सूर्य को अगर विज्ञान की नजर से देखें तो भी वह भगवान से कम नहीं क्योंकि सूर्य के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। सूर्य की पूजा वैदिक काल से हो रही है। वेदों और ऋचाओं में सूर्य देव की स्तुति की गई है, लेकिन मन में हमेशा ये बात उठती है कि सूर्य की उत्पत्ति आखिर हुई कब? क्या हैं उनकी उत्पत्ति का रहस्य। शास्त्रों में वर्णित है कि सृष्टि के प्रारंभ में ब्रह्मा जी के मुख से ‘ऊँ’ शब्द का उच्चारण हुआ था और यही सूर्य के प्रारंभिक सूक्ष्म स्वरूप था। इसके बाद भूः भुव तथा स्व शब्द उत्पन्न हुए। ये तीनों शब्द पिंड रूप में ‘ऊँ’ में विलीन हए तो सूर्य को स्थूल रूप मिला। सृष्टि के प्रारम्भ में उत्पन्न होने से इसका नाम आदित्य पड़ा। तो आइए जानें कैसे भगवान सूर्य यानी आदित्य का जन्म।
ऐसे बने आदित्य
ब्रह्मा जी के पुत्र मरिचि और मरिचि के पुत्र महर्षि कश्यप का विवाह प्रजापति दक्ष की कन्या दीति और अदिति से हुआ था। दीति से दैत्य पैदा हुए और अदिति ने देवताओं को जन्म हुआ था। तभी से दैत्य और देवताओं के बीच लड़ाई शुरू हो गई थी। इस लड़ाई को देखकर देवमाता अदिति बहुत दुखी रहने लगी और वह सूर्य की उपासना करने लगीं। उनकी आराधाना से सूर्य देव प्रसन्न हुए और उन्हें पुत्र के रूप में जन्म लेने का वरदान दे दिया। कुछ समय पश्चात उनके गर्भ से तेजस्वी बालक यानी भगवान सूर्य ने जन्म लिया। बाद में उन्होंने असुरों का नाश किया। अदिति के गर्भ से जन्मके कारण उनका नाम आदित्य पड़ा था।
जानिए सूर्य की जन्म भूमि, गोत्र और जाति
सूर्य की जन्मस्थली कलिंग देश मानी जाती है। शास्त्रों में वर्णित है कि उनका गोत्र कश्यप और जाति ब्राह्मण है। सूर्य को प्रसन्न करने के लिए कुछ खास चीजें बहुत मायने रखते हैं। जैसे गुड़, गुग्गल की धूप, लाल चन्दन, अर्क की समिधा और कमल के फूल।
उनका सारथी है लंगड़ा
सूर्य के रथ में केवल एक पहिया है और ये संवत्सर कहलाता है। इस रथ को सात अलग-अलग रंग के घोड़े इसे खींच रहे होते हैं। खास बात ये है कि इस रथ का सारथी लंगड़ा, मार्ग निरालम्ब है, घोड़े की लगाम की जगह सांपों की रस्सी है।
श्रीमद्भागवत् पुराण में सूर्य के रथ का एक चक्र(पहिया) संवत्सर हेाता है और इसमें मास रूपी बारह आरे होते हैं, ऋतु रूप में छह नेमिषा है, तीन चौमासे रूप नाभि है। रस रथ की धुरी का एक सिरा मेरूपर्वत की चोटी पर है और दूसरा मानसरोवर पर्वत पर, इस रथ में अरुण नामक सारथी भगवान सूर्य की ओर रहता है।
दो पत्नियां और 10 पुत्र हैं –
भगवान् सूर्य की दो पत्नियां हैं संज्ञा और निक्षुभा। संज्ञा के सुरेणु, राज्ञी, द्यौ, त्वाष्ट्री एवं प्रभा आदि अनेक नाम हैं तथा छाया का ही दूसरा नाम निक्षुभा है। संज्ञा विश्वकर्मा त्वष्टा की पुत्री है। भगवान् सूर्य को संज्ञा से वैवस्वतमनु, यम, यमुना, अश्विनी कुमार द्वय और रैवन्त तथा छाया से शनि, तपती, विष्टि और सावर्णिमनु ये दस संतानें हुई।
ऐसा है स्वरूप –
सूर्य सिंह राशि के स्वामी हैं। इनकी महादशा 6वर्ष की होती है। प्रिय रत्न माणिक्य है। सूर्य की प्रिय वस्तुएं सवत्सा गाय, गुड़, तांबा, सोना एवं लाल वस्त्र आदि हैं। सूर्य की धातु सोना और तांबा है। सूर्य की जप संख्या 7000 है।
सूर्य भगवान का बीज मंत्र
‘ऊँ ह्रां ह्रीं ह्रौं सः सूर्याय नमः’ है। वहीं, सामान्य मंत्र- ‘ऊँ घृणि सूर्याय नमः’ है। यदि सूर्य निर्बल हो तो नित्य सूर्य उपासना, सूर्य को अर्ध्य देने से, रविवार का व्रत करने से और सूर्यदेव के नित्य दर्शन करने से सूर्यदेवता प्रसन्न और बली होते हैं।