restraint in this world? What is the use of a king? What is the use of liberation from heaven?
‘Many people seek the desired results by worshiping with many wishes every day, some people desire heaven through Yagya-Yagadi. Many pray for salvation through Yogis, but we have the desire to engage ourselves readily in the meditation of the devotees of Lord Krishna. What do we have to do with the better worlds? What do we have to do with becoming a king, with heaven and even with salvation? Let us always remember the feet of those Arun Varna!’ Prabhu’s throat choked while reciting this verse. All sattvik disorders arose in his body. He tried to cover his feelings, but he could not do so. The Lord’s eyes went up. The body started sweating. Fainting, he rolled there with the help of a pillow. Prakashanand ji was surprised to see his condition and started fanning him with his own clothes. Prabhu’s words and his wonderful condition had a deep impact on all the sannyasins present. At the same time many started dancing by chanting ‘Hari-Hari’. There was an uproar in Prakashanand ji’s heart as well. His mind was saying again and again- ‘You fool! To remove your ignorance, Shri Hari is present in front of you dressed as a monk, why don’t you apologize for your past sins by holding his lotus feet. ‘But the greed of such a huge prestige was not yet completely destroyed from his heart. He had become a slave at the feet of the Lord from his heart. At the same time, he had dedicated his heart to the holy feet of Shri Krishna Chaitanya-namdhari Hari, but he was saving his body for the sake of public. At the same time the Lord regained consciousness. He moved away from the pillow in some shame and sat on one side. At the same time there was a call for food, everyone sat down to eat. Prabhu very hesitantly received alms sitting with the ascetics. In the end, after doing proof at the feet of Shri Prakashanand ji, he went to Chandrashekhar’s house along with the devotees.
respectively next post [144] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]